तेरे शहर के मेरे लोग - 17 Prabodh Kumar Govil द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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तेरे शहर के मेरे लोग - 17

( सत्रह )

हैदराबाद में एक भव्य कार्यक्रम आयोजित किया गया। मैं विमान यात्रा से वहां पहुंचा। किन्तु जब विश्वविद्यालय के गेस्ट हाउस जा रहा था तभी मेरे मेज़बान के पास आए एक फ़ोन के आधार पर उन्होंने मुझे बताया कि मेरे उपन्यास "जल तू जलाल तू" का तेलुगु अनुवाद वहां की जिन प्रोफ़ेसर महिला ने किया है उन्हीं का परिवार मुझे गेस्ट हाउस के स्थान पर उनके आवास में ही ठहराना चाहता है।
ये दौरा बहुत सुखद तथा गरिमापूर्ण रहा। अगले दिन मैंने वहां की एक लोकप्रिय पत्रिका और मेरी पुस्तक के प्रकाशक का कार्यालय भी देखा। विमोचन के पश्चात मैंने एक भव्य काव्य संध्या में भी भाग लिया। दक्षिण में साहित्य के लिए मैंने कहीं अधिक ऊर्जा और ऊष्मा को महसूस किया।
इस बीच मुझे ये सूचना भी मिली कि जल्दी ही मेरे परिवार की तीसरी पीढ़ी भी अस्तित्व में आयेगी। मैंने अपने आप को फ़िर कुछ सुखद यात्राओं के लिए तैयार किया।
कभी - कभी मुझे बैठे हुए ऐसा लगने लग जाता था कि मैं न जाने कब से, न जाने क्या - क्या काम किए जा रहा हूं।
लेकिन अभी तक सरकार द्वारा निर्धारित सेवानिवृत्ति की आयु मेरी अब तक नहीं आई है। वैसे प्रोफ़ेसर और निदेशक बनने के बाद रिटायरमेंट की आयु भी बढ़ ही गई थी।
सरकारी या संस्थागत आवासों में अपना जीवन गुजारते- गुजारते मैं अब तक कुल चौवालिस मकान बदल चुका था।
ये तो तब था जब मेरे ढेर सारे दिन- रात होटलों, अथिति गृहों, रिसोर्ट्स, सरायों, धर्मशालाओं और परिजनों व मित्रों के घरों में बीते थे।
मैं कौन था, क्या था, क्यों चैन से नहीं बैठता था, किन नक्षत्रों में मैं पैदा हुआ था, मुझे क्या करना था, ये ढेर सारे सवाल थे जिन्हें मैं अपने आप से समय मिलते ही पूछता तो रहता था लेकिन उनके जवाब न खुद को दे पाता था न किसी और को।
दो और बातें मुझे चमत्कृत करती थीं।
एक तो ये कि अपने कार्य के सिलसिले में मैं जिस कार्यालय या भवन में बैठता था वहां देखते ही देखते कोई न कोई निर्माण कार्य ज़रूर शुरू हो जाता था। एक दो बार तो ऐसा हुआ कि दफ़्तर के लोग कह रहे हैं कि हम दस साल से कह रहे हैं कि यहां एक शौचालय निर्माण होना चाहिए पर प्रशासन सुन ही नहीं रहा। और संयोग से मैंने जब वहां बैठना शुरू किया तो चंद महीनों में ही कार्यालय की एक पूरी नई विंग बननी शुरू हो गई।
दूसरी बात ये थी कि मेरे पास हमेशा ही अपने मूल कार्य के साथ साथ कोई न कोई प्रोजेक्ट, कार्य या ज़िम्मेदारी अतिरिक्त रूप से ज़रूर आती।
यहां तक कि मैं बैंकर, पत्रकार, शिक्षक, प्रशासक, लेखक, चित्रकार के साथ - साथ अपनी संस्था का सुरक्षा अधिकारी तक बना। वो दिन मैं कभी नहीं भूलता हूं जब मुझे अपने अधीनस्थ सुरक्षा कर्मियों को फायरिंग की प्रैक्टिस के लिए मिलिट्री एरिया में लेे जाना पड़ा जहां एक कर्नल साहब से ये कहते हुए मेरे कंधे पर रायफल रख दी कि आइए आपको शूटिंग सिखाता हूं।
वे कहते थे कि आप जैसे नरम दिल अफसरों को बंदूक चलाते देख कर आपके गार्ड्स का मनोबल बढ़ेगा।
उधर मैं जैसे - तैसे दिन काट कर अपने संस्थान के मुख्य सुरक्षा अधिकारी के वापस ड्यूटी पर लौट आने की प्रतीक्षा करता रहा था।
इन्हीं दिनों दिल्ली में एक नए राजनैतिक दल "आम आदमी पार्टी" का आगमन हुआ। इसके कुछ अधिकारी जयपुर में भी सदस्यता अभियान हेतु आए।
उन्हें जागो पार्टी के पुराने संपर्क माध्यमों से जब मेरे बारे में पता चला तो वो मुझसे भी मिलने चले आए।
जागो पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष को जब इस बाबत पता चला तो उन्होंने मुझे फ़ोन किया और कहा कि मैं इस पार्टी के पदाधिकारियों से उनके साथ मीटिंग का समय ले लूं और तब चल कर अरविंद केजरीवाल से दोनों पार्टियों में किसी गठजोड़ की संभावना तलाशें।
किन्तु "आप" के पदाधिकारियों ने हमसे कहा कि यदि हम जागो पार्टी को पूरी तरह अपनी पहचान खोकर आम आदमी पार्टी में विलीन करने के लिए तैयार हो जाएं तो बात बन सकती है। लेकिन इस बात पर सहमति नहीं बन पाई। यद्यपि मैं अब पार्टी में सक्रिय नहीं रहा था।
आम आदमी पार्टी ने वो गलती नहीं की, जो कभी जागो पार्टी ने की थी। उन्होंने अपने हर समर्थक का नाम वोटर लिस्ट में जुड़वाने का समय रहते ही ध्यान रखा और दिल्ली चुनाव में भारी सफलता अर्जित की। जागो पार्टी की छवि "आप" की इस सफलता से और धूमिल हो गई।
अगर मैं इस समय एक बात और छेड़ दूं तो शायद बहुत सारे लोगों को अच्छा नहीं लगेगा। लेकिन ये मेरी कहानी है, यदि मैं ऐसा सोच रहा हूं तो मुझे कह ही डालना चाहिए।
मैं ये कहना चाहता हूं कि इस समय देश ने महिलाओं के लिए सुरक्षा और संवेदनशीलता के जो कानून बना दिए हैं, उनसे महिलाओं का ज़्यादा भला नहीं हो पा रहा है।
ये बात मैं इसलिए अपने से जोड़ कर कह रहा हूं क्योंकि मैं राज्य के दो महिला संस्थानों से निकटता से जुड़ा रहा हूं।
इसका बहुत सीमित लाभ महिलाओं को ज़रूर मिल रहा है पर इसका असीमित दुरुपयोग उन्हीं के विरुद्ध शुरू भी हो गया है।
किसी महिला की शिकायत पर फ़ौरन कान देना अच्छा है पर बहुओं द्वारा पतियों के साथ - साथ सास- ननदों को भी घसीट लिया जा रहा है। महिलाएं बेवजह आक्रामक हो गई हैं। बहू बन कर आने वाली लड़कियां पूर्वाग्रही, दुराग्रही हो गई हैं। मैं कई ऐसे परिवारों व उनके पढ़े लिखे लड़कों को जानता हूं जो इस महिला क्रोध की अग्नि में पिस रहे हैं।
यहां ऐसे तर्क देने की कोशिश बेमानी होगी कि पहले लड़कियों को भी तो सहना पड़ रहा था। यदि एक हाथ ज़ख्मी था तो उसका इलाज दूसरे हाथ को ज़ख्मी कर देना हरगिज़ नहीं हो सकता।
मुझे याद आया कि एक बार एक मनोरंजन ग्रह में टिकिट बुक कर रही महिला को देख कुछ लड़के उससे मज़ाक करने की गरज से छेड़छाड़ करने लगे।
एक लड़का महिला से बोला कि आपने जो टिकिट दिया वो तो गेटकीपर बोलता है कि जाली है।
महिला ने आव देखा न ताव, उठकर लड़के का हाथ पकड़ा और लगभग घसीटते हुए उससे बोली- चल मेरे साथ, तेरे सामने काट कर फेंकती हूं। बाद में मेरे नहीं, तेरे मतलब का रह जाएगा वो। लड़का हक्का- बक्का रह गया और हाथ छुड़ा कर भागा।
ऐसे प्रकरण खिन्न करते थे। महिला सशक्तिकरण की ऐसी ज़रूरत किसी भी समाज को नहीं पड़नी चाहिए।
ऐसे मामले लगातार बढ़ रहे थे जिनमें या तो लंबे समय तक युवाओं के विवाह ही न हो पाएं, या जल्दी ही मनमुटाव हो जाने से पति- पत्नी अलग हो जाएं, या फिर सह जीवन असहनीय हो जाने के कारण नौकरी, बच्चों की शिक्षा या संपत्ति की देखभाल जैसे किसी कारण से पति -पत्नी अलग अलग रहने लग जाएं।
मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि लड़के और लड़की का एक साथ लंबे समय तक आराम से रह पाना समाज में मुश्किल होता जा रहा था। इसका कारण कहीं असहिष्णु होते जा रहे बुज़ुर्ग लोग थे तो कहीं लापरवाह होते जा रहे युवजन स्वयं।
मुझे लगता था कि भारत में पारम्परिक विवाह संस्था अपना आकर्षण खो रही थी।
इसी तथ्य की पुष्टि हमारे कानून ने भी कर दी और समलैंगिकता को स्वीकार्य माना जाने लगा।
सोशल मीडिया पर बढ़ती दोस्तियों और पहचान ने इन तथ्यों को और हवा दी।
मेरे पास एक लेखक और शिक्षा से जुड़े प्रशासक के रूप में ऐसे कई पेचीदा मामले परामर्श के लिए आते थे जिनमें स्त्री- पुरुष के बीच बढ़ती कटुता साफ़ दिखाई देती थी।
एक छोटे सर्वेक्षण में मुझे विवाह योग्य आयु के कई लड़कों ने कहा कि वे आजकल लड़कियों के बोलने के ढंग, जीने के तौर - तरीकों और सार्वजनिक पहनावे को देख कर उनके साथ आधा घंटे तक का समय बिताने की इच्छा नहीं रखते, उन्हें जीवन संगिनी बनाना तो बहुत दूर की बात है।
मैं मानता हूं कि यही भावना कई लड़कियां भी लड़कों के लिए रखती होंगी किन्तु ये सवाल सिर्फ़ लड़के या लड़की की श्रेष्ठता का नहीं है बल्कि समाज के अस्तित्व का है।
समाज तो फ़िर भी किसी तरह बन- बिगड़ कर रहेगा ही, हमें सबसे बड़ी चिंता इस बात की होनी चाहिए कि इससे मनुष्य की आने वाली नस्लें कैसी होंगी? बच्चे किसकी देखभाल और परवरिश में पनपेंगे? वे एक वयस्क नागरिक बनने तक किन संस्कारों से सज्जित होंगे और अंततः वे समाज या देश को क्या देंगे?
इस सवाल को और भी आगे तक लेे जाया जा सकता है कि वे समाज से क्या छीन लेंगे?
मैं युवाओं को अपना बहुत आत्मीय दोस्त बना कर अपने अकेलेपन से छुटकारा पाने की कोशिश भी करता था और इन सवालों के जवाब भी तलाशने की कोशिश करता था। इसीलिए मैंने जीवन में कभी भी इस भय को अपने पास नहीं आने दिया कि अब मैं क्या करूंगा, अकेला कैसे रहूंगा!
आप ख़ुद सोचिए, एक लड़की के युवा होते ही उसके अभिभावक चाहते हैं कि अब ये जाए, दूसरी ओर लड़के के युवा होते ही उसके अभिभावक सोचते हैं कि अब ये हमारे साथ ही रहे।
ये समाज की कौन सी गफ़लत का नतीजा है? ये पारिवारिक सामंजस्य का कौन सा पेंच है?
वास्तविक स्त्री विमर्श तो ये है। स्त्री विमर्श ये नहीं है कि स्त्री पुरुष के लिए किस काम की है या पुरुष स्त्री के किस काम का है!
दोनों समाज के लिए किस काम के... नहीं नहीं, समाज दोनों के लिए किस काम का है, ये तलाशना वक़्त की मांग है।
ये सब मेरी कहानी का हिस्सा इसलिए है क्योंकि मैं ये सब बहुत सोचता रहता था। शायद इसीलिए मैं नहीं जानता कि अकेलापन क्या है। जैसे वाशरूम में सब अकेले अकेले, जैसे रसोई में स्त्री अकेली, जैसे दफ़्तर या कार्यस्थल पर पुरुष और स्त्री अकेले- अकेले, वैसे ही आठ घंटों की स्वास्थ्य वर्धक नींद से पहले के घंटे, आधे घंटे में क्यों कोई अकेला नहीं रह सकता?
हां, बीमारी, दुर्घटना, कष्ट,खुशी में साथ में सुखी- दुखी होने के लिए जो लोग चाहिएं वो एक नर और एक मादा ही क्यों हों? कोई भी!
लेकिन ये फ़लसफ़ा सिर्फ उन्हीं के लिए है जो साथ- साथ नहीं रह सकते।
जो एक दूसरे के प्यार में, एक दूसरे के बन कर रह सकें, उनके लिए तो सत्यम शिवम सुंदरम!
मेरा कहने का मतलब सिर्फ़ इतना सा है कि कोई भी समाज या कानून किन्हीं भी दो व्यक्तियों को किसी भी तरह बांध कर न रखे, अगर वो साथ न रहना चाहें।
अब ऐसे में बड़ा सवाल ये है कि फ़िर बच्चे कैसे हों, कैसे पलें, दुनिया कैसे चले?
तो इसका उपाय यही है कि किसी भी शादी का एक निर्धारित "प्रोबेशन पीरियड" हो, और जब पति पत्नी हर तरह से आश्वस्त हो लें, कि वे एक "परिवार" हैं, तभी उन्हें संतानोत्पत्ति की अनुमति या छूट मिले।
ईश्वर ऐसी संतान धरती को हरगिज़ न दे, जो किसी लड़ते- भिड़ते नर और मादा के टकराने मात्र की चमक से निकली चिंगारी की भांति दुनिया में आए!
हम सब जानते हैं कि "फ़क" शब्द सभ्य कही जाने वाली उसी दुनिया का दिया हुआ है जिसमें संतान को पाल सकने योग्य स्त्री- पुरुष युग्म को शासन द्वारा बच्चा पैदा करने की अनुमति बाकायदा दी जाती है। ऐसे युग्म के अनुमत संभोग के समय ये शब्द अनुमति के तौर पर बंद दरवाजे पर लिख कर टांगा जाता था।
देश को भविष्य में वही नागरिक मिलें, जिनकी परवरिश की तैयारी हो। इसमें अमीर- गरीब, जाति धर्म, छोटे- बड़े का कोई एंगल नहीं!
हमारे पास ऐसे बच्चों की खेप न आ जाए जिनकी निराशा, हताशा, विद्रूप हमें विचलित तो करता रहे पर हमारे पास उनके लिए कोई सम्मानित भविष्य न हो।
कोई भी समाज, या कोई भी समय इसे अपनी दुनिया के लिए "गाली" न बना ले।
अगर कोई बिल्ली या कुत्ता मेरे साथ मेरे बिस्तर पर सोता है तो आप मेरी कहानी में उसे एक पात्र मानेंगे ही, तो उस विचार को भी आप तवज्जो दीजिए जो दिन रात मेरे साथ रहता है, मेरे दिन ख़र्च कर देता है, मेरी रात लेे लेता है।
यही तो मनुष्यता की पहचान है, अन्यथा तो सभी नींद, भूख, वासना के पुतले हैं, सभी को रोटी कपड़ा और मकान की जद्दोजहद है। सभी की मिल्कियत बनाने की डिड्या है, सभी को पैसे की लूत है, सभी श्रेष्ठता की होड़ में हैं।
मैं शहर की कई कला दीर्घाओं में चित्र प्रदर्शनी देखने अक्सर जाता था। मैं थियेटरों में संगीत और नाट्य के प्रदर्शन भी देखने का शौकीन रहा हूं।
और इन जगहों पर जाते हुए अक्सर ही मेरे साथ मेरे युवा साथी, मेरे विद्यार्थी रहते हैं।
ऐसा शायद मेरी एक और खराब आदत के कारण होता हो! असल में मैं बहुत धैर्यवान श्रोता नहीं हूं। मुझे सुनने से ज़्यादा बोलना पसंद है।
अगर मेरे साथ मेरे हम उम्र दोस्त या परिजन हों तो फ़िर मामला फिफ्टी - फिफ्टी होता है, मैं जितना बोलूं, उतना ही सुनूं।
पर इन युवा सहयोगियों के साथ होने पर ये मेरी बात ध्यान से सुनते हैं, जब तक मैं इन्हें बोलने के लिए न उकसाऊं ये बोलते नहीं, और ये बात मेरे पक्ष में जाती है।
मैं कभी- कभी डरता हूं कि ये शिष्टाचार वश चाहें कुछ बोल न रहे हों, सोच तो रहे ही होंगे? और इसी डर से मैं भी अपने ही बस में रहता हूं।
यदि आदमी अपने बस में रहना सीख ले, तो समझो कि उसने ज़िन्दगी की आधी जंग तो जीत ली। बाक़ी आधी का देखेंगे!