30 शेड्स ऑफ बेला - 2 Jayanti Ranganathan द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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30 शेड्स ऑफ बेला - 2

30 शेड्स ऑफ बेला

(30 दिन, तीस लेखक और एक उपन्यास)

Episode 2: Prathishtha Singh प्रतिष्ठा सिंह

आंखों ने ये क्या देखा?

बनारस…खाने को ले कर यहां ज्यादा तामझाम नहीं होता। पर पवित्र गायों और हिंदू विश्वविद्यालय का यह शहर आपको लजीज नान वेज पेश करने में भी पीछे नहीं हटता। बेला ने रोहन से अपने पापा के भेजे पैसों में से कुछ मांग लिए। रोहन ने उसके हाथ में एक पांच सौ का नोट पकड़ा दिया और उसकी तरफ निहारता रहा। वह ताड़ गई। यह उसके लिए कोई नई बात नहीं थी। वही नहीं, उसे जानने वाले कई उसे दिलचस्प मानते थे। वह बहुत खूबसूरत नहीं थी पर उसकी जादुई आंखों और घने काले बालों में कोई तो बात थी। वह एक सादी सी लड़की थी, नीली आंखें और लंबी सुतवां नाक। उसे देख कर कोई भी अंदाज लगा सकता था कि उसकी परवरिश एक संभ्रांत परिवार में हुई है। उसकी त्वचा धुली-धुली थी, रंग बहुत गोरा नहीं, पर उसके सांवले रंग में गजब का आकर्षण था। उसके होंठ भरे-भरे थे। जब वह कुछ कहने के लिए मुंह खोलती थी, तो उसके विचारों की ईमानदारी, भोलेपन और दिमाग में चल रहा संशय बरबस ध्यान खींच लेता था। वह कभी यह दिखावा नहीं करती थी कि उसे सबकुछ पता है, वह एक संतुलित और ठहरी हुई युवती लगती थी। वह युवा थी पर उसमें अल्हड़पन ना था। वह इस बात पर यकीं करती थी कि उम्र बस एक संख्या भर है और यह तय करता है आपका अनुभव। जिंदगी में मिले अपने अनुभव, टूटा दिल, बिखरा परिवार, प्रियजनों का गुजर जाना इनसे गुजरने के बाद तो उसे ऐसा लगता था मानों उसे साठ साल का होना चाहिए। आखिरकार अपने चौबीस साल की जिंदगी में उसने ये सभी रंग देख जो लिए थे।

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अहमद भाई की बिरयानी एक छोटा सा ढाबा था। जिसमें हाथ से बड़े अक्षरों में दुकान का नाम लिखा था। छोटू के साथ वहां उसने चख कर मटन बिरयानी खाई। इसे बाद छोटू उसे बनारसी पान खिलाने एक खास पान की दुकान ले गया। मुंह में पान का स्वाद घुलते ही उसे लगा कि आज का दिन सफल हो गया है। कुछ स्वाद ऐसे होते हैं जिनको शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता, जो सीधे मुंह से होते हुए दिल में समा जाते हैं। बिलकुल ऐसा ही स्वाद था पान का। पान जो दिल को ठंडा कर दे। अब बेला काफी बेहतर महसूस कर रही थी। छोटू को गले लगा कर उसने शुक्रिया अदा किया। जवाब में छोटू भी दांत निपोर कर शर्माते हुए हंस दिया और घाट की तरफ भाग गया। धीरे-धीरे सधे कदमों से वह अपने होटल की तरफ लौटने लगी, जो वहां से बहुत दूर नहीं था। होटल में कदम रखते ही रिसेप्शन में उसका स्वागत किया एक लंबे-चौड़े व्यक्ति ने, जिसे बेला ने पहले नहीं देखा था।

‘बेला जी?’ वह शायद इस बात की तसदीक कर रहा था कि वह बेला ही है।

‘जी, आप? यहां तो रोहन था ना?'

‘शिफ्ट बदल गया। मैडम। मैं रामलखन पांडे, रात के समय मेरी ड्यूटी होती है। आपका कमरा तैयार है। हम आपका इंतजार कर रहे थे।’

कमरे में आ कर बेला खुश हो गई। इस बार उसका कमरा पहले से बड़ा था। साथ में एक बड़ी सी खिड़की। खिड़की खोलते ही गंगा नदी से आती शीतल हवा उसे सराबोर कर गई, खांटी बनारस की गंध। यह गंध, जो इस शहर के घाटों में मुर्दा शरीरों से होते हुए, आग के लपटों से निकल कर, कभी साधुओं के गांजे की चिलम में आ ठिठकते हैं, तो कभी उड़ती हुई लोबान की खुशबू वजू करते और नमाज अता करते किसी मुसलमान का बोसा ले कर, उन फिरंगियों तक जा पहुंचती है, जो घाट किनारे सिगरेट के धुएं से छल्ला सा उड़ाते दैवीयता से अभिभूत होते रहते हैं। लंबी सांस ले कर अपने नथुनों में इसी भारी हवा को उतारते-उतारते उसे सिर में भारीपन सा लगने लगा, आंखों में कुछ सपने और कुछ दुस्वप्न उतरने लगे। वह इन्हीं सपनों में उलझी-सुलझी नींद के आगोश में चली गई। उठी तो सुबह के दस बज रहे थे।

उसे पता था कि वह तुरंत तैयार हो कर बनारस की सड़कों को नापना चाहती है। बनारस, वेनिस की ही तरह था, जहां आप शहर के अंदर सड़कों को नापना चाहते हैं। बनारस में आने के बाद होटल के कमरे में बंद रहने का कोई औचित्य नहीं है। यह शहर लपक कर आपको अपनी बांहों में भरने को आतुर रहता है।

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एक बार फिर वह घाट में थी। वह नदी की धारा के विपरीत दिशा में चलने लगी। वह सोचने लगी, नदियों को पवित्र क्यों कहा जाता है, जल्द ही वह इस नतीजे पर पहुंच गई कि जानवरों के बजाय नदियों का पवित्र रहना ज्यादा तार्किक है। नदियां जिंदगी को एक नया अर्थ देती हैं। इतिहास में दर्ज होने से पहले भी नदियों ने ही मानव सभ्यता को राह दिखाई और आसरा दिया। इस जल की उम्र कितनी होगी? कब से इस पवित्र जल में गंदगी की झाग आ कर घुलने लगी? घंटा भर चलते-चलते वह हरिश्चंद्र घाट तक आ पहुंची। घाट पर कुछ चिताएं जल रही थीं। ऐसा लग रहा था मानों जलती चिता मानव शरीर पर एक गर्वीला नृत्य कर कर रही हों। दफनाते समय भी तो शरीर मिट्टी के ही साथ मिलती है, वही माटी, जिसे हम तिनका-तिनका जोड़ कर अपना शरीर बनाते हैं।

हर तरफ भीड़, कुछ ज्यादा भीड़। वह सोचने लगी, चिता में जलने वाला शरीर पुरुष का है या स्त्री कस। घाट के नीचे सीढ़ियों पर पानी के समीप एक स्त्री चीत्कार कर रही थी। उसकी आवाज के दर्द से खिंचती हुई बेला जैसे सम्मोहित हो कर उसी तरफ बढ़ने लगी। जैसे ही वह उस युवती के सामने पहुंची, उसके कदम ठिठक गए, क्या वह उसे पहले से जानती थी? वह युवती सादे कपड़ों में थी। नजदीक जा कर देखा, बेला ने महसूस किया कि वह युवती, बिलकुल उसका प्रतिबिंब है। उसे अपनी आंखों पर विश्वास ना हुआ। वे दोनों एक जैसी कैसे दिख सकती हैं? ऊपरवाला उसके साथ ये क्या अजीबोगरीब खेल खेल रहा है?

धीरे से आगे बढ़ कर उसने युवती का हाथ छुआ और उसके पास बैठ गई। युवती ने उसकी तरफ देखा और फफक कर रोने लगी। क्या उसने बेला में अपना चेहरा नहीं देखा? अपने दुख में इतनी बेजार थी कि इस तरफ उसकी नजर ही नहीं गई? अचानक उस युवती के मुंह से निकला, ‘मुझे भी मर जाना था इनके साथ। मैं क्या करूंगी अब?’