30 शेड्स ऑफ बेला - 7 Jayanti Ranganathan द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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30 शेड्स ऑफ बेला - 7

30 शेड्स ऑफ बेला

(30 दिन, तीस लेखक और एक उपन्यास)

Episode 7 by Amrita Thakur अमृता ठाकुर

हवाओं के रुख ने बदल दी राह

‘आग और पानी में गजब का आकर्षण होता है! नज़र कैसे दोनों पर टिक सी जाती है। एक आरंभ है और एक अंत। मां के गर्भ में पानी से ही बच्चा पहली बार रूबरू होता है फिर अपनी उम्र जीने के बाद आग की गोद में सो जाता है। अजीब है़! दोनों ही अति विनाशकारी है और नियन्त्रण में हो तो जीवनदायनी। दादी कहती थी पानी और आग दोनों ही अपनी तरफ खींचते हैं। सच में! सृजन और विनाश दोनों ही आकर्षित करते हैं। ये आप पर है कि आप क्या चुनते हो।'..... बेला धीरे से बुदबुदाई। अस्सी घाट के पास बनी सीढ़ियों पर

दीवार से टेक लगा कर वो बैठी हुई थी । बनारस का ये हिस्सा अपेक्षाकृत काफी शांत है।सामने चाय की दुकान वाले ने कुछ लकड़ियाँ इकठ्ठी करके आग जला रखी थी।

आग की लपटों में खोई हुई थी बेला। फिर मुस्कुरा उठी ‘यहां तो जो आता है आध्यात्मिक हो जाता है। मैं भी इसकी शिकार हो गई।’बेला बेखुदी में अपने बगल में बैठे हुए साधु से ऐसे बात करने लगी जैसे वह उसे सदियों से जानती हो। फिर दोनों के बीच एक चुप्पी पसर गई।.....

‘बम शंकर!’ की आवाज़ से बेला की तंद्रा टूटी। बगल में बैठे साधू ने शायद अपने तरीके से बेला की बातों का जवाब दिया था। बेला अचकचा सी गई। उसने पहली बार पूरी नजर से, बगल में बैठे साधू को देखा। कब आ कर बैठ गया था उसे तो पता ही नहीं चला था। उम्र यही पचास के आस-पास की लगी। लंबी जटाएं, गेरूआ वस्त्र, गले में रुद्राक्ष, और आंखों में लाल डोरियां तैर रहीं थी। बेला थोड़ी सहम सी गई। मन किया की तुरंत वहां से उठ जाए लेकिन पता नहीं क्या था कि वह वहां से उठ नहीं पाई। बेला को छोटू के इन्तज़ार मे यहाँ बैठे हुए पूरा एक घंटा हो गया था। उसने छोटू को यहीं बुलाया था, इंद्रपाल यादव तक पहुँचने का छोटू एकमात्र ज़रिया था। ‘ये छोटू अभी तक क्यों नहीं आया ?’ वो बुदबुदाई ।फिर चुप्पी का दौर। ...नज़रे बचाते हुए उसने साधू की तरफ देखा, साधू की नज़रें बिल्कुल सीधी थी, ऐसा लग रहा था जैसे हवा में वह कुछ ढूंढ रहा है या शून्य में लिखीं इबारतों को पढ़ने की कोशिश कर रहा है। बेला की नज़र अचानक उसके गले में लटके हड्डी के टुकड़े पर गई।

औघड! हां इन्हें औघड़ ही तो कहते हैं। दादी बताती थी कि ये औघड़ शमशान घाट पर रहते हैं, नर मुंड में खाना खाते हैं। एक सिहरन सी बेला के पूरे शरीर में दौड़ गई।

‘क्या ढूंढ रही हो ?’ ....अचानक एक गंभीर और डूबी सी आवाज आई, जैसे कोई बहुत दूर से बोल रहा हो।

‘जी!’....बेला थोड़ा हकला सी गई।

’जानता हूं कुछ ढ़ूंढ रही हो।’..साधु की नज़रें अभी भी शून्य में थीं जैसे वह बेला से नहीं किसी और से बात कर रहा हो।

..."नहीं कुछ भी नहीं।’ बेला अब खड़ी हो कर जाने लगी।

‘"अपनी मां की तरह तुम्हें भी नहीं पता कि तुम खुद को ढ़ूंढ रही हो।... नहीं पता लगता है। दूसरा कोई बता भी नहीं सकता है। तुम्हारी मां को भी नहीं पता था। नाभि में कस्तूरी था और अपनी ख़ुशबू से बौराई फिर रही थी। तुम भी फिर रही हो।’... बेला के कदम रुक गए। ‘ये मेरी मां को कैसे जानता है?’ वह बुदबुदाई।

...‘आप मेरी मां को जानते थे? आप कौन हैं? प्लीज मुझे मेरी मां के बारे में बताइए? वो कहां हैं?’ बेला की आवाज़ में गिड़गिड़ाहट आ गई थी। पर वह तो जैसे कुछ सुन ही नहीं रहा था। उठ खड़ा हुआ और जिस दिशा में देख रहा था उसी दिशा में बढ़ गया। बेला उसके पीछे भागी। ....."‘प्लीज बताइए, मेरी मां कहां है, आप उसे कैसे जानते हैं, आप कौन हैं? मां क्या तलाश कर रही थी?बताइए, प्लीज! प्लीज!’ लंबे डग भरता हुआ वह साधू भीड़ में खो गया। बेला की निगाहें लगातार उसे ढूंढ रही थी। वह बौखलाई हुई देर रात तक साधू को ढूंढती रही। पर वो साधू कहीं नहीं था। जैसे ज़मीन ने उसे निगल लिया हो। थक हार कर वह घाट की सीढ़ियों पर बैठ गई। ...बार बार वह दृश्य उसकी आंखों के सामने आ रहा था जब मां घर छोड़कर निकली थी। बेला की उम्र उस समय ग्यारह या बारह थी। उसने मां को जाते हुए नहीं देखा था, बस सुना था। शायद दादी ने या पापा ने अगले दिन सुबह उसे बताया था। उस सुनी सुनाई बात पर ही उसने एक कल्पना गढ़ ली थी। दरवाजे के बाहर निकलती हुई मां, हवा से हिलते दरवाजे। जब भी मां के जाने की बात याद आती वह कल्पना सच की तरह जे़हन में गूंजने लगता। ‘मां तब मैं तुम्हें समझ नहीं पाती थी। कई बार लगता था कि तुम गलत हो। तब मैं तुम्हें तुम्हारी जगह से खड़े हो कर नहीं देखती थी, पापा की जगह खड़ी हो कर देखती थी। आज मैं तुम्हारी पीड़ा महसूस कर रही हूं। मां तुम कहां हो?’ बेला बुदबुदा रही थी। काफी रात हो गई थी। वो साधू कहीं नज़र नहीं आ रहा था। बेला होटल जाने के लिए उठ खड़ी हुई। छोटू के अलावा उसकी बचपन की दोस्त समीना ही थी, जो उस पर यकीं कर रही थी। पापा की तो कोई खबर ही नहीं थी। कहीं पद्मा और इंद्रपाल के जाल में वे भी तो नहीं आ गए? इंद्रपाल से चंगुल से बच निकल कर ऋषिकेश पहुंचने के बाद एक साइबर कैफे से उसने सबसे पहले पापा को ईमेल कर अपना हाल बताया, पर दस सेकंड में पापा का ईमेल बाउंस हो कर वापस आ गया। नंबर तो उनका लगातार स्विच ऑफ आ रहा था। मन हुआ, फौरन किसी तरह दिल्ली पहुंच कर पापा की खोजखबर ली जाए। बहुत विचलित हो कर उसने समीना को ईमेल किया। उसका जवाब तो आया ही, शाम तक वह भी देहरादून से उसके पास आ पहुंची।

समीना से क्रेडिट कार्ड और पैसे ले कर वह उसके साथ ही बनारस आ गई। होटल में सामान रखने के बाद छोटू की खोज में समीना निकली। इस समय छोटू के साथ बेला का दिखना खतरनाक हो सकता था। छोटू ने कहा था वह शाम को घाट पर बेला से मिलने आएगा, उसके पास इंद्रपाल को ले कर कुछ जरूरी खबर है।

समीना को रात ही देहरादून लौटना पड़ा, उसके दो साल के बेटे की तबीयत अचानक बिगड़ गई थी।

छोटू का इंतजार करते-करते रात के ग्यारह बज गए। घाट सुनसान हो चला था। बेला का उठना पड़ा। बुझे मन से वह होटल लौट आई। होटल में इत्तेफाक से डिनर की व्यवस्था हो गई। अचानक फोन पर नज़र गई तो देखा दस मिस्ड कॉल्स हैं। नंबर पहचाना हुआ नहीं था।उसने कॉल बैक किया, आउट ऑफ़ कवरेज एरिया बता रहा था। बेला की पूरी रात आंखों में ही गुजरी। इंद्रपाल यादव, छोटू और अब ये साधु … उसके वजूद पर कुंडली जमाए बैठे थे। अल सुबह फिर घाट पर पहुंच गई। वो साधू आज भी कहीं नहीं दिखा। उस बेंच के पास पहुंच गई जहां वो साधू कल उसके साथ बैठा था। बैंच पर कोई और साधू सोया हुआ था। पास ही एक चाय वाला दिखा। बेला उबासी लेते हुए चाय वाले के पास पहुंची।

‘भइया! कल एक बाबा यहां बैठे थे। आपने उन्हें कहीं देखा है?’ बेला को अपनी आवाज़ अंधेरे में सूई तलाशती सी लगी।

‘कौन ? व्योम बाबा!’

‘नाम तो पता नहीं। शायद! जिनके बाल ऊपर को बंधे थे…’

"हां! वही यहां बैठा करते थे। वो तो चले गएं।'

‘कहां?’

.... ‘वो तो गंगा मइया की अंगुली थाम कर चलते हैं; मइया जहां जा रही हैं वहीं के किसी शहर में गए होंगे।’