मुखौटा - 13 S Bhagyam Sharma द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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मुखौटा - 13

मुखौटा

अध्याय 13

नलिनी आज सुबह से ही कहीं गई हुई है। लक्ष्मी को जल्दी काम खत्म करने को कह कर मैं उत्तर स्वामी पहाड़ी पर जाने के लिए रवाना हुई। वहां के पुजारी मुझे पहचान कर हंसे।

"आप अकेले ही आए हो क्या?", पूछे। उनका पूछने का मतलब था कि अभी तक तुम्हारी शादी नहीं हुई ! उस पर ध्यान न देकर मैंने कहा, "हां"। भीड़ में यहां के नॉर्थ इंडियंस भी थे। पर्दा लगा कर मुरूगन का अलंकार हो रहा था। (कोई तमिल भजन) ‘तुम्हीं हो माता, पिता तुम्हीं हो’, यह किसी ने गाना शुरू किया। बहुत ही मधुर, बिना स्वर लडखडाये बढ़िया ताल और लय के साथ गाया जा रहा था तो मुझे बहुत अच्छा लगा। बहुत दिन हो गए थे तमिल गाने को सुनकर। मां को हमारी जड़ों पर मुझसे ज्यादा विश्वास होना था । यहां पर तमिल गाने को सुनने ही अक्सर आती थी, ऐसा मुझे लगता है। ऐसा एक आकर्षण शक्ति होने के कारण है मेरे द्वारा कन्नड़ में बात करते समय श्रीकांत का चेहरा कैसे खिल गया था !

अर्चना की थाली वापस देते समय, "याद से प्रसाद लेकर जाइए", पुजारी जी बोले। खिचड़ी और गरमा-गरम बड़े थे प्रसाद में । मुझे याद आया रोहिणी को यह बहुत पसंद है। इसे लेकर उसके घर जाकर लंच किया जाये तो कैसा रहेगा ! ऐसा सोच कर मैं रवाना हुई। रोहिणी से मिलने की इच्छा हो रही थी। उस दिन कृष्णन के साथ उसके चले जाने के बाद से मन विचलित हो रहा था।

मेरी उम्र हो गई इसकी निशानी भी हो सकती है यह। करीब-करीब अम्मा के जैसे ही मुझे भी सभी बातों के लिए फिक्र होना शुरू हो जाता है । उसके घर पर पहुंचते ही ऑटो रिक्शा को वापस भेज कर ऊपर उसके घर के लिए लिफ्ट से पहुंच गई । घंटी के बटन को दबा कर ‘प्रसाद के खिचड़ी और बड़ों को देखकर उसका चेहरा कैसे खिलेगा’ कल्पना करने लगी। दरवाजा नहीं खुला। मैंने दोबारा घंटी बजाई। कोई जवाब नहीं। झुक कर देखा, घर में ताला नहीं था । हो सकता है नहा रही होगी । पड़ोस के फ्लैट में रहने वाले को मैं जानती हूं। वहां जाकर बैठूँ सोच उनकी घंटी बजाई।

"मेम साहब नहीं है ।", तमिल कामवाली ने बोला।

"कोई बात नहीं, यहां मैं थोड़ी देर बैठ जाती हूं, मेरी बहन नहा रही है लगता है।"मैं बोली।

कामवाली बाई कूलर लगा कर ठंडा पानी पीने के लिए ला कर दिया। धूप में आने की थकावट को दूर करते हुए मैंने सोफा पर आंख बंद करके सर पीछे टिका दिया । रोहिणी बहुत ही आलसी हो गई है, मुझे गुस्सा आया। इस समय का क्या नहाना ?

कहीं दरवाजा खोलने की आवाज आई। मैं आंख बंद करे बैठी रही।

"अम्मा तो यहीं हैं।", बाई बोली। "अभी एक आदमी बाहर जा रहे हैं।"

उसकी बात का रिफ्लेक्शन एक्शन जैसे मैंने यंत्रवत खिड़की से बाहर झाँका तो देखा कृष्णन रास्ते में जा रहा था।, नीचे दिखी । एक ब्लॉक आगे मैंने टाटा सूमो कार जो उस दिन हमारे घर लेकर आया था खड़े देखा । मैं अवाक् रह गई कृष्णन रास्ते में जा रहा था। कुछ पल के लिए मेरी बुद्धि अचंभित रह गई। उसके बाद ऐसे लगा जैसे पेट के अंदर ज्वाला उठ रही हो।

"आप आए हैं, उन्हें मैं बोल दूं ?", कामवाली बाई बोली।

"नहीं, नहीं ! नहीं, मैं ही चली जाती हूं", मैं थोड़ी घबराहट के साथ बोली । परंतु मेरे पैर सरके नहीं, जहां खड़े थे वही खड़े रहे। कृष्णन के चल कर गाड़ी के अंदर बैठने के बाद उसके रवाना होने तक मैं देखते हुए वहीँ खड़ी रही। मुझे होश आने पर कामवाली बाई को मेरे जाने का इंतजार करते पाया । यही वजह थी कि मुझे रोहिणी से मिलने जाना पड़ा। नहीं तो रोहिणी को देखने और बात करने की मनःस्थिति में मैं नहीं थी । दुख, गुस्सा, अहंकार, अपमान जैसी बहुत सी भावनाएं दबाते हुए मैंने रोहिणी के दरवाजे पर पहुँच घंट बजाई। तब तक बाई तमाशा देखती हुई खड़ी थी। रोहिणी ने दरवाजा खोला। उसका प्रसन्न चेहरा मुझे देख कर ऐसा हो गया जैसे कि भूत देख लिया हो । मेरे मन में आया कि उसकी इस अवस्था पर उस कामवाली बाई का ध्यान नहीं जाना चाहिए ।

"आओ, मैंने तुम्हारी आने की उम्मीद नहीं थी।", रोहिणी मन के भाव ढांपने के प्रयास में हंसते हुए अंदर जा एक तरफ खड़ी हुई।

मैं उसका चेहरा भी नहीं देखना चाहती थी अतः मैं बैठक के अंदर दूसरी तरफ बढ़ गई। भारी पर्दों से खिड़की ढके होने से कमरे में अंधेरा हो रहा था। पूरा कमरा लैवंडर की खुशबू से महक रहा था । कुछ देर के लिए दिमाग ने काम करना बंद कर दिया। जो बच गया था वह गुस्से में आग बबूला हो रहा था । शब्द मुंह में नहीं आकर गले ही में फंस कर मौन हो गए।

"यह सब क्या है?", कहते हुए मेरे हाथ से बर्तनों को उसने लिया तब मेरे दिमाग में थोड़ी हलचल हुई।

"उम्मीद नहीं होने के कारण ही दो बार घंटी बजाई तो भी तुम्हें सुनाई नहीं दिया ?", मैं और अधिक चुप ना रह पाई।

"दो बार बेल बजाई क्या ?", उसने थोड़ा हडबडाते हुए पूछा ।

"मुझे आए हुए आधा घंटा हो गया !", मैं अब भी उसकी तरफ नहीं देख रही थी । "दरवाजा नहीं खुलने से मैंने सोचा कि तुम नहा रही हो सो पड़ोसी के घर में जाकर बैठी।"

“ओह, हो सकता है ! तुमने जब घंटी बजाई उस समय मैं बाथरूम ही धो रही थी। नल की आवाज में सुनाई नहीं दिया हो । आज कामवाली बाई नहीं आई ना ।"

मुझे लगा और प्रश्न पूछ कर उसे और झूठ बोलने का अवसर देना मेरे लिए ही अपमान है । मुझे याद आया छोटी उम्र में बहुत सी गलतियों को छुपाने के लिए झूठ बोलने पर मेरी नानी बीच चौक में खड़ा कर, "झूठ बोलेगी क्या, बोल ! बोलेगी ?”, पलट-पलट कर दोनों गालों पर चांटा मारती थी। जो गलती किया उस से बढ़कर झूठ बोलना बड़ा दोष है । गुस्से के कारण मेरे शरीर में आग जैसे लग गई । लगा यह ज्वाला भड़की तो यह उसमें भस्म हो जाएगी ।

रोहिणी मेज पर जाकर डिब्बों को खोलते ही उचक कर बोली "यह क्या है ? प्रसाद ! मंदिर गई थी?" मुझे अम्मा की याद आ गई.

"अम्मा के मरने का दिन है आज।" मेरी आवाज में दम नहीं था।

"ओह ! हां, भूल ही गई।" कैलेंडर पर नजरें घूमाती हुई वह बोली ।

तुम और कई विषय भूल गई हो, मैं अपने मन ही मन बोली। मार खाए हुए मनुष्य की सभ्यता ही कुछ और होती है, तुम वही भूल गई ? मेरे साथ धोखा देने वाले के साथ तुम प्रेम दिखा रही हो ? ऐसा कर तुम मुझे ही नहीं, अपने आपको भी अपमानित कर रही हो। ‘क्या ठीक है, क्या गलत है इसका तुम्हारे पास कोई मानक है?’- उससे ऐसा पूछना ठीक नहीं होगा। मनुष्य की सभ्यता ही इसका मापदंड है। 'परिस्थितियों, संदर्भ, इन सबके गुलाम हैं हम', ऐसे कुतर्क करने वाले मनुष्य के समझ में न आने वाला तत्व है सही और गलत के मापदंड । वह कुछ कुछ किये जा रही थी और मैं मुक्का मारे प्याज की तरह जिसका एक एक परत अपनी जड़ों से हिल कर बिखर गया हो, मैं उसे काम करते हुए देख रही थी । पतली साड़ी में दिख रहे उसके छाती के उभार, बिना आस्तीन के उसका ब्लाउज में दिखाई दे रहे उसकी भुजाओं को देख गंदे शब्द याद आए। सुंदरी बुआ के बारे में बात करते समय अप्पा हमेशा उसे 'साली भगोड़ी' कह कर दांत पीसते थे। 'इसे बांध के ना रखो तो नकेल छुड़ा कर भाग जाएगी' । सुंदरी बुआ को स्वतंत्रता नहीं थी ‌। यह अपनी स्वतंत्रता का दुरुपयोग करती हैं।

दो प्लेटो में बड़े और खिचड़ी निकाल कर रख मेरी तरफ देने के लिए आई तो विदेशी सेंट की खुशबू मेरे नथुनों में घुसी। मैंने उसे देखा।

"सुबह के समय किसके लिए यह सेंट सब ?", मुझसे चुप नहीं रहा गया, बड़ी रुखाई से आगे जोड़ा, "तुमको देखने से तो नहीं लग रहा है कि तुम बाथरूम धो रही थी !"

उसका चेहरा तुरंत बदल कर सख्त हो गया। "अपने लिए ही लगाया सेंट !", धीमी आवाज में बोली। अच्छी तरह से ड्रेसअप होकर, खुशबू लगाने से आई फील गुड ! ताकत आ गई ऐसा लगता है। व्हाट इज रॉन्ग?"

मेरे अंदर की ज्वाला एकदम से लपकी । मेरे शब्द फट पड़े।

"गलती नहीं है ? बेचारा पति के ऑफिस चले जाने के बाद सेंट डालकर दूसरे पुरुषों को खुशबू देना गलत बताऊँ तो मुझे अच्छे से पता है कि तुम फिर क्या बोलोगी मुझे ! यही ना कि मैं नानी जैसे बोल रही हूँ ?"

उसके चेहरे का रंग उड़ गया। "तुम क्या बोल रही हो मेरे समझ में नहीं आ रहा।" रोहिणी ने कमजोर आवाज में कहा ।

मैं अपने हाथ की प्लेट तिपाई पर रखकर स्वयं को नियंत्रित करने के लिए उठकर कूलर के सामने जाकर खड़ी हुई। उसकी तरफ देखने की भी इच्छा नहीं हुई, "कृष्णन यहां आया था मुझे पता है ।" मैं उसे इतना ही कह पाई, मगर मन में मेरे संवाद कहाँ थम रहे ! सोच रही हूं ऐसा कुछ नहीं हुआ मुझसे मत कहना। पता है नानी तुमको सांप का पेड़ कहती थी। यह बात मुझे अभी समझ में आ रही है।

उस कमरे में कूलर के आवाज के अलावा कोई आवाज नहीं थी। मैं उसे घूम कर देखी तब वह सर झुका कर बैठी थी। मेरे मुड़ने को महसूस कर अपना सर बिना ऊपर उठाए "सॉरी मालिनी" बोली। "कैसे तो भी यह हो गया । मैंने ऐसा नहीं सोचा था । तुम्हें गुस्सा आएगा ही......."

"गुस्सा ?", मैं व्यंग में बोली। "किसलिए ? क्या यह बात महत्वपूर्ण है कि मुझे गुस्सा आएगा ? कृष्णन का अपना कोई मत नहीं है, वह कोई महत्वपूर्ण बात नहीं। फिर भी, इज इट फेयर टू दुरैई ? यह बात पता होते ही वह टूट जाएगा।"

उसने एकदम से सर ऊपर उठा मुझे देखा, "उसे जानने की जरूरत नहीं।" जोर से बोली।

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