मुखौटा
अध्याय 9
‘तुम्हारी नानी तुम्हारे अंदर से बार-बार झांकती हैं।‘
यह अहंकार नहीं तो और क्या? लड़कियों का भी अपना आत्मसम्मान होता है, यह सोच ना होना अहंकार नहीं तो और क्या ? जन्म जन्मांतर से एक पर्दे के होने का ही अहंकार है। 'छेड़छाड़ करना यह मेरा खेल है। तुम किस हद तक इस पर्दे में रहती हो इसे देखना मेरा आनंद है।‘ ऐसा एक क्रूर आदमी होने का गर्व है कृष्णन में ।
मेरे अम्मा के एक मामी थी। उसका नाम मुझे याद नहीं। हमंम्गा थी। देखने में वह साधारण थी। परंतु, वह हमेशा सारे गहने पहने रहती। उसके वे सारे गहने पीहर के थे। आदमी तो उसका मस्तराम था। ऐसी मेरी मां सभ्य भाषा में बोलती थी। वरना सही वर्णन किया जाये तो ‘वह महा पापी था’। हमंम्गा को कमरे में ही बैठाकर उसके सामने ही वेश्याओं से संबंध बनाता था। हमंम्गा यह सब सहन करती हुई रहती थी। उसके सारे गहने एक-एक करके वैश्यायों को देता जाता था। फिर भी वह अपने पति के लिए वट सावित्री का व्रत रखती है। जब वह मरा तो वह सिर को दीवार पर पटक पटक कर रोई। यह सब करना एक पर्दा है, जरुरी दिखावा है, यही सोच कर तो उसने ऐसा किया होगा। या फिर यह सत्य उसे अधिक दुःख देता होगा कि बिना पति के जीवन इससे भी बेकार, इससे भी भयंकर होगा । संभवतया उसका पति भी अपनी इतनी कीमत जानता होगा । शायद इसी बेवकूफी के कारण ही उसका पति उसको इतना परेशान करता था, ऐसे सोचो तो भी कोई आश्चर्य की बात नहीं। आश्चर्य की बात तो यह है कि ऐसा जन्म जन्मांतर से होता आ रहा है ।
कृष्णन की पत्नी भले ही सिंपल गर्ल हो, फिर भी वह किस हद तक सहन करेगी मुझे यह फिक्र हुई। मैं उससे कुछ कह ना दूं इस डर से ही कृष्णन उसे लेकर नहीं आया, ऐसा लगता है।
नलिनी से उसके आने के बारे में बोलने में ही मुझे संकोच हो रहा था। कुछ क्षणों के लिए मैं कमजोर पड़ कर खड़ी रही, मेरी यह बात मुझे अपमानित कर रही है।
मैं अपने आप से अपमानित महसूस कर रही हूं। हम तीनों में नलिनी ही होशियार है, ऐसा मैं अक्सर सोचती हूं। मुझे परेशान करने वाली पिछली पीढ़ी की यादें उसे नहीं है। वह पूरा-पूरा ही दिल्ली में पढ़ी-लिखी, पली-बढ़ी, शायद इसलिए । रोहिणी की तरह 'ना:सिस्ट' (Narcissist) नशा भी उसमें नहीं है। उसके साफ देखने के निगाह में दिखावा नहीं है। उसके निगाहों में मनुष्यता है, दया भाव भी है। परंतु मूर्खतापूर्ण बातों को वह सहन नहीं कर सकती। उसकी गणना में मैं जिस स्थान पर हूं उससे मुझे गिरना नहीं चाहिए, मेरे अंदर उत्पन्न होने वाली यह भावना एक विचित्रता ही है। वह मुझ से 8 साल छोटी है।
पुस्तकों में मेरा मन नहीं लगा। किसी से बात करने की इच्छा तीव्र होने लगी। दो दिन बाद मैं रोहिणी के घर गई । मुझे देख कर जो बच्चों जैसे खुशी उसने जाहिर की उससे मेरे मन में हिम्मत बढ़ी। वह ऐसे कहीं तैयार होकर खड़ी थी जैसे कहीं जाने वाली हो ।
"बहुत बोर हो रही थी। सोचा कनॉट प्लेस जाकर आएंगे ।" वह चहकी ।
"चलते हैं, आओ ना", मैं बोली।
"चलें क्या ?", वह प्रसन्न हो गई । "कॉफी पी कर चलते हैं", कहकर बड़ी फुर्ती से फ्रिज में से दूध निकालकर कॉफी बना लाई।
हमेशा से आज कुछ ज्यादा ही चमक रहा था उसका चेहरा । ऐसा लगा कोई ताज़ा खिला फूल हो। कोई गाना गुनगुनाते हुए वह काम कर रही थी जिसे देख कर मुझे खुशी हुई। उस दिन लाइब्रेरी में मिनट भर में आंसू बहाने वाली उस रोहिणी में और इसमें बहुत अंतर था। लगता है उस दिन मैं दूरई को जो गूढ़ चेतावनी दी थी वह उसे समझ गया ।
"क्या बात है, आज तुम बड़ी उत्साहित दिखाई दे रही हो ?", मैंने उसे छेड़ा।
वह जैसे हड़बड़ा गई जो मुझे आश्चर्यजनक लगा।
"हमेशा जैसे ही तो हूं", अपने को संभालते हुए बोली। परंतु उसमें निश्चित रूप से एक बदलाव था।
"मैं हमेशा से ही उत्साहित रहने वाली हूं मालिनी", हाथ के टम्बलर में दूध को देखती हुई दोबारा बोली । "मेरे बराबर दुरैई के उत्साहित नहीं रहने के कारण ही मेरा मुड आऊट हो गया था।"
"दुरैई कोई चिड़चिड़ा देने वाला गंभीर तो नहीं है ! किसी-किसी के चेहरे पर हंसी ही नहीं होती। कप्पू के पति को तो तूने देखा है ?"
"कप्पू और मुझमें कोई समानता नहीं है!", वह जरा गुस्से से बोली। "संबंध हो तब भी तुलना नहीं कर सकते। पति और पत्नी के बीच का संबंध बहुत ही विचित्र होता है। बाहर वाले आदमी इसे समझ नहीं सकते। दुरैई पर्फेक्ट है ऐसा तुम सोचती हो। परंतु वह परफेक्ट हसबैंड हो ही यह जरूरी तो नहीं !"
मैं भी बिना कुछ जवाब दिए उससे कॉफी को ले ली। बहुत ही साफ सुथरा सजाकर रखे हुए अपने घर को देखती हुई वह जैसे अपने पक्ष के लिए बहस कर रही हो, फिर से शुरू हो गई,
"मैं परफेक्ट वाइफ हूं क्या, मुझे नहीं पता। मैं बहुत खराब वाइफ भी हो सकती हूं। ऐसा नहीं है कि दुरैई से मुझे प्रेम नहीं है । परंतु जिंदगी बिना किसी उत्साह के ही चल रही है।"
उसकी बात करने की शैली में सिर्फ स्वयं का पश्चाताप नहीं लग रहा है । सच्चाई है ऐसा लगता है।
"उस उत्साह को रोहिणी तुम्हें ही उत्पन्न करना चाहिए।", मैं सौम्यता से बोली।
"इसीलिए तो अभी मैं कनॉट प्लेस के लिए रवाना हो रही हूं", कहकर वह हंसी। अब मुझे लगता है किसी से शादी करने के कारण मैं अपनी खुशी को क्यों छोड़ूं । गाना सीखने जा रही हूं। तुमने जैसे बोला वैसे।"
"गुड् !", मुझे शांति मिली । उस दिन उसकी बातों ने सचमुच में मेरे अंदर एक घबराहट पैदा कर दी थी। मेरे बोलने का फल ही इसके बदलाव का कारण है, मैंने सोचा।
ऑटो रिक्शा पकड़ कर हम अभी उसमें बैठे ही थे कि अचानक रोहिणी को कुछ ध्यान आया, "कृष्णन तुमसे मिलने आया था क्या ?" उसने पूछा।
"हां", मैंने जवाब दिया ।, "यहां भी आया था क्या?" मुझे संदेह था ।
"हां ।" वह धीरे से बोली। ‘क्यों आया’ मैंने नहीं पूछा। उसके बारे में इससे पूछते हुए अचानक मुझे संकोच महसूस हुआ। उसका गरम हाथ जो छाती पर पड़ा था, वह याद कर अभी भी छाती कुम्लहा गई।
"सोच कर देखें तो हर एक कार्य के पीछे कोई न कोई कारण होता है।" रोहिणी बोली। "लगता है जैसे हम सभी परिस्थितियों के वश में हैं ।“ कृष्णन ने अंग्रेजी में जिन शब्दों का प्रयोग किया था उन्हीं शब्दों में रोहिणी के कहा ।
मैं आश्चर्य से उसे देखते रह गई ।
"सभी लोग इस सबको भूलकर अपने किए हुए गलती से बचने की सोचते हैं रोहिणी।" मेरी आवाज में पर्याप्त गुस्सा था ।
"क्या ठीक, क्या गलत ? इन सबका क्या मतलब है बताओ !", समझ में ना आने वाली तीव्रता के साथ रोहिणी बोली ।
उसकी तीव्रता ने मेरे अंदर एक संकट पैदा कर दिया। लगा अभी यह विपक्ष की तरफ से है । यह बात मुझे कमजोर करने लगी।
"कुछ मनुष्यों के लिए धर्म कुछ भी, कभी भी नहीं होता है रोहिणी", मेरी आवाज में आक्रोश था।, "मैं सोचती हूं विश्वासघात बहुत बड़ा धोखा है ।"
रोहिणी थोड़ी देर कुछ नहीं बोली, सड़क पर नज़रें गड़ाए बैठी रही । पल भर बाद उसी ने आगे जोड़ा,"चलो छोड़ो। वह कहानी खत्म हो गई।"
मैं भी चुप्पी लगा गई । मगर मन में उथल-पुथल मची थी। कृष्णन ने इससे क्या कहा होगा, मुझे उत्सुकता हुई। कुछ भी कहा हो, इसकी बुद्धि तो भ्रष्ट हो गई न ! यह सोच मुझे गुस्सा आया। अपना पक्ष मजबूत करना चाह रही क्या मेरे घर में ?
कनॉट-प्लेस आ गया था । हम बाजार के सामने उतर गए। बड़े उत्साह से बाहर घुमने आने वाली रोहिणी के उत्साह को मैं खराब नहीं करूंगी, मैंने सोच लिया। वहां क्वालिटी आइसक्रीम वाले से दो चोकोबार खरीदी, एक उसको पकड़ाया। चोकोबार का स्वाद लेते हुए कनॉट-प्लेस के अंदर गली की दुकानों को देखते हुए हम पैदल चल रहे थे। एक छोटी लड़की की तरह रोहिणी इधर-उधर उमंग से लबरेज़ हर दूकान में, हर दिशा में देख रही थी, सबमें रुचि ले रही थी। सिनेमा, राजनीति और फैशन आदि सभी विषयों पर हमने बात करते हुए आइसक्रीम खत्म किया। परंतु हम दोनों इतना तो संभले रहे कि न दुरैई के बारे में और न ही कृष्णन के बारे में कोई बात हमने छेड़ी । मेरे साथ काम करने वाली सुभद्रा से तो मैं जैसे अपनी अंतरंग बातें करती हूं वैसे अपने साथ पैदा हुई बहन के साथ नहीं कर सकती, यह विचित्र बात है। मैंने अपनी अंतरंग बातें अपनी मां से भी कभी नहीं की। कोई एक संकोच ऐसा करने से रोकती रही थी । लगता है अपना मुखोटा पहन लें । यह जो अहसास है उसकी क्या व्याख्या करूं ? जो बहुत निकट के होते हैं उनके सामने इस मुखोटे को बेकार का कपड़ा समझ हटा देते हैं या फिर कठोरता से वह उसे फाड़ दें तो उसे सहन करने की शक्ति हमारे पास नहीं होता है। अपने बचाव के लिए ही बाहर के दूसरे लोगों से अपनी अंतरंग बातें बांटते हैं।
बात करती हुई रोहिणी का चेहरा सामने आए किसी को देखकर प्रसन्न हुई, जिसे मैंने पीछे मुड़कर देखा। कृष्णन आ रहा था। मेरे चेहरे के अचानक बदलते भावों को मैं ही महसूस कर रही थी।
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