अचानक Pranava Bharti द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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अचानक

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उसने सीढ़ियां चढ़ते हुए एक लंबी साँस खींची थी ,पता नहीं ---शायद थक गई थी या फिर आदत पड़ गई थी उसे बार-बार लंबी साँस लेने की |

ये लायब्रेरी की सीढ़ियाँ थीं जिनमें उसका रोज़ ही उतरना-चढ़ना न हो तो दिन में कम से कम तीन-चार बार तो हो ही जाता |

"क्या यार ---ये लंबी-लंबी साँसें क्यों लेती रहती हो ?" अंकित मेहता कैटेलॉग में कोई पुस्तक ढूंढ रहे थे | लेखकों में बड़ा नाम !बड़ा रौब !

"और ये क्या ---हे राम ! ,यार ये कोई उम्र है 'हे राम ' करने की ?"

बड़ी झुंझलाहट आती उसे ,ये क्या तरीका है किसी पर पाबंदी लगाने का ?

"क्यों ? इसकी भी कोई उम्र होती है क्या ?" चुप तो रहना सीखा ही नहीं था न ! आज सोचती है नानी ठीक कहा करती थीं ,

"एक चुप ,सौ को हराए---" बेकार की बातों में घुसकर अपने को असहज करने का क्या मतलब था ? लेकिन युवावस्था में कहाँ कोई चुप रह पाता है ?अंतर का कचरा बाहर कूड़ेदान में जब तक न फेंक दो ,चैन ही नहीं पड़ता |

पी.एच.डी करने के दौरान कई लोगों से खासी मित्रता हो गई | अपने-अपने चैंबर में काम करते और जब थकने लगते तो एक-दूसरे के बंद चैंबर 'नॉक'करते | चाय की तलब एक को होती और चाय का स्वाद व ताज़गी बिन चाय पीए ही मुँह में भरने लगती | विश्वविद्यालय के बाहर खड़ी लारियाँ सबको अपनी ओर खींचतीं |

"लो ,अब साँस लेने पर भी पहरे लगा दो ---" कहकर न जाने क्यों वह ज़ोर से हँस पड़ी |

हँसी वातावरण में पसरी ,कई जोड़ी पत्रिकाएं ,अखबार या पुस्तक पढ़ते रोज़मर्रा के पाठकों की ऑंखें नाराज़ सी हो आईं ,माथे पर बल पड़ गए | याद आया , लायब्रेरी में थी | दाँतों में जीभ दबाकर उसने अपनी जीभ काट ली ,मुख से 'सी ' निकला जिसे उसने दबा लिया |

अंकित मेहता ,नहीं डॉ.अंकित मेहता --बड़ा नाम ! बड़े गुण ! बड़ी वाहवाही ! बड़ा रूआब !

पता नहीं ,वह क्यों प्रभावित नहीं थी | ऎसी कोई बात नहीं थी ,अच्छे लेखक थे | उनकी कलम के प्रति उसको भी एक सम्मान था किन्तु जाने क्यों वह उसे बहुत प्रभावित नहीं कर पाए कभी भी |

यानि उनका व्यवहार उसे बड़ा छिछोरा सा लगता | किसी के बारे में जजमेंटेंटल होना उसे वैसे नापसंद था पर करे क्या ,आदमी का व्यवहार विवश कर देता है सोचने के लिए कभी -कभी और वह अपनी आदत या स्वभाव से परे होकर कुछ ऊल-जलूल भी सोचने लगता है |

" चाय के लिए ---?" डॉ. मेहता ने कैटेलॉग बंद करते हुए धीरे से पूछा जब वह उनके पास से गुज़री |

"जी ----"बहुत ही धीरे से उसने गर्दन'हाँ ' में हिलाई |

" चलो ,मैं भी आता हूँ |" कहकर उन्होंने पास की कुर्सी पर रखा बैग अपने कंधे पर लटका लिया |

उम्रदराज़ थे डॉ.मेहता ,पचास से ऊपर के ,उनकी उपस्थिति में सब सहज न रह पाते,कोशिश करते चुपचाप निकल जाएं | न जाने कैसा बंदा था ,कहीं से भी आ टपकता |

वो उसके साथ चल दिए ,न जाने क्यों वह कभी उनकी साथ अकेले जाना पसंद नहीं करती थी |

पीछे और साथियों के आने की धीमी पदचाप सुनाई दे रही थी ,उसने अपनी चाल धीमी कर दी|

वे बड़े थे ,सब पर अपना अधिकार समझते | मज़े की बात तो ये थी कि किसीने उन्हें अधिकार दिया नहीं था ,वे अपने-आप अपना वर्चस्व सबको ओढ़ाते -पहनाते रहते |

दिल्ली के नामचीन ग़ज़लकारों में उनका नाम था ,सुंदर ग़ज़लें लिखते ---सब सही --पर यार ज़रूरी थोड़े ही है कि तुम्हारे ऊपर सब मरें ही | विवाहित व्यक्ति की गरिमा कभी उनके व्यक्तित्व से नहीं झलकी |तीन बच्चों व एक खूबसूरत पत्नी के पति डॉ.मेहता दिलफेंक बहुत थे सो लड़कियाँ उनसे बचने की कोशिश करती रहतीं |

हमारे समाज व संस्कृति की एक मर्यादा तो है ही ,जिस पर हमें गर्व है फिर ज़बरदस्ती खुद को थोपने की बात का कई औचित्य तो नहीं रह जाता |

वे बड़ी सुन्दर प्रेम -कविताएँ लिखते और खूब वाहवाही लूटते |

"यार ,सौम्या ----कितनी सुन्दर आवाज़ है तेरी !" वे मुग्ध होकर प्रशंसा करते |

"मेरी कुछ रचनाओं को स्वरबद्ध करके तो देख ---" उन्होंने कई बार उसके सामने प्रस्ताव रखा लेकिन न जाने क्यों उसका कभी मन ही नहीं हुआ |

आदमी मन न होने पर जो भी करता है ,उसमें सौंदर्य नहीं आ पाता | सौम्या के रिपॉन्स न करने पर वे कुछ चिढ़ से जाते लेकिन उसको कोई परवाह नहीं थी | ज़बरदस्ती है क्या यार !

जानती थी सौम्या,कुछ नई बात नहीं थी ,उसके संगीत के गुरु जी उसके खिलंदड़ेपन से नाराज़ रहते थे ,

" माँ शारदे स्वयं बैठी हैं लड़की की जिह्वा पर ,लेकिन कुछ मेहनत करे तब न ,बहुत अच्छी गज़लकार बन सकती है ---" बहुत भुन-भुन करते थे गुरु जी ,माँ से भी कहते पर नालायकी की हद थी , बालों पर जो जूँ भी रेंग जाए |

अब लगता है कभी-कभी ,पर अब वो समय नहीं ,समय किसीके लिए रुकता थोड़े ही है |

आर्ट-इंस्टीट्यूट में बैठे-ठाले यूँ ही फॉर्म भर दिया था, बड़ी ही सरलता से नौकरी मिल गई |कॉन्फिडेंस बढ़ गया , दो साल तक की भी नौकरी | इंस्टीट्यूट में बहुत सारा स्नेह व सम्मान मिला |

हुआ कुछ यूँ कि प्रस्ताव आया 'उच्च शिक्षा के लिए पी.एच.डी की जाए तो प्रगति के अधिक व शीघ्र अवसर मिल सकेंगे|'

यह अक्सर होता है ,एक बार जब ज़बान को चटकारा लग जाए ,वह बार-बार स्वाद मांगती है |

पहले दो-एक वर्ष में परिवार बना लिया होता तो शायद काम की भूख बच्चों के लालन -पालन की भूख के आगे कुछ न रहती |माँ के आगे सब कुछ पीछे छूट जाता है ,माँ को केवल बच्चे की ज़रूरतें दिखाई देती हैं |एक बार सौम्या को बाहर की हवा क्या लगी ,परिवार दो में ही सिमटकर रह गया |

पति से चर्चा करने पर मनमाफ़िक काम करो की छूट भी थी ,"जो चाहो करो,आगे पढ़ना चाहो ,अच्छा ही है न ,इंस्टीट्यूट में तो बैठे-ठाले सीट पक्की हो ही गई है,फैमिली प्लानिंग भई हो जाएगी | अभी पच्चीस की हुई हो |" वो स्वयं भी उससे दो वर्ष ही बड़े थे |

आदमी विचार करता है ,समय पर श्रम भी करता है किन्तु भाग्य-रेख अंतिम लकीर खींचती ही है |

कभी सामने से आता हुआ मनपसंद व्यंजनों का भरा थाल खींच लिया जाता है तो कभी सामने खुद ब खुद चलकर सामने सजे हुए व्यंजन कहते हैं ,'भाई ,चख़ तो लो मुझे |'

शादी के बाद संगीत ने भी पुकारा और शिक्षा ने भी |

इसीका परिणाम था कि दो वर्ष की नौकरी के बाद सौम्या ने पी.एच.डी करना बेहतर समझा |

कोई बहुत उम्र तो हुई नहीं थी ,तीनेक वर्ष पूर्व तो कॉलेज से पास-आऊट हुई थी सो संकोच भी नहीं लगा और सबमें दूध में शक़्कर सी घुलमिल गई |

अब ये बात और थी कि कुछ ऐसे लोगों से भी साबका पड़ा जो उसे न जाने क्यों उसे अरुचिकर लगते थे |

जल्दी पी.एच.डी करके फिर से इंस्टीट्यूट ज्वाइन करने का मन था उसका |

सो,कड़ी मेहनत करती ,पति भी खुश थे | उन्होंने भी कभी उस पर किसी बात के लिए दबाव नहीं डाला |

कभी सोचती --'इतने अच्छे पति होते हैं क्या ?' लेकिन उसके सामने थे ,उसके मनमाफ़िक कामों में साथ देने वाले |

डॉ.मेहता का अपना प्रकाशनघर ,खूब कमाता बंदा और रौब से रहता |

"सौम्या ,मुझे लगता है तू अपनी ज़िंदगी से कोई बहुत खुश नहीं है ?"

त्योरियाँ चढ़ गईं सौम्या की ---

"आपके पास रोना लेकर आई हूँ क्या ?"

"अब इतने अनुभवी तो हम हैं कि चेहरे पढ़ सकें ,ऐसे ही थोड़े आदमी इतना लिख सकता है ! चेहरे ही तो पढ़ते हैं हम डीयर !"

चेहरा क्या ,ऊपर से नीचे तक पढ़ता था नालायक इंसान ! कितनी खूबसूरत पत्नी और कितने प्यारे युवा होते बच्चे ! उसने कई बार उनको रेस्टॉरेंट में देखा था |

उसकी रोज़ाना चैंबर में आकर बकवासबाज़ी से सौम्या परेशान हो रही थी | हर पल लगता ,अब आ न जाए ! काम में मन लगना कम हो गया |

बड़ी कहानियाँ सुनी थीं ,उसकी अशिकमिज़ाज़ी की लेकिन सौम्या को लगता उसको क्या मतलब है फ़िज़ूल की बातों से !

"मैं तो एक बात कहता हूँ ,भई ज़िंदगी बार-बार नहीं मिलती | इंसान को अपने सारे अरमान पूरे कर लेने चाहिएँ--"

तो कर तो रहा था ,किसीने रोका है क्या ? जो करना हो करे ,बस ---किसीको डिस्टर्ब न करे |

कई बार ऐसीं इर्रेलेवेंट बातें सुनकर सौम्या के साथ के सभी लोग उखड़ जाते | न जाने क्यों जब से सौम्या इस ग्रुप से जुड़ी थी तबसे वे कुछ अधिक ही चिपकने लगे थे |

"तुमने अभी तक फैमिली के बारे में नहीं सोचा ---आख़िर तीन-चार साल हो गए शादी को , कुछ गड़बड़ ---? " सौम्या की रूह काँप गई | लगा एक तमाचा दे मारे ,उनकी उम्र आड़े आ जाती |

वह कौन होता था ,उससे ये बातें पूछने वाला , उसको किसीने कोई अधिकार नहीं दिया था |

बेहूदा आदमी ! उसका शिक्षित होना सौम्या को एक गाली सी लगने लगा |

एक बात बहुत अच्छी थी ,शुरू से ही सब बातें पहले माँ से फिर पति से शेयर करने की आदत थी |उसने सारी बातें सभी मित्रों से भई शेयर कीं |

पति ने आश्वस्त किया | एक दिन अपने चैंबर में बैठी कुछ नोट्स बनाने की कोशिश कर रही थी कि अचानक ही किसी ने उसका चैंबर धीरे से नॉक किया |

सौम्या के पति किसी स्त्री के साथ खड़े थे |

"अरे आप ?" उसने बाहर खड़ी महिला की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि डाली |

"आइए ,सबीना जी ---" छोटे से चैंबर में बमुश्किल तीन कुर्सियाँ सटाकर रखी गईं थीं|

सौम्या की दृष्टि से प्रश्न छलकते रहे |

" तुम्हारा परिचय करवा दूँ ,ये हैं तुम्हारे डॉ .मेहता की दूसरी बेग़म---"

"मतलब--?" सौम्या की आँखें उस स्त्री से हट नहीं रहीं थीं |

" इनसे निकाह करने के लिए तुम्हारे डॉ .मेहता ने मुस्लिम धर्म अपना लिया था ,फिर जब इनसे मन भर गया तो 'तलाक़' दे दिया |

"अरे ! पर तुम्हें कैसे ये सब ?" उसकी बात अधूरी रह गई |

" फिर कभी --अब तुम इनकी ज़ुबानी सुनो ---" कहकर वे वहाँ से तुरंत चले गए |

सौम्या की स्थिति अजीब सी हो आई ,उसके मुख से अचानक ही निकला ;

" यार ये प्रेम है कि गेम ---?"

अचानक ही सबीना मैडम ज़ार-ज़ार अपनी आँखों से झरने बहाने लगीं थीं और अचानक ही सौम्या ने सोच लिया था कि इस मेहता की चीरफाड़ करके ही दम लेगी |

डॉ. प्रणव भारती