"रेत का घर",
आज अचानक मेरी स्मृति में उभर आया, बचपन के उन सुनहरे औझल हुए पलों को स्मरण कर हृदय भर सा आया। एक अनोखी सी प्रसन्नता मेरे अंदर कौंध रही थी। शाम का समय आसमान में बादल ओर मेरे नंगे पैरों के नीचे ठंडी ठंडी रेत जिसके स्पर्श ने मुझे में बचपन की सारी यादें ताजा कर दीं।
कितनी खुशियां थी उन दिनों में कितनी ही कल्पनाएं ओर उनको अपने हाथों में रेत भरकर जमीन पर उतारते, आखिर वो बचपन कितना हसीन था।
क्या कोई भी वो बच्चा जो अपनी कल्पनाओं को सूखे गीले रेत पर उतार रहा होता है वो किसी आर्केटरेचर से कम होता है नही बिल्कुल भी नही। दोस्तों के साथ मौज-मस्ती और उसी मौज मस्ती में अपनी अपनी उत्कृष्ट कला का प्रदर्शन करना, मन के भावों को प्रत्यक्ष रेत पर उकेरना। मित्रों के ग्रुप में अपनी कलाकारी को अव्वल लाने की कोशिश और स्वछंद "रेत का घर" बनाना।
हम बड़े हो गए समझ भी आ गयी मगर हम खो चुके है बचपन, यूँ तो जिंदगी का हर पड़ाव ढलता है मगर एक बचपन ही तो है जहाँ प्रकृति से प्रेम भी विशुद्ध है, मन भी और आत्मा भी। जितनी सुखद अनुभूति उन बचपन की चीजों को याद कर होती है उतनी और किसी में नही।
आज भी ग्रामीण परिवेश में बच्चे "रेत के घर" बनाते मिल जाते हैं मगर बहुत कम हमनें आधुनिक होने की दौड़ में बच्चों में जीवन के महत्वपूर्ण रचनात्मक विकासों को विकसित करने वाले परिवेशों को बहुत दूर छोड़ दिया।
आज हम संसाधनों से रचनात्मक चीजों को विकसित करना चाह रहे है परंतु स्वछंद कल्पनाओं को खो रहे है। किसी बच्चे को रेत में छोड़ कर देखो उसकी कल्पनाएं स्वतः ही जाग्रत होंगी बड़ी ही रचनात्मक चीजें हमें देखने को मिलेगीं। कभी रेत का घर बनायेगा। विश्लेषण करने वाली बात ये कि उस घर में वो अपने परिवेश को उतारने का पुरजोर प्रयास करेगा। एक आदर्श घर हमने पुस्तकों में पढ़ा होगा लेकिन हम प्रत्यक्ष देख सकते है जब बच्चे रेत पर घर बना रहे हो। रेत के घर के साथ आराध्य का मठ, पशुओं का स्थान, वृक्षों का रोपण, ये सब जहां उन्हें होना चाहिए वही व्यवस्थित करता है "रेत पर घर बनाने वाला।
मैं स्वयं ग्रामीण परिवेश से हूँ, सो मैंने भी बचपन में रेत पर रेत से "रेत का घर" बनाया है।
आज आधुनिक और भौतिकवाद जिंदगी ने मानो बचपन ही छीन लिया है और आने वाले समय में ये और भी बदतर होगा यदि हम नही जागे तो, आजकल बच्चों को देखकर लगता है कि हम मशीनें तैयार कर रहे हैं, ऐसा नही कि आज के बच्चों में कल्पना नहीं, लेकिन हम उनपर भविष्य थोप रहे है जिसके चलते बचपन इतना मजबूर कि कल्पनाएं ही बंधी हुई है।
आज खेलने के संसाधन है, लेकिन खेल खेल ही नही रहे समूह के खेल जिनसे बच्चों में सामाजिक उत्तरदायित्वों का अंकुर होता है, सहयोग, निर्भीकता, साहस,अनुशासन का उदय हो वो खेल ही नही रहे।
रेत में खेलना एक दम अलग होता है जो न जाने कितने ही गुणों को विकसित करता है लेकिन हम इंसान ऊपर से आधुनिक हो गए।
सब कुछ उल्टा कर दिया, रेत भी है, बचपन भी है, कल्पनाएं भी इंतजार कर रही हैं।
बांध दी है जो कल्पनाएं उन्हें खोल दो,
बचपना है जो फूलसा उसे खिलने दो।।
©️राजेश कुमार