मुखौटा
अध्याय 4
"सब आराम से कर लेंगे, कोई जल्दी नहीं है । राज खुल कर सबके सामने आ जाएगा। उसको किताब सब निकाल कर देने को बोलना। तीन दिन तक स्कूल नहीं जा सकोगी।“
"क्यों?"
"जो बोला है उसे मानो मालिनी", अम्मा बड़े बेमन से बोली। फिर अड़ोस-पड़ोस में देखकर धीमी आवाज में बोली; "यदि घाघरे में दाग लग जाए तो ? सब को पता नहीं चलना चाहिए ! वह शर्म की बात होती है!"
"यह क्यों ऐसे आया ?" मैं आश्चर्यचकित थी ।
"यह सभी लड़कियों को आता है री मेरी मां। तुम्हें कुछ जल्दी आ गया है।"
"सिर्फ हमें क्यों आता है ?"
"वही बोला तो था, अपनी तकदीर खोटी है।"
मैंने महसूस किया कि एक गंदा सा पर्दा मेरे चारों ओर तना हुआ है ।
राज मेरे से 2 साल बड़ा था। मुझे कोने में देखकर -
"यहां क्यों बैठी है रे ?" आश्चर्य से पूछा।
"पास में आ रे,...छूना नहीं।" संकोच से बोली।
वह शरारत से मुझे छूने के लिए पास आता है।
"उसके पास मत जा रे !" चिल्लाते हुए नानी अंदर से आई। नानी के वेग और फुर्ती ने मुझे भीतर तक डरा दिया। मुझे क्या हो गया है ?
"वह अस्पृश्य है !"
"ऐसा बोले तो ?"
"तेरा सर ! एक आदमी के बच्चे जैसे दूर रह। औरतों की बातों में बीच में मत बोल।"
राज मुझे व्यंग से देखकर चला जाता है। अचानक मैं दूसरों से अलग हो गई, मुझे इस बात का दुख हुआ।
उस दिन जो मेरे अंदर दुख और भय समाया वह कई दिनों तक रहा। याद में, सोच में, कार्य में लगातार बना रहा। लड़कियां एक पजल जैसे ना समझ में आने वाला एक रहस्य अपने अंदर समाए हुए हैं . इसी रहस्य ने मुझे दूसरों से अलग किया। यह रक्षा किये जाने वाली एक वस्तु है जिसे दूसरे को सौंपना है। इसका दुरुपयोग करने का हक मुझे नहीं है।
घर में पहुंचने तक एक युग की परिक्रमा करके अंदर आने जैसी थकावट... बुजुर्गियत का एहसास हुआ।
नलिनी किताबों के एक ढेर के बीच बैठी हुई थी। मैंने अपने लिए पानी लेकर बर्फ डाला. पीती हुई उसके पास जा बैठी।
"लाइब्रेरी में आज मैंने रोहिणी को देखा", मैंने धीरे से नलिनी को बताया ।
"रोहिणी लाइब्रेरी भी जाती है क्या.... वेरी गुड !" हाथ के किताब पर से आँखें उठा कर नलिनी हंसी। "कैसी है वह?"
"हमेशा की तरह स्लिम-ट्रीम दिख रही थी। परंतु जीवन से विरक्त होने की बात कह रही थी" मैं अपने-आप में खोई बोल रही थी ।
"आलस और स्वार्थीपन ही उसकी बीमारी है", नलिनी फिर से हंस दी, "उसका पति इतना अच्छा है कि बड़बड़ करने के लिए भी उसके पास कोई कारण नहीं है।”
"यही तो उसकी प्रॉब्लम है कि वह बहुत अच्छा आदमी है ।"
"सुंदरी बुआ के पति जैसा होना चाहिए था उसे !"
मैं एकदम से चौंक गई। यह कैसे हम तीनों के मन में सुंदरी बुआ घूम फिर कर आ जाती है?
"एक मजाक की बात बताऊँ तुम्हें नलिनी ? सुंदरी बुआ की याद मुझे भी आई। रोहिणी को एक्साइटमेंट चाहिए। सुंदरी बुआ भी एक्साइटमेंट ही ढूंढती हुई दौड़ती थी। दुरई अपनी जेब में से निकाल कर उसे एक्साइटमेंट दे, यह उसकी उम्मीद है।"
"समाज के लिए उसे कुछ सेवा करने को बोलो। नहीं तो आगे पढ़ने को बोलो।"
"वह सब काम उसके बस का नहीं है। गाना सीखने के लिए बोला मैंने ।"
"हां, यही सीखने दो उसे ।"
"मन को कहीं दूसरी तरफ मोड़ कर खुश रहने का दिखावा करने की इच्छा मेरी नहीं है । मैं ऐसा दिखावा करती हूं ?"
नलिनी एकदम से चुप हो गई। मैं खाली टंबलर अंदर रख कर आ गई।
"तुम दिखावा करती हो ऐसा मैं नहीं सोचती; परंतु कुछ भार जरुर ढो रही हो ऐसा लगता है।"
सुन कर मेरे आश्चर्य को छुपाते हुए मैं हंसी।
"भार?”, मैं फिर हंसी। “पहले से मेरा वेट बढ़ गया है। यही उसका कारण है।"
"मैं तो सीरियसली कह रही हूं दीदी। तुम्हें एक दोस्त की सख्त जरूरत है।"
"दोस्त कोई दुकान में मिलने वाली वस्तु है जो ऐसे बार-बार बोलती हो।"
"कृष्णन एक मेंटल ब्लॉक उत्पन्न करके चला गया लगता है।"
"बकवास ! उसको मैं कब का भूल गई। क्यों जरुरी है एक पुरुष की दोस्ती का होना ?"
"होना चाहिए मैं नहीं कह रही। परंतु, उस रास्कल के लिए तुमको सन्यासी का जीवन नहीं जीना चाहिए।"
"मैं उस हद तक बेवकूफ नहीं हूं नलिनी !"
सभी के द्वारा एक ही राग बार-बार अलापे जाने से मुझे चिड़चिड़ाहट होती है। मुझे लगता है कि मेरी दशा के लिए ये सब लोग एक तरह से अपने-आप को दोषी मानते हैं । यही बात मेरे दिल पर एक बोझ बन कर मुझे दबाती है। कई बार मुझे आवेश आता है कि ‘मुझे अकेला छोड़ दो’ ऐसा जोरों से चिल्लाऊं । हो न हो मेरी मां को हार्ट अटैक इसी वजह से आया हो ! इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। 21वीं सदी शुरू होने को है, इस युग की महिला होते हुए भी नलिनी में इस बात का होना मुझे विचित्र लगता है। नलिनी से विवाद को बढ़ाना ना चाह कर मैं उठ गई। पर नलिनी ने नहीं छोड़ा।
"मुझे इसलिए संदेह हो रहा है क्योंकि तुम एक साधारण संसार की लड़की हो। कृष्णन के लिए जो गुस्सा होना चाहिए, वह भी दिखाई नहीं देता।"
"मैं साधारण हूं या कमतर मगर मैंने अपने-आप को ही जीत लिया. बिलकुल बड़ी मां नारायणी जैसे", मैंने जोर देकर कहा । चप्पल पहनकर "बाहर थोड़ा घूम कर आती हूं !" कह कर उसके जवाब का इंतजार किये बिना मैं बाहर निकल गई।
रात 7:30 बजे हैं. पूरी तरह अंधेरा नहीं हुआ है । हवा में अभी तक गर्मी है। परंतु मुझे एकांत चाहिए था। एकांत जो मुझ में से निकल गया है। इन महीनों में शाम को भी 7:30 बजे तक दिल्ली की गलियां खाली सी हो जाती हैं जिससे पैदल चलने वालों के लिए आराम हो जाता है। चारों तरफ देखने का मन नहीं किया । नारायणी बड़ी मां की याद आई। कितनी तरह की महिलाएं हैं मेरे परिवार में, मुझे आश्चर्य होता है। मेरी स्मृति में परदादी-नानी के समय से अभी तक में मेरी भावनाएं, मेरे सपने, मेरे विचार... सब लड़कियां मिलकर नर्सरी राइम के जैसे हाथ मिला कर 'रिंग-ए-रिंग-अ रोजेज ' सब लोग नाच सकते हैं, नाचे हैं । तभी तक यह नाटक है। फिर, 'हाईशा पुईशा ऑल फॉल डाउन' यही सब जीवन है। इसमें नाच कर गिरने वाले ही ज्यादातर हैं। जीत की भावना रखने वाले कुछ ही लोग हैं । ‘इसका विरोध करके फायदा नहीं है’ सोचने वाले बहुत लोग हैं । इस भीड़ से एकदम अलग दिखने वाली नारायणी बड़ी मां है। एक तपस्वी हैं। सूली पर लटकाए जाने के बाद भी 'हे भगवान ! इन लोगों को क्षमा कर दो; ये नादान है' ऐसे सोच कर हंसने वाली है वह । उसके बारे में याद करते समय मुझे हंसी आती है। मेरी समझ में इस हंसी की भी एक व्याख्या है । मेरे पिताजी की यह बड़ी मां के पास रहने के लिए कोई जगह नहीं थी। इसी कारण ही नानी के घर में ही रहती थी । यह बात मुझे बड़ी होने के बाद ही मालूम हुआ।
'नारायणी बड़ी मां यहां क्यों हैं ?' ऐसा प्रश्न पूछने की जरूरत किसी को भी नहीं होती। क्योंकि वह घर की एक मुख्य सदस्य थी। गोरी-चिट्टी, दुबली-पतली देह की वह। सिर हमेशा ढके रहती । कोसा सिल्क की साड़ी (विधवाओं का पहनावा ) पहन हमेशा मुस्कुराती और मजाक करती रहती।
'ऐसी क्या बात है हंसने की ?’ घर पर आने वाली सिल्क की रंग बिरंगी साड़ीयां पहनकर माथे पर बिंदिया, शीशफूल लगाने वाली औरतें चिड़चिड़ा कर बोलती। यह बात मुझे अच्छी तरह से ध्यान है। परंतु हम सबके लिए नारायणी बड़ी मां ही हमारी परम प्रिय सहेली थी। विशेष त्योहार के दिनों में बड़े और पुए बनते समय चूल्हे के पास जाकर हम हाथ फैलाते।
'भोग लगने के पहले नहीं दे सकते।' बाकी औरतें ऐसा बक-बक करती। कहती 'भोग लगने के पहले खाओगे तो भगवान आंखें फोड़ देगा।' यदि नारायणी बड़ी मां बना रही होती तो हमारे लिए बहुत अच्छा रहता। हम अपने छोटे-छोटे, नरम-नरम हाथों को फैलाते –
"तुम्हारे लिए ही है।" कहकर हंसते-हंसते सबको दोनों हाथों में देती। उनके और हमारे बीच यह एक बहुत बड़ा रहस्य था । हम वडा और पुए लेकर दबे पाँव भाग जाते।
"भगवान आंखें तो नहीं फोड़ेगा ?"
जब 8 साल की बच्ची, मैं, उससे पूछती तो वह जिन निगाहों से मुझे देखती वह आज भी मुझे याद है।
"भगवान आंखें नहीं फोड़ते बच्चे.....”
"फिर नानी बोलती है ना ?"
"हां, वह बिना समझे बोलती है।"
वड़ों को तेल में पलटते हुए हंसते हुए बड़ी मां बोलती।
"कौन आंखें फ़ोड़ता है उसको नहीं पता।"
"कौन?"
जल्दी से बड़ी मां मुझे देख कर नकली गुस्सा दिखाती।
"यह ले, तुझे जो चाहिए वह मिल गया ना ? अब भाग जा !"
हम लोगों को मेहंदी लगाना, चोटी में फूल लगाकर तैयार करना आदि में बड़ी मां को बिल्कुल थकान नहीं होती। कितना हंसती! कितनी मस्ती ! बच्चों संग हंसी-मजाक... कभी अचानक जो उनके सिर का पल्ला सरक जाता तो छोटे-छोटे काले-काले बाल झांकते। कभी-कभी एकदम चिकनी खोपड़ी उसमें थोड़ा चंदन लगाया हुआ दिखता।
..............................................