30 शेड्स ऑफ बेला - 3 Jayanti Ranganathan द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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30 शेड्स ऑफ बेला - 3

30 शेड्स ऑफ बेला

(30 दिन, तीस लेखक और एक उपन्यास)

Episode 3 by Pratima Pandey प्रतिमा पांडेय

मोह-माया और मन

‘मरना! कौन मरता है? पीछे रह जाने वाला या आगे के सफर पर निकल जाने वाला?’ श्मशान में उस औरत के सामने बेला का मन अपनी इस सोच पर मुस्कुरा दिया। उसने ध्यान देना जरूरी नहीं समझा कि यह मुस्कुराहट तंज की है या विडंबना की। उसने वापस होटल जाने का मन बना लिया। काफी रात हो गई थी। आखिर बनारस में भी लोग ही तो हैं और जिंदगी का कहना तो यही है कि लोगों का कोई भरोसा नहीं होता।

घाट की सीढ़ियों पर उसे सभी रोगों की एक दवा वाली भस्म बेचता एक बुजुर्ग भी मिला। उसकी आंखे देखकर तो यही लग रहा था कि गांजे का आदी है। और पता नहीं वो भस्म कहां से लाया है? हे भगवान! इस भस्म का सोर्स यहीं आसपास का कुछ तो नहीं? उसका उत्साह शहर को लेकर मरने लगा था, लेकिन वो भी पक्की फाइटर ठहरी। उसने सोचा इस काली रात में नहीं दिन में बनारस देखेगी फिर सोचेगी कि वापस चला जाए या कुछ दिन बनारसी रंग में ही रंग लिया जाए। आखिर घर पर भी वापस जाकर क्या करेगी। दादी तो हैं नहीं। पापा के पास वक्त नहीं और…। और एक जो कोई भी उसकी जिंदगी बन गया था, अब वह उस मोहपाश से खुद को मुक्त रखना चाहती है। तो..? तो फिर तो भइया ये औघड़नगरी ही ज्यादा सही है ना! खुद से बाते करती वह होटल पहुंच चुकी थी। खाना इतनी रात गए क्या ही मिलना था। सो, बैग में रखे लाल टमाटर निकाले और चाट मसाले के साथ दो-तीन खा डाले। रात के 1.30 बजे उसे इस नाश्ते से बड़ा सुकून मिला। लगा जैसे जिंदगी उसके वश में थी। सब कुछ कंट्रोल में। यह बेला का फेवरिट नाश्ता था। यह उसने एक बार सारनाथ जाते समय साथ में ट्रैवेल कर रहे मलेशियन ग्रुप से सीखा था। नींद आ रही थी उसे फिर से। जब से उसका नया जन्म हुआ है इतनी नींद उसे कभी नहीं आई। उसने हर पल का एक टारगेट बना कर खुद को दौड़ाए रखना सीख लिया है। दादी कहती थीं इसीलिए उसकी मासूमियत अभी भी जिंदा थी। उसके चेहरे पर भी और उसकी आत्मा में भी।
जब बेला की आंखें खुलीं तो सुबह के नौ बज रहे थे। तैयार हुई और भाग निकली। घाटों की सैर पर। ना चाहते हुए भी वहीं पहुंच गई। मणिकणिका घाट पर। रात में मिली उस महिला के निशान ढूंढ रही थी। कि एक साफ-सुथरे से कपड़े पहने 16-17 साल का लड़का उसके पास आया। हाथ पीछे बांधकर अदब से पूछा, ‘क्या आप जर्नलिस्ट है।’
‘अम्…हां।’ उसके बेपरवाही से हां कह दिया। बेला क्या थी यह किसी को भी बताने का फिलहाल उसका मूड नहीं था। देखना चाहती थी कि उस लड़के की दुनिया में जर्नलिस्ट का क्या अस्तित्व है। ‘आइए आपको सर से मिलवाता हूं।’ बेला ने उस लड़के को आंखों से तौला, जिधर उसने रास्ता दिखाया, उधर का माहौल देखा और फिर बोली, ‘चलो।’
उस लड़के का नाम था आशीष और उसने जिससे बेला को मिलवाया वह थे कौशिक। बंगाली थे वे। बनारस में कई पीढ़ी पहले आए और यही बस गए बंगाली लोग भी खूब मिलते हैं। दादी की परम सहेली रूपा दादी भी तो बनारस की ठेठ बंगाली थीं। दोनों जब मिलती थीं तो बंगाली में ना जाने क्या बातें करती रहती थीं, ‘मिष्टि-मिष्टि’ जैसा कुछ कहती रहती थीं।
कौशिक बनारस के श्मशान घाट पर काम करने वालों के बच्चों के लिए एनजीओ चलाते थे। उनके बच्चों ने बनारस के श्मशान घाटों पर एक डॉक्युमेंट्री बनाई थी। उसे इंटरनेशनल डॉक्युमेंट्री फेस्टिवल में एंट्री मिल गई थी। आज उसी के बारे में सेलिब्रेशन था। वहीं घाट पर ही। ‘सुनिए, मैं जर्नलिस्ट नहीं हूं।’ शरारत भरी दोस्ताना मुस्कुराहट से बेला ने ये राज कौशिक पर खोल दिया। कौशिक ठठाकर हंस पड़े। ऐसा अकसर वहां होता रहता था। उनके लिए लाभ की बात ये थी कि उनका काम जितने लोग जानें, उतना अच्छा।
काले भुजंग पड़े चेहरों पर दप्प सफेद आंखों और दांतों वाले बच्चे। बेला उनके साथ मस्त हो गई। किसी के बाल रखरखाव के अभाव में जटा बन चुके थे तो कोई झम्मक चमकीले कपड़ों में सज कर आया था। बेला को एक नया मजा आने लगा उनके बीच। हर कोई आसपास भूलकर अपने काम में मगन। लाउडस्पीकर पर बज रहे भोजपुरी हिट गाने पर बच्चे जान छोड़कर नाच रहे थे। उन्हें दूर तक फैले श्मशान के दर्शन से कोई लेना-देना नहीं था।
शिव नाच रहे हैं। यह मृत्यु का नाच है या जीवन का? दोनों एक-दूसरे को इस घाट पर लगातार चुनौती दे रहे हैं। बेला ने आंखें हटा लीं वहां से। ज्यादा क्या सोचना!
‘दीदी ये लो।’ बेला के लिए आशीष वहीं बन रही पूड़ी और आलू की सब्जी ले आया।
‘थैंक्यू भाई, बहुत भूख लगी थी।’ बेला ने फटाक से कौर तोड़ा और खाते हुए कहा।
‘दीदी, आप आराम से खाइए।’
कुछ पल वो खड़ा रहा, फिर बेबाकी से पूछा, ‘दीदी आपने बनारस घूम लिया?’
हम्म लड़का स्मार्ट है। दिखता भले ही बड़ा सीधा हो। बेला ने सोचा और फिर बोली, ‘नहीं पूरा तो नहीं घूम पाई। लेकिन तुम लोगों का काम अच्छा लगा।’
आशीष ने अपने मतलब की बात पर ध्यान बनाए रखा, ‘आपको घूमना हो तो बताइएगा। मेरा मोबाइल नंबर रख लीजिए। मैं पार्टटाइम गाइड का काम भी करता हूं। सारनाथ जाना हो तो बताइएगा। मेरे चाचा जी वहां हैं।’
बनारस…सारनाथ… या वापस दिल्ली। पेट भर चुका था, सो बेला को इस प्रश्न पर विचार करने में बुराई नहीं लगी..