मुखौटा - 10 S Bhagyam Sharma द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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मुखौटा - 10

मुखौटा

अध्याय 10

“व्हाट अ प्लेजेंट सरप्राइज !", बड़े उत्साह से कृष्णन बोला। हम दोनों को बारी-बारी से देख रोहिणी से बोला, "यू लुक ब्यूटीफुल ! एक टीनएजर लड़की जैसे लग रही हो, जिसकी शादी भी नहीं हुई हो !"

"तुम एक खराब ब्लास्टर हो !", कहकर रोहिणी हंसी। उसके गाल पर कनपटी तक शर्म से गर्म लहू दौड़ गया था । मैं आश्चर्य से उसको देखती रही।

"तुम्हारे बारे में ही सोच रहा था रोहिणी", कृष्णन शरारत से बोला।

"बेकार मत बोल", रोहिणी बोली। उनके बात करने में जो घनिष्ठता दिखी, उसने मुझे आश्चर्य में डाला। मुझे लगा मेरे पीछे कुछ साजिश हो रही है, और सोचते हुए मैंने अपमानित महसूस किया।

"सच में" कृष्णन बोला। "मेरे एक फ्रेंड ने मुझे चाय के लिए बुलाया है। वह तुम्हारे घर के पास रहता है। सोचा थोड़ी देर पहले निकलूँ ताकि तुम्हें और दुरैई को भी मिल लूँ ।"

"हाँ हाँ, क्यूँ नहीं !”, खुश होकर रोहिणी बोली।

"यहां क्या कर रहे हो तुम दोनों?", कृष्णन ने बात आगे बढाई ।

"कुछ नहीं सिर्फ विंडो शॉपिंग।"

"यहां से कहीं और नहीं जा रहे हो तो मैं ही तुम्हें घर पर ड्रॉप कर देता हूं", उसको देखकर उसने प्रस्ताव रखा ।

"मुझे ब्रिटिश काउंसिल लाइब्रेरी जाना है", मैं बीच ही में बोल पड़ी । “तुम आ रही हो क्या रोहिणी ?"

"नहीं ! मैं घर ही चली जाती हूं मालिनी", वह हिचकते हुए बोली। "कृष्णन उस तरफ से जा रहा है तो मैं उसके साथ जाकर वहां उतर जाऊंगी।“

उसके इस तरह बेशर्मी से जवाब देने पर मुझे बहुत गुस्सा आया।

"रास्ते में तुम्हें भी ड्रॉप कर दूंगा आ जाओ ।", कृष्णन पहली बार मुझसे मुखातिभ हुआ ।

"नो, थैंक्स", मैं झट से बोली। "वो रास्ता तुम्हारा नहीं है।“ और बिना एक पल गँवाए वापस सामने वाली दिशा की ओर चलना शुरू कर दिया।

रोहिणी ने जल्दी से आकर मेरा कंधा पकड़ा ।

"तुम भी आ जाओ ना घर। तुम्हें लाइब्रेरी जाना जरुरी है क्या ?" धीमी आवाज में बोली। फिर लगभग फुसफुसाते हुए, “तुम क्यों तेजी दिखा रही हो, बे-वजह ! उसके बारे में जो तुम गलत सोच रखती हो, ऐसा तुम ना सोचो इसलिए भी एहतियात बरत रहा होगा वह ।“

रोहिणी के बर्ताव पर मुझे और गुस्सा आया। मेरी भावनाओं का क्या इसको ज़रा भी परवाह नहीं ? यह विचार मेरे गले में भार जैसे जम गया।

"हां रोहिणी मुझे जाना है", मैं बमुश्किल कहकर उससे छुटकारा पाई। मुझे कुछ क्षण वह संकोच से देखकर "ठीक है फिर", बोल रोहिणी मुड़ गई।

मेरे अंदर मुझे ही समझ में ना आने वाली एक व्याकुलता उमड़ आई और गुस्से से मैं दूसरी दिशा की ओर चलती हुई एक ऑटो पकड़ कर बैठ गई। कृष्णन मुझसे अनुचित तरीके से छेड़खानी कर रहा है। मेरे पक्ष के लोगों को अलग करना चाह रहा है। उनकी सहानुभूति प्राप्त करने के लिए उसने झूठी कहानी कह कर आंसू बहाए होंगे। पहले तो रोहिणी को उसकी करनी में गलती दिखी थी ! आज वह उसके पक्ष में बोल रही है ? आज वह जो बात बोलता है उन्हीं शब्दों को वह मुझे ट्रांसफर कर देती है। - 'हम सब परिस्थितियों के अधीन है'।

(बुल शिट ) बेवकूफ ! ये एक पक्ष से दूसरे पक्ष की ओर भागना हुआ। तुम सुंदर हो, कुँवारी लड़की जैसी लग रही हो !’ एक आदमी के मुंह से ये सब बातें सुनने वाली बेवकूफ, एक नंबर की बेवकूफ है !...

ब्रिटिश काउंसिल के बाहर पहुँचते ही मुझे सुभद्रा किसी युवक के साथ सामने खड़ी हुई मिली।

"लाइब्रेरी बंद है। कोई रिपेयरिंग का काम चल रहा है", मैंने उसे सूचित किया ।

"दिस इज गौतम", पास में खड़े आदमी से उसने परिचय कराया।

"आओ मालिनी दासाप्रकाश में बैठ कर कॉफी पिएंगे। गौतम कार लेकर आया है"। सुभद्रा ने पेसकस किया ।

'ठीक है', कहकर उनके साथ चल दी। मेरा मन तो पहले ही चाह रहा था कि कहीं जा कर बैठा जाए तो ठीक रहेगा ।

दासाप्रकाश में सहन करने लायक ठंडे वातावरण में एक पंजाबी परिवार इडली-डोसा स्वाद लेकर खा रहा था । लालगुडी के वाइलन के बारे में बात करते हुए कुछ लोग सफेद मेटल के प्लेट में मसाला डोसा खा रहे थे। सुभद्रा लगातार बातें करती जा रही थी। रोहिणी-कृष्णन को भूलने के लिए मैंने बड़े इंटरेस्ट से सुभद्रा को देखा। ये कुछ ज्यादा ही बात कर रही है, ऐसा लगा। उसकी हंसी में उत्साह उफन रहा था। वह शादीशुदा है। यह गौतम कौन है, पता नहीं। नई दोस्ती हो सकती है। परंतु उनके बातचीत में और हंसी में एक बेशर्म निकटता दिखाई दी। सुभद्रा उत्तर प्रदेश की है। जैसा कि वह मुझे बताती रही है वह बहुत ही परंपरावादी और पिछड़े परिवार से है। मैं जिस हंम्मगा बुआ की लड़की के बारे में बताती हूं वैसी कहानियां वह अपने परिवार की भी बताती है। आज दिल्ली में उसका और उसके पूर्वजों का कोई संबंध दूर-दूर तक नहीं दीखता । वह जिस ढंग से पली है उसका विरोध जताने के लिए, जैसे अपने अतीत धो चुकी हो वह सिगरेट पीती है । उसका पति परितोष एक बंगाली है। मार्क्सवादी है। इसको शाम को वाइन देते हैं। वे घर पर ध्यान से विभिन्न डिजाईनों की बोतलों वाली नायाब शराब वगैरह रखते हैं। "कभी-कभी यह रिश्ता बहुत ही घुटन जैसे हो जाता है।", सुभद्रा दुखी होकर मुझे बताती। शायद हवा खाने के लिए ही गौतम के साथ आई है ।

मुझे फिर से रोहिणी की याद आ गई। वह भी तो एक घुटन में रहती है। नहीं तो यह उसकी कल्पना है कि वह घुटन में रहती है । हवा खाना कोई गलत काम नहीं है, यह कृष्णन ने उसके दिमाग में भरा हो सकता है।

"और क्या खाओगी मालिनी ?", सुभद्रा पूछी। दूर से आती आवाज सुन कर रोहिणी से मैं स्वयं में लौट आती हूँ और ‘कुछ नहीं चाहिए’ में सिर हिला देती हूँ । मुझे लग रहा है कि मेरा दिमाग खराब हो गया है । मेरी कल्पनाओं का फिर कोई और क्या कारण हो सकता है मेरी समझ में नहीं आया।

गौतम सिर्फ कॉफी पी कर उठ गया। मुझे देखकर बोला, "सॉरी, मुझे और काम है ।"

और फिर सुभद्रा से मुखातिब हो कर, "कल फोन करूंगा" बोला। उसकी आंखें हंस रही थी। कुछ संदेह है उसकी नजरों में, सुभद्रा मुझे देख कर प्रेम से हंसी।

"ग्रेट !" उसने गौतम को जवाब दिया ।

"वह कौन है ?" गौतम के दूर निकल जाने पर मैंने सुभद्रा से पूछा ।

"आई.आई.टी. में लेक्चरर है। लाइब्रेरी में है, दो महीने पहले मिली।“

इसको ऐसे कैसे दोस्त मिल जाते हैं, मुझे आश्चर्य हुआ।

"दोस्त ? मतलब किस तरह का दोस्त?”, भरसक भोलेपन से मैंने पूछा।

"बहुत ही निकट का दोस्त", कहकर वह हंसी।" तभी तो ! वरना इसमें कोई इंटरेस्ट नहीं होता ।"

जितने खुलेपन से सुभद्रा मुझसे बात करती है, मुझे पता है, वह वैसे और किसी से नहीं करती । मेरे और कृष्णन के बीच जो निकटता थी वह उससे भलीभांति वाकिफ है । इसके बावजूद भी इसकी बातों से मुझे हल्का आघात लगा।

"परितोष को पता है क्या?" धीरे से मैं बोली।

"नहीं मालूम।" उसने धीरे से सिगरेट सुलगा कर धुंए को हवा में उड़ा दिया । थोड़ी देर उस खेल को देखती रही। उसके बाद बड़ी तीव्रता से शुरू हुई- "मालूम होता तो भी अनजान ही बनता, बीच में नहीं बोलता। मेरे विषय में वे बीच में नहीं पड़ते।“

मैं कुछ देर चुप रही।", परितोष की भी किसी से मित्रता होगी, ऐसे सोचती हो क्या?, "संकोच से पूछा।

"होगा ! नहीं भी हो सकता। मैं इन बातों में नहीं पड़ती। हम दोनों का परस्पर विश्वास है। इसीलिए तो साथ रह रहे हैं। विश्वास ख़त्म हो जाये तो साथ रहने का मतलब ही नहीं। मैं सोचती हूँ ऐसी परिस्थिति नहीं आएगी ।"

विश्वास का मतलब बातों का प्रमाण ? मेरी समझ में नहीं आया। "बाहर ही दोस्ती क्यों रखती है?", हल्के से मैंने पूछा।

"नहीं तो मैं घुटकर मर जाऊंगी। बाहर की दोस्ती की वजह से मेरे दांपत्य जीवन के लिए कोई खतरा नहीं है । ऐसा नहीं कि घर की मैं परवाह नहीं करती हूं । आई लव परितोष। वह, वे जानते हैं।“

मुझे लगा यह बहुत ही जटिल विषय है । बच्चे होने पर भी ऐसी स्वतंत्र जीवन जीएगी क्या, मेरे अंदर एक प्रश्न उठा। यह स्वतंत्रता कहीं चली नहीं जाए इसीलिए बच्चे नहीं चाहिए, ऐसा इसने निर्णय ले लिया क्या ? यह एक नपुंसक-व्यवस्था है, मैंने सोचा। लड़कियों को स्वतंत्रता चाहिए, शादी का बंधन भी नहीं टूटना चाहिए तो इस तरह की व्यवस्था ही संभव हो सकती है। बट्रेंड रसैल ने कहा था जैसे-अंतपुर में हिजड़ों को राजा सहन करते थे, उसी तरह जिनके बच्चे नहीं होते उन पत्नियों के प्रेमी को उनके पति लोग सहन करते हैं ।-एक नई दृष्टि में इसे चूर-चूर करो।

"आई लव परितोष, रियली", सुभद्रा फिर से बोली।

यह सरलता से जिन शब्दों का प्रयोग कर रही है, मुझे जो अर्थ मालूम है उनकी व्याख्या उसके बाहर की होनी चाहिए ‌। फिर तो सुभद्रा कहेगी कि ये सिर्फ शब्द हैं जिनका अंतर अनुभव कराता एक बेहोशी है । फिर तो सुभद्रा कहेगी कि ऐसा मैं मेरे अपने जीवन में धोखे के कारण कह रही हूं । मेरी पड़-दादियों को इन शब्दों का अर्थ बिल्कुल समझ में नहीं आएगा। मेरे पिताजी और अम्मा दोनों साथ में कैसे रहे मुझे आज तक आश्चर्य होता है। मेरे अप्पा से मेरी मां हर बात में एक पायदान ऊपर थी। मेरे अप्पा अच्छे आदमी थे परंतु अम्मा के साथ बड़े कठोरता से पेश आते थे। अम्मा के प्रकाश में उनकी आँखें चौंधिया जाती थी। बिना किसी कारण के सबके सामने वे मेरी अम्मा को नीचा दिखाते रहते थे। उन्हें लगता था अम्मा को दबाकर रखना ही उनका अपना झंडा फहराने का एकमात्र साधन था।

एक बार, ' तुम सोचती हो कि तुम बड़ी विद्वान हो ?', ऐसा चिल्लाकर अप्पा बाहर चले गए। अम्मा के चेहरे पर दुख और अपमान दिखाई दे रहा था। आंखों में आंसू थे। उस समय मैं चौदह साल की थी। मुझे देख कर माँ अचानक बोली :

"इस आदमी के साथ रहना सिर्फ उधारी चुकाने जैसा है, प्रेम नहीं।"

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