30 शेड्स ऑफ बेला - 5 Jayanti Ranganathan द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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30 शेड्स ऑफ बेला - 5

30 शेड्स ऑफ बेला

(30 दिन, तीस लेखक और एक उपन्यास)

Episode 5 by Poonam Jain पूनम जैन

अतीत में घूमता मन

ऋषिकेश, गंगा का घाट। यहाँ आकर उसे लगा कि वो बेला ही है. मुँह धोने का मन हुआ. पानी लेने झुकी और अपना ही चेहरा देखकर विरक्ति से भर उठी। आँखें बंद कर ली। क्या वाकई कुछ था, जिस पर खुश हुआ जा सकता था? कितना कुछ नहीं बीता? अच्छा बुरा क्या कुछ नहीं किया? जाने अभी और क्या देखना बाकी था? फटाफट मुँह पर पानी डाला और किनारे पड़े बेंच की ओर सीढ़ियां चढ़ने लगी।

करीब तीन हफ्ते हो गए थे इंद्रपाल की कैद से भागे हुए। इंद्रपाल उसे कभी समझ नहीं आया। क्या वाकई उसका अपहरण हुआ था, क्या वाकई वह कैद में थी? पता नहीं क्या था इंद्रपाल के मन में। उसके खाने-पीने से ले कर रहने तक का पूरा ख्याल रखा था इंद्रपाल ने। बस एक बार उसने उसे बुदबुदाते हुए सुना था—सब ठीक हो जाएगा। बस कुछ दिन और। क्या होने वाला था कुछ दिनों में?
दादी तो कहती ही थी कि टिक कर खाना और बैठना तेरे भाग्य में नहीं। जब देखो भागती रहती है. बेला भी दादा की फोटो दिखाती और कहती, माई डियर दादी, अपने भागे बिना स्वर्ग नहीं मिलता. वो पिछले कुछ दिन से भाग ही तो रही है।

बेला ने गले से स्टोल उतारा और बेंच पर लेट गयी. बगल के बेंच पर एक साधु सोया था. सोने का समय ही तो था। उसकी ही चाल बिगड़ गयी थी, दुनिया तो रात- दिन के हिसाब से ही चल रही थी।
जमीन पर पड़ी टूटी बांसुरी पर नजर पड़ी. कोई बच्चा आया होगा दोपहर को जरूर। बेला ने बांसुरी को सीने से लगा लिया. उस दिन जब बैग चोरी हुआ, तब उसकी सोने की चेन और कृष का दिया बांसुरी वाला पेंडेंट उसमें ही रखा था। हर रोज वाली डायरी भी खो गयी थी। खाली गले पर हाथ रखे, बेला एकटक फैली नदी और दूर कहीं नदी और आकाश को मिलते देखती रही।

करीब पांच साल पहले, वो दोनों देर रात तक यहीं बैठे रहे थे। वह कभी नदी देखता तो कभी बांसुरी बजाने लगता। द, त नहीं बोल पाता था। कहता था-'नडी को जानना है तो राट को आओ। उसे सुनो। किटने सुख दुख इसकी धारा में बहटे रहटे हैं। किटने लोगों की बाटें हैं इसके पास। नडी बहटी भी है और स्टिर भी है। हमारी प्रोब्लेम्स की टरह। वो भी बहटी रहटी हैं और हम भी बने रहटे हैं।'
क्या कृष के भीतर भी कुछ था, जिसे वो गंगा में बहाकर हल्का होना चाहता था?

उससे करीब 8 साल बड़ा था कृष। नाम भी तो ये उसे बेला ने दिया था। ऑस्ट्रेलिया से तो यहां क्रिस्टन आया था। भारतीय दर्शन की पढाई कर रहा था वह। दिल्ली में कालकाजी मेट्रो स्टेशन के पास एक घर में रहता था। ऑस्ट्रेलिया में जिस कृष्णा नाम की संस्था से वह जुड़ा हुआ था, उनका यहां बड़ा सा मंदिर था। कृष्ण का पक्का भक्त था कृष।

और बेला? वह तब फैशन डिजाइनिंग कर रही थी। उसका इंस्टिट्यूट साउथ एक्स में था। क्लास पूरी करके वह कृष के पास चली जाती थी। बहुत सादा था वह। उसके कमरे में थे-कुछ बर्तन, एक बिस्तर, सलीके से रखी किताबें, कृष्ण की मूर्ति और एक बड़ी सी बांसुरी। हमेशा,​ ​रंगीन ऊँचे सूती कुर्ते, खुले पायजामे और गले में तुलसी की माला पहने रहता था । बेला ही दिल्ली हाट से उसके लिए लम्बे कुर्ते और पैंट कट पायजामे लायी थी।

बेला से कृष की पहली मुलाकात, अजीब ही रही। कृष खर्चे के लिए एक कैफ़े में बांसुरी और गिटार बजाता था। बेला उस दिन वहां अकेली आयी थी। उसने ज्यादा पी ली थी। बाद में होश आने पर उसने खुद को पार्किंग में बैठे पाया था। उसे उल्टी हो रही थी। कृष का हाथ उसकी पीठ पर था। बेला को काम डाउन, रिलैक्स मैडम के शब्द सुनायी दे रहे थे।

अगले दिन बेला जब उससे मिली तो वो सहज भाव से मुस्कुरा रहा था। धीरे​-​धीरे वो मिलने लगे थे। बेला को उसकी बातें, उसका साथ, लुभा रहा था। कृष उससे कुछ भी नहीं पूछता था, पर बेला उसे सब बता देती थी।
उस बार वाली रात, पापा ने पहली बार उससे नाराज हुए थे। वो इंटर्नशिप मुंबई के एक डिजाइनिंग हाउस में करना चाहती थी। पापा तैयार नहीं थे। बात बढ़ गयी तो बेला ने गुस्से में बोल दिया, ' माँ ने सही किया जो हमें छोड़ कर चली गई। आपके पास समझने का ना मेरे लिए तब समय था और ना ही अब।'
ऐसा नहीं कि बेला को पापा से प्यार नहीं था। पापा भी उसे खूब चाहते थे। अगले दिन सुबह, पापा ही कमरे में नाश्ता लेकर उसे मनाने आए थे। तब पापा की आंखें पनीली थीं। यूं भी 10 साल पहले, माँ जब घर से कहीं चुपचाप चली गयी थी, तब से दादी और पापा ही तो थे उसके। मौसी… वो भी तो थीं उन सबकी जिंदगी में। मां की चचेरी बहन। घर में किसी के मुंह से उसने कभी ज्यादा कुछ सुना नहीं उनके बारे में। पर उसे अंदाज था कि वह सबकी जिंदगियों से जुड़ी रही हैं।

पापा को याद करते हुए, बेला की आंखें भर आयीं-कहां हो पापा? क्यों आपसे कॉन्टेक्ट नहीं हो पा रहा?
इसी जगह उस दिन कृष के साथ बेला की आख़िरी रात थी। बेला ने ही कृष को मना कर दिया था। अपने आंसू रोकते हुए बोली थी-'कृष, ऑस्ट्रेलिया में वो तुम्हारा इंतज़ार कर रही है। हम दोनों ही सही हैं। पर उसकी भी गलती नहीं है। तुम्हें एक बार वहां जाना ही होगा।'
तुमने ही कहा था-'डिटेच होकर अटैच होना सीखो। पहले खुद को सीन से हटाओ, फिर सोचो। सोल्युशन भी मिलेगा और जिंदगी भी।'
उंगली बांसुरी से उसके छेद पर आ अटकी। अँधेरी गली में छोटे-छोटे रोशनदान। वो खड़ी हो गयी-'क्या कृष भी नहीं पहचानेगा मुझे? कहाँ हो तुम माँ?'
बगल वाला साधु अब लेटे हुए ही कोई जाप कर रहा था। बुदबुदाया- जा कल्याण हो। पर कहाँ जाए बेला?