तेरे शहर के मेरे लोग - 1 Prabodh Kumar Govil द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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तेरे शहर के मेरे लोग - 1


( एक )
जबलपुर आते समय मन में ठंडक और बेचैनियों का एक मिला- जुला झुरमुट सा उमड़ रहा था जो मुंबई से ट्रेन में बैठते ही मंद- मंद हवा के झौंकों की तरह सहला भी रहा था और कसक भी रहा था।
ईमानदारी से कहूं तो बेचैनी ये थी, कि लो, फ़िल्म नगरी से नाकामयाबी का गमछा लपेटे एक और कलमकार भागा!
ठंडक इस बात की थी कि जिन लोगों ने मुंबई में रात - दिन भाग - दौड़ करते हुए देखा था, वो अब सफल न हुआ जानकर दया- करुणा की पिचकारियां छोड़ते हुए रोज़- रोज़ नहीं दिखेंगे।
मेरे व्यक्तित्व अगर आप कोई पेड़ मान लें तो मुंबई में इस पेड़ की तीन शाखाएं थीं।
एक तो साहित्य या फ़िल्म क्षेत्र में मेरी कोशिशें।
दूसरे, बैंक में मेरा कैरियर।
और तीसरी डाली थी, मुंबई में बने भावनात्मक- रागात्मक संबंध।
जब तलक गाड़ी जबलपुर पहुंचे, मैं थोड़े में आपको ये बता दूं कि पेड़ की इन तीनों शाखाओं ने मेरे मुंबई छोड़ने से क्या खोया, क्या पाया।
साहित्य की अगर बात करें तो वहां न कोई तीन में, न तेरह में। इस क्षेत्र में तो मानस जला कर अपनी ज़िन्दगी को सुलगाए रखना है, आदमी गांव - देहात में रहे या महानगर में, कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
हां, कम से कम एक अपनी लिखी हुई पूरी फ़िल्म पर्दे पर आ जाती तो बात कुछ और होती। इसका मलाल मुझे भीतर से ज़रूर सालता था।
ये नाकामी इसलिए और भी शिद्दत से महसूस होती थी क्योंकि कामयाबी बस मुझसे बित्ते भर के फासले पर ही थी। यदि राजेन्द्र कुमार जी की तबीयत न बिगड़ती तो बात बन ही रही थी।
उधर आर के नय्यर का अस्थमा भी फ़िल्म निर्माण से उन्हें दूर कर रहा था।
साधना का फ़िल्मों में वापसी का उत्साह राजकुमार की फ़िल्म "उल्फ़त की नई मंज़िलें" का हश्र देख लेने के बाद से बिल्कुल ठंडा पड़ गया था। वो किसी से मिलती भी नहीं थीं।
माधुरी पत्रिका ने लेखकों को फिल्मकारों से जोड़ने का जो सिलसिला शुरू किया था उसमें आरंभिक तीन नामों में से एक डॉ अचला नागर की विजय पताका तो "निकाह" फ़िल्म के झंडे गाढ़ने के बाद से लगातार फहराने लगी थी, लेकिन हम बाक़ी दो लोग अभी संघर्ष की राह पर ही थे।
सच कहूं तो इन चोटी के सितारों और प्रोड्यूसर्स के संपर्क में आ जाने के बाद और किसी नए प्रोड्यूसर से मिलने या बात करने का उत्साह भी नहीं रहा।
तो मेरा मन फिल्मी दुनिया में हार स्वीकार कर के ही लौट रहा था।
अब ज़िन्दगी में आख़िर किस- किस बात के लिए मन को ये समझाया जाता कि हम तो ऐसा चाहते ही नहीं थे।
ज़िन्दगी ने यहां भी कामयाबी के एक छोटे से तिलक की जगह माथे पर नाकामी के कारणों का पुलंदा ही लाद दिया।
इन कारणों को सबको बताते फिरो, इससे तो अच्छा था कि मुंबई नगरिया को अलविदा ही कह चलो!
जहां तक बैंक का सवाल था, वहां भी कोई बड़ी उपलब्धि तो मिली नहीं थी। हां, दो वक़्त की रोटी का सुगम रास्ता ज़रूर बना रहा।
लेकिन मुंबई में सभी सरकारी बैंकों की नगर राजभाषा समिति के सचिव के रूप में काम करने का जो मौक़ा मिला था, उसने कुछ प्रतिष्ठा अवश्य दिलाई। अब मुंबई छोड़ कर जाते समय उसकी स्मृतियां भी साथ थीं और उनकी गमक भी।
लेकिन दिल को एक कड़वा अनुभव ये भी हुआ कि अपना घर - शहर छोड़ने वाले आसानी से सुखी नहीं हो पाते। उन्हें ख़ानाबदोश ही समझा जाता है।
हम चाहे लाख इंसानियत और देश- राष्ट्र की बातें करें, असल में तो हम सब अपने -अपने सूबे, अपनी- अपनी जात में ही बंटे हुए हैं।
जिन्होंने इन किताबी बातों को सच मान कर कि "हम तो पूरे देश के हैं, किसी एक सूबे के नहीं" अपने मन में बैठा लिया, उनमें से ज़्यादातर अब पछता ही रहे हैं।
शायद यही कारण है कि हमारे देश में अच्छी सलाहियत - काबिलियत रखने वाला बंदा बसने के लिए किसी और देश को ही चुनना चाहता है।
अब बात मुंबई के अपने रिश्तों नातों की!
मुंबई में परिवार मेरे साथ लगातार नहीं रहता था।
केवल गर्मी की छुट्टियों में, या अन्य कुछ अवसरों पर , हम सब साथ - साथ रहते थे। अपनी भी लगभग सभी छुट्टियां - आकस्मिक, बीमारी की, अर्जित छुट्टियां मैं घर जाने में ही बिताता था लेकिन बाक़ी के लगभग आठ माह मैं अकेला ही रहता था।
इन आठ महीनों में मेरा साथ देने वाले मित्रों में सभी तरह के लोग थे। कुछ पारिवारिक मित्र, कुछ परिजन, कुछ सहकर्मी और कुछ ऐसे लोग जिनसे मैं केवल दिल से जुड़ा था।
मुंबई शहर में बाहर से अपने काम से आने - जाने वालों की तादाद भी ज़्यादा होती थी इसलिए मेरे पास कोई न कोई बना रहता था।
लेकिन कभी - कभी मुझे ऐसा भी लगता था कि शायद अपनी युवावस्था के दौरान मेरी कोई ग्रंथि छिटक कर मेरे मानस से इस तरह अलग हो गई थी कि उस पर अब उम्र का कोई असर नहीं हो रहा था। वह चिर युवा ही बनी हुई थी, और वो मुझे भी किसी न किसी युवा से हमेशा जोड़े रखती थी।
मैंने कहीं पढ़ा भी था कि इंसान का मन किसी झटके से आहत होकर कभी -कभी उसकी उम्र पर एक स्टिगमा सा लगा देता है, फ़िर उस उम्र के बाद की बातें या तो दिमाग़ में रजिस्टर ही नहीं होतीं या फिर वो व्यक्ति आयु बढ़ने पर कभी - कभी किसी अवसाद में चला जाता है।
मेरे साथ ऐसा तो कुछ नहीं हुआ, लेकिन युवावस्था मेरी पसंदीदा उम्र ज़रूर बन गई।
वैसे जवानी तो सबकी ही पसंदीदा होती है पर मैं अपनी नहीं, दूसरों की युवावस्था की बात कर रहा हूं।
मुझे युवा लोग बेहद पसंद आने लगे।
यहां तक कि मैं यदि कहीं जाने के लिए रिक्शा ढूंढ़ता तो सामने खड़े रिक्शा चालकों में से सबसे युवा को चुन लेता।
बाल कटाने जाता तो सबसे युवा नाई को चुन लेता।
यहां तक कि किसी दुकान में सौदा- सुलफ़ लेने जाऊं तो भी वहां खड़े सभी सेल्समैनों में से सबसे युवा से बात करता।
हद तो तब होती जब मैं घर में अख़बार डालने आने वाले लड़कों में से भी सबसे छोटे को चुन लेता। पड़ोसी कहते रह जाते कि ये लेटलतीफ़ है, देर से आयेगा, छुट्टियां ज़्यादा करेगा, और मेरे चयन पर अंगुली उठाते मगर मैं उल्टा उन्हें ही समझा देता कि नए व्यक्ति को मौक़ा देकर सहयोग करना चाहिए।
इस आदत का मुझे खूब नुक़सान भी होता। क्योंकि जो सबसे युवा होता वो सबसे कम अनुभवी और नौसिखिया होता। मुझे अनुभवी लोगों की दक्षता का लाभ नहीं मिल पाता। पर आदत तो आदत ठहरी।
मैं किसी भी ऐसे समूह में अपने को असहज या उदासीन पाता था जिसमें मेरे साथ कोई युवक न हो।
मेरे व्यक्तित्व का एक हिस्सा अपने संग - साथ के लिए हमेशा युवाओं को ही ढूंढा करता था।
ये बड़ी विचित्र बात थी।
मैं अपने किसी पचास वर्षीय अफ़सर के साथ होता, या फिर साठ वर्षीय साहित्यकार के साथ बातचीत करता हुआ किसी मीटिंग, सम्मेलन, कार्यक्रम में होता, किन्तु मेरी आत्मीयता उनकी तुलना में उनके युवा ड्राइवर, सहायक, पुत्र आदि के साथ फ़ौरन हो जाती।
ये युवा भी मुझसे जुड़ जाते और बेहद आत्मीय व्यवहार करते।
मुझे इस तरह के संबंध से हैरानी होती।
बल्कि कभी- कभी तो संकोच भी होता कि मित्र या साथी लोग मुझे उनके स्टाफ के साथ घुलते- मिलते देख कर ये न सोचें कि कोई षड्यंत्र चल रहा है।
और अलग होते समय या बिछड़ते समय ऐसे मेरे युवा मित्र मुझे याद भी आते थे। मैं उन्हें "मिस" किया करता था।
मुंबई जैसे शहर के अकेलेपन में तो ये मित्र भी एक धरोहर होते थे।
सब याद करता हुआ मैं पहाड़ों, जंगलों, नदियों के बीच से गुजरती रेलगाड़ी की खिड़की से अपने भविष्य की किताब के नए वर्क़ खुलते देखता चला जा रहा था।
एक मज़ेदार बात और बताता हूं।
कभी - कभी मुझे लगता था कि विभिन्न साहित्यिक कार्यक्रमों, मीटिंगों आदि में जो महिलाएं मेरे संपर्क में आती हैं, मैं शायद अपनी पत्नी को दिए गए वचन के कारण या बचपन से लड़कियों के स्कूल में उनके साथ पढ़ने की वजह से उनके प्रति खास आकर्षण महसूस न करने के कारण उन्हें उचित प्रतिसाद नहीं दे पाता हूं ।
उनकी उपेक्षा से ये मायूसी उनके चेहरों पर छलक जाती।
फ़िर मुझे लगता कि कहीं ऐसा तो नहीं कि इसी बात को भांप कर ये युवक मेरे करीब हो जाते हों।
ये ऐसा ही है, कि सर, अपनी थाली में से जो कुछ आप नहीं खा रहे, उसे हम ले लें? बेकार क्यों जाए, बेहद "कीमती" है।
और ये लड़के मेरे और भी करीबी होकर मेरे अभिन्न दोस्त बन जाते।
ये जो कुछ था, बड़ा प्यारा सा था।
फ़िर सचमुच कुछ देर बाद मैं देखता कि वो महिलायें या युवतियां मेरे साथ के इन युवाओं में दिलचस्पी दिखाती हुई उनसे बातें करने लग जातीं। लड़के उनकी समस्या या जिज्ञासा मेरे पास लाते, और एक खूबसूरत ट्रायंगल बन जाता। लड़कों के साथ मैं कंफर्टेबल होता।
कुल मिलाकर ये तय करना कठिन था कि आख़िर मैं किस मानसिक अवस्था में था। खुश था, दुःखी था, जीवन से भागकर चला आया था, या कि ज़िंदगी तलाशने आया था।
मेरे परिजन तो ये कहते थे कि मैं आसमान से गिर कर खजूर में अटका हूं।
बैंक के साथी कहते थे कि सागर में तैरने वाला अब तालाब में तैरने आया है, लेकिन मेरा मन कहता था कि दौड़ से थका हुआ मुसाफिर अब किसी पेड़ की छांव में सुस्ताने आया है।
मेरा जिज्ञासु दिमाग कभी - कभी मुझे ये कह कर भी सांत्वना देता था कि उत्तरप्रदेश के परिवार का, राजस्थान में पला- बढ़ा बेटा, दिल्ली, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक और गोवा में रहने के बाद अब मध्यप्रदेश में रहने आया है।
मुझे कभी- कभी दफ्तरों के ऐसे कर्मचारी भी दिखाई देते थे जो पूरी ज़िन्दगी में कभी ज़रा सी दूर हुए ट्रांसफर पर भी किसी नेता या अफ़सर की सिफारिश लगवा कर, झूठी बीमारी की छुट्टी लेकर या रिश्वत देकर अपना ट्रांसफर रद्द करवाने में सफल हो जाते थे।
मैं सोचता, एक तरफ़ ये लोग हैं जो पूरी ज़िन्दगी एक गांव या एक शहर से नहीं निकले और दूसरी ओर हम जैसे लोग हैं जो बंजारों की तरह फ़िर कर देश- दुनिया देख रहे हैं।
लेकिन जब गाड़ी जबलपुर स्टेशन पर पहुंची तो मुझे ये देख कर बहुत सुकून मिला कि यहां न तो किसी को उतरने की हड़बड़ी है, न धक्का- मुक्की करने की ज़रूरत। सब उतर रहे हैं और मंथर लहराती चाल से अपने- अपने गंतव्य तक पहुंचने के लिए चले जा रहे हैं।
मैं अपना कुछ सामान तो पहले ही अपने घर पर रख कर आ चुका था, कुछ मैंने मुंबई में ही अपने साथियों और मिलने वालों को दे दिया था और अब कुछ बहुत ज़रूरी न्यूनतम सामान ही साथ में लेकर मैं यहां आया था।
मैं शुरू के कुछ दिन एक होटल में ही रहा।
दफ़्तर में मेरा स्वागत इस तरह गर्मजोशी से हुआ मानो मुंबई जैसे विशाल आसमान से कोई तारा टूट कर इस छोटे शहर में आ गिरा हो।
मैं काफ़ी पहले दिल्ली जोनल ऑफिस में काम कर चुका था और उस समय जबलपुर क्षेत्र दिल्ली ज़ोन के अन्तर्गत ही आता था। अतः मेरा स्वागत यूं भी हुआ कि किसी बड़े ऑफिस का अफ़सर यहां आया है।
जब लोगों को ये पता चला कि मैं फ़िलहाल किसी होटल में ठहरा हुआ हूं तो सभी ने अपनी -अपनी जानकारी के अनुसार मुझे शहर के अलग -अलग हिस्सों में ख़ाली घर बताने शुरू किए।
यहां मैं आपको विशेष रूप से ये बात बताना चाहूंगा कि दिल्ली- मुंबई जैसे बड़े शहरों की तुलना में यहां जबलपुर शहर में मैंने लोगों में पढ़ने की आदत खूब देखी।
अपने लेखक होने का सबसे बड़ा फ़ायदा यहीं दिखा। अधिकांश लोग ऐसे मिलते जिन्होंने कभी न कभी किसी अखबार या पत्रिका में मुझे पढ़ा हुआ होता।
शहर को "संस्कारधानी" कहा जाता था।
ये हरिशंकर परसाई का शहर होने से "व्यंग्य" यहां के लोगों के साधारण वार्तालाप में घुला हुआ था। कुछ मित्र परिहास में कहते कि ये शहर "संस्कार दानी" है, फ़िर वे व्याख्या करके बताते कि जैसे मच्छरदानी में मच्छर नहीं घुस सकता, वैसे ही यहां व्यवहार में संस्कार नहीं आ सकता।
पर मैं इस शिष्ट हास्य का प्रतिकार करते हुए कहता कि केवल मच्छरदानी ही नहीं, साबुनदानी भी होती है और मसालदानी भी, जिनमें साबुन और मसाले हमेशा रहते हैं।
कुछ भी हो, मुझे यहां के लोग पसन्द आए।
लोगों की बात करने की शैली में अपनेपन का वो लुत्फ़ था जो मुंबई में जाकर मैं भूल ही चुका था।
मेरा बैंक शहर के बीचों बीच राइट टाउन में स्थित था।
मुंबई में तो रोज़ दफ़्तर जाने के लिए लंबी दूरी की ट्रेन और बस यात्राएं खूब की ही थीं पर यहां सब कुछ इतना नज़दीक देखकर मन में ये इच्छा जागी कि घर ऑफिस से पैदल के रास्ते पर मिल जाए तो टहलते हुए रोज़ ऑफिस जाने का आनंद लिया जाए।
पहले राजस्थान के गांवों में दो बार ऐसा हो चुका था, पर मुंबई की व्यस्तता की आदत के बाद एक बार फ़िर से वाहन- विहीन दिनचर्या के लिए दिल चाहने लगा।
जल्दी ही बैंक के अपने साथियों के सहयोग से मुझे ऑफिस के बहुत करीब राइट टाउन एरिया में ही घर मिल गया।
घर से निकल कर पैदल चलने पर लगभग तीन मिनट की धीमी चाल की यात्रा से ऑफिस पहुंचा जा सकता था।
ये एक पुरानी शैली की बनी हुई बिल्डिंग थी जिसमें तीन मंज़िल के भवन में अलग- अलग कई खंड बने हुए थे। मुझे जो खंड मिला था वो बीचों - बीच सामने का हिस्सा था। ये सबसे ऊपर की मंज़िल पर बना हुआ था। अर्थात हर तरह से मेरी पसंद का।
इस बिल्डिंग के मालिक का अपना परिवार भी काफी बड़ा था। भवन के कई हिस्सों में परिवार के अपने लोग ही रहते थे।
यहां आने के बाद सुविधा और समय मिलने के कारण मेरा एक बहुत पुराना शौक़ फ़िर शुरू हो गया जो मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों में जाकर छूट गया था।
ये शौक़ था सड़कों पर अकेले देर तक घूमना।
ये शौक़ मुझे शहरों की अंदरूनी बातों से परिचित तो करवाता ही था, नए - नए लोगों से भी मिलाता था।
और इस शौक़ का सबसे बड़ा फ़ायदा ये था कि इस समय मैं ख़ुद अपने आप को अपनी अब तक ख़र्च हुई ज़िन्दगी का हिसाब बख़ूबी दे पाता था।
हिसाब - किताब हो जाए तो एक चैन सा तो मिलता ही है।
पिछले हिसाब चुकता हो जाने के बाद हम नए कारोबार के लिए तरोताज़ा हो जाते हैं।