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जौंइ

जौंइ

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बड़ी उम्र होते -होते बचपने की तरफ़ दौड़ता है मन ! मुझे भी उम्र के बढ़ने के साथ बीते ज़माने न जाने कैसे याद आने लगे हैं ,अपने बालपन के खिलंदड़े दिन !

हाँ ,शिवकुमार मामाजी ,माँ के ममेरे भाई ---और अपने तो कोई भाई -बहन थे ही नहीं माँ के ! तो जो थे ,वही ऊपर वाले की कृपा !

सो ,मामा के बच्चों से ही जो थोड़ा-बहुत संबंध था ,बस वही ---

नहीं, सबसे शिवकुमार मामा जी जैसा थोड़े ही था माँ का नेह-स्नेह !शिवकुमार मामा से कुछ ज़्यादा ही करीब थीं माँ !

हाँ जी, तो हमारे शिवकुमार मामा जी उस समय रुड़की विश्वविद्यालय में इंजीनियरिंग में पढ़ रहे थे और एक-दो दिन की छुटियों में अपने घर जाने की जगह हमारे घर दिल्ली आ जाते थे |

इसका एक बड़ा कारण यह भी था कि मामा जी की अपनी माँ यानि अम्मा की मामी की मृत्यु उनके जन्म लेते ही हो गई थी |

उन्हें पाला-पोसा उनकी मौसी ने था जो वास्तव में उनकी सगी ताई भी थीं |

यानि एक ही घर में दो बहनें ब्याही गईं थीं | उन मौसी /ताई के अपने भी कई संतानें थी ,उन्हीं में मिलजुलकर शिवकुमार मामा जी भी बड़े हो गए |

मामा जी काफ़ी ज़हीन थे ,इधर उन्हें रुड़की विश्वविद्यालय में इंजीनियरिंग में प्रवेश मिला और उधर उनकी शादी की बात चला दी गई |

मामा जी बड़े परेशान ! न लड़की देखी न भाली ,न ही स्वभाव से परिचित ! शादी कर लो ----आखिर पूरे जीवन का सवाल था भई !

मामा जी की और मेरी दोस्ती एकदम पक्की वाली थी | जब वो इंजीनियरिंग में पढ़ते थे तब मैं शायद पाँचवी/छटी में रही होऊँगी या फिर और भी छोटी !पर बातें सारी याद हैं | कहते हैं न एक उम्र में आदमी पीछे लौटने लगता है ,वर्तमान की बात याद नहीं रहती और पीछे का चलचित्र घूमने लगता है |अब समझ भी जाइए भाई! होता है ,सबके साथ होता है | आपके साथ भी होगा ---

ख़ैर, मामा जी के आने की प्रतीक्षा अम्मा के साथ मुझे व मेरे दोस्तों को भी बनी रहती | वो मेरे साथ खूब खेलते थे | दिल्ली के 18 नं के ब्लॉक में आगे लॉन में बिछी हुई हरी दूब पर वो मेरे और मेरे दोस्तों के साथ पकड़म-पकड़ाई,बॉल ,रिंग खूब खेलते |उन्हीं दिनों मैं कत्थक सीख रही थी | मामा जी मेरे लिए 'हुल्लाहुप' का बड़ा सा घेरे वाला रिंग लेकर आए थे और कत्थक के गुरु जी ने हमें उसे गोल-गोल घुमाते हुए कत्थक की मुद्राओं के साथ 'मोहे पनघट पे नंदलाल छेड़ गया रे','जा तोसे नहीं बोलूँ कन्हैया'जैसे कई गाने सिखाए थे | मामा जी मेरी नकल करते हुए अपने हाथों को मेरे जैसी मुद्रा में बनाकर 'तत तत थई' करते और माँ व पापा का हँसकर बुरा हाल हो जाता |

लंबे -चौड़े शरीर वाले साँवले-सलोने ,मूँछों वाले मामा जी जब अपना मज़बूत पैर ज़मीन पर मारते ,पापा यह कहना न भूलते ;

"देखके शिव ,सरकारी ज़मीन है | कोई शिक़ायत कर देगा कि हम कुछ तोड़-फोड़ कर रहे हैं ---हा--हा ---हा ---"

अम्मा मामा जी का पक्ष लेतीं ;

"क्यों नज़र लगा रहे हैं मेरे भाई को ? " अम्मा अपने भाई के सलोने मुखड़े और सुंदर डीलडौल पर क़ुर्बान रहतीं |अम्मा -पापा तो छोटे-छोटे कद के नाज़ुक से थे सो अम्मा को बहुत प्यारा लगता अपने मज़बूत भाई का बच्चों सा व्यवहार | वैसे भी अम्मा-पापा के लिए तो बच्चा ही थे वह !

कभी भी मुझसे ऊपर की जगह बैठ जाते और मुझे अपने से नीचे बैठे हुए देखकर चिढ़ाते ;

"राजा राजा ऊपर --भंगी-भंगी नीचे " फिर मेरा उनसे ऊँची कुर्सी या स्टूल ढूँढना या फिर सोफ़े के हत्थे के ऊपर चढ़कर उन्हें यह दिखाने की कोशिश में माँ या पापा से गिरने के डर से डाँट खाना तो ज़रूरी था ही | मामा जी कौनसा डाँट खाने से छूट जाते थे |

"तू भी बच्चों में बच्चा बन जाता है शिव --अरे ! उसे तो अक़्ल नहीं है ,गिर गिरा गई तो और मुसीबत !"

उन्हें अम्मा -पापा की डाँट का कोई फ़र्क नहीं पड़ता था,कुछ देर लटका लेते चेहरा ,थोड़ी देर बाद वही ढाक के तीन पात !

"अरे ! कहाँ भैंस के आगे बीन बजा रही हो ?" पापा हँसकर कहते ;

"भाई है तुम्हारा --- भाई---"

"तो--तभी तो इतना लायक है ---" अम्मा चुप कैसे रहतीं भला !

लॉन में लगे हुए सी/सा पर मामा जी एक तरफ़ खुद बैठ जाते तो दूसरी तरफ़ दो-तीन बच्चों को अपने बैलेंस के लिए बिठा लेते | फिर खूब देर तक झूलते रहते | मस्तमौला थे मेरे इंजीनियर मामा जी!अपने सपनों में कोई अपने जैसी ही खिलंदड़ी कन्या समाए रहते | मैं बच्चों के साथ मिलकर उन्हें खूब चिढ़ाती ;

बारात लेकर जाएँगे ,

मामी लेकर आएँगे |

"बीबी ! मुझे अभी ब्याह-व्याह नहीं करना ---" वो अम्मा को बीबी कहते | दरसल तब बहनों को बीबी ही कहा जाता था ,वो भी विशेषकर बड़ी बहनों को |

छोटी के तो नाम से बुलाओ ,कोई तकलीफ़ नहीं | हाँ ! बड़ी बहन को नाम से कैसे बुलाया जा सकता है ? घर के बड़े-बुज़ुर्ग सेवक तक को भी चाचा,मामा भैया कहकर पुकारा जाता |

अधिकतर सभी जगहों पर ऐसा ही होता है ,छोटी का नाम और बड़ी जीजी,जिज्जी ,भैनजी ,या फिर अब दीदी हो गई हैं |

बात तो मामा जी की हो रही है ,शिवकुमार मामा जी की ,जो इर्रिगेशन में एक्सिक्यूटिव इंजीनियर हो गए थे --पर वो तो बाद में |पहले तो वो मामा थे,मेरे प्यारे शिवकुमार दोस्त मामा !मुझे क्या पता था इंजीनियर होना उन दिनों में बहुत बड़ी बात होती है ,पैसे वाले घरों की लड़कियों के रिश्ते बारिश की बूँदों से टप-टप टपकते हैं | मामा जी की कद-काठी भी बहुत शानदार,जानदार थी | व्यक्तित्व भी बड़ा रौबीला ,प्रभावित करने वाला | सुंदर,सलौने मुखड़े के पीछे विश्वविद्यालय की कई युवतियाँ दीवानी थीं | पर भैया ,आज का ज़माना थोड़े ही था कि आँखें चार हुईं और रजिस्ट्रशन के लिए अर्ज़ी दे दी गई | तब तो जब तक बड़े-बूढों का अँगूठा न लग जाए तब तक शहनाई बजने की नौबत ही कहाँ आती थी ?

बहुत मुश्किल होता था माँ-पिता के सामने यह सब खुलकर कहना |

चालीस/पैंतालीस वर्ष पहले इन पदों का खूब रौब हुआ करता था | सरकारी नौकरी और इंजीनियर का पद यानि सोने में सुहागा !

साहब लोगों को तनख़्वाह उस समय के हिसाब से मिलती थी लेकिन बावर्ची से लेकर ड्राइवर सहित सरकारी गाड़ी के साथ एकअलग ही दुनिया का दिखाई देता यह वर्ग ! कुछ रौबदाब वाला !जिनकी चर्चाएँ खूब होतीं | साथ में सजी-धजी मेम सी पत्नियाँ भी साहब की बगल में होतीं | हो सकता है शिवकुमार मामा जी की यौवन भरी आँखों में भी कोई ऐसा ही सपना टहलता रहा हो |

मामा जी काफ़ी ज़हीन थे ,इधर उन्हें रुड़की विश्वविद्यालय में इंजीनियरिंग में प्रवेश मिला और उधर उनकी शादी की बात चला दी गई |

मामा जी बड़े परेशान ! न लड़की देखी न भाली ,न ही स्वभाव से परिचित ! शादी कर लो ----आखिर पूरे जीवन का सवाल था भई !

कैसे ब्याह करें ? अपने पीर बाँटें भी किससे?कोई सुन भी ले तो समझने वाला तो था ही नहीं कोई| मुल्ला की दौड़ मस्ज़िद तक --यानि हमारी माँ !एक ही दिखाई देता उन्हें, उनकी बीबी ! जो पढ़ी-लिखी थीं ,कॉलेज में लेक्चरर थीं ,वे समझ सकती थीं अपने छोटे भाई की मनोदशा !

बस --मामा जी उनके पास ही झींकते हुए चले आते और किसी तरह अपनी शादी रुकवाने की बात करते रहते |

माँ ने कोशिश तो की थी लेकिन बात कुछ बनी नहीं ,माँ के लिए भी उनके मामा लोगों के सामने अधिक मुह खोलना उदंडता ही होती | करती तो रहीं माँ,सुगबुग सी कुछ पर ----

और --मामा जी के हाथ पीले हो गए | तब तक उनकी जूनियर इंजीनियर की नौकरी भी उत्तर-भारत के अलीगढ़ में लग चुकी थी |मामी जी का घर में प्रवेश हो चुका था| मामा जी के उनींदी आँखों के सपने लाल साड़ी में लिपटी गज भर घुँघटे में लंबे-लंबे डग भरती लंबी मामी के वृत्त में चक्कर काटने लगे थे |

खूब हरे-भरे घर की लाड़ली बिटिया थीं चंद्रमुखी मामी जी और सच में चंद्रमुखी ही थीं | गोरा चिट्टा रंग जिस पर लाल कश्मीरी सेब से गाल,और मामा जी के अनुरूप ही खूब लंबी चौड़ी|स्वस्थ्य शरीर वाली ! उनकी चाल भी बड़ी दमदार थी और मामा जी को घूँघट में लिपटकर चलती अपनी पत्नी को देखकर रोना आता था जिनमें उन्हें कोई फूल सी कन्या की नज़ाकत के कहीं से भी दर्शन नहीं हुए थे |

खूब दान-दहेज़ लेकर आईं थीं मामी ,और सबसे बड़ी बात वो एक शानदार ,ठसकदार घरघराती बुलेट लेकर आईं थीं जो मामा जी के व्यक्तित्व से बहुत मैच करती थी | मैंने मामा जी को चुपके-चुपके कई बार उस पर बड़े प्यार से हाथ फिराते हुए देखा था |

वैसे मामा जी के पिता यानि माँ के मामा जी के लिए अपने एकमात्र सुपुत्र को बुलेट दिलवाना क़तई मुश्किल नहीं था ,मामा जी ने कॉलेज-लाइफ़ में कई बार उन्हें इशारे में कहा भी था लेकिन भाई शादी में फिर जो बाइक आती ,उसका क्या होता ? वो तो प्रतीक्षा कर रहे थे उनके विवाह की सो करवा दिया गया और बुलेट भी आकर द्वारे खड़ी हो गई |

मामा जी के जो तयेरे या मौसेरे भाई-बहन थे उन्हें भी तो कुछ दिलवाना पड़ता जब कि इस बुलेट पर तो केवल उनका अधिकार था ,कोई चलाने को लेता भी तो उनसे माँगनी पड़ती उन्हें ! मामा जी का चौड़ा सीना और भी चौड़ा हो जाता |

ख़ैर, सुदर्शन चंद्रवती मामी जी ने पूरे ठसके के साथ ससुराल में प्रवेश किया था ,वे अपनी बड़ी हूँफ में रहतीं |

"देख शिव ! अब तेरी शादी हो गई है ,अब ये खिलंदड़पना छोड़कर चंद्रवती का ध्यान रखना ----" माँ उन्हें अपने अनुसार कई बार समझातीं | बेचारे मामा जी चुपचाप बड़ी बहन की बात सुनते और उसके अनुसार व्यवहार भी करते| लेकिन मामी जी की भाषा व उनके व्यवहार से वे बड़े पीड़ित रहते |

समयानुसार मामी जी तीन बच्चों की माँ बन गईं | मामा जी का घर पर आना-जाना वैसे ही बना रहा लेकिन उनके भीतर का बच्चा सच में ही बड़ा होने लगा था | वैसे भी उम्र व अनुभव आदमी को बदल ही देते हैं |

मैं भी कॉलेज में आ गई थी लेकिन हर छुट्टियों में माँ के साथ मामा जी के यहाँ जाना होता रहा |मुझे देखते ही जैसे उनके मन का बच्चा बाहर आने को मचलने लगता |

"देख शिव ! तेरे विभाग में इतनी पार्टियाँ होती रहती हैं ,सब अपनी बीबियों को ले जाते हैं ,तू चंद्रवती को क्यों नहीं ले जाता ---?"माँ की शिकायत वाजिब थी | कई बार तो मामा जी पार्टी में जाने से बचने के लिए बहाने बनाते देखे गए थे |

"बीबी ,कोई शऊर तो हो --बताओ क्या लेके जाऊँ ?"

मामी के पास न कपड़े-लत्ते की कमी होती ,न ही ज़ेवर की लेकिन उनकी कुछ भी,कैसे भी ,कभी भी बोलने की आदत पर टेप कौन लगा सकता था ?कौन उनकी मर्दानी चाल को नज़ाकत में बदल सकता था ?

माँ के कई बार कहने से मामा जी पत्नी को कई जगह लेकर भी जाते लेकिन वहाँ से निराश होकर ही लौटते | चंद्रवती मामी जी बिना मुख से चाशनी टपकाए न रहतीं |

'जौंइ' उनका पैट वर्ड था |हर संवाद में इसे लगाए बिना उनकी बात पूरी न होती |

"जे जौंइ करा करें ---जौंइ हुआ करै "मामी जी के संवादों में कुनमुनाता ही रहता |

दिन भर में कम से कम बीस बार मामी जी अपने प्यारे 'जौंइ'का प्रयोग करतीं | उनकी बात सुनकर मामा जी का मुखड़ा पेंट की गई तस्वीर बन जाता |

'वाह भाई मामूजान ! बीबी नापसंद और बीबी के साथ आई बाइक पर तीरे-नज़र !' मैं मन ही मन सोचती | तब तक बड़ी भी होने लगी थी सो समझदारी का पल्लू पकड़ना सीख गई थी |

कुछ वर्षों में मामा जी का स्थानांतरण उत्तर-प्रदेश में ही विभिन्न स्थानों पर होता रहता था | छुट्टियों में जहाँ मामा जी होते वहीं मेरा व माँ का काफ़िला जा पहुँचता |

माँ के बार-बार कहने पर मामा जी ने मामी को अपने साथ ले जाना शुरू कर दिया था | मामी सजतीं-धजतीं ,मामा जी के साथ कार में ठसके से जातीं |बरसों बाद मामा जी ने सब कुछ स्वीकार लिया था |लेकिन उनकी पीड़ा माँ के सामने मुखरित हो ही जाती |

उनके बच्चे भी बड़े हो रहे थे | मेरा विवाह हो चुका था | दो बच्चों ने मुझे माँ बनाकर गरिमा प्रदान कर दी थी | तब भी छुट्टियों में मेरा व माँ का मामा जी के पास जाने का वही कार्यक्रम बना रहा |

और सब तो ठीक था पर जब माँ मामी को कुछ समझातीं ,उन्हें पसंद नहीं आता था जो शायद स्वाभाविक भी था |

"मम्मा ---वो देखना नानी जी क्या कर रही हैं ?"एक बार मेरी तीन वर्ष की बिटिया ममी के कमरे से भागती आई |

"क्या हो गया ?"घबराकर मैं उसके साथ भागी |

"क्या हो गया चंद्रवती ?" माँ उनके कमरे में पहुँच गईं थीं |

"कुछ भी न हुओ --क्या होतो ---?" मामी ने निर्विकार भाव से उत्तर दिया |

वो कहीं जाने के लिए तैयार हो रही थीं और उनके हाथ में लाल स्याही बनाने वाली लाल टिकिया थी जिसे पानी में घोलकर उवो उस लाल स्याही की टिकिया से अपने होठ रंग रहीं थीं |उस ज़माने में नीली,काली,लाल स्याही बनाई जाती थी और उसे पैन में भरकर लिखा जाता था |

"अरे चंद्रवती ! ये क्यों लगा रही हो ,लाए तो थे तुम्हारे लिए हम चार लिपस्टिक्स ,वो कहाँ हैं ?" माँ से पूछे बिना रहा जाए |

"बीबी ! क्या आप भी गँवारो के लिए खर्चा करती रहती हो ?" मामा जी के अचानक प्रवेश से माँ सहम गईं | वो मामा जी के सामने इस तरह की बात नहीं करती थीं |

"जे जो छटंकी है न तुमारी --बड़ी चुगलखोर हैगी ---हम जो भी करैं तुमें क्या है?" मामी बिफर पड़ीं और नाराज़ होकर बैठ गईं |

मामा जी उन्हें लेने आए थे और वो बाहर जाने की तैयारी कर रही थीं लेकिन छोटी बच्ची को क्या मालूम था कि नानी जी नाराज़ हो जाएँगी |

माँ को दुःख हुआ ,इतनी छोटी बच्ची जो अभी साफ़ बोलना सीखी थी किसीकी चुगली कैसे कर सकती थी ? मामी जी के बच्चे बड़े हो रहे थे ,उन्होंने भी अपनी माँ को खूब समझाया लेकिन चंद्रवती मामी का चंद्र सा मुखड़ा सूर्य ही बना रहा | मामा जी भी रुआँसे होकर बैठ गए ,उन्होंने भी तबियत ख़राब का बहाना बनाकर फ़ोन कर दिया |

"जे सब जौंइ करा करें ---" बार बार एक मंत्र का जाप सा करती रहीं वो |

सोने पर सुहागा ,उस दिन कुक भी नहीं आया ,मामी को तो खाना बनाने की आदत थी नहीं ,सबके पेट में चूहे कबड्डी खेल रहे थे|जब बच्चे शोर मचाने लगे ,माँ और मैं रसोईघर में खाना बनाने पहुँच गए |

"हटो --आप दौनों हट जाओ --हमारा फरज हैगा ,हमही रोटी सकेंगे ,जौंइ हमें परेशान न करो ---"

मामी जी ने फटाफट आटा गूँथा ,पानी ज़्यादा हो गया तो और आटा डालती गईं और फटाफट न जाने कितनी मोटी-मोटी टिक्कड़ सी रोटियाँ बनाकर प्लेटफ़ॉर्म पर एक थाली में कोने में सरकाकर रख दीं |

"लो ---खा लेओ जिनके पेट मै घुड़दौड़ मच रई हैगी ---"

सब एक दूसरे का चेहरा ताक रहे थे और मामी जी आराम से गाऊन पहनकर बाग़ से आए हुए टोकरा भरे आमों में से आम निकालकर ,एक पानी भरी बाल्टी में उन्हें रखकर बरामदे के कोने में बैठकर चूसने लगीं थीं |

मामा जी ने ड्राईवर को भेजकर होटल से खाना मँगवाया तब कहीं सबका पेट भरा | मामा जी की नज़रें लगातार माँ पर टिकी हुईं थीं जैसे कह रही हों ,'देख लो बीबी ,पूरी उम्र बीतने पर भी ----'

अगले दिन सुबह कुक आते ही पिछली शाम की बनी रोटियाँ गाय को डालकर आया ,तब प्लेटफ़ॉर्म साफ़ करके उसने खाना बनाना शुरू किया |

"क्यों ---खा ना सको थे सारे ---के औरन के सामने जौंइ हमारी इज्जत पै बट्टा मारने मै बड़ा मजा आवै हैगा ---"

माँ -पापा के बाद मामा जी चले गए थे ,मामी अपने बेटे के साथ रह रही थीं |

कुछ दिन फ़ोन आया ;

"दीदी ! आपकी जौंइ चली गईं हैं ---" हाथ में फ़ोन पकड़े मैं चलचित्र सी पूरे जीवन की यात्रा कर आई थी |


डॉ. प्रणव भारती

pranavabharti@gmail.com

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