तेरे शहर के मेरे लोग - 9 Prabodh Kumar Govil द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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तेरे शहर के मेरे लोग - 9

( नौ )
एक दिन मैं अपनी मेज़ पर ताज़ा अाई कुछ पत्रिकाएं पलट रहा था कि मेरे हाथ में "इंडिया टुडे" का नया अंक आया।
इसमें एक पूरे पृष्ठ के विज्ञापन पर मेरी नज़र गई। मैं इसे पढ़ने लगा।
विज्ञापन देश में नई बनने वाली एक राजनैतिक पार्टी का था।
इस विज्ञापन में बताया गया था कि देश में सभी पुरानी पार्टियां अपने लक्ष्य से भटक गई हैं और अब वे राजनैतिक परिपक्वता तथा अवसरवादिता के नाम पर वास्तविक समस्याओं से बचने लगी हैं।
ऐसे में लोगों के बीच सुधार के उपाय स्पष्ट नीतियों के साथ कोई नहीं रख रहा। सब बातों को उलझाए रखने की ही कोशिश की जाती है ताकि अपना एक सुरक्षित वोट बैंक बना रहे।
अगर किसी को "गरीब" वोट देते हैं तो वो गरीब ही बने रहें ताकि वोट देते रहें।
अगर किसी को पिछड़े वर्ग वोट देते हैं तो वो पिछड़े ही बने रहें ताकि वोट मिलता रहे।
अगर किसी को कोई जाति या संप्रदाय वोट देता है तो वो जाति या संप्रदाय उसी तरह सारे समाज से कट कर अलग- थलग बना रहे ताकि वोट देता रहे।
ऐसे में संविधान की विविध संस्कृतियों के समन्वय की मूल भावना की धज्जियां उड़ती हों तो उड़ें। जनतंत्र चरमराता हो तो चरमराए। देश पिछड़ता हो तो पिछड़े।
मुझे इस विज्ञापन ने प्रभावित किया।
ये दल दक्षिण के आंधप्रदेश राज्य से उदित हुआ था और अब एक राष्ट्रीय दल के स्तर पर पहचान बनाना चाहता था।
मैंने दो तीन बार इस विज्ञापन को ध्यान से पढ़ा। फ़िर एक दिन फ़ुरसत के समय इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष को फ़ोन लगा दिया। काफ़ी देर तक बात हुई। पूरे परिचय का आदान प्रदान हुआ।
एक दूसरे के वॉट्सएप व ई मेल पते लेे लिए गए और सवाल जवाब का लंबा सिलसिला शुरू हो गया।
मुझे पार्टी का संविधान, मकसद, रूपरेखा आदि विस्तार से भेजे गए। पार्टी की प्रचार सामग्री के नमूने भेजे गए।
लगभग हर दूसरे दिन देर- देर तक राष्ट्रीय अध्यक्ष और मेरे बीच लंबी बातचीत होने लगी।
बातचीत देर रात को होती और असीमित समय तक चलती। जल्दी सो जाने का अभ्यस्त मैं देर रात तक जागने लगा।
बातचीत में कई मुद्दों पर हमारी सहमति होती। जहां असहमति होती वो मुझे या मैं उन्हें, समझाने का प्रयत्न करते और फ़िर अंततः दोनों संतुष्ट होकर ही फ़ोन रखते।
राष्ट्रीय अध्यक्ष अब अपना हैदराबाद ऑफिस छोड़ कर दिल्ली में बैठने लगे थे जहां उन्होंने एक कार्यालय,एक छोटा सभागार और कुछ कमरों का अतिथि ग्रह लेे लिया था। एक गोडाउन भी संलग्न था।
संयोग से कुछ ही दिन बाद मेरा दिल्ली जाना हुआ। वहां अमरीका के वीजा दफ़्तर में कुछ काम था। मैं और मेरा बेटा दोनों साथ में थे। हमें सुबह वहां ग्यारह बजे मिलने के बाद दोबारा दोपहर बाद फ़िर बुलाया गया था।
बीच के इस समय का सदुपयोग करने के लिए हमने गाड़ी का रुख़ उसी पार्टी के दफ़्तर की ओर मोड़ दिया जिसके राष्ट्रीय अध्यक्ष से पिछले कुछ समय से बात होती रही थी।
वो कार्यालय में ही मिल गए और उनसे एक लम्बी चर्चा आमने- सामने बैठ कर हुई।
मुझे ये देख कर गहरा अचंभा हुआ कि उनके कंप्यूटर में बाकायदा मेरे परिचय व गतिविधियों का पूरा ब्यौरा एक अलग फ़ाइल में बना हुआ है। मेरे बारे में सोशल मीडिया तथा अख़बारों की कतरनों के माध्यम से सारी जानकारी भी उन्होंने जुटा रखी थी। हमारी चर्चा लगभग डेढ़ घंटे चली। हमने साथ में बैठ कर नाश्ता भी किया।
मुझे वो क्लीयर कॉन्सेप्ट्स वाले एक शिक्षित बुद्धिजीवी लगे जिनमें अपने भविष्य को लेकर पर्याप्त उजाला था।
उनके दफ़्तर व संसाधनों का मुझे विधिवत अवलोकन भी करवाया गया। स्टाफ से भी मिलवाया गया।
वापस लौटने के लगभग एक सप्ताह बाद मेरे आश्चर्य का पारावार न रहा जब उनके संदेश से ये सूचना मिली कि मेरी उनसे हुई मुलाक़ात को मेरा औपचारिक साक्षात्कार माना गया है और अब मीडिया में मेरे विधिवत पार्टी जॉइन कर लेने की खबर जारी की जा रही है।
किसी राजनैतिक पार्टी से संबद्धता के अर्थ क्या होते हैं, ये समय ने समय - समय पर मुझे सिखा दिया था।
कुल इक्कीस साल की उम्र में मेरी चित्रकारी अच्छी होने के कारण गांव के कुछ युवक जब मुझे बैंक से बुला कर अपने साथ दीवारों पर हाथी का चित्र बनवाने के लिए लेे गए थे, उस समय मैं नहीं जानता था कि एक सरकारी बैंक के कर्मचारी के लिए चुनावों के समय किसी राजनैतिक पार्टी का चुनाव चिह्न दीवार पर उकेरना कोई कला नहीं बल्कि आपत्तिजनक अपराध है। अतः मैं अपने वरिष्ठों के समझाते ही सॉरी बोलकर वापस अपनी सीट पर चला आया था।
किन्तु अब बात और थी। मैं एक अंतरराष्ट्रीय ख्याति के शिक्षण संस्थान का प्रशासन व जनसंपर्क अधिकारी होने के कारण सरकार के सभी सेवा नियमों को अच्छी तरह जानता था। बल्कि उनके अनुपालन का दायित्व भी कुछ हद तक मेरे पास था।
लेकिन दूसरी ओर मैं अब साहित्य और पत्रकारिता की दुनिया का भी एक पहचाना हुआ नाम था जो अपने ज़मीर के अनुसार जो सही समझे, वो करने के लिए स्वतंत्र था।
अब मैं अपने को उस दायरे में नहीं मानता था कि क्या सही है क्या ग़लत, ये मैं किसी से पूछूं। अब तो मैं हर उस बात के लिए तैयार रहता था जिसका जवाब अपने साफ़ अंतर्मन से दे सकूं।
मैंने जीवन भर बहुत से लोगों को नियम- कायदों की धज्जियां उड़ा कर पनपते हुए देखा था।
फ़िर भी मैंने मन ही मन ये विचार किया कि मैं कोई पार्टी जॉइन करने से पहले अपने संस्थान के अध्यक्ष से स्वयं जाकर मिलूंगा और उन्हें आश्वस्त करूंगा कि मैं कोई राजनैतिक सदस्यता अपने आर्थिक या निजी स्वार्थ के लिए नहीं ले रहा हूं, बल्कि इसलिए लेे रहा हूं कि अपने कार्यों में आने वाली बाधाओं व विपदाओं के समय हमारे पास पार्श्व में एक समर्थन शक्ति उपलब्ध रहे।
मुझे पूरा विश्वास था कि अत्यंत अनुभवी, और देश के एक ख्यात शिक्षाविद् अध्यक्ष मेरी इस बात के मर्म को अवश्य समझेंगे और मुझे इसकी अनुमति देंगे। जन सतर्कता समिति के राज्य सचिव की ज़िम्मेदारी स्वीकार करने की अनुमति भी उन्होंने मुझे दी ही थी। जिस पद पर मैं पिछले कुछ समय से काम कर रहा था।
किन्तु इस सब क्रियाविधि के लिए मुझे समय ही नहीं मिल पाया।
अगले ही दिन राजस्थान के सभी प्रमुख अख़बारों में मेरा नाम इस तेजी से उभर रही नई राजनैतिक पार्टी, "जागो पार्टी" के प्रदेश अध्यक्ष के रूप में घोषित कर दिया गया।
इसके विज्ञापनों में भी राष्ट्रीयअध्यक्ष के बाद मेरा नाम प्रमुखता से आने लगा।
हमारे शिक्षण संस्थान के अध्यक्ष महोदय ने स्वयं आमंत्रण भेजकर मुझे अपने कक्ष में बुलवाया और चाय पिलाई।
उनका पहला सवाल मुझसे यही था- "ये हाथ कैसे मारा?"
उन्होंने बाद में परिहास में ही मुझसे कहा- "खादी तो हम भी बरसों से पहन कर बैठे हैं, पर इसका असली फ़ायदा तो आपने ही उठाया।"
उनका आशीर्वाद पाकर मेरा संतोष व उत्साह और बढ़ा। वे वयोवृद्ध तो थे ही, उनका सारा जीवन मेरे लिए भी एक आदर्श रहा था।
इस बीच मेरी गतिविधियां कुछ और बढ़ गईं।
वैसे भी सरकार द्वारा मिले प्रोजेक्ट का राज्य समन्वयक बन जाने के बाद से मेरा बहुत सा समय बाहर रहने में ही व्यतीत होता था और मेरे शैक्षणिक कार्य का काफ़ी समायोजन अन्य सहायक अधिकारियों के बीच हो गया था। इस प्रोजेक्ट को एक बार और दोहराया गया जिसके कारण मुझे राजस्थान राज्य के तैंतीस ज़िलों में से उनतीस ज़िला कलेक्टरों से अलग- अलग उनके ही दफ्तरों में जाकर मिलने का अवसर मिला। शेष चार ज़िले ऐसे थे जिनमें या तो ज़िला कलेक्टर विदेश गए हुए थे या किसी कारण वश उनका चार्ज एडीएम के पास था।
यहां अपने एक विचित्र अनुभव को आपके साथ साझा करना चाहूंगा।
मैं जब पहली बार जिलाधिकारियों से मिला तो वे काफ़ी औपचारिक होकर मिले थे। मुझे महसूस होता था कि मैं ज़िले के सबसे बड़े हाकिम के सान्निध्य में हूं। लेकिन दूसरी बार वे मुझे पर्याप्त सम्मान देते हुए मिले। कई जगह मेरे व्याख्यानों से प्रभावित होने की बात उन्होंने स्वयं स्वीकारी, कई जगह अनौपचारिक विस्तृत बातचीत में उन्होंने मेरे रवैय्ये को "अलग" बताया।
एक बहुत सीनियर संभाग आयुक्त ने तो मुझे विश्वास में लेकर वो टिप्पणी भी बता दी जो पूरे प्रोजेक्ट की रिपोर्ट और वीडियो प्रस्तुतियां देखने के बाद प्रदेश के मुख्यमंत्री ने की। उनका कहना था कि " यदि इस परियोजना का राज्य समन्वयक कोई आईएएस अधिकारी बनाया जाता तो भी समयबद्धता तथा बजट सीमाओं में इतनी कुशलता से इसका संचालन नहीं हो पाता।"
लेकिन मैं साफ़ तौर पर कहना चाहूंगा कि इस परियोजना में सरकार ने अपनी भूमिका का निर्वाह अंतिम लक्ष्य के रूप में ठीक से नहीं किया। इससे प्रदेश की महिलाओं को वो लाभ नहीं मिल पाया जो सोचा गया था, क्योंकि जब इसके अनुसार रोजगार अवसरों की बात अाई तो अवांछित लोग भाई- भतीजा वाद और सिफ़ारिश आदि से प्रस्तावित लाभ ले गए।
ये एक ऐसी यात्रा सिद्ध हुई जो कर्मठता से संपन्न होकर भी लक्ष्य पर तितर- बितर हो गई।
शायद इन मिसालों से आने वाली नस्लें भी समझ सकें कि सर्वशक्तिमान सरकारें भी क्यों बदल जाती हैं।
मुझे कभी कभी ऐसा महसूस होता था कि हम अपने कॉलेज- यूनिवर्सिटीज में बच्चों को हर विषय के "थ्योरी और प्रैक्टिस" पढ़ाते हैं, उस में ही बुनियादी दोष है। हम उसी समय आने वाली पीढ़ियों के मानस में ये बात बाकायदा बैठा देते हैं कि जीवन में "सिद्धांत कुछ और होगा तथा व्यवहार कुछ और"!
जबकि हमें सिखाना यह चाहिए कि "ये सिद्धांत है, और इसका पालन न होने पर व्यवहार ये हो रहा है, जो सर्वथा ग़लत है और इसे रोकने के उपाय ये हैं"!
कभी कभी मुझे बैठे - बैठे इस बात पर भी कोफ़्त होती थी कि मुझे बिना वज़ह विचित्र सी बातों से गुजरना पड़ गया, मसलन मैं युवावस्था के आरंभ में ही बैंक में राजभाषा अधिकारी बन गया।
तो इसमें विचित्र क्या?
बताता हूं।
बैंक में अकेले यही पद ऐसा था जिस पर क्या काम करना है,ये अधिकांश लोग नहीं जानते थे। जहां हर मीटिंग में बड़े अधिकारी अपने अन्य सभी मातहतों को बताते थे कि उन्हें क्या करना है, कैसे करना है, वहीं राजभाषा अधिकारी को क्या करना है, ये उसे ख़ुद उन्हें बताना पड़ता था। क्योंकि वर्षों से अंग्रेज़ी में काम करते आ रहे बैंकों में उस समय ये विभाग अपेक्षाकृत नया था और इससे जुड़े अधिकार व कर्तव्य तब निर्धारित हो पाने की प्रक्रिया में ही थे। ये स्थिति राजभाषा अधिकारियों को अनमना सा बनाए रखती थी।
कुछ व्यवहार कुशल लोग दूसरे कामों में ख़ुद को खपा कर सबको खुश रख लेते थे किन्तु ज़्यादातर हिंदी अधिकारी अपनी भाषा, अपना संविधान, अपना देश जैसे नैतिक मूल्यों से अपने को घिरा पाते थे।
इस बीते दौर ने मुझे अकेला हो जाने पर भी न डगमगाना सिखा दिया था।
जागो पार्टी के राजस्थान प्रदेश अध्यक्ष का पद भी ऐसा ही एक अनिश्चय से भरा मुकाम था।
रोज़ हज़ारों लोग इससे जुड़ रहे थे और सुबह चार बजे से रात दो बजे तक मेरे पास लगातार लंबे- लंबे फ़ोन आते।
मुझे याद है कि मैंने सुबह वाशरूम की सीट पर बैठे हुए, भोजन मेज़ पर, बिस्तर में लेट कर भी कई लोगों से फ़ोन पर लंबी चर्चाएं की हैं। जिनमें मौजूदा विधायकों से लेकर विधायक बनने के ख्वाहिश मंद युवाओं के फ़ोन होते थे।
जल्दी ही मैंने कुछ सहायकों के बीच अपनी व्यस्तता को समायोजित कर लिया था, फ़िर भी कई लोग लंबे वार्तालाप के लिए लगातार इच्छुक रहते थे।
जल्दी ही पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष दीपक मित्तल ने जयपुर में आकर एक शानदार होटल में प्रेस कांफ्रेंस की और हमने आपसी परामर्श से उपाध्यक्ष, महासचिव आदि नियुक्त करने के साथ साथ जयपुर में जवाहर लाल नेहरू मार्ग पर एक आलीशान कार्यालय और मालवीय नगर में एक बड़े व खुले हुए गेस्ट हाउस की व्यवस्था भी कर ली।
दोनों ही जगह कुछ कर्मचारी भी नियुक्त कर लिए गए। प्रचुर मात्रा में पार्टी की प्रचार सामग्री, झंडे, बैनर्स आदि भी दिल्ली कार्यालय से हमारे पास भेज दिए गए।
कुछ छोटे बड़े अख़बारों ने हमारा अच्छा साथ दिया और पार्टी को अच्छा प्रचार मिला।
पार्टी के नव नियुक्त उपाध्यक्ष एक प्रतिष्ठित अख़बार के संपादक होने तथा महासचिव हाई कोर्ट के एक जुझारू व लोकप्रिय वकील होने का लाभ पार्टी को मिलने लगा। मेरी स्वयं की साहित्य और पत्रकारिता की व्यापक पृष्ठभूमि होने से जागो पार्टी का जनाधार लगातार बढ़ने लगा।
कई अनुभवी और बड़े नेता हमारे संपर्क में आए जिनमें कुछ पूर्व राज्यपालों से लेकर सांसदों व विधायकों तक का समावेश था।
एक और बात का ज़िक्र मैं यहां कर देना चाहूंगा ताकि आपको इस हलचल का एक अंदरुनी कारण भी पता चले।
राज्य में पिछले कुछ समय से लगातार ये खेल चल रहा था कि बार - बार सत्ता परिवर्तन हो रहा था। कोई एक पार्टी एक बार जीतने के बाद दोबारा अपनी सत्ता नहीं बचा पा रही थी। इससे ये कयास लगाए जा रहे थे कि जनता उस समय की दोनों बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों से ही संतुष्ट नहीं थी और एक दल से नाराज़ होकर ही विवशता में दूसरे दल को सत्ता सौंपती थी।
ऐसे में अधिकांश लोग, जिनमें बुद्धिजीवी वर्ग भी शामिल था इस पार्टी को एक तीसरे संभावित विकल्प के रूप में देखने लगे थे।
युवा तो एक जुनून के तहत इस मुहिम से जुड़ने अा रहे थे।
हर्र लग रही थी न फिटकरी, और रंग चोखा आ रहा था!
* * *