तेरे शहर के मेरे लोग - 3 Prabodh Kumar Govil द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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तेरे शहर के मेरे लोग - 3

( तीन )
एक बात आपको और बतानी पड़ेगी।
बड़े व भीड़ - भाड़ वाले शहरों में रहते हुए आपकी इन्द्रियां या तो आपके काबू में रहती हैं या फ़िर अनदेखी रह जाती हैं। लेकिन मध्यम या छोटे शहर में ये भी अपनी - अपनी सत्ता चाहती हैं।
मुंबई के बाद जब मैं जबलपुर आया तो कुछ समय बाद ही मुझे एक खालीपन घेरने लगा। हर समय ऐसा लगता था जैसे कोई ताप चढ़ा हुआ है।
इस ताप के लिए मैंने कोई थर्मामीटर नहीं लगाया, बल्कि अपनी फ़ाइलों में उन रचनाओं को खंगालना शुरू किया, जो या तो अधूरी छूटी हुई थीं या फिर किसी ऐसी जगह छपी थीं कि उनका यहां के पाठकों का पढ़ा होना संदिग्ध ही था।
कुछ रचनाएं लेकर मैंने स्थानीय अख़बारों - भास्कर, नवभारत, स्वतंत्र मत आदि में संपादकों से शिष्टाचार भेंट की। आकाशवाणी को भी विजिट किया।
और ये देख कर मुझे अपार संतोष हुआ कि सभी जगह लोगों ने मुझे न केवल पहचाना, बल्कि पर्याप्त स्वागत या आदर दिया। अगले सप्ताह से ही मेरी रचनाएं स्थानीय अख़बारों में छपने लगीं।
कुछ अख़बारों ने मुझे समीक्षा आदि के लिए पुस्तकें देना भी शुरू किया।
संयोग से जिस मकान में मैं रहता था उसके मालिक परिवार का भी एक छोटा अख़बार निकलता था। दूसरे अख़बारों में रचनाएं देख कर उन्होंने अपना अख़बार भी मेरे पास भेजना शुरू कर दिया किन्तु उनके अख़बार की राजनैतिक अभिरुचि व प्रतिबद्धता के चलते मैं उनको विशेष रचनात्मक सहयोग नहीं कर सका।
लेकिन यहां मुझे ये बख़ूबी पता चला कि मध्यप्रदेश में "प्रेस" के नाम पर अत्यधिक सुविधाएं लेे लेने का चलन बेहद प्रभावी था। कई लोगों ने केवल प्रेस वालों को मिलने वाली सुविधाओं का लाभ उठा कर पत्र- पत्रिकाओं के पंजीकरण लेे रखे थे। पत्र या तो अनियमित था, या निकलता ही न था।
संयोग से एक बार दिल्ली जाते हुए ट्रेन में ज्ञानरंजन जी और मैं एक ही डिब्बे में सफ़र कर रहे थे।
उनके घर मैं अक्सर जाता तो रहा था पर वहां अधिकतर उन्हें "पहल" के कामकाज में व्यस्त देखता था तो कभी अपनी रचनाओं के बारे में परामर्श का कोई मौक़ा नहीं मिला था।
अब यहां ट्रेन में लंबे रास्ते में जब उन्होंने खुद पूछा कि आजकल क्या लिख रहे हैं, तो मौक़ा मैंने लपक लिया। तुरंत उन्हें अपनी एक डायरी थमा दी जिसमें मैं अपना लघु उपन्यास "सेज गगन में चांद की" लिख कर पूरा कर चुका था।
ज्ञानरंजन जी सफ़र में भोजन से निवृत्त होकर अपनी सीट पर लेटे, और तुरंत उनके सिरहाने की छोटी, पढ़ने वाली लाइट ऑन हो गई।
मैं गदगद होकर अपनी सीट पर आ लेटा।
दिल्ली से लौटते ही मेरा ये उपन्यास "स्वतंत्र मत" अख़बार में हर रविवार को धारावाहिक छपना शुरू हो गया।
ज्ञानरंजन इस अख़बार के सलाहकार संपादक थे। सुन्दर तरीक़े से छपने वाला नया अख़बार था।
मैं अख़बार के दफ़्तर में अक़्सर जाने लगा।
शहर के बीचोंबीच स्थित अख़बार का ये दफ़्तर मेरे कार्यालय से पैदल की दूरी पर था।
पहली कड़ी के प्रकाशन से पूर्व एक दिन संपादक जी के केबिन में चाय पीते हुए उन्होंने मुझसे धीरे से कहा- यदि आपकी सहमति हो तो उपन्यास का शीर्षक थोड़ा बदल कर "चांद चढ़यो गिगनार" कर दें।
मैं चौंक गया। क्योंकि ये तो बचपन से सुने आए एक प्रसिद्ध राजस्थानी गीत की पंक्ति थी।
मैंने उनसे पूछा, क्या अख़बार का प्रसार राजस्थान में ज़्यादा है?
वो बोले- नहीं, वहां तो अख़बार जाता ही नहीं, मेरे मन में तो सहज ही ये ख्याल आया था, शायद बचपन में सुने एक गीत की स्मृति से ही...!
बात ख़त्म हो गई। उपन्यास अपने मूल शीर्षक से ही छपने लगा।
अख़बार ने उसके लिए एक बड़ा, और आकर्षक चित्रांकन भी करवाया। साथ ही बॉक्स में उसके पात्रों के अनुरूप कुछ मॉडल्स के फोटोग्राफ भी दिए जाने लगे।
मुझे पता चला कि दैनिक भास्कर प्रति सप्ताह जिस परिशिष्ट "मधुरिमा" का प्रकाशन करता है उसका संयोजन राजश्री रंजिता कर रही हैं। वो नज़दीक ही रहती थीं।
इनका नाम मैं मुंबई में पहले सुन चुका था। जब मैं अरविंद जी के साथ "कथाबिंब" के सहायक संपादक का काम देखता था तब ये छपने के लिए कुछ रचनाएं वहां भेजा करती थीं, जिन पर मैंने उनसे कुछ पत्राचार किया था। यहां उनसे मिलना हुआ तो उन्होंने मधुरिमा परिशिष्ट से जुड़ने और उसके लिए सुझाव आदि देने का आग्रह भी किया।
शहर के आकाशवाणी केंद्र का अकस्मात दौरा करना भी मेरे लिए बेहद सुखद रहा क्योंकि यहां मेरी मुलाकात अपने पुराने मित्र जगदीश किंजल्क से हुई।
जगदीश किंजल्क से कई बार पत्राचार हुआ था। वे देश के प्रसिद्ध परिचर्चाकार के रूप में ख्यात थे। उनकी परिचर्चायें हिंदी की लगभग सभी छोटी- बड़ी पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती थीं। मैंने भी कभी - कभी उनमें भाग लिया था। इसके अलावा उनके पिता स्व. अंबिका प्रसाद दिव्य की लिखी हिंदी पुस्तक "पीताद्री की राजकुमारी" और "खजुराहो की अतिरूपा" मेरे पास मुंबई में किसी अख़बार से समीक्षा के लिए भी आई थीं।
यहां प्रत्यक्ष भेंट होने पर हमारी मित्रता पारिवारिक संबंधों में बदल गई। मेरा आकाशवाणी पर आना - जाना भी नियमित रूप से शुरू हो गया और मेरी कई कहानियां वहां से प्रसारित हुईं।
यहां एक बात का विशेष उल्लेख मैं करना चाहूंगा- अक़्सर मैं देखता था कि नए लेखक इस मानसिकता से चलते हैं कि जहां हमारी जान- पहचान होगी, वहीं हमारी रचनाएं छपेंगी। लेकिन ऐसा नहीं है। इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि रचनाएं मित्रता के कारण नहीं चुनी जाती हैं, बल्कि जिनकी रचनाएं चुनी जाती हैं,उनसे मित्रता हो जाती है।
ये सभी संपर्क ऐसे थे जहां पहले पत्राचार से ही रचनाएं भेजने- छापने का सिलसिला शुरू हुआ और बाद में उन लोगों से प्रत्यक्ष भेंट हुई।
जबलपुर में चल रहे "कादम्बिनी क्लब" की गतिविधियों से भी जुड़ने का अवसर मिला।
यहां के साहित्यिक हल्कों में आना- जाना शुरू होने से ये जानकारी भी मिली कि लघुकथाकार श्री राम ठाकुर दादा का ऑफिस बिल्कुल मेरे ऑफिस के सामने ही है, जहां उनके सहायक के रूप में आनंद कृष्ण भी पदस्थ हैं।
कभी- कभी दोपहर की चाय पर चर्चा शुरू हो गई।
मेहरुन्निसा परवेज से भी मिलना हुआ।
संजीव सलिल से मुलाक़ात हुई तो उनके साथ उठने- बैठने का सिलसिला चल निकला।
डॉ त्रिभुवन नाथ शुक्ल भी उन दिनों जबलपुर विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के अध्यक्ष थे। उनसे भी कार्यक्रमों के दौरान मिलना हुआ।
मैं घर पर अकेला रहने के कारण भोजन आदि व्यवस्थाओं के लिए घरेलू नौकरों पर अवलंबित रहता था। कभी- कभी ऐसे संयोग आते कि कुक के छुट्टी पर होने या देर - सवेर आने के कारण मुझे कई बार महत्वपूर्ण कार्यक्रमों में पहुंचना कठिन या असुविधाजनक हो जाता।
एक बार शहर के एक वयोवृद्ध साहित्यकार, जो अक्सर समारोहों में अध्यक्ष या मुख्यअतिथि के पद को सुशोभित करते रहते थे, उन्होंने बाकायदा मंच से ये कहा- "मुंबई से आकर प्रतिष्ठित लेखक प्रबोध कुमार गोविल अब हमारे बीच में हैं किन्तु इनका सान्निध्य पाने के लिए जब हम इन्हें आमंत्रित करते हैं तो हमें ऐसे हल्के- फुल्के कारण सुनने को मिलते हैं कि उनकी सफ़ाई वाली, भोजन बनाने वाला या वाहन से उन्हें लेकर आने वालेे लोग अनुपस्थित हैं, इसलिए वो नहीं आ रहे, हम सब स्थानीय लोगों को इस समस्या को गंभीरता से लेना चाहिए और उनके लिए कोई माकूल व्यवस्था करवाने पर विचार करना चाहिए।"
बात मेरी हंसी, और हल्के- फुल्के परिहास के बाद ख़त्म हो गई। किन्तु इसके चंद दिन बाद एक सुखद संयोग भी हुआ।
एक दिन मैं अपने ऑफिस में ही था कि एक अपरिचित व्यक्ति मेरे पास आया। उसने मुझसे कुछ देर बात करने के लिए मुझे बाहर बुलवाया और एक लड़के से मिलवाया।
सत्रह- अठारह साल का वो लड़का किसी स्कूल की यूनिफॉर्म पहने हुए था। गले में टाई थी, सफ़ेद कमीज़, चैक की लाल पेंट, कंधे पर स्कूल बैग, और सहमा सा भोला- भाला चेहरा।
मुझे बताया गया कि जिस विद्यालय के प्रांगण में पिछला कार्यक्रम संपन्न हुआ था उसके प्रधानाचार्य ने इसे भेजा है।
लड़का आसपास के किसी गांव का रहने वाला था। और अब छात्रवृत्ति पाकर यहां हॉस्टल में रह कर ग्यारहवीं क्लास में पढ़ रहा था।
लड़के के साथ अाए युवक ने कहा, ये चौबीस घंटे आपके साथ ही रहेगा, घर का सब काम कर देगा। जब आप ऑफिस जाएंगे तो ये पढ़ने चला जाएगा। इसे स्कॉलरशिप मिलती है, गरीब घर का बच्चा है, आप जो चाहें इसे दे दें।
नेकी और पूछ- पूछ!
मुझे और क्या चाहिए था। उसी शाम को वो एक बैग में अपना कुछ सामान लेकर मेरे साथ रहने चला आया।
अब मैं सड़क पर घूमने भी निकलता तो पीछे- पीछे बॉडीगार्ड की तरह सिर झुकाए वो मेरे साथ रहता। हर काम में दक्ष, समझदार, किन्तु बहुत गरीब परिवार का लड़का था।
जल्दी ही मेरी मुलाक़ात आचार्य भगवत दुबे और कुछ अन्य साहित्यकारों से भी हुई।
इन्हीं दिनों दिशा प्रकाशन, दिल्ली से मेरा नया उपन्यास "आखेट महल" भी छप कर आया। इस उपन्यास की शहर में व्यापक चर्चा रही। लगभग सभी अखबारों में इसकी विस्तृत समीक्षाएं छपीं।
नागपुर के एक अख़बार में डॉ दामोदर खड़से का इस पर विस्तृत आलेख प्रकाशित हुआ।
कुछ पत्रिकाओं में इसके अंश भी छपे।
बालाघाट जिले में हमारे बैंक की बहुत सारी शाखाएं थीं।
एक बार मैं उनके निरीक्षण के दौरान लगभग एक सप्ताह तक बालाघाट में ही रहा। मैं एक होटल में ठहरा हुआ था। रोज़ सुबह आसपास के किसी गांव या कस्बे में जाता और दोपहर तक वापस अा जाता।
तीसरे पहर को मैं रोज़ ही एक साइकिल रिक्शा से आसपास के स्थान, जंगल, नदी के घाट आदि देखने निकल जाता। फ़िर देर रात तक ही वापस आता।
गर्मी के दिन थे। साफ़ सुथरी नदी में देर तक नहाने का आनंद लेता।
यहां भी तीसरे ही दिन मेरा एक रिक्शा चालक निर्धारित हो गया। वही रोज़ आता और मुझे सब तरफ़ घुमाता।
लड़का किसी आदिवासी समुदाय से था। मेहनत और प्यार से मुझे घुमाता और कभी मुंह खोल कर अपने आप पैसे नहीं मांगता। जो मैं देता, चुपचाप रख लेता।
मुझे थोड़ा अचंभा तब होता जब नदी में मेरे नहाने के दौरान कुछ ही दूरी पर वह स्वयं भी पूरी तरह निर्वस्त्र होकर नहाता।
इससे उसके प्रति मेरी झिझक भी खुल गई और जब शाम को घुमाने- फिराने के बाद वो मुझे होटल छोड़ने आता तो होटल से कुछ ही दूरी पर सड़क के किनारे उसके रिक्शा के हैंडल पर सूख रहा मेरा अंडरवियर वापस पहनते समय मैं किसी पेड़ की ओट ढूंढने की कोशिश न करता।
प्राकृतिक जीवन के प्रति लगाव पनपने के शायद यही दिन थे। आदिवासियों को देख कर अपनी ज़रूरतें भी व्यर्थ लगतीं।
ये सब अनुभव मेरे लेखन के कैनवस को विस्तार देते और मुझे परिवार से दूर अकेले रहने की कुंठा से भी बचाते।
जल्दी ही मैंने मध्यप्रदेश के कई ज़िले सघन रूप से देख डाले।
मैंने ये भी नोट किया कि मध्यप्रदेश हिंदीभाषी क्षेत्र माने जाने पर भी यहां की हिंदी पर मालवी, बुंदेलखंडी या छत्तीसगढ़ी जैसी स्थानीय भाषाओं का बहुत प्रभाव है।
यहां ये अहसास मुझे कभी- कभी सब्ज़ी या फल के ठेले पर खरीदारी के लिए खड़े हो जाने पर शिद्दत से होता। फल सब्जियों के नाम अलग और कुछ अटपटे लगने वाले उच्चारे जाते और कहा जाता कि हिंदी ही तो बोल रहे हैं।
अगर मैं हिंदी का लेखक न होता तो शायद वो लोग वहां ये कहने में भी कोई संकोच न करते कि मुझे हिंदी ही नहीं आती।
मैंने मध्यप्रदेश का वो क्षेत्र भी सघनता से देख डाला, जो अब नए बने राज्य छत्तीसगढ़ में शामिल हो गया है। छिंदवाड़ा, राजनांदगांव, दुर्ग, बस्तर, रायपुर आदि को मैंने कई बार अनुभव किया।
रायपुर मेरा कई बार जाना हुआ। आसपास के गांवों में भी खूब घूमा।
दुर्ग में मेरी मुलाक़ात "सापेक्ष" के संपादक महावीर अग्रवाल से हुई। उनके घर पर गहन चर्चा और आत्मीयता के माहौल से आने के बाद मैंने सापेक्ष के लिए कई लेख लिखे।
इस पत्रिका ने कई महत्वपूर्ण साहित्यकारों पर गहन, सारगर्भित विशेषांक निकाले जिनसे रचनात्मक रूप से मैं भी जुड़ा।
दुर्ग के श्री प्रकाशन ने मेरा एक नाटक "मेरी ज़िन्दगी लौटा दे" पुस्तक रूप में प्रकाशित किया। ये नाटक पर्याप्त चर्चित रहा।
इन्हीं दिनों एक दिन रात को जबलपुर में मैं अपने घर पर बैठा हुआ कुछ पढ़ रहा था कि दरवाज़े पर दस्तक हुई।
एक नवयुवक जिसे मैंने पहली बार ही देखा था कुछ सकुचाता हुआ कमरे में दाखिल हुआ। मैंने प्रश्नवाचक नज़रों से उसे देखते हुए बैठने का इशारा किया। उसने बाहर जाकर अपने जूते उतारे और संकोच के साथ बैठ गया।
उसने कोई खास प्रयोजन तो नहीं बताया पर मेरे परिचित एक सज्जन का हवाला ज़रूर दिया और कहा कि वो उनके पास काम करता है, मुझे उनके पास ही उसने कभी देखा है, और ऐसे ही मुझसे वो मिलने चला आया है।
मुझे थोड़ा सा आश्चर्य हुआ पर मन ही मन मैं अंदाज़ लगाने लगा कि वो क्यों आया होगा।
पहला ध्यान तो मेरा इस बात पर गया कि संयोग से मेरे पास आकर रहने वाला लड़का मुकेश आज गांव गया हुआ था, तो कहीं उसी ने इसे यहां भेजा हो और वो खुद यहां काम न करना चाहता हो। यद्यपि वो मुझसे दो दिन में वापस आने के लिए कह गया था।
पर ये महज़ मेरा अनुमान ही था।
लड़का इतने अदब, संकोच और आत्मीयता से बैठा था कि वो यहां क्यों आया है ये उससे पूछने की मेरी इच्छा ही नहीं हुई।
कुछ देर बैठ कर लड़का चला गया और मुझे उस दिन ये पता नहीं चला कि वो आया क्यों था।
मैं दरवाज़ा बंद करके सोने के लिए आ गया।
ज़िन्दगी के नाटक भी बदस्तूर जारी थे और खिसकना जारी था उम्र का भी।
जल्दी ही मुझे पता चला कि उस दिन आने वाला वो युवक वास्तव में अख़बार में धारावाहिक छप रहे मेरे उपन्यास के साथ छप रहे फ़ोटो देख कर ख़ुद अपना फ़ोटो देने के लिए आया था। वह संकोच से कुछ कह न सका और मैं भी अपनी ओर से उसे ऐसा प्रस्ताव कैसे देता।
उसे अख़बार में ही काम करने वाले किसी पत्रकार ने भेजा था।
लेकिन अब मुझे महसूस हुआ कि लड़का बेहद ख़ूबसूरत था और पीली टीशर्ट व सफ़ेद पैंट में सचमुच किसी मॉडल सा ही लग रहा था।
उस रात मेरे सोने के बाद नींद में भी मुझे वही दिखता रहा। मेरे उपन्यास का युवा नायक- नीलांबर!
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