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चिरनिद्रा

चिरनिद्रा
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डाकघर में बैठी वह अपनी निस्तेज आँखों को यूँ ही इधर उधर घुमाने लगी।युवा चेहरे कम थे, उसके जैसे भी कुछेक ही ,अधिक चेहरे बेचारगी से मुरझाए हुए से ! जैसे उन चेहरों को ताउम्र ऊबड-खाबड रास्तों पर चलते हुए उनकी ऊर्जा का सारा सत निचोड़कर आशाओं को सूने कमरे की खूँटी पर टाँग दिया गया था ।काँपते हाथों से डाकघर के किसी फ़ार्म पर हस्ताक्षर करने के लिए डेस्क पर झुके हुए चेहरों के बदन भी कँपकँपा से रहे थे | किसी उम्रदराज़ के साथ कोई आया था तो कोई बेचारा लाठी टेकते हुए अकेला डाकघर की टूटी-फूटी सीढ़ियों से उतरकर आ रहा था | उसका मन कसैला हो आया ,यूँ तो हर पल ही उस अदृश्य शक्ति के प्रति नतमस्तक होती है फिर भी इस क्षण इन बुज़ुर्गों की दशा देखकर उसके हाथ जुड़ गए और उसने मन ही मन न जाने ईश्वर से कितनी प्राथना कर डाली ,ऐसा जीवन किसी को न दे ---कितनी बेचारगी भरी थी उन वृद्धों के व्यक्तित्व में !
बहुत कुछ खोता है मनुष्य इस जीवन में बात ठीक है किन्तु जो पाता है उसके लिए क्यों धन्यवाद अर्पण नहीं कर पाता ?हिचकता है नतमस्तक होने में ,वही याद रहता है जो उसे मिला नहीं ,भुनभुन ही तो करता रहता है | क्यों उसके प्रति हर पल कृतज्ञता स्वीकार नहीं कर पाता जो उसके पास कितनों से अधिक होता है ? हर पल दूसरों का ही सुख-चैन,धन-वैभव उसे ज़्यादा लगता है | अपने को सदा बेचारा ही पाता है | कितने ऐसे लोग हैं जिनके पास ताउम्र मशक्क्त करने के बाद भी उम्र की अंतिम अवस्था में खाना तक जुटा पाना कठिन होता है |
सामने क्लर्क की सीट पर बैठी लगभग पैंतालीस वर्ष की दुबली-पतली स्त्री लड़कीनुमा लग रही थी जिसके सामने आधे लोहे के जँगले की बाउंड्री के बाहर लगभग पंद्रह ,बीस लोग लाइन में खड़े थे ,अधिकतर सभी वृद्धावस्था की उस सीमा पर थे जिस पर शरीर कंपन करने लगता है,जैसे शरीर में कोई शीत लहर घुस गई हो | सर्दी तो थी पर कुछ ऐसी भी नहीं कि आदमी काँपने लगे | उन वृद्धों की कँपकपाँहट शायद सर्दी की---- नहीं उम्र की थी | उनको इस प्रकार देखना समिधा को पीड़ित कर रहा था |उसे महसूस होने लगा कि वह भी उसी उम्र के कगार पर आ खड़ी हुई है | उसकी कौनसी कम उम्र थी ?वह भी तो पचपन की कगार पर आकर खड़ी हो गई थी | कहाँ जानती थी वह बैंक,डाकख़ाना या इंश्योरेंस के दफ़्तरों के रास्ते ? जब तक उसके पति सुमोद थे ,उसे कभी ज़रुरत ही नहीं पड़ी कहीं जाने की ! उनके अचानक न रहने पर जैसे उसके पाँवों तले की ज़मीन निकल गई | कुछ दीन-दुनिया की ख़बर नहीं थी , न जाने कहाँ-कहाँ भटकना पड़ा उसे ! कभी कुछ शेयर ही नहीं किया था सुमोद ने उसके साथ ! कभी कोई भी पेपर सामने रख देते ;
"लो,साइन कर दो ---" वे उससे कहते |
" बताओ तो आखिर है क्या?" वह पेपर इधर-उधर से देखती हुई पूछती |
"अरे ! तुम साइन करो न ,क्या करोगी देखकर ----?" सुमोद कुछ इस तरह मस्तमौला अंदाज़ में जीते मानो ताउम्र उसकी ऊँगली पकड़कर चलेंगे,छोटे बच्चे की तरह !
पकड़े रहे भी थे शादी से लेकर पच्चीस वर्ष तक किन्तु जब जाने का समय आता है ,तब कौन रोक पाया है ? बीना भी आँखें पटपटाती रह गई और अच्छे-ख़ासे स्वस्थ्य,प्रफ़ुल्लित सुमोद बिना कोई पूर्व-सूचना दिए अपनी अंतिम यात्रा पर निकल लिए थे | जाने वाले का तो पता नहीं कहाँ जाता है? जो पीछे रह जाता है,असली परीक्षा उसकी होती है न? ज़िंदगी एक तीखी सूईं सी बनकर उसके शरीर में चुभती रहती है ,ताउम्र !
अच्छी-खासी शिक्षित बीना को कभी-कभी बेचारगी की हद तक अफ़सोस हो आता जब उसीके पति के डिपार्टमेंट की स्त्रियाँ एक-दूसरे से बात करतीं इस बार दिवाली पर किन किन चीज़ों के लिए एक्स्ट्रा पैसा मिल रहा है और यह भी कि किसीने कुछ खरीदा है तो किसीके कुछ खरीदने का प्लान बन रहा है | जिस सरकारी बड़े आयोग में उसके पति काम करते थे उसमें कितनी-कितनी सुविधाएं थीं ! स्वास्थ्य-संबंधी सुविधाओं के अतिरिक्त, टी.ए व अन्य अतिरिक्त सुविधाओं के कारण कर्मचारी आनंद लेने से अधिक दिखावे में रहते | उसमें भी पुरुष तो फिर भी सहज रहते किन्तु उनकी पत्नियाँ ---वो तो पँख फैलाकर उड़ने में माहिर थीं | लगभग एक सी ही तनख़्वाह मिलती थी सबको ,सब-कुछ पता होता था सबको !सब हम्माम में सब एकसे ही तो थे | हाँ,उसके जैसी भी कुछेक मूर्ख थीं जिन्हें कुछ पता करने की कभी ज़रुरत ही महसूस नहीं होती थी |क्योंकि आकाशवाणी में कार्यरत उसको अच्छी-ख़ासी सेलरी मिलती कि उसे पति की तनख़्वाह की ओर देखने की ज़रुरत ही नहीं पड़ती | यहाँ तककि अपने पति की महीने भर की सेलरी भी उसे पता नहीं थी ,न ही कभी सुमोद ने उसकी सेलरी पर अधिकार जमाने की कोशिश की थी |अचानक सुमोद के जाने से उसे आटे-दाल का भाव मालूम पड़ा था |कैसे सारा कॉन्फिडेंस लूज़ हो जाता है ,अकेले पड़ जाने पर ! जब तक सुमोद थे,कभी उसे अकेले कहीं जाने ही नहीं देते थे,उनके बाद भी उसके ऊपर कृपा थी कि उसे मार्ग-दर्शन देने वाले ,हाथ पकड़ने वाले उसके साथ थे | बीना और सुमोद बिलकुल भी एक जैसे नहीं थे किन्तु अधिक महत्वपूर्ण यह था कि वे सदा एक-दूसरे के लिए थे और इसीलिए एक का न होना दूसरे के लिए अधिक कष्टदायक हो गया था |
सामने वाली लड़कीनुमा लेडी एक वृद्ध को बुरी तरह झाड़ रही थी ,वह बेचारा पहले ही काँप रहा था ,उसकी डाँट सुनकर और भी हिलने लगा था | बेचारे की कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था ,उसकी बिसुरती सी आँखें चारों ओर किसी सहायता की गुहार लगाने को जैसे भटक सी रही थीं |
"डफ़ोड ---"(बेवकूफ़ ) कुछ रुककर फिर उसका मुख उगलदान बन गया |
"हवे तमे आगड़ चलो न बाबा ,केटली बार समझायूँ छे ,समझण नथी आवती ?" (अब आगे बढ़ो न बाबा ,कितनी बार समझा चुकी हूँ ,समझता ही नहीं है )जैसे कोई नागिन फुफकार मार रही थी | वृद्ध की समझ में बेशक उसकी भाषा न आई हो किन्तु उसकी टोन ने ज़रूर उसे हतप्रभ कर दिया था ,उसकी आँखों से आँसुओं की नमी निकलकर झुर्रीदार गालों पर फैलने लगी थी | वह लाइन से बाहर निकल आया और उसके पास बैंच पर बैठकर सिसककर रोने लगा |
"मैं आपकी कुछ मदद कर सकती हूँ ?" बीना ने उस वृद्ध से पूछा था |
किन्तु वह काँपते हुए रोता ही जा रहा था |
"कुछ तो बताइए दादा जी ----" बुज़ुर्ग कुछ नहीं बोल रहे थे,उनके हिलते हुए अंग-प्रत्यंग,आँसू भरी आँखें ,झुर्रीदार गालों पर रपटते आँसू कुछ तो कह रहे थे जिसमें बेशक आवाज़ न थी ,एक चीख़ थी जो उसे असहज कर रही थी | उन वृद्ध के कृशकाय शरीर को देखते हुए बीना को भी भी कँपकँपी छूटने लगी थी |
अचानक ही किसी स्कूल की प्रार्थना शुरू हुई थी ,शायद सामने वाले स्कूल की जो डाकघर के पास ही था। यह सामूहिक प्रार्थना वातावरण में फैले हुए शब्दों के शोर का भौंपू लग रही थी |पसरे हुए बेसुरे संवाद की प्रार्थना के बाद वंदेमातरम के इतने बेतरतीब स्वर इतनी तीखी आवाज़ से कानों में घुसे कि वह भन्ना उठी | सामने वाली गुजराती क्लर्क औरत जिसने अभी कुछ देर पहले बूढ़े आदमी को डाँटा था ,ज़ोर-ज़ोर से बड़बड़ करने लगी थी |
"साला,दर रोज कान नू पड़दो फाड़ी नाखे छे ---लाउडस्पीकर नी जरूर छे काईं ---बोलो--?" (साला,हर रोज़ कान के पर्दे फाड़ डालते हैं ,बताओ भला ,लाउडस्पीकर की ज़रुरत है कोई )वह बड़बड़ करने लगी थी ,वैसे वह खुद भी एक भी पल चुप तो रही नहीं थी |
बीना स्वयं सोच रही थी किसी तरह उसके कान सुनना बंद कर दें ,उसके पास बैठे बहुत से वृद्ध काफ़ी कम सुनते थे और इसीलिए डाकख़ाने के स्टाफ़ की डाँट खाते थे |उनकी बेचारगी से बीना की आँखें छलकने लगीं |उसे दिन में न जाने कितनी बार अपने पति सुमोद की याद आने लगती जो उसके साथ लगभग दो वर्षों से नहीं थे ,आज भी लगता जैसे वो उसके साथ हर पल हों ,चाहे किसी भी रूप में ! जब भी सुमोद डाकखाने अपने काम के लिए आते ,अपने से बड़ी उम्र के वअशक्त लोगों का काम करना न भूलते | बीना को पता चला था कि सुमोद कई लोगों के लिए लाईन में खड़े होकर उनका काम करवा देते थे इसीलिए वे घर देर में पहुँचते और हर बार उनकी व बीना की खूब झड़प हो ही जाती |
पता नहीं इस वृद्ध को देखकर बीना बहुत ही असहज होती जा रही थी ,कुछ ऐसा भी लगता जैसे इनको कहीं देखा हो | वह बार-बार उस वृद्ध को देखकर उसे पहचानने की कोशिश कर रही थी | वृद्ध ने हिलते हुए अचानक उसकी ओर मिचमिची आँखों से देखते हुए पूछा ;
" आप --सुमोद मिश्रा जी की पत्नी हैं क्या ?" उन्होंने अपने पुराने कोट की जेब से एक पुराना सा रुमाल निकालकर अपनी नाक और गालों के आँसू पोंछ लिए थे |
"जी,क्या आप मेरे पति को जानते हैं?"बीना ने उन्हें पहचानने की कोशिश करते हुए उनसे पूछा |
"मैं तो आपके घर भी आया हूँ,दो बार अपने बेटे के साथ --मुझे बहुत देर में मिश्रा जी के न रहने का पता चला था ,अकेला होने के कारण आपके घर नहीं आ पाया |"
बीना उन वृद्ध का मुख देखते हुए अपनी स्मृति के पृष्ठ पलटने का प्रयास कर रही थी | बूढ़े तो सभी हो रहे थे पर इतना भी नहीं कि पहचान में न आते | ये वृद्ध तो दूर-दूर तक पहचान में नहीं आ रहे थे |
" मैं आयोग का डायरेक्टर कौशिक हूँ ---" एक बार फिर उनकी आँखें बहने लगीं |
बीना ने उस लगभग पिचासी-छियासी वर्ष की सुंती हुई काया को देखा और उसे याद आया कि वे कई बार उनके घर आए थे ,अपने बेटे के साथ | लगभग बीस वर्ष पूर्व जब सुमोद सेलेक्शन कमैटी में थे तब ये आज की वृद्ध काया उस समय का एक प्रतिष्ठित व्यक्तित्व था और उसके पति सुमोद से उनके बड़े अच्छे संबंध हुआ करते थे | सुमोद ने ही कौशिक साहब के बेटे अनिरुद्ध को विदेशी कंपनी में सेलेक्ट करवाया था | उसके विवाह में बीना और सुमोद दोनों ने शिरकत की थी ,बाद में वह विदेश चला गया था | एकमात्र संतान अनिरुद्ध बहुत पैंपर्ड था ,उसकी हर माँग पूरी होती | शिक्षा ठीक ठाक प्राप्त कर ली थी इसीलिए उसका सिलेक्शन सुमोद ने नामी कंपनी में करवा दिया था | बीना सिहर उठी ,कुछ तो वह सुमोद से सुनती रही थी कि कौशिक साहब ने बिना माँ के बेटे को किस लाड़ -प्यार से पाला था | विदेश पहुंचकर अनिरुद्ध वहीं का होकर रह गया था | कोई नई बात नहीं है ,यही तो हो रहा है आजकल सब जगह ! कौशिक साहब के पास तो अपना बड़ा बँगला था ,नौकर-चाकर आराम से एफोर्ड कर सकते थे वे ! किन्तु लगभग पाँचेक वर्ष पहले अनिरुद्ध आकर बँगला बेच गया था ,पिता को साथ ले चलने का लालच देकर वह गया तो पलटकर उसने मुख भी नहीं दिखाया | अब कौशिक साहब अपनी पेंशन पर गुज़ारा कर रहे थे | वे गिरती-पड़ती ज़िंदगी गुज़ारते हुए ,किराए के एक कमरे में अपनी साँसें ले रहे थे | बीना को उस सामने वाली चिंचियाने वाली क्लर्क पर बहुत गुस्सा आ रहा था जिसने बिना बात ही इतने वृद्ध को खरी-खोटी सुनकर उन्हें रुला दिया था |
"बेटा अवि ! ज़रा दादा जी का फ़ॉर्म तो चैक कर लो--" बीना की बेटी उसके साथ आई थी ,उसने सोचा बाद में उनसे पूरी बात पूछेगी |
" जी, मौसी ---" अवि आगे बढ़कर वृद्ध से कागज़ मांगने लगी जो शायद थक गए थे ,उन्होंने अपना सर बैंच के पीछे लगा रखा था और फ़ॉर्म को मुट्ठी में कसकर भींच रखा था |
मुट्ठी इतनी कसकर भिंची हुई थी की अवि की काफ़ी कोशिश के बाद भी नहीं खुल पाई|
"मौसी ----" अवि ने कुछ घबराकर बीना की ओर देखा ,वृद्ध की आँखें चिरनिद्रा में लीन चुकी थीं | डाकघर का फ़ॉर्म अभी भी उनकी मुट्ठी में कसकर भिंचा हुआ था जिसे अवि अभी भी निकालने का प्रयास कर रही थी ।

डॉ.प्रणवभारती



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