30 शेड्स ऑफ बेला - 1 Jayanti Ranganathan द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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30 शेड्स ऑफ बेला - 1

30 शेड्स ऑफ बेला

(30 दिन, तीस लेखक और एक उपन्यास)

संपादक: जयंती रंगनाथन

बेला… तुम्हें आना ही था… (भूमिका)

हुआ कुछ यूं कि पहली अप्रैल को जब डॉक्टर के क्लीनिक से दाहिने पैर पर प्लास्टर लगवा कर निकली, तो ना जाने क्यों जबरदस्त हंसी आ गई। प्लास्टर ताजा-ताजा लगा था, नीले रंग का, घुटनों से कुछ नीचे तक। मैं व्हील चेयर पर बैठी थी और वार्डबॉय मुझे गाड़ी तक छोड़ने आ रहा था। मुझे हंसता देख, वह चौंका, फिर पूछने लगा, मैडम, कोई चुटकुला याद आ गया क्या?

मैंने जवाब दिया: नहीं भाई, आज के दिन तो मैं खुद चुटकला बन गई हूं। याद नहीं, आज अप्रैल की पहली तारीख है, फूल्स डे।

वह शायद समझ नहीं पाया, मैं उसे कैसे बताती कि पिछले साल इसी दिन इसी पांव पर मैं प्लास्टर चढ़ा कर घर जा रही थी!

कहावत है ना, to make a mistake twice… पहली बार असावधानी या दुर्घटना हो सकती है, दूसरी बार? मूर्खता?

अच्छा, पहली बार जब पांव टूटा, एक्सरे के बाद डॉक्टर ने कहा, टोर्न लिंगामेंट है, प्लास्टर लगेगा, तो मैंने एक चुनौती की तरह लिया। जीवन में पहली बार प्लास्टर लग रहा था। बचपन से अब तक भाई-बहनों को देखा था सफेद प्लास्टर लगाए, दोस्तों को भी। अफसोस भी था कि जिंदगी बीत गई, एक बार भी हड्डी ना टूटी। कहीं इस अनुभव से वंचित तो नहीं रह जाऊंगी?

वो चार हफ्ते मजे-मजे में कट गए। बस कार ड्राइव नहीं कर पा रही थी, पर बाकि सब कुछ तो हो ही रहा था।

एक अनुभव काफी है। हंसी भी आ रही थी और कोफ्त भी कि अब यह छह हफ्ते कैसे गुजरेंगे? ऊपर से डॉक्टर ने एक बैसाखी और थमा दी कि एंकल की हड्डी टूटी है, जरा संभल कर।

घर आई। दवाई और नए चढ़े नीले प्लास्टर के नशे में दोपहर को आंख लग गई। शाम तक नींद के झोखों में रही। उठी तो लगा शरीर से ज्यादा भारी तो मन है। पुरानी आदत है, दोपहर को सो जाऊं तो बुखार आ जाता है। और रात के बारह बज जाते हैं, असली सेंस में। पूरी रात फिर नींद नहीं आई। यह डर लगातार घना होता गया कि ऐसा क्या करूं, जिससे यह छह सप्ताह जादू की तरह झटके में बीत जाएं। मुंबई फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े एक पुराने वाकिफकार बताते थे कि वहां उन सहित कई महानुभाव इस तरह की एंक्जाइटी का सामना तमाम तरह के ड्रग्स से करते हैं। किसी स्क्रीन टेस्ट का रिजल्ट आने में चार दिन का समय है, ऑडिशन को तीन दिन बाकि है, शूटिंग शुरू होने में एक महीना है, क्या करें, तो ड्रग्स फांक लो। बीच के दिन छूमंतर। आसान। इसके बाद जिंदगी क्या रुख लेगी, किसको पता और क्या फर्क पड़ता है?

नशा…नशा… अगला दिन इतवार का था। मेरी युवा मित्र प्रतिष्ठा सिंह मुझसे मिलने आई। बातों-बातों में उसने जिक्र छेड़ दिया, हम … शुरू करें?

महीने-दो महीने पहले कुछ दोस्तों के साथ डिजिटल प्लेटफॉर्म के बारे में बात करते समय यह चर्चा हुई थी कि हमें फेसबुक पर कुछ क्रिएटिव काम करना चाहिए। सारी दुनिया इतने नए काम कर रही है, कुछ नया सोच रही है, तो हम क्यों नहीं?

उस समय यह तय हुआ था कि हम मिल कर एक bilingual सीरियल लिखेंगे। इसके बाद भी कुछ साथियों और दोस्तों से बात हुई, सब उत्साहित लगे। पर बात वहीं खत्म हो गई।

प्रतिष्ठा ने कहा, तो लगा इस समय को सही क्यों ना बनाया जाए। उसी दिन से इसे अमली जामा पहनाना शुरू किया। सूची बनाई, किन-किनको शामिल किया जाए। हिंदी और English में। कहानी कैसी हो? एक किरदार को ले कर उसके बारे में अलग-अलग कहानी लिखें या सीरियलाइज्ड हो? कई सुझाव आए। पता नहीं क्यों शुरू से मन में बनारस बसा हुआ था। घाट पर घूमी हूं, शाम की वो प्रसिद्ध आरती भी देखी है। पर मन में यह आस रही कि रात को बजरी पर घूमना है, बनारस की गलियों में विचरना है, वहां की चाट खानी है। योजना बन भी गई थी। पिछले साल मैं अपनी दीदी रजनी के साथ बनारस जाने वाली थी तीन दिन के लिए। होटल, टैक्सी, गाइड सब बुक्ड थे। एकदम अंतिम वक्त पर यानी सुबह-सुबह इंडिगो ने अपनी फ्लाइट कैंसिल कर दी। उस दिन दिल्ली में घना कोहरा था। हमसे कहा गया कि आज और कल आपको बनारस की कोई फ्लाइट नहीं मिल सकती, आप चाहें तो दो दिन बाद की फ्लाइट ले सकती हैं। खीझ कर कैंसिल ही कर दी हमने बनारस की फ्लाइट और सीधे चले गए अमृतसर, वाघा बार्डर और स्वर्ण मंदिर देखने।

बनारस कहीं जहन में रह गया था आधा-अधूरा। उसे पूरा करना था। बस मन में कहीं बात थी कि कहानी के केंद्र में एक युवती होगी और कहानी बनारस से शुरू होगी।

इस प्लानिंग में हफ्ता निकल गया। देखते ही देखते तेरह लेखक भी जुट गए।

तीस दिन-तीस लेखक का ऐसे आयडिया आया, क्योंकि मुझे प्लास्टर में तीस दिन और निकालने थे।

दफ्तर के साथी प्रतिमा और पूनम ने इस प्रोजेक्ट को जैसे शुरू से अपना लिया। दुबई में रहने वाले रवि भाई से बात की, तो वह भी गजब का उत्साहित हो गया। प्रतिष्ठा तो साथ में थी ही। मेरी गुरू और गाइड मुंबई की वरिष्ठ पत्रकार सुदर्शना द्विवेदी की हरी झंडी भी मिल गई। पहले ही दिन से सबके तार जुड़ गए।

पहला एपिसोड मुझे लिखना था। फेसबुक पर घोषणा कर दी थी। #30shadesofBela, 30 day: 30 writers. मंगलवार को पहला एपिसोड पोस्ट करना था। एक अजीब नशा सा तारी होने लगा। रात को जब घर में एपिसोड लिख रही थी, अहसास हुआ कि कुछ नया सा काम होने जा रहा है।

दफ्तर आई, लंच टाइम में एडिट किया और प्रतिमा और पूनम को पढ़ने को दिया।

कुछ ऐसा सोचा था कि हर एपिसोड में लेखक खुद होगा और साथ में होगी बेला। इससे पहले कि उनकी प्रतिक्रिया आती, मुझे लगा कि बेला को मैंने बांध दिया है। इस कहानी में लेखक ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। ऐसे में बेला आगे कैसे बढ़ेगी? कैसे वह एक ही किरदार रह पाएगी। क्षण भर लगा, तय करने में कि मुझे बेला को अलग तरह से पेश करना होगा।

अच्छा, बेला नाम भी बस यूंही दिमाग में आया। बाद में जरूर लगा कि थोड़ा पुराना नाम है, कौशल्या, कुंती टाइप। पर इसकी ध्वनि अच्छी लगी। बेला को गढ़ना भी आसान था। जैसे हम सबको पसंद आती है, कुछ वैसी लड़की। बहुत खूबसूरत नहीं, पर अपने आप में पूरी।

बेला को इस रूप में लाने के लिए मुझे शायद ज्यादा सोचना ना पड़ा। प्लॉट सामने था ही। बनारस पहुंची एक अकेली युवती, साथ में हैं दादी की यादें। दादी का मायका था बनारस। दादी के बचपन को जीना चाहती थी बेला।

बेला को जैसे एक परिवार और आधार मिल गया। पहला एपिसोड डालने के बाद ऐसी शांति मिली, जैसे किसी आइवी लीग के कॉलेज में प्रवेश मिल गया हो।

अगले दिन प्रतिष्ठा दोपहर से पहले अपनी कहानी ले कर तैयार थी। कहानी में गजब का ट्विस्ट था। बेला की हमशक्ल। प्रतिष्ठा की कहानी English में थी।

इस मोड़ के बाद लगा कि बेला को अब अपना मकाम मिल जाएगा। एक रफ्तार सा आ गया। देखते ही देखते बेला का कुनबा बढ़ता चला गया। प्रतिमा, रविशंकर, पूनम। चौथे एपिसोड में रवि शंकर कहानी में गजब का ड्रामा ले आए। बेला का अपहरण। ओह, अब लगा कि वाकई बेला अब किसी एक लेखक की नहीं रहने वाली।

फेसबुक पर कई मित्र जुड़ते चले गए। इकबाल रिज़वी को आमंत्रित किया, वो फौरन जुड़ने को तैयार हो गए। सुदर्शना जी ने पहले दिन ही कह दिया था कि बेला को तुमने शुरू किया है, अंजाम तक मैं पहुंचाऊंगी। यानी तीसवां एपिसोड उनके नाम।

मुंबई की मित्र शिल्पा, विधुरिता, रूपा भी शुरू में ही जुड़ गए। शिल्पा ने ही अमरेंद्र और इरा टाक का नाम सुझाया। दिल्ली में अमृता और अभिषेक भी प्रोजेक्ट को ले कर बहुत पॉजिटिव दिखे। पांचवें दिन तक आते-आते जब कानपुर से मेरे धर्मयुग के कलीग हरीश पाठक का फोन आ गया, तो अहसास हुआ कि बेला ने अपना कद बढ़ा लिया है। तय हुआ कि हरीश पाठक सोलहवां एपिसोड लिखेंगे जहां से कहानी आगे दिशा लेगी।

इस बीच ना टूटे पैर की चिंता रही, ना रातों को नींद ना आने की परेशानी। ओह बेला मय होती जा रही थी मैं और हमारी पूरी टोली।

व्हाट्सएप पर एक ग्रुप बना लिया। रोज सुबह से संवाद शुरू हो जाता। वनिता के दिनों की साथी शुचिता जुड़ीं और गायत्री को भी जोड़ लिया। तीस दिन तीस नए लेखकों का वादा, फेसबुक पर जिस लेखक ने कहानी को सराहा, या लिखने की इच्छा प्रकट की, उन्हें भी जोड़ते चले गए। ध्यानेंद्र, रिंकी, सोनाली, शिल्पी, कमलेश, राजलक्ष्मी, सुमन, सुमिता, प्रिया, सना, तुषार, नलिनी, पीयूष… हमारे बेला के तीस लेखक बन गए।

अजीब से दिन थे… बेला का नशा बढ़ता जा रहा था। अगले दिन का, अगले एपिसोड का बेसब्री से इंतजार रहता। यह चिंता भी कि अगर एपिसोड समय पर न आया, स्तरीय ना हुआ तो क्या होगा? इसका भी तोड़ निकाला कुछ मित्रों ने यह कह कर कि अगर ऐसी कोई इमरजेंसी आती है, तो हम हैं ना।

शाम होने से पहले फेसबुक और व्हाट्सएप पर मैसेज आ जाते, कब होगा नया एपिसोड लोड?

हमारी टीम में कई माहिर लेखक थे, तो कई नए लेखक भी। ऐसे भी, जो पहली बार कहानी लिख रहे थे। नए लेखक पूरे मन से जुड़े थे और उत्सुक भी थे कि उन्हें क्या लिखना है। हमारे सबसे युवा लेखक तुषार की उम्र बीस साल की थी। हर लेखक का लिखने का अपना अंदाज, अपनी शैली। यह आपको हर एपिसोड में नजर आएगा। शायद इसी सीरीज की यह खासियत भी है।

बेला के एपिसोड के साथ-साथ फेसबुक और व्हाट्सएप पर और भी कई रोचक जानकारियां शेअर कर रहे थे सब। रवि ने यह पता लगाने की कोशिश की कि क्या इससे पहले फेसबुक पर इस तरह का काम हुआ है? हरीश पाठक ने पता करके बताया कि प्रिंट में जरूर दो या अधिक लेखकों ने मिल कर उपन्यास या कहानियां रची हैं, पर तीस लोगों ने मिल कर वहां भी कोई काम नहीं किया। यानी बेला की टीम एक तरह से इतिहास रच रही थी।

हां, यह भी सच है कि तीस लेखकों को एक साथ एक मंच पर लाना भी आसान नहीं था। कई बार यह भी सुनने को मिला कि इतने लेखकों को कैसे संभालोगी? पर एक बार कमिट करने के बाद पीछे हटने का सवाल ही कहां पैदा होता था।

बेला के एपिसोड्स जैसे-जैसे बढ़ते गए, चुनौतियां भी बढ़ती गईं। सबसे बड़ी चुनौती, कहानी को समेटने की। यह भी एक बड़ा सवाल था कि बेला की कहानी के पाठक और लेखक हर वर्ग के हैं और यह उनको पसंद आनी चाहिए।

जैसे बीच के एक एपिसोड में जब तुषार की बारी आई बेला की मां और पिता की शादी वाला एपिसोड लिखने की, तो उसने तुरंत हाथ खड़े कर दिए, मैं यह एपिसोड कंसीव नहीं कर पाऊंगा। मैं ऐसा सोच ही नहीं सकता। फिर उसने कहानी को एक नया ही युवा नजरिया दिया।

तीस पाइंट ऑफ व्यू, तीस नजरिया… और फेसबुक पर पढ़ने वाले लोगों के कमेंट्स। बीसवें एपिसोड के बाद जब कहानी समेटने का समय आया, तब बेचैनी बढ़ गई।

फेसबुक में जुड़ने वाले कई साथी बेला पढ़ रहे थे। उनमें से कुछ ऐसे भी थे जो लिखना चाहते थे। शुरू में तो सबको जोड़ लिया। बाद में जब तीस लेखक लगभग पूरे हो गए, तो कुछ को मना करना पड़ा। कुछ लेखकों ने तो अपने आप से एपिसोड लिख कर भेज भी दिए। उनसे माफी मांगनी पड़ी।

जिन दिनों मैं बेलामय हो रही थी, मेरी पड़ोसिन, मित्र और बेला के एक एपिसोड की लेखिका सुमिता मेरे साथ बेला के रंग में पूरी तरह रंग चुकी थी। रोज रात हम कहानी पर चर्चा करते और आगे की संभावनाओं पर जिक्र करते।

मेरे पति प्रसाद कुछ दिनों के लिए बाहर गए थे। लौटे तो मैंने उन्हें खबर दी, बेला को ले कर कई प्रकाशक उत्सुक हैं, नए लेखक जुड़ रहे हैं आदि। उन्होंने मुस्कराते हुए सवाल किया—उसका फोन आया कि नहीं… जीतेंद्र की बेटी का, जो सीरियल बनाती है?

एकता कपूर? मुस्कराते-मुस्कराते रुक गई। क्या बेला वाकई एक डेली सोप की तरह हो गई है? कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि अंतिम एपिसोड तक आते-आते कहानी में इतना रायता ना फैल जाए कि समेटना मुश्किल हो जाए। यह एक तरह से रियालिटी चैक का भी समय था। तेरह एपिसोड के बाद से लगा कि अब कहानी में फैले और उलझ गए तंतुओं को समेटना पड़ेगा।

इसके बाद लेखकों से बातचीत शुरू की। किरदारों में सामंजस्यता बिठाई गई। बेला को एक विश्वसनीयता देना भी जरूरी था। धीरे-धीरे पुराने किरदार भी जुड़ने लगे। परिस्थितियों में तर्क शामिल हो गया। बनारस की मिठास, मिजाज का जादू जुड़ता चला गया। बनारस, मुंबई, दिल्ली, आस्ट्रेलिया, हरिद्वार ना जाने कितने मकाम आए। शहनाई भी बजी, नए रिश्ते भी बने, सब कुछ ठीक होता सा लगा।

अब बेसब्री से इंतजार था तीसवें एपिसोड का। 11 मई 2017। सुदर्शना जी ने दो दिन पहले ही अंतिम एपिसोड लिख कर भेज दिया था। कहानी पहले ही वे मुझे बता चुकी थीं। बेला को एक परिणिति तक पहुंचाना आसान भी नहीं था। एकदम चौंकाने वाला अंत।

उनतीसवें एपिसोड में घोषणा कर दी थी कि बेला को तीन पत्र मिले हैं और वह अपनी बेटी के साथ कहीं गायब हो गई है।

अंतिम एपिसोड थोड़ा बड़ा था। पर मंजिल तक पहुंचने की यात्रा थोड़ी लंबी तो होती ही है। उस दिन फेसबुक पर तीसवां एपिसोड लोड करने के बाद अद्भुत शांति मिली। बेला को मकाम मिल गया था। बेला क्या बस एक किरदार थी? बेला क्या एक जरिया भर थी हम तीस लेखकों को एक सूत्र में बांधने का?

पीछे मुड़ कर देखती हूं, तो लगता है, बेला मेरे साथ ही थी हर समय। हम मजाक में कहते थे, हम सब बेला हो गए। पर यह सच था। इस बात की तसल्ली भी थी कि बेला का किरदार एकदम हवा-हवाई नहीं हुआ। बेला के अलावा बाकि पात्र भी पूरी शिद्दत से अपनी जगह खड़े रहे। बेला के साथ बीते ये तीस दिन अद्भुत रहे, हर समय रचनात्मकता से छलछलाते, बेला के कुनबे के साथ एक नया रिश्ता बनाते और एक काल्पनिक चरित्र को पूरी शिद्दत से जीते हुए यह महसूस किया कि हम सबकी मेहनत और कुछ नया रचने का माद्दा आखिरकार कामयाब हुआ। तीसवें दिन बेला को अपनी मंजिल मिली और मेरे पांव का प्लास्टर भी उतर गया।

कैसे गुजरे ये छह हफ्ते, पता ही नहीं चला। अगर सारी मुश्किलें इतनी रचनात्मक हों, तो जिंदगी कितनी आसान हो जाएगी, है ना?

बेला पूरी हो गई। पर हम जो तीस साथी बेला के माध्यम से साथ जुड़े, तो कई दिनों तक व्हाट्सएप और फेसबुक पर उसको याद करते रहे, आज भी करते हैं। हम सब एक-दूसरे की खुशियां बांटते हैं। हमारा अपना, बेला परिवार। अकसर सब कहते रहते हैं कि हमें जल्द ही कुछ नया करना चाहिए। एक बार फिर बेला एक नई यात्रा पर चल पड़ी है मातृभारती के संग, ये वाकई एक दिलचस्प मोड़ होगा…

#30shadesofBela
Episode 1 by Jayanti Ranganathan जयंती रंगनाथन

अनकही सी शाम

बनारस के दशाश्वमेध घाट पर शाम की आरती चल रही थी। 12 अप्रैल की ढलती हुई शाम। घाट पर बनी सीढ़ियों पर बैठी है बेला। नजरें तो आरती पर हैं, पर सोच कुछ और रही है। कल इस समय जब वह बनारस स्टेशन में उतरी थी, उत्साह से भरी हुई थी। बरसों का सपना था, बनारस आना। कई साल पहले दादी ने कहा था, उसके साथ बनारस चलेगी। दादी बनारस में पली-बढ़ी थीं। बहुत कुछ नहीं बतातीं थीं दादी अपने बारे में, बस बनारस की गलियों और घाटों के बारे में बताते समय भावुक हो जातीं।
दादा से शादी के बाद कभी वे बनारस नहीं गईं। बहुत बाद में पता चला था बेला को, दादी ने ही किस्तों में बताया था उसे कि कैसे अपने से उम्र में दोगुने बड़े म्यूजिक टीचर के साथ भाग कर शादी की थी उन्होंने। दादी उस समय सोलह साल की थीं, उनके पिताजी जमींदार थे। अच्छा खासा भरा-पूरा घर और परिवार था उनका। तीन भाइयों के बाद हुई थी दादी, पापा जी की लाडली। पापा जी उसकी हर जिद पूरी करने को तैयार। बस दादी ने ठान लिया कि वो संगीत सीखेंगी और पिताजी ने शहर के जाने-माने संगीत टीचर को घर बुला लिया। जाने क्या बात थी उनमें। दादी पहले दिन से खिंचती चली गई उनकी तरफ। दादा के गले में जादू था। बात भी करते, तो लगता सुर खनकने लगे हों।

दादी ने ठान लिया, वो शादी करेंगी तो बस उनसे ही। जाहिर था, उनके पिताजी मानने वाले नहीं थे। दादी ने दिल की सुनी और अपना संसार छोड़ कर दादा जी के साथ चली आईं एक नई जिदंगी शुरू करने।

वो दादा, जिनके सुर और गले की दीवानी थी दादी, ने बाद में गाना ही छोड़ दिया और बन गए बहुत बड़े बिजनेस मैन। कभी दादा ने कहा था, मैं तुम्हें वो सबकुछ दूंगा, जो तुम्हें अपने परिवार में मिलता था। पर उन्होंने दादी से कभी यह जानने की कोशिश नहीं कि दादी को क्या चाहिए? घर में पैसा था, पर सुकून … दादी तरसती रहीं उम्र भर। बेला को हमेशा लगता था कि दादी जो अकेले में गुनगुनाती हैं, अपने पास रखा हर सामान निसंकोच उठा कर किसी को भी दे देती हैं, फूल-पत्तों और जानवरों पर प्यार उलीचती हैं, असली दादी और उनका संसार तो यही है…

बेला ने लंबी सांस ली, दादी को शिद्दत से याद किया। गंगा की लहरों को छूकर जो नर्म सी हवा बह रही थी, चारों तरफ कपूर और लोबान की जो खुशबू तिर रही थी, उनमें भी दादी ही तो थीं।

बेला की आंखें भर आईं। आज इस वक्त, यहां वह बिलकुल तन्हा थी। हर तरह से।
बस अपने नाम के अलावा उसके पास और कुछ ना था। आरती की आवाज सुनते हुए अचानक बेला को लगा कि शायद ऐसा ही होना था। उसे एक शून्य को ले कर और शून्य में हो कर ही बनारस के घाट पर बैठना था। इस वक्त जब कुछ नहीं था उसके पास, अपने आपको नए सिरे से भरने के लिए कितना माकूल माहौल था!

पिछले एक महीने से दादी की बीमारी और उनकी मृत्यु ने बेला को हर तरह से थका दिया था। कल शाम स्टेशन से होटल जाने के बाद वह बिस्तर पर गिरते ही सो गई। सुबह जल्दी आंख खुली।
तुरंत कपड़े बदल कर वह अपना बैग ले कर होटल से बाहर निकल आई। जबरदस्त भूख लगी थी। दादी कहा करती थीं- जिसने बनारस जा कर सुबह भरवां कचौड़ी-दही जलेबी नहीं खाई, उसका जनम ही समझो बेकार हुआ।
एक रिक्शे पर सवार हो कर वह कचौड़ी गली पहुंची। राजबंधु, यही तो नाम कहा करती थीं दादी। गर्म कचौड़ी और आलू की सब्जी की वह अद्भुद सुगंध। दो प्लेट मंगवाया। एक दादी के लिए, एक अपने लिए। दुकान के बाहर ही उसे कागज-कचड़ा बीनता एक किशोर नजर आ गया। फौरन दादी वाला प्लेट उसने उसे थमाया। गर्म-गर्म कचौड़ी का पहला कौर मुंह में डालते ही जहन में ना जाने कितनी यादें और स्वाद घुलने लगीं। खा-पी कर वह गली से बाहर निकली ही थी कि सामने से आते एक रिक्शे से टकरा कर नीचे गिर पड़ी। घाट से लौटते लोगों ने उसे उठाया, कुछ रिक्शेवाले को लताड़ने लगे। इस बीच उसने पाया कि कंधे पर टंगा उसका बैग गायब है।

एक पल को उसकी सांस थम गई। मोबाइल, पर्स, पैसे, डेबिट-क्रेडिट कार्ड, आधार कार्ड, पैन कार्ड और भी कई कागजात थे…

वह चिल्लाने लगी, मेरा पर्स चोरी हो गया। मेरा बैग…किसी तरह वह किशोर लड़का उसे पुलिस स्टेशन ले गया। पुलिस स्टेशन जा कर रिपोर्ट लिखवाने के बाद वह अपने होटल लौटी, किसी पुलिसिए ने ही उसे सौ रुपए थमा दिए थे होटल जाने को।

होटल में नया तमाशा शुरू हुआ। कमरा उसने चार दिनों के लिए ले रखा था, पर कल रात कार्ड से पैसा एक ही दिन का दिया था। उसने मैनेजर को समझाने की कोशिश की, ‘प्लीज, मैंने दिल्ली अपने पापा को मेल लिख दिया है। आपको पता है ना आजकल किसी का फोन नंबर याद नहीं रहता। पापा को मैंने आपके होटल का आइडी दे दिया है। मेल देखते ही आपके अकाउंट में पैसे ट्रांसफर कर देंगे। मैं यहां और किसी को नहीं जानती। मुझे अपने कार्ड बनवाने में थोड़ा वक्त लगेगा।’
मैनेजर रोहन दिल्ली का ही था। उसने बेला की तरफ गौर से देखा। नीली आंखें, कंधे तक के घुंघराले बाल, लहराता हुआ लंबा पीला कुरता, कंधे पर लापरवाही से पड़ा लहरिया दुपट्टा। चेहरे में कोई तो बात है। फौरन कल होटल में जमा किए बेला के पेपर्स चैक करने वह ऑफिस रूम में चला गया।
लौटा तो थोड़ा खीझा हुआ था, ‘मैडम, आपने कल हमें बताया कि आप दिल्ली से यहां शाम की फ्लाइट से आई हैं, पर कल शाम की एयर इंडिया की फ्लाइट में आपका नाम नहीं था। कल ये जो आधार कार्ड आपने दिया है हमें, उसमें आप अलग दिख रही हैं। आपकी आंखें काली हैं उसमें।’
बेला ने उसकी तरफ देखा, ‘तो, मैं दिल्ली से हूं, आप मेरा पता देखिए कार्ड में। आपने मुझसे पूछा, फ्लाइट से आई हैं क्या, मैंने सिर हिला दिया। मैं अपनी दादी की अस्थियां ले कर हरिद्वार गई थी। वहां से आ रही हूं। ये सब आपको बताना था क्या? मेरी आंखें? मैंने उस समय काले रंग का लेंस लगाया था, वो फैशन में था उस समय। क्या आपको इसकी भी सफाई देनी पड़ेगी?’

‘नो मैडम, हम रिस्क नहीं ले सकते। आपको अपना कमरा आज बारह बजे से पहले खाली करना होगा। बिना पेमेंट के हम आपको नहीं रहने दे सकते।’
उस समय लड़ने का मूड़ नहीं था उसका। चुपचाप अपना सामान ले कर निकल आई बेला वहां से।
दादी की नगरी को कुछ इस तरह से ही उसे अनुभव करना था शायद। दोपहर से वह घाट में आ बैठी। फकीरों और साधुओं के बीच। किसने उसके हाथ में कब एक केला रखा उसे नहीं पता।
अजीब था सबकुछ। ना भूख लग रही थी, ना प्यास। जिंदगी को शायद इतना करीब से वह पहली बार देख रही थी।
आरती की घंटियां, दूर गंगा नदी पर तिर रहे बजरे और बजरों पर सवार लोग। पानी की निश्छल छाया में फूल और दियों की डूबती-तैरती आकृतियां। आरती के बाद भी देर तक घाट पर भीड़ रही। धीरे-धीरे लोग उठने लगे, शोर थमने लगा। बस कुछ ख्वाहिशें इधर-उधर बिखरी नजर आने लगीं। अपना बैग पैक बगल में रख वह आराम से पसर कर बैठ गई। रात यहीं गुजारना है।
अचानक उसके पास एक लड़का दौड़ता हुआ आया। वह हांफ रहा था, ‘तुम सुबह वाली दीदी हो ना?’
बेला ने देखा, कचौड़ी वाला किशोर।
किशोर उत्सुकता से उसकी तरफ देख कर बोला, ‘वो आदमी पूछ रहा है, तुमको…’
बेला ने मुड़ कर देखा, सीढ़ियों से लंबे ढग भरता हुआ रोहन आ रहा था, उसकी तरफ। होटल का मैनेजर। उसके पास आ कर रुका, ‘मैडम, कमाल करती हो। शाम को होटल आ कर पता तो करना था ना। आपके पिताजी का मेल आ गया है। आप प्लीज होटल चलिए।’
बेला मुस्कराई। दादी उसे कभी इतनी तकलीफ में भी तो नहीं देखना चाहती थी।
‘कुछ खाने को मिलेगा ना? आपके चक्कर में सुबह से कुछ नहीं खाया।’ बेला सामान उठाने को थी, तो किशोर ने लपक कर उठा लिया, ‘मैं ले चलता हूं दीदी।’
‘चल, सुबह का खाना भी हमने साथ खाया, रात का भी साथ खाते हैं।’
बेला ने लड़के का हाथ पकड़ा, इस वक्त भी रोहन की आंखों में कुछ सवाल थे, कुछ तो अलग है ये लड़की!