तेरे शहर के मेरे लोग - 2 Prabodh Kumar Govil द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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तेरे शहर के मेरे लोग - 2

( दो )
एक बात कुदरती हुई कि मैं जो उखड़ा- उखड़ा सा जीवन- अहसास लेकर मुंबई से रुख़सत हुआ था, वो आहिस्ता- आहिस्ता यहां जमने लगा।
न जाने कैसे, मुझे ऐसा लगने लगा कि मुझे अपने जीवन के सितार के तारों को फ़िर से कसना चाहिए। किसी वाद्य यंत्र के तारों का एक बार ढीला हो जाना कलाकार की विफ़लता नहीं हो सकती। अलबत्ता ये एक नई चुनौती ज़रूर है। इसे इसी तरह स्वीकार करना चाहिए।
मैं कभी- कभी नर्मदा नदी पर जाने लगा।
एक- दो बार आरंभ में तो सहकर्मी और मित्र लोग मुझे शहर घुमाने के क्रम में एक पर्यटक की तरह ग्वारी- घाट दिखाने ले गए, जहां हमने नर्मदा नदी के किनारे बने मंदिरों को देखा, नाव से नदी की सैर की, किनारे के बाज़ार में हलवाई की दुकान पर गरम जलेबियां खायीं और नदी का माहात्म्य सुना लेकिन फ़िर ये नदी इस नए शहर में मेरी दोस्त बन गई।
ये घाट वही स्थान था जहां नदी जबलपुर शहर के किनारे से बहती थी।
किन्तु कुछ फासले पर इस नदी का एक और रूप बिखरा पड़ा था, जो बेहद आकर्षक और नयनाभिराम था।
इसे भेड़ाघाट कहते थे।
यहां नदी कुछ संकरी होकर गहरी हो जाती थी, जिससे पानी का बहाव बहुत तेज़ होकर कई झरनों- चश्मों का सा आनंद देता था। किनारे भी सफ़ेद संगमरमर के पत्थरों से जड़े हुए प्रतीत होते थे।
इसे देखने के बाद मेरे मन ने मुझसे कहा कि इस शहर में मेरा मन लग जाएगा।
बैंक में हर शनिवार आधे दिन का अवकाश रहता था। हम लोग लगभग तीन बजे तक फ़्री हो जाते थे। इसके बाद अधिकांश लोग अपने घरेलू छोटे- मोटे कार्य निपटाते थे और आसपास रहने वाला स्टाफ अपने घर- गांव चला जाता था।
मेरे पास कोई विशेष काम नहीं होता था। मैं इसी समय का उपयोग नर्मदा नदी पर जाने में कर लिया करता था। कुछ दिन के बाद दो- एक रिक्शा वाले मेरे कार्यक्रम से अवगत हो गए थे, वे पहले से ही निर्धारित समय पर मेरे ऑफिस के बाहर आकर खड़े हो जाते और निकलते ही मेरी ओर आशा से देखने लग जाते।
ऐसे में कुछ मौक़े इस तरह के भी आए जब मैंने नदी पर जाने का मन न बना रखा हो, किन्तु एन वक़्त पर किसी परिचित रिक्शा के अा जाने से मैं नदी पर चला गया।
यहां के अधिकांश लोग बहुत मिलनसार स्वभाव के थे।
ऑफिस में भी लगभग सभी लोग कभी न कभी मुझे अपने घर पर आमंत्रित करते रहते और मैं अपने साथियों के परिवारों से भी परिचित होता जाता।
लेकिन कुछ तो अपने भीतर किसी साहित्यकार के स्वभाव और कुछ अपने अकेलेपन के चलते मैं कभी- कभी बेचैन हो जाता। ऐसे में मैं एकांत चाहता और किसी से भी मिलने से बचता।
यहां ऑफिस का कामकाज तो सामान्य ही था, इसमें कोई दबाव कभी नहीं रहा, किन्तु मध्य प्रदेश के ढेर सारे जिले और उनमें स्थित छोटे- बड़े नगर और गांव मैंने बहुत से देख डाले।
होटल, धर्मशाला, सराय, गेस्ट हाउस, डाक बंगले मेरी ज़िन्दगी का एक अहम हिस्सा बन गए। कुछ तो अपनी सरकारी ड्यूटी के कारण और कुछ अपने पत्रकारिता के पूर्व अनुभवों व संपर्कों के चलते सुविधाएं भी खूब मिलीं।
मैं पहले भी कह चुका हूं कि अपने बचपन की परवरिश के कारण मेरी सोच और व्यवहार दूसरे कई लोगों से हमेशा अलग रहा।
इन्हें संस्कार कहा जाए या आदत, कि मेरी रुचि शराब, सिगरेट, जुए जैसी बातों में कभी नहीं रही। रत्ती भर भी नहीं। जिन मित्रों के साथ शराब का ग्लास हाथ में लेकर कभी बैठा भी हूं, वो जानते थे कि साथ बैठा ये मुसाफ़िर कभी भी गाड़ी से उतर जाएगा, इसलिए वो मुझे इस सफ़र का भरोसेमंद साथी नहीं मानते थे। सच में, इस मामले में मेरा फ़लसफ़ा वही था, "खाया पिया कुछ नहीं, गिलास तोड़ा - बारह आना"।
अपनी ज़रूरत से थोड़े भी ज़्यादा पैसे का लालच भी मुझे कभी नहीं रहा। जिसे लोग "ऊपरी आय" कहते हैं, उस पर कभी ध्यान देना तो दूर, मैं इसे मन ही मन शैतानी ही मानता था।
लोग सरकारी पैसे को हड़पने या उससे मौज- मस्ती करने की सोचते हैं, झूठे बिल देते हैं, अपनी जेब के दो को चार बनाने में गारत रहते हैं, किन्तु मैंने कई बार अपनी जेब के पैसों से दफ़्तर के काम किए। दफ़्तर से ऐसे कई बिलों के भुगतान नहीं लिए जिनके लिए मैं नियमानुसार पात्र था।
जो थोड़ी बहुत आमदनी लेखन, आकाशवाणी, दूरदर्शन पत्रकारिता आदि से हुई, उससे कई गुणा ज्यादा मैंने इन्हीं क्षेत्रों पर ख़र्च कर दिया।
यहां तक कि जो अवांछित आय "पदेन"(किसी पद पर रहने के कारण) बिना चाहे होती, उसे मैं इसी तरह ख़र्च भी कर देता था, कि जैसे आए वैसे गए!
उदाहरण के लिए जहां लोग मजदूरों, सायकिल -रिक्शा चालक, नौकरों आदि से पैसे- पैसे के लिए हुज्जत करते हुए दिखाई देते, वहां मैं उन्हें बिना मांगे, ज़रूरत से ज़्यादा दे देता।
बताऊं आपको, कि कैसे?
सुप्रसिद्ध साहित्यकार ज्ञानरंजन शहर से बहुत दूर रहते थे, उनसे मिलने जाता तो आने- जाने का पूरे - पूरे दिन का रिक्शा करके ले जाता और लौट कर उसे मुंह मांगे पैसे देता। जिस नव- विकसित इलाक़े में रिक्शा मुश्किल से मिलता वहां अक्सर ही मैं आने- जाने का साधन ले जाता, और वहां जितनी भी देर लगे उसके इंतजार के पैसे मैं उसे देता। रास्ते के चाय- पानी में भी उसे अपने साथ शामिल रखता।
मजदूरों, नौकरों को ढेर सारी "टिप" देता।
अपने घर जाता तो ढेर सारी चीज़ें उपहार में उन लोगों के लिए ले जाता जो वहां भी किसी न किसी रूप में सेवकों की तरह मुझसे जुड़े होते।
यहां एक बात और बता देना ज़रूरी समझता हूं कि मुझ पर अपने परिवार के किसी ख़र्च की कोई ज़िम्मेदारी कभी नहीं रही। घर की सभी महिलाओं के भी शिक्षित होने और अच्छी नौकरियां करने के चलते कोई कभी किसी से पैसे मांगता नहीं था। अपने मन से जो चाहो ख़र्च कर दो।
और इसका सबसे बड़ा कारण ये था कि घर में किसी को फ़िज़ूलख़र्ची या पैसों को जोड़ कर रखने का मोह कभी नहीं रहा।
बच्चों या पत्नी ने कभी एक रुमाल तक ख़रीद कर लाने के पैसे मुझसे नहीं मांगे। यहां तक कि यदि अपने आने - जाने के टिकिट बुक कराने के लिए भी उनसे कह दूं तो कोई मुझसे टिकिट के पैसे मांगता नहीं था।
तो क्या घर में कोई कारूं का खज़ाना गढ़ा हुआ था?
नहीं, बिल्कुल नहीं!
लेकिन मेरे हमेशा खादी पहनने वाले माता- पिता ने संस्कार ही ऐसे दिए थे कि किसी के आगे हाथ मत फैलाओ और अपनी ज़रूरतों को अपने वश में रखना सीखो।
मैं आपको मेरी कहानी सुना रहा हूं, पर मेरी वैज्ञानिक सोच की परम मेधावी पत्नी के बारे में भी आपको इतना बताना चाहूंगा कि वो गले में लटके किसी ज़ेवर को गले में बंधा पत्थर ही समझती थी।
मित्रों की किताबें आतीं तो मैं खरीद कर मुफ्त बांटता। अपनी किताबों की ढेरों प्रतियां प्रकाशकों से ख़रीद कर लोगों को मुफ़्त में भेजता। यहां तक कि मित्र लोग ऐसी टिप्पणियां भी करने लग जाते कि मुझे पैसे देकर अपनी किताबें छपवाने का शौक़ है।
लेकिन मुझे ये संतुष्टि कभी नहीं मिली कि मेरी किताबें छप रही हैं, हमेशा मन में यही रहा कि हिंदी ने मेरे लिए किया, मैं हिंदी के लिए कर रहा हूं। मैंने ढेरों विषय पढ़े पर मान मुझे हिंदी ने ही दिया।
छोटे कर्मचारियों को उधार भी देता, दान भी।
मित्र- मंडली और सहकर्मियों के साथ होने पर चाय, खाने, नाश्ते के पैसे अधिकांशतः मैं ही देने की कोशिश करता।
ये सब करते हुए मैं अपने मन को कई तरह से समझाता। कई बार सोचता, मुझे सिगरेट, शराब, पान, गुटके, जुए की लत होती तो भी तो पैसा ख़र्च होता?
मुझे किसी वाहन का भी शौक़ कभी नहीं रहा। जबलपुर आने के बाद सब कहते कि आप कार नहीं तो दो पहिया वाहन ही लेे लो। पर मैं बचपन से ही ड्राइविंग में बेहद कच्चा और डरपोक रहा। मेरी हिम्मत ही नहीं होती थी कि कोई वाहन खरीदूं। मुझे वाहन रखना एक बोझ जैसा मालूम होता था।
मुझे बचपन से ही पैदल चलने और घूमने का बहुत शौक़ था।
एक बात मैं किसी से कहता तो नहीं था, किन्तु मन ही मन सोचता ज़रूर था कि सबको वाहन चलाने और रखने का बेहद शौक़ होता है। लोगों के इस शौक़ या जुनून के चलते सड़कों पर इतने वाहन हैं कि शहर पटे पड़े हैं।
दिनभर में दस मिनट के लिए दफ़्तर जाने- आने के लिए वाहन की ज़रूरत होने पर भी लोग चौबीसों घंटे अपने वाहनों की तीमारदारी करते देखे जाते।
मुझे कई बार तो ऐसी खीज होती कि मैं ज़रा टहलने के लिए भी सड़क पर आता तो कोई न कोई अपना वाहन ये कहते हुए रोक देता कि आपको कहीं छोड़ दूं?
मैं बैंक में था जहां किसी भी काम के लिए आसानी से लोन मिल जाता, ऐसे में लोग कई बार मुझसे कहते कि यदि आप वाहन नहीं लेे रहे हैं तो अपने लोन से हमें दिलवा दें, हम ब्याज सहित राशि चुका देंगे। पर यहां मैं आनाकानी करता।
बैंक में रहते हुए मैं ये भी अच्छी तरह जानता था कि सब लोग ऐसे नहीं होते, ढेरों ऐसे किस्से देखने में आते जब लोगों ने उधार ले लिया और फिर नहीं चुकाया, तथा आपसी रिश्ते भी पैसे की खातिर ख़राब कर लिए। मैं इससे भी बचता।
ये बातें जब मैं अपने बच्चों और पत्नी को बताता तो बच्चे कहते- पापा आप भी कोई गाड़ी लेे लो।
बेटी तो एकाध बार कह कर भूल जाती, पर बड़े हो रहे बेटे ने धीरे- धीरे इस बात पर ज़ोर देना शुरू किया कि आप गाड़ी या बाइक लो।
एक बार छुट्टियों में जब मेरा परिवार जबलपुर आया हुआ था हम लोग किसी काम से बाज़ार जा रहे थे। बच्चों के तांगे में बैठने के शौक़ के चलते हमने एक तांगा कर लिया था।
तांगा जब ट्रेफ़िक लाइट पर एक जगह रुका तो बिल्कुल हमारे ही क़रीब मोटर साइकिल से जाता एक नाइज़ीरियन विद्यार्थी युवक भी रुका। बच्चे उसे कौतूहल से देखने लगे। लाइट हरी होने पर उसके जाते ही मेरा बेटा मुझसे बोला- देखो पापा, ये लड़का अफ़्रीका से पढ़ने यहां आया है, इसे केवल कुछ ही समय यहां रह कर अपने देश लौटना है। फ़िर भी, इसने भी यहां बाइक ख़रीद ली। और आप कहते हो कि यहां थोड़े ही दिन रहना है, गाड़ी खरीदने से क्या फायदा।
मैं निरुत्तर हो गया।
गर्मियों की छुट्टियों में जब तक परिवार वहां रहता लोगों से मिलना- जुलना, घूमना- फिरना चलता, किन्तु सब के जाते ही मैं फ़िर वर्ष भर के लिए घर में अकेला हो जाता। मेरे घर के शेष दो कमरे सिमट कर बंद हो जाते और मैं एक ही कमरे में व्यवस्थित हो जाता।
बैंक शाखाओं के निरीक्षण, प्रशिक्षणों, बैठकों आदि के लिए मुझे शहर से बाहर भी ख़ूब जाना पड़ता। अधिकांश ज़िले, शहर, कस्बे और गांव मैंने देख डाले।
एक बार मैं सिवनी ज़िले की शाखाओं में निरीक्षण के लिए जा रहा था। बस का सफ़र था। रात को नौ बजे के करीब पहुंच कर किसी होटल में रुकने का इरादा था।
किन्तु साढ़े सात बजे के करीब रास्ते में बस एक जगह ख़राब हो गई। पहुंचते - पहुंचते साढ़े ग्यारह बज गए।
बस में ही मेरी पहचान एक युवक से हुई जो पेशे से डॉक्टर था और किसी काम से वहां जा रहा था। रास्ते में चाय आदि साथ पीने के कारण उससे थोड़ी घनिष्ठता हो गई।
हम दोनों एक साथ ही उतरकर एक होटल में चले गए। हमने एक ही कमरा लिया और खाना खाकर सोने की तैयारी करने लगे।
आते समय मेरा ध्यान इस ओर गया कि बड़े से उस होटल में सफ़ेद कमीज़ और काली पैंट पहने कुछ किशोर लड़के घूम रहे थे। मैंने सोचा कि या तो कोई विद्यार्थियों का दल होगा या फिर प्रशिक्षु कर्मचारी होंगे।
पर लेटते ही डॉक्टर मित्र ने बताया कि वो यहां आता रहता है और जानता है कि ये लड़के मसाज पार्लर से आते हैं। इतना ही नहीं, उसी ड्रेस में कुछ लड़कियां और किन्नर भी दिखे।
और रात को लगभग एक बजे सचमुच होटल में भगदड़ मच गई। हमें बताया गया कि पुलिस का छापा पड़ा है।
सिवनी ज़िले की कई शाखाओं में मेरा जाना हुआ।
रहने के लिए मुंबई से जबलपुर आने से पहले कुछ लोगों ने मुझे ये भी बताया था कि जबलपुर के लोग बहुत गर्म मिजाज़ के होते हैं। यहां ज़रा सी बात पर लोगों को धैर्य खोकर क्रोधित हो जाने में देर नहीं लगती, किन्तु मुझे ऐसा लगता था कि यहां के लोग बहुत साफ़ दिल के होते हैं। यदि आप उन्हें विश्वास में लेकर खुले मन से बात करेंगे तो वो आपको भरपूर सहयोग देते हैं।
मैं जब कभी नर्मदा नदी पर जाता था तब भी पता चलने पर लोग मुझे सलाह देते कि यहां आपराधिक गतिविधियां भी अपने चरम पर हैं अतः मुझे ध्यान रख कर जाना चाहिए।
लेकिन अपने तीन- चार साल के प्रवास में मेरा वास्ता प्रायः ऐसी घटना से नहीं पड़ा जिसे मैं अपराध से जुड़ी गतिविधियों में शुमार कर सकूं।
एक दिन अपने एक बैंक अधिकारी मित्र के साथ सड़क पर टहलते हुए मैंने देखा कि कुछ आगे एक कार रुकी और एक लड़की को लगभग दरवाज़ा खोल कर नीचे धकेल कर फेंकते हुए चली गई। लड़की सड़क पर कुछ देर पड़ी रही, फ़िर धीरे से उठ कर संयत होने की कोशिश करने लगी।
मेरे मित्र ने ऐसी बात पर ध्यान न देने की गरज़ से उसे अनदेखा किया किन्तु मेरे पूछने पर लड़की बिना कुछ बोले अपने आंसुओं को पौंछती रही जो अब ज़्यादा तेज़ी से बहने लगे।
कुछ देर पहले जब वो कार मेरे पास से गुज़री थी तो मैंने इस बात पर ध्यान दिया था कि उसमें सवार लड़के स्कूली बच्चों की भांति किशोर वय के हैं। लड़की तब दिखी नहीं थी, शायद उन युवकों में घिरी हुई हो।
ये घटना किसी शहर का मिजाज़ नहीं बताती थी बल्कि उस संपन्न समाज का कच्चा चिट्ठा खोलती थी, जिसके पास ज़रूरत से ज़्यादा पैसा है और अपने बच्चों पर ध्यान देने के लिए वक़्त की ज़बरदस्त कमी है।
मुंबई से तुलना करते समय मैं ये ज़रूर पाता था कि मुंबई की बनिस्बत यहां लोग थोड़े आराम - तलब या "ईज़ीगोइंग" ज़रूर हैं। लेकिन ये मैं जबलपुर की कमी न मान कर मुंबई की खूबी मानता था।
या शायद मेरी सकारात्मकता!
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