दह--शत - 36 Neelam Kulshreshtha द्वारा थ्रिलर में हिंदी पीडीएफ

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दह--शत - 36

एपीसोड ---36

     एम डी बड़े बड़े डग रखते अपने ऑफ़िस के पीछे के दरवाज़े से निकल चुके हैं. वह खिसियाई सी, रुआँसी एम डी के चैम्बर में सोचती रह जाती है, ‘यू बिग बॉस! एक भयानक राक्षसी से वह लड़ रही है। युद्ध में पीठ दिखाना उसकी फ़ितरत में नहीं है। धनुष से तीर वह भी छोड़ती जा रही है। लेकिन धीरज के साथ सोच समझ कर। आपने उस देहातन श्रीमती सिंह को अपना मर्दाना सुझाव दे दिया हैं, ऐसा सुझाव आपको ही मुबारक हो। वह कॉलोनी में सिंह को पीट-पीट कर अपने घर का तमाशा कर रही है।’ पस्त कदमों से घर लौटते हुए उसे अपने मद में झूमती नागिन याद आ रही है.... मैं बहुत बोल्ड हूँ..... हाँ, मैं बहुत बोल्ड हूँ..... झूमती काली नागिन का फन उसे कुचलना है.... कैसे? रास्ते पता नहीं है.... वह चल पड़ी है।

  “मैडम! आप क्या परेशान हैं? आपने मुझे देखा भी नहीं।” पीछे से विश्व मोहन जी की आवाज़ आती है।

वह मुड़कर देखती है व कहती है, “बस ऐसी ही।”

“आपके स्टूडैन्ट्स के पेपर्स यदि अर्जेन्ट हो तो आज भिजवा दीजिए क्योंकि संडे से मैं पंद्रह दिन छुट्टी पर जा रहा हूँ।”

“थैंक्स ! आपने बता दिया। अगले हफ़्ते मुझे उनका टेस्ट लेना है। आज पेपर भिजवा दूँगी।”

“ओ.के.।”

  वह सोचती है यदि विश्व मोहन जी जैसे लोग दुनिया में हो जाये तो दुनियाँ में कोई विवाद न रहे। वह पंद्रह वर्षों से उनसे कागज़ टाइप करा रही है। कभी भी पैसों को लेकर या किसी बात के लिए विवाद नहीं हुआ।

X X X X

  दूसरे दिन फिर हिम्मत समेटती है। वर्मा के बॉस से मिलना ही होगा। वर्मा का नाम सुनकर अपने ऑफ़िस में वे कहते हैं,    

   “हमारे यहाँ तीन सब सेक्शन है। अभी पता करवाता हूँ वह किसके अंडर है।”

   वे इंटरकॉम पर सचिव को आदेश देते हैं फिर पूछते हैं, “आप बताइए आपकी समस्या क्या है?”

“सर! उन्हीं से ‘डिस्कस’ कर लूँगी।”

“मेरे विभाग का मामला है मुझे भी पता होना चाहिये।”

संकोच में डूबते उतरते वह वही कथा दोहराने लगती है। फ़ोन की घंटी बजते ही वह उसे उठाकर बात करके उससे कहते हैं,“वर्मा के बॉस  फ़्रांस गये हैं। पच्चीस तारीख़ को वापिस आएँगे तब उनसे मिल लीजिए।”

तीन मंज़िल के ऑफ़िस से सीढ़ियाँ उतरते हुए वह बहुत हाँफ़ रही है जितना सीढ़ी चढ़ते में नहीं हाँफ़ रही थी।

  एक-एक तारीख गिनकर उसके बॉस का इंतज़ार कर रही है। उनके फ़्रांस से लौटने पर उनके एक और सहायक के सामने बयान सा दे रही है,“.... सर! कोई भी औरत इतनी भयानक नहीं हो सकती जिसने अपनी माँ व बहनों को ऐसा करते देखा हो। वह ये सब कर सकती है..... ये कोई ख़ानदानी औरत है।”

वे सुझाव देते हैं,“आप लोग कुछ महीने छुट्टी लेकर बाहर घूम आइए। सब बदल जायेगा। ऐसे दो-तीन केस और हमारे पास आये हैं।”

  “सर! ये किस्सा कोई ‘अफ़ेयर’ या ‘रिलेशनशीप’ का नहीं है। इन्हें तो पति-पत्नी ने मिलकर फाँसा है। जब ये उनके प्रभाव में नहीं होते तो मेरे साथ बिल्कुल नॉर्मल होते हैं।”

“सुना है आपके पति का मित्र भी इसमें शामिल है।”

“जी, बिल्कुल इसीलिए ये बात ख़त्म नहीं हो पा रही। आप वर्मा का प्लीज़ । ट्रांसफ़र कर दीजिए।”

“मैं बस इतना कर सकता हूँ इसका इसी शहर में ट्रांसफ़र कर सकता हूँ लेकिन जब बात इतनी गम्भीर है तो छः सात किलोमीटर की दूरी कोई मायने नहीं रखती। आप सोच लीजिए।”

“जी मैं सोचकर बताऊँगी।”

शाम को अभय खबर देते हैं, “दीदी की बेटी की शादी तय हो गयी है। मैंने चलने का उन्नीस नवम्बर का रिज़र्वेशन करवा लिया है। अपनी शॉपिंग शुरू कर दो।”

  “उन्नीस नवम्बर?”

“हाँ, चौंक क्यों गईं?”

“बस वैसे ही।”

X X X X

  नवरात्रि आरम्भ हो गईं हैं ,हर बरस की तरह सारा गुजरात गरबा में डूब गया है। अभय बतातें हैं ,`` “शनिवार को हमारा डिपार्टमेंट गरबा करवा रहा है, उसके बाद डिनर होगा। जिससे सभी एमप्लोईज़ शामिल होंगे।”

      “ओ..... ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ।”

“इस बार बॉस क्रिश्चियन है फिर भी वे इंटरेस्ट ले रहे हैं।”

“बहुत दिनों से तुम्हारे ऑफ़िस वाली फ़ेमिलीज़ से नहीं मिली हूँ, मिलना हो जायेगा।”

“तुम?..... तुम तो वहाँ कैसे आओगी, तुम्हें शर्म नहीं आयेगी?”

“क्यों मुझे क्यों शर्म आयेगी?”

“तुम्हें तो मेरे ऑफ़िस में सब सायकिक समझते हैं।”

  वह ज़ोर से हँस पड़ती है, “मुझे नहीं पता कि मैं क्या हूँ? अगर नहीं गई तो सब विश्वास कर लेंगे कि मैं सायकिक हो रही हूँ।”

     शनिवार को वह गरबा महोत्सव के लिए खूब सज धजकर पीले, लाल रंग की साड़ी पहने, गजरा लगाए निकलती है। अभय उसे अविश्वास से देख रहे हैं। वह ख़ुश व लापरवाह है।

  हॉल में बीच में अंबे माँ की मूर्ति रखकर मन्दिर सजाया गया है व एक म्यूज़ि क सिस्टम रखा है। चारों तरफ कुर्सियाँ रखी हुई हैं। जैसे ही वह स्त्रियों के समूह में जाती है। लालवानी की पत्नी सहित बहुत सी स्त्रियाँ मुस्कराकर उसका स्वागत करती हैं, “नमस्ते भाभी जी!”

     “नमस्ते मैडम!”

“आप तो बहुत चमक रही हैं।”

वह गहरे अर्थ से मुस्करा देती है, “इस चमकने के लिए बहुत पापड़ बेले हैं।”

वह भी ज़ोर से हँस पड़ती है। उच्च अधिकारी उद्घाटन के लिए मंच पर बैठ चुके हैं। कॉलोनी में रहने वाले मलय को पैर में फ्रेक्चर हो गया था। विकेश अस्पताल की व्हील चेयर पर उसे ला रहा है। कुछ स्त्रियाँ फुसफुसा उठती हैं, “विकेश जी बहुत हेल्पिंग हैं। उनके जैसा होना बहुत मुश्किल है।”

  लालवानी की पत्नी फिर कहती है,“प्रतिमा मैडम को ऑटो में मैंने कॉलोनी के अन्दर जाते देखा था। मैं समझी वो आपके घर गई होंगी।”

      “वो मेरे घर क्यों आयेगी?”

“क्यों क्या हुआ.....।”

“कुछ नहीं।”

तभी प्रतिभा हॉल में अंदर आकर आगे की कुर्सी पर बैठ जिन सशंकित नजरों से उसे देखती नमस्ते करती है। वह समझ जाती है कि उसे कॉलोनी के अन्दर कविता के पास भेजा गया होगा और कविता ने रो-रो कर सीता बनने का ढोंग किया होगा। मंच के मेहमानों को बुके देने के बाद उद्घोषक विकेश को स्वागत भाषण के लिये आमंत्रित करता है। मक्खन लगाने में वो उस्ताद ही है। उसके भाषण पर बार-बार तालियाँ बज रही हैं। वह घमंड में फूला हुआ मटमैले कुर्ते पर दुपट्टे को सम्भालता दो कोल्ड ड्रिंक के गिलास लिए बड़ी अदा से उसके सामने रखकर उसे ऑफ़र करता है।

     वह घृणा से भरसक जितना मुँह टेढ़ा हो सकता है, टेढ़ा करके सिर हिलाकर गिलास लेने से इनकार कर देती है व पूछना चाहती है, “हॉल में इतने लोग हैं, तुम स्टेज से उतरकर अकड़ते सीधे मेरे पास ही क्यों भागे आ रहे हो?”

इतने लोगों के सामने हुए अपमान से वह जलता अपनी पत्नी प्रतिमा व एक अन्य महिला को गिलास पकड़ा कर खिसियाया सा चला जाता है। सब आरती के लिए उठ जाते हैं। आरती के बाद गरबा आरंभ हो जाता है,“गरबा रमवा आओ ने...” या “रमतो रमतो जाय.... आज माँ नो गरबो रमतो जाये।”

वह कुर्सी पर आ बैठी है। उसकी बेचैन नज़रें अभय को ढूँढ़ रही हैं। भीड़-भीड़ में वे नज़र नहीं आ रहे। थोड़ी देर बात सुयश व्यंग करता हुआ उसके पास आ जाता है, “भाई साहब कहाँ हैं? नज़र नहीं आ रहे।”

वह तुरुप जड़ना जानती है,“अरे भाई! क्या ऑफ़िस पार्टी में भी उन्हें मैं अपने पल्लू से बाँधकर बैठूँगी?” सच ही उसकी नज़रें अभय के लिए चिंतित हैं। वे बातचीत करती भीड़ में या गरबे के गोल घेरे में कहीं नज़र नहीं आ रहे। तभी उसका पसंदीदा गरबा आरंभ हो जाता है।

“तारा बिना शाम मने एकलड़ुं लागे, रास रमवाने वेलो आवजे।”

वह अपना आँचल ठीक करती हुई लचकती हुई, पैर पर ताल देती हुई, हाथों से सुमधुर ताली मारती गरबा के गाल घेरे में नृत्य करने लगती है। गरबा के किसी और गीत के शुरू होते ही ताल तेज़ होने लगती है..... तेज़..... और तेज़..... और तेज़.... उसके पाँव तेज़ी से थिरक रहे हैं, वह घूमते हुए तेज़ ताली मार रही है..... तेज़.... ताल चरम पर जाती है, गरबा का गोल घेरा, गरबा तेज़ी में अपने चरम पर पहुँच गया है। गीत रुकता है, गरबा करने वाले पैर थम जाते हैं।..... तभी वह देखती है अभय हॉल के दूर के दरवाजे से अन्दर आ रहे हैं। विकेश उसे व्यंग से घूरता तेज़ी से सीटी बजाता उसके पास से गुजर जाता है।

X X X X

  समिधा दीवाली की छुट्टियों में ट्यूशन के बच्चों के टेस्ट लेती है। फ़ुर्सत ही नहीं मिल पा रही कि बाज़ार जाये। बस अठारह तारीख ही शॉपिंग के लिए बची है सत्रह तारीख की रात अभय मुँह फुलाये घोषणा करते हैं,“कल मैंने छुट्टी ली है।”

“क्यों?”

  “तुमसे मतलब?”

इस मनोदशा को वह पहचानने लगी है। दूसरे दिन वह एक एयरबैग ख़रीदने निकलते हैं तो वह उनके साथ चल देती है, “मुझे रास्ते में ड्रॉप कर देना।”

एक चौराहे पर वह उतरते हुए कहती है,“अभय! एक खुशखबरी है हमारे विभागीय फ़ोन की कॉल्स को ट्रेस करने के लिए जो सिस्टम लगाया था इससे पता लग गया है वर्मा अपने ऑफ़िस से कॉल्स करता है।  ये लोग ‘इज़ी मनी’ वाले लोग हैं। एम.डी. को जो मैंने ‘कम्प्लेन लेटर’ लिखा था उसकी ‘कॉपी’ तुम्हें घर में डाइनिंग टेबल पर मिल जायेगी।”

“तुम रास्ते में तमाशा करना नहीं छोड़ोगी?”

“मैं वर्मा के बॉस से मिल आई हूँ । अभी-अभी फ़्रांस से लौटे हैं। उनका नाम है डी.के.पुरोहित। यदि उनसे मिली नहीं होती तो ये नाम मुझे कैसे पता होता?” वह उत्तर सुने बिना ही चल देती है। समझ नहीं पाती कि अभय अब घर जाएँगे या कहीं और।

उन्नीस तारीख की सुबह बाज़ार से छोटे-मोटे काम करने हैं। कल की हिम्मत देखकर दिमाग़ बहुत परेशान है। एम.डी. तक बात पहुँच गई है फिर भी शांत नहीं है।

वह एसटीडी बूथ से वर्मा का नम्बर डायल करती है, “बबलू जी! मैं बोल रही हूं।”

“कौन....?”

“बनो मत, मैं तुम्हारे बॉस डी.के.पुरोहित से मिल ली हूँ। एम.डी. तक बात पहुँच गई है फिर भी तुम लोग अभय का पीछा नहीं छोड़ रहे। कल उन्होंने छुट्टी ली थी।”

“अगर वो छुट्टी लेते हैं तो हम क्या करें?”

“तुम्हारा विभाग तुम्हारा ट्रांसफ़र करे उससे पहले तुम ही ट्रांसफ़र की एप्लिकेशन दे दो। तुम्हारी दीवाली की कॉल ट्रेस हो गई है। एम.डी. तुम ‘इज़ी मनी’ वालों के साथ क्या करते हैं मुझे पता नहीं। हम लोग छुट्टी पर जा रहे हैं लौटकर आयें तो जब तक तुम चले जाना।” कहकर फ़ोन काट देती है।

शॉपिंग करने के बाद काँपते हुए दिल से घर के अंदर आती है। अभय ऑफ़िस जाने के लिए दर्पण के सामने बाल काढ़ रहे है, “क्यों आ गई? तुम ये तमाशा करना कब छोड़ोगी?”

“क्या हुआ?”

“वर्मा अभी यहाँ आया था, धमकी दे गया है कि वह तुम्हारी पुलिस में रिपोर्ट करेगा। अब तक तो थाने पहुँच गया होगा।”

“थाने पहुँचने दो। उन्हें पता लग गया है कि एम.डी. पर शिकायत पहुँच गई है फिर भी उसकी बीवी रुक नहीं रही। तुम परसों से कैसे मूर्ति जैसे हो गये हो। तुम्हारा चेहरा क्यों अजीब हो गया है ?”

“बिचारी ने क्या किया है?”

“वह बिचारी है?” वह दुःख और क्षोभ से थर-थर काँपती जा रही है।

“तुम हम सबको हैरान कर रही हो। मैं अभी पुलिस में रिपोर्ट करने जाता हूँ।”

“पुलिस में तुम भी जाओ। मैं ‘लाइ डिटेक्टर टेस्ट’ करवा दूँगी।”

“किसका?”

 “सबसे पहले तुम्हारा।”

“मेरा?”

“और क्या?”

उनके चढ़े हुए तेवर, बड़ी-बड़ी आँखें सब ढ़ीले पड़ जाते हैं, वे घर से बाहर निकल जाते हैं।

समिधा देर तक हाँफती रहती है, कैसे ज़हरीले फनफनाते साँपों से घिर गई है। जिन्होंने अभय को ही फुँफ़कार मारना सिखा दिया है। यदि डसने के लिए तैयार फैले हुए फनों पर वार न करो तो ये वार कर देंगे। वह क्यों इन साँपों से खेलने के लिए अभिशप्त हो गयी हैं ?

      दोपहर में आराम करती समिधा, शाम को काम में लगी समिधा हर आहट से चौंक पड़ती है, कहीं सच ही पुलिस न आती हो। उसका सच उसके साथ है लेकिन फिर भी डर तो लग ही रहा है।

सूटकेस में सामान रखते अभय झुँझलाते हैं, “तुम इतना तंग करती हो कि मैं टिकट रखकर कहीं भूल गया हूँ।”

“शाँति से ढूँढ़िये टिकट मिल जायेगी।” अभय के चेहरे पर इतना मासूमियत भरा भोलापन है कि समिधा को उन पर सिर्फ़ तरस आ रहा है। वह भी दुविधा में है ट्रेन का समय हो रहा है ,टिकिट अभय ढूंढ़ पायेंगे या नहीं ?

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नीलम कुलश्रेष्ठ

ई –मेल---kneeli@rediffmail.com