तेरे शहर के मेरे लोग - 18 Prabodh Kumar Govil द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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तेरे शहर के मेरे लोग - 18

( 18 )

मैंने देखा था कि जब लोग नौकरी से रिटायर होते हैं तो इस अवसर को किसी जश्न की तरह मनाते हैं। ये उनकी ज़िंदगी के जीविकोपार्जन के सफ़लता पूर्वक संपन्न हो जाने का मौक़ा होता है। एक ऐसा मुकाम जिसके बाद ज़िन्दगी का ढलना शुरू हो जाए। जैसे शाम का सूरज।
इस मौक़े पर वो बताते हैं कि वे ऐसे थे, वैसे थे, उनमें ये खूबी थी, वो अच्छाई थी...बस, और कुछ नहीं। ये ज़िक्र कोई नहीं करता कि उनमें क्या कमी थी। जो हुआ, जैसे हुआ, जैसा हुआ उसके लिए एक दूसरे से क्षमा मांगी जाती है, शुभकामनाएं शुभभावनाएं दी जाती हैं। कुछ खानपान होता है। यादगार के तौर पर तोहफ़े दिए जाते हैं और इस तरह दफ़्तर या कार्यस्थल फूलों का हार पहना कर अपने एक वाशिंदे से हमेशा के लिए पिंड छुड़ा लेता है।
कलेंडर और डायरियां कहती थीं कि जल्दी ही ऐसा दिन मेरा भी आयेगा।
और तब मैं सोचने लग जाता था कि मैं तब अपने को क्या- क्या करने से रोक पाऊंगा, किस - किस बात का पटाक्षेप कर पाऊंगा?
क्या मैं लोगों का, अपना, समाज का, दुनियां का भला- बुरा सोचना बंद कर दूंगा? क्या मैं दफ़्तर परिसर में पैर रखना बंद कर दूंगा? क्या मैं किसी को किसी बात का जवाब देना बंद कर दूंगा। क्या अपनी जीविका के लिए कुछ कमाना छोड़ दूंगा? क्या लिखना छोड़ दूंगा, पढ़ना छोड़ दूंगा?
तो फिर कैसे होगी मेरी सेवानिवृत्ति!
मुझे लगता था कि काम और इंसान का तो जीने- मरने जैसा साथ है।
इसलिए अपने किसी भी ऑफिस से मैं कभी फूल माला पहन कर इस तरह नहीं निकला कि अब यहां कभी नहीं आना है।
जयपुर आ जाने के बाद मैं कभी- कभी ये सोचता था कि गांव में बनाए अपने मकान का अब मैं क्या करूं?
क्या अपने पिता और दादा की तरह ही पुराने हो चुके पत्थर चूने और सीमेंट के इस अतीत को मैं भी भूल जाऊं?
असल में जब ये मकान बनाया जा रहा था तब भी मेरे परिवार के बहुत सारे लोगों ने इसे अनावश्यक ख़र्च बताया था।
कोई कहता था कि इतना बड़ा मकान यदि जयपुर शहर में बनाया जाएगा तो इसकी बिक्री पर यहां से चौगुने पैसे वहां मिलेंगे।
मैं इसकी भूमि खरीदते समय दिल्ली में और इसके निर्माण कार्य के समय में मुंबई में पोस्टेड था।
अतः परिजनों के इस सुझाव पर मैं कहा करता था कि अगर इसे दिल्ली में बनाया जाएगा तो इसकी बिक्री पर आठ गुने पैसे मिलेंगे और यदि मुंबई में बनाया जाएगा तो सोलह गुणा पैसे मिलेंगे...बात अाई गई हो जाती और मकान गांव में ही बनता रहा।
लेकिन आपको बताऊं कि इस भवन के निर्माण की वज़ह क्या थी।
वास्तव में इसी गांव से जुड़े प्रतिष्ठित संस्थान में मेरे पिता ने कई वर्ष तक नौकरी की थी और वो यहीं से सेवानिवृत हुए थे। रिटायर होने के कुछ समय बाद ही उनका वहीं देहावसान हो गया।
उनके अंतिम संस्कार पर जब सभी परिजन इकट्ठे हुए तो घर के एक बुज़ुर्ग ने कहा- देखो, हम सब लोग जीवन भर इसी गांव के नाम पर इन्हें "यहां वाले भैया" कहते रहे और आज जब वो चले गए तो यहां उनके नाम की एक ईंट भी नहीं है।
उनकी ये बात न जाने क्यों मेरे मन में बैठ गई और इस भवन का शिलान्यास उनकी स्मृति में ही वहां हो गया। यद्यपि इसका नामकरण मेरी माता के नाम पर किया गया।
लेकिन सब जानते हैं कि स्मृतियां ईंट पत्थर में नहीं बसतीं। उनकी जगह तो मानस महलों में ही होती है।
बाद में मैंने इस भवन का क्या किया?
मैं तो कहूंगा कि इसका बाज़ार मूल्य लेकर मैंने इसे अपने एक मित्र को सौंप दिया...आप कह लीजिए कि बेच दिया!
अब ये तो व्यवहार है, कारोबार है, जिस ईश्वर ने हमें दुनिया दी है, वो भी तो पूजागृहों में खड़ा- खड़ा चढ़ावा लेता ही है!
अब मैं थोड़ी सी आपकी मदद चाहता हूं।
मेरी ज़िन्दगी में मुझ पर कुछ लांछन भी लगाए गए हैं। ये आरोप मेरे साथ ही जाएंगे। पर फ़िर भी मैं चाहता हूं कि एक बार इन आरोपों के बारे में आपको ज़रूर बता दूं।
- "सर, मेरी बेटी बस थोड़े से ही नंबर से रह गई है, यदि आपका आशीर्वाद मिल जाए तो इसका जीवन सुधर जाएगा", जब कोई अभिभावक मेरे पास आकर ऐसा कहता था तो मैं उसे समझाया करता था कि बड़ी और महत्वपूर्ण परीक्षाओं में सीटें पहले से गिनती के अनुसार निर्धारित होती हैं, वहां एक फेल हो जाने वाले बच्चे को लेे लेने का अर्थ है एक पास होने वाले बच्चे को धोखे से बाहर निकाल देना। ये आपका काम नहीं, बल्कि मेरा पाप माना जाएगा।
और वो महाशय फ़िर अन्य अभिभावकों के बीच ये कहते हुए निकलते थे कि मैं घमंडी हूं, किसी का काम नहीं करता।
मुझे गर्व है कि मैंने अपने आप को "काम" करने से बचाए रखा।
एक बार प्रशासनिक पद पर रहने के दौरान मुझ पर एक तत्कालीन विधायक की ओर से ऐसा दबाव डाला गया कि मैं उनके पुत्र को ही एक पद के लिए चुन लूं, जबकि वो सफ़ल नहीं हुआ था और वहां चयन एक ऐसे अभ्यर्थी का हुए था जो एक नर्स का पुत्र था और बहुत दूर के किसी शहर से साक्षात्कार के लिए अकेला ही आया था।
मुझे न जाने किसने इतनी शक्ति दी कि मैं उनके समक्ष विनम्रता से ऐसा कह सका- "ठीक है आपकी बात मान लेते हैं किन्तु हमारा निवेदन है कि यदि भविष्य में कभी सांसद महोदय की कोई सिफारिश आ गई तो हम आपके उम्मीदवार की नियुक्ति रद्द कर देंगे, और उनके आदमी को लेे लेंगे।"
इस जवाब से वो पानी- पानी हो गए और तत्काल मुझसे हाथ मिला कर चाय भी अपने प्याले में अधूरी छोड़ कर उठ कर चले गए। उन्होंने फ़िर अनुरोध नहीं किया।
मैं मन में थोड़ा सा विचलित हुआ कि अब वो अकारण वैमनस्य पालेंगे, किन्तु ऐसा नहीं हुआ। उन्होंने कुछ ही दिनों बाद मुझे एक महत्वपूर्ण समिति के सलाहकार मंडल में शामिल होने का न्यौता भेजा।
कई मित्र और आत्मीय शुभचिंतक भ्रष्टाचार के मुद्दे पर मुझसे कहते थे कि हम तो ऐसा नहीं करना चाहते पर क्या करें, ज़माना ही ऐसा है तो करना पड़ता है।
मैं उन्हें ये समझाने की कोशिश करता कि सबके भ्रष्टाचार के बावजूद भी यदि एक आप अपने को ऐसा करने से रोक लेंगे तो देश के कुल भ्रष्टाचार में कम से कम एक की कमी तो आ ही जायेगी। अर्थात ग़लत बात कुछ कम होगी!
वो सज्जन परिहास में कहते कि देश के तो करोड़ भ्रष्टाचारों में से बस केवल एक कम हो जाएगा, पर हमारा तो शत- प्रतिशत काम होने से रह जाएगा।
मैं बगलें झांकने लग जाता। आख़िर नहले पे दहला मारने वाले होते ही हैं।
वाचालता के घोड़े आपको सारे रास्ते तो पार नहीं करवा सकते।
एक दिन न्यूयॉर्क शहर में सड़क के किनारे घूमते हुए मैंने "वात्सल्य" नाम पढ़ा। जाहिर है कि अमेरिका जैसे देश में इस नाम पर ध्यान जाना स्वाभाविक ही था। मैंने ज़रा आगे बढ़ कर पड़ताल की तो पता चला कि ये एक भारतीय एनजीओ है जिसकी शाखा यहां भी है।
लगभग छः महीने बीते होंगे कि एक दिन जयपुर के उनके कार्यालय में मैं बैठा था और "वात्सल्य" के साथ मेरे एनजीओ के मिल कर काम करने का अनुबंध पत्र तैयार हो रहा था।
हमने कुछ प्रोजेक्ट साथ - साथ संपन्न किए और ये एक निहायत ही अच्छा अनुभव रहा। स्किल डेवलपमेंट की परियोजनाओं से रोज़गार पैदा करने के अलावा यह संस्थान बेसहारा बच्चों के पुनर्वास के लिए भी बढ़िया काम कर रहा था।
बच्चों को पहले कोई कौशल सिखाया जाता था और फ़िर थोड़ी सी आर्थिक मदद से उन्हें कमाने व अपने पैरों पर खड़े होने लायक बना दिया जाता था।
मैं कई ऐसे युवाओं से भी मिला जिनका बचपन इसी तरह बीता था और बाद में वो आत्म निर्भर होकर जीविका चला रहे थे। कुछ ने तो विवाह करके घर भी बसा लिए थे।
अमेरिका की धरती पर आपको कई भारतवासी मिल तो जाते ही थे, वे देखते ही आपकी ओर आकर्षित होकर आपसे बात करने के लिए लालायित भी रहते थे।
जिस तरह यहां उत्तर भारत में हम तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना के लोगों को एक सा समझ कर दक्षिण भारतीय के रूप में पहचानते हैं वैसे वहां अमेरिका में भी कई एशियाई देशों के लोगों को वो एक सा ही समझते हैं।
जबकि हम देखते हैं कि हमारे सभी दक्षिणी राज्यों के लोगों की भाषाएं अलग- अलग हैं और कई बार तो वो आपस में एक दूसरे से बात तक नहीं कर पाते।
इसी तरह मैं देखता था कि कुर्ता पाजामा पहनने के बाद वहां कुछ लोग मुझे पाकिस्तान का व्यक्ति समझ कर भी बात करने लग जाते थे।
दूर से एक से दिखने वाले सभी लोगों को "करीबी" ही समझा जाता है।
इस मनोवृत्ति का एक बहुत प्यारा उदाहरण मुझे यहां भारत में ही एक अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म फेस्टिवल के पुरस्कार समारोह में देखने को मिला, जहां चाइना की एक फ़िल्म को अवॉर्ड मिलने पर वहां की महिला पुरस्कार प्राप्त करने स्टेज पर आईं। भारी करतल ध्वनि हुई।
संयोग से किसी और कैटेगरी में फिर एक पुरस्कार चाइना की ही किसी और फ़िल्म को मिला जिसके निर्माता अवॉर्ड लेने के लिए हॉल में मौजूद नहीं थे। कार्यक्रम का संचालन करने वाले लोगों ने उन्हीं पहले वाली महिला से निवेदन किया कि वो अपने देश के इस दूसरे विजेता का इनाम भी ले लें, ताकि उन्हें पहुंचा सकें।
महिला ने मुस्कुराते हुए जानकारी दी कि उनका शहर मेरे शहर से भारत की कुल लंबाई से भी ज़्यादा दूरी पर है।
हम आसमान को देख कर सब तारों को आपस में पड़ोसी समझते हैं जबकि अपने निकटतम ग्रह तक पहुंचने में भी हमें सालों लगे हैं।
साहित्यिक कार्यक्रमों के लिए अपनी रुचि के चलते जल्दी ही मैंने नेपाल और मॉरीशस की यात्राएं भी कीं।
मॉरीशस मुझे अपने जैसा ही लगा मानो सब देशों से दूर छिटक कर अकेला सागर की गोद में चला आया हो।
किसी परदेस की किसी भी अपनी यात्रा का कोई वर्णन या विवरण मैं नहीं दूंगा, क्योंकि विदेश को देखने का हर व्यक्ति का अपना अपना अलग नजरिए होता है। मैंने न जाने किस निगाह से उसे देखा हो, और आप न जाने किस दृष्टि से उसे देखने की जिज्ञासा रखते हों।
हां, ये मैं आपको बताना चाहूंगा कि कई बार हमारे देश के लोग विदेशी चीज़ों से बहुत प्रभावित होकर उन्हें अपनी चीज़ों से श्रेष्ठ समझते हैं।
लेकिन देशी और विदेशी चीज़ों की तुलना करते समय हमें ये ध्यान ज़रूर रखना चाहिए कि उनकी हमारे पास जो चीज़ें आती हैं वे वहां की "एक्सपोर्ट क्वालिटी" की वस्तुएं होती हैं जो अच्छी तरह जांच परख कर भेजी जाती हैं। इसी तरह हमारी भी जो चीज़ें बाहर भेजी जाती हैं वो एक्सपोर्ट क्वालिटी मानदंडों के अनुरूप नाप तौल कर भेजी जाती हैं जबकि घर में आंतरिक उपयोग के लिए बिक रही चीज़ साधारण हो सकती है। अतः हमें तुलना करने के लिए उन्हीं वस्तुओं को देखना होगा जो दोनों ओर के एक्सपोर्ट क्वालिटी प्रोडक्ट्स हों।
यदि हम बाहर से आम बाज़ार से खरीदी हुई चीज़ केवल विदेशी के लालच में ख़रीद लाएंगे तो ज़रूरी नहीं कि वो स्वदेशी की तुलना में बेहतर ही हो।
एक बार अपने एक मित्र के घर इसी तरह की चर्चा चलने पर उसके बेटे ने मुझसे कहा था- अंकल, आप लोग लाइफ का आनंद नहीं लेते न, आप लोग केवल लाइफ के मूल्यांकन में ही इंटरेस्ट लेते हो।
तब मित्र के साथ साथ मुझ पर भी घड़ों पानी पड़ गया था।
"आप लोग" से उसका तात्पर्य साहित्यकारों से था, आप लोग से उसका आशय पुरानी पीढ़ी से था।
उन्नीस साल का वो कॉलेज स्टूडेंट अपने पिता और मुझे एक साथ जैसे गोद में लेकर सोफे से उतार कर ज़मीन पर रख गया था।
फ़िर भी मैं आपसे वही सब बातें कह रहा हूं। क्या करें, हम ऐसे ही हैं। हर जाती हुई पीढ़ी आती हुई पीढ़ी के लिए ऐसी ही है।
यदि मैं आधुनिक दिखने की कोशिश में युवाओं जैसी बातें करूं, तो कुछ समय बाद मैं आपको और भी दयनीय दिखने लगूंगा, ये मुझे ज़िन्दगी ने सिखा दिया है।
लगभग इन्हीं दिनों मुझे नाना कहने वाले दोनों छोटे बच्चों का जन्म हुआ।
इन बच्चों को इनके पहले जन्मदिन पर जब उपहार देने का समय आया तो मैंने इन्हें नाना की पहली कहानी के रूप में "मंगल ग्रह के जुगनू" लिख कर भेंट की।
मैं अपने बच्चों को उनके बचपन में सुनाई गई लोमड़ी की ढेरों कहानियों की एक श्रृंखलाबद्ध किताब बाल साहित्य के अन्तर्गत "उगते नहीं उजाले" शीर्षक से भी लिख कर दे चुका था। मंगल ग्रह के जुगनू को मिली लोकप्रियता को देखते हुए इसे भी एक श्रृंखला के रूप में हर वर्ष जारी करना शुरू किया गया।
मुझे ये देख सुन कर गहरा संतोष होता रहा है कि दुनिया गोल है।
आप सोच सकते हैं कि इसमें संतोष की क्या बात है? दुनिया चौकोर होती तो मेरा क्या बनता- बिगड़ता? दुनिया चपटी होती तो मुझे कौन सा कष्ट था।
लेकिन गोल है इसीलिए तो ये लुढ़क रही है। कहीं रुकी नहीं है। हम थक कर कहीं बैठ न जाएं, चलते रहें चलते रहें। अब पैर न उठें तो दुनियां ही लुढ़के, गति तो है!