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दह--शत - 24

एपीसोड --२ ४

अभय वॉलीबॉल टूर्नामेंट में  से रात  को घर पर आकर  अहमक  से बक झक में लगे हैं,“तुम अठ्ठाइस साल पुरानी हो गयी हो तुम इन बातों को क्या समझो? मुझ में सच ही कुछ है।”

अभय उनकी भाषा व संकेत सुनकर उसकी चीख निकल जाती है, “अभय ! तुम एक गंदी रंडी के चक्कर में पड़कर अपने होश खो बैठे हो।``

फिर  समिधा  सहमकर  अपनी जीभ काट लेती है वह कैसा शब्द इस्तेमाल कर बैठी है।

“क्या ऽ ऽ  ....? जलती  हो उससे ? ।”

“उस सड़ी-गली सड़क छाप औरत  से मैं जलूँगी?”

“जलती तो हो।”

“अभय ! तुम कैसी बहकी बातें करते रहते हो? तुम्हें क्यों स्वयं समझ में नहीं आता?”

वे वही सीडी ऑन कर देते हैं, “संसार से भागे फिरते हो.....। ये भोग भी एक तपस्या है।”

क्यों उसे दूसरे दिन शाम को सात बज़े बेचैनी होने लगती है। अभय के लौटने का समय हो रहा है। क्या करे वह? वह हल्का शॉल लेकर सड़क पर टहलते हुए घर लौटते हुए बबलू जी कविता को लेकर अपनी लेन में से निकल रहे हैं। वह अपनी चाल धीमी कर देती है व अपनी सख़्त व बेधती दृष्टि कविता पर गढ़ा देती है। वह देखना चाहती है जिसके लिए उसके मुंह से बेसाख़्ता इतना गंदा शब्द निकला है, वह औरत है कैसी? बबलू जी समिधा पर नज़र गढ़ाये हुए है बिलकुल सजग व चौकन्ने। कविता अपनी आँखें इधर-उधर नचाकर समिधा की

तीखी नज़रों से बच रही है। वह अभय के लौटने के समय बबलू जी को लेकर निकली है। उन पर चढ़ाया नशा न टूट जाये। बिचारे ! सीधे-सादे बबलूझी ये सोच भी नहीं पा रहे होंगे।

 

      बबलू जी को एक बार और समझाना होगा । कहीं बात बढ़ गई- स्कैंडल  हुआ तो घर की इज्ज़त का क्या होगा?  रोली की शादी का क्या होगा? ऑफ़िस से पता लगता है बबलू जी की इंटर ड्यूटी है। वह पौने चार बज़े ही उनके ऑफ़िस जाने वाली सड़क पर खड़ी हो जाती है। घबराहट में उसे  कपड़े  बदलने की भी याद नहीं रहती। घड़ी की सुइयों के साथ उसके दिल की धड़-धड़ बढ़ती जा रही है।

       तभी मीनल अपनी छोटी बच्ची का स्कूल बैग थामे दोनों बच्चों के साथ आती दिखाई देती है,  “आप यहाँ कैसे?”                                        

“मेरे हसबैंड आने वाले हैं, हमें शॉपिंग करने जाना है। उन्हीं का इंतज़ार कर रही हूँ और आप?” मुसीबत झूठ भी बुलवा देती है।

“बच्चों को स्कूल लेने गई थी, कार की बैट्री डाउन हो गई तो उसे वही छोड़ना पड़ा। हम सब चले आ रहे हैं....पइयाँ.....पइयाँ।”

वह हँस पड़ी। मीनल भी शनील के लाल सूट में हँसती बड़ी भली लग रही है। वह कहती है, “कभी घर आइए।”

“श्योर।”

“बाय।”

“बाय।”

सीधी लम्बी सड़क पर बबलू जी बाँयी तरफ़ चलते आते दिखाई देते हैं। उनके पास आते ही वह कहती है, “मैं आपसे बात करना चाहती हूँ।”

“कहिये।”

“मैं आपको हाथ जोड़ रही हूँ कि कविता को ‘कँट्रोल’ करिये। फिर से ये सब शुरू हो गया है।”

“आप मेरा दिमाग़ मत ख़राब कीजिये। आपको पता नहीं क्या ग़लतफ़हमी हो गई है।”

“मेरी उम्र क्या किसी ग़लतफ़हमी होने की है?”

“कविता को मैं आपसे अच्छी तरह जानता हूँ।”

“आप कुछ नहीं जानते। आप बम्बई रहे हैं। ये इस शहर में बच्चों के साथ अकेली रही है इसलिए ‘एक्सपर्ट टाइप’ की हो गई है। इसकी हिम्मत खुल गई है किसी तरह रुक नहीं रही।”

“आप क्या सचमुच साइकिक हो रही है?”

“मैं सच कह रही हूँ। उन्नीस नवम्बर से इनका ‘कॉन्टेक्ट’ शुरू हुआ है। आपकी ड्यूटी का पता करके अभय को बचा रही हूँ, बीच में ये झपट्टा सा मार लेती है। ये अपनी शर्म खो चुकी है।”

``यदि आपने मुझे व कविता को अब तंग किया तो पुलिस बुला लूँगा।”

  वह क्रोधित हो उठी, “बार-बार धमकी क्या देते हो, पुलिस को बुलाओ न । डर पड़ा है क्या? ये अफ़ेयर नहीं है एक बदमाश औरत ने अभय को ट्रेप किया हुआ है। आपको आठ अक्टूबर को अपने घर पर भी बताया था कि वे छुट्टी लेकर भागे जा रहे थे तब भी विश्वास नहीं कर रहे?”

          “आप कैसे शब्द प्रयोग कर रही हैं? मैं पुलिस में रिपोर्ट करूँगा।”

“चलो, अभी करो।” वह कमर पर दोनों हाथ रखकर  तनकर  खड़ी हो गयी।

“अभी पु लिस स्टेशन जाता हूँ।”

“श्योर।”

***

बुआ जी के आने से जैसे उसके तनाव पिघल रहे हैं। वह रिटायर्ड प्रिंसीपल हैं, सारे जहान का ज्ञान है उनके पास। वे उसकी ट्यूशन्स में भी मदद करती हैं। अभय अभी प्रसन्न रहते हैं लेकिन ड्राइंग रूम में उन दोनों की दो कपल फ़ोटोज़  गायब है। कविता की फ़ोटो  डिटेक्टिव एजेंसी में देने का ये बदला है।

एक दिन बुआजी बाहर लॉन में धूप में बैठी है। वह अंदर खाना बना रही है। अभय गुस्से से कसमसाते रसोई में आ गये, “तो दूसरों के हसबैंड से सड़क पर खड़े होकर बात की जाती है?”

“हाँ, तो कोई ट्रेप थोड़े ही किया था। एक खुला खेल खेलने वाली औरत की उसके पति से शिकायत भी न करूँ?”

“बबलू जी तुम पर मान हानि का केस करने वाले हैं।”

“तो करने दो न! उनसे डरती हूँ?”

अभय ने एक बिल्डर का बड़ा ब्रोशर उसके सामने किचिन प्लेटफ़ॉर्म  पर फैला दिया, “देखो मैं इस जगह   फ़्लैट  लेकर तुम्हें वहाँ रख दूँगा। इस कॉलोनी से हटाकर ही दम लूँगा।”

उनकी फटी आँखों में कहीं होश के लक्षण नहीं है। वह मुस्करा देती है, “हटा देना। मैं उस  फ़्लैट   में ज़रूर जाऊँगी लेकिन पहले कॉलोनी की कीचड़ तो साफ़ कर दूँ।”

वह जैसे इस दुनियाँ में नहीं है, न कुछ सुन रहे हैं, “तुम्हें तो हटाना ही होगा।” ये वे बोल रहे हैं या कविता की टोन में धीरे-धीरे रटी-रटाई बात दोहरा रहे हैं, “मैं ऽ ऽ..... तुम्हें तलाक दे दूँगा ऽ ऽ ऽ ..... मैं सुखी हो जाऊँगा ऽ ऽ ऽ .... तुम दुखी ऽ ऽ ऽ ......।”

वह भौंचक है, तलाक के डर से नहीं। बरसों के जाने-पहचाने अभय को क्या हो गया है। क्यों उन्हें किसी गायिका की सीडी देकर पागल बनाया जा रहा है। एक गीत में वह तड़पती हुई गाती है....“हाय ! इतने दिन तुम क्यों न आये रे.... दिल तरसे.... मन बरसे।” या ढोलक हारमोनियम की ताल पर एक गीत अक्सर सुना जाता है-“शहज़ादे बन्ने। तेरी सेहरे की लड़िया हमको प्यारी।” उनके ऑफ़िस टाइम में बाज़ार जाने के चक्कर बढ़ गये हैं। एक दिन घोषणा सी करते हैं, “मुझे एक सप्ताह के लिए चेन्नई ट्रेनिंग पर जाना है।”

वह खुश हो जाती है अभय यहाँ से दूर रहेंगे तो वह तनावमुक्त रहेगी। उनके चेन्नई जाने के दो दिन पूर्व ही सुबह ग्यारह बजे फ़ोन आता है, “साहब क्या घर पर है? मैनेजर साहब उन्हें याद कर रहे हैं।”

“नहीं, वे यहाँ तो नहीं हैं।” वह अपनी मजबूरी पर बेचैन है। कविता का कैसे पता करे वह घर पर है या नहीं। बुआजी जब तक यहाँ है वह कोई तमाशा नहीं कर सकती। दूसरे दिन भी ऑफ़िस से यही फ़ोन  है। वह एक बजे अभय के ऑफ़िस फ़ोन करती है। फ़ोन लालवानी उठाते हैं, “नमस्ते भाभीजी ! अभी बात करवाता हूँ। आप क्या इन्हें सम्भालकर नहीं रख रहीं?”

  “क्यों क्या हुआ?”

“ये दो दिन से ऑफ़िस से दस से बारह बजे तक गायब हो जाते हैं। आप जानती तो होंगी ये कहाँ गायब हो जाते हैं।” “हाँ, मैं तो जानती हूँ। आप नज़र रखिए।”

“आप कह रही हैं तो नज़र रखनी पड़ेगी।” वह ऐसे हँस देते हैं जैसे मज़ाक चल रहा है। वह रिसीवर अभय को दे देते हैं।

अभय का  बेहद आवारा स्वर है,“हलो।”

``अब तक आप लंच के बाद सीधे ऑफ़िस क्यों नहीं पहुंचे?ऑफ़िस से कोई आपके बारे में पूछ रहा था। ”

“कुछ काम था।”

  अभय दूसरे सुबह ट्रेन से निकल गये हैं। बुआजी दोपहर में कम्पाउंड की धूप में अखबार पढ़ रही हैं। वह कमरे में बबलू जी को उनके ऑफ़िस में फ़ोन करती है। उनका कोई साथी फ़ोन दे देता है।

  “हलो! मैं समिधा बोल रही हूँ।”

“कहिए।”

“आपको मैंने पहले भी वॉर्न किया था कि आप ‘कन्फ़र्म’करिए। आप मेरी बात मानते नहीं है।”

“आप क्यों बकवास करती रहती हैं मुझे कुछ नहीं ‘कन्फ़र्म करना है।”

“देखिए ! ये चेन्नई गये हैं वहाँ का कोड जीरो फ़ोर फ़ोर है आप कविता का मोबाइल अपनी कस्टडी में रखिए। ये वहाँ से कॉल्स करेंगे तब तो आपको विश्वास होगा?”

“आप अपने दिमाग़ का इलाज क्यों नहीं करवातीं? आप ये सब क्यों कर रही है?”

“आप क्यों नहीं समझ पा रहे क्या एक पत्नी अपने पति पर झूठा लांछन लगायेगी।”

“यदि साइकिक हो रही हो तो अवश्य ऐसा कर सकती है।”

“वॉट्? मैं इतनी बार आपको बता चुकी हूँ, आप विश्वास क्यों नहीं कर रहे ? कहीं ये सब आप प्रोफ़ेशनली तो नहीं करवा रहे?”

         खट से फ़ोन  काट दिया जाता है। वह स्वयं सकपका जाती है, कितनी गंदी बात उसके मुँह से गुस्से में निकल गई। अब हो भी क्या सकता है?

  हफ़्ते  भर वह व बुआ जी खूब शॉपिंग करते हैं, जब भूख लगती है तो किसी रेस्तराँ में खाने बैठ जाते हैं। गुजराती थाली वाले रेस्तराँ में थाली में गोल फेरे में लगी कटोरियों का स्वाद चखते वे निहाल हो जाती हैं। अभय के लौटने के अगले दिन ही बुआजी को जाना है। उनके साथ वह यहाँ की खाने-पीने की मशहूर चीज़ें रखना चाहती है। वह पास के बाज़ार से एस टी डी बूथ से बबलू जी को फ़ोन  करती है। मोबाइल पर वही है, “हलो।”

“मैं समिधा, आपने चेन्नई के कॉल्स ट्रेस किए या नहीं ?”

             “ऐं.....आप क्या कह रही हैं ?” ऐसा लग रहा है वे नींद में बोल रहे हैं ।

           “मैंने आप को चेन्नई के कॉल्स ट्रेस करने को कहा था।”

         “कौन से कॉल्स? मैं समझ नहीं पा रहा। क्या फिर आपको दिमागी दौरा पड़ा है?”

“यू.....।” आगे उसकी बात सुनी नहीं जाती।

सुबह अभय चेन्नई  से वापिस आ गये हैं।  शाम को वह बुआजी का सामान उनके पास रखती जा रही है। अभय की खूँखार नज़रों से वह बचना चाह रही है। वह उसी कमरे में आ जाते हैं, “तुम सोच रही हो कि तुम कुछ भी हरकत करोगी। मुझे पता नहीं लगेगा।”

  वह बुआजी की तरफ़ आँखों से इशारा करती है।

  “मुझे बुआजी का क्या ड़र है?”

“अभय क्या बात है?” बुआजी पूछ बैठती है।

“आपकी बहू सिरफिरी हो गई है। हमारे एक पड़ौसी बबलू जी की बीवी व मुझ पर शक करती है। उसे फ़ोन पर धमकाती है। बबलू जी को आज फ़ोन से धमका आई है।”

“समिधा । ऐसा कभी नहीं कर सकती।”

“बुआजी! मुझे ऐसा ही करना पड़ रहा है। ये उस बदमाश औरत के चक्कर में पड़ गये हैं। कुछ न कुछ करके उसे रोक रही हूँ।”

        “तुम किसी को धमकी मत दो। मैंने अपनी नौकरी में देखा है झूठा केस बनाकर बदमाश लोग मिलकर अच्छे इंसान को फँसा देते हैं।” बुआजी घबराई सी कह उठती हैं।

“बुआजी ! मैंने सब ‘कन्फ़र्म’ कर लिया है।”

  “ये एक घरेलू औरत को बदमाश कहती है, इन्हें शर्म नहीं आती।”

“शर्म तो तुम्हें व उसे आनी चाहिए।”

“मालूम है आज बबलू जी ऑफ़िस आये थे।”

“अपनी बीवी पर लगाम नहीं लगा पा रहा और तुम्हारे ऑफ़िस पहुँच गया?”

“तुम झूठ समझ रही हो? विकेश से पूछ लो। जब वह आये थे तो विकेश मेरे पास ही बैठा था। वह कह गये हैं कि मैं पुलिस में रिपोर्ट करूँगा।”

           “तो करें न ! मैं क्यों तुम्हारे उस लुच्चे दोस्त विकेश से पूछूँगी?”

“मैंने बबलूजी से कह दिया कि उन्हें  जो करना है करे। तुम मुझसे रोज़ झगड़ा करती हो कि मैं मर जाऊँ और तुम मेरे पी.एफ.का रुपया लेकर ऐश करो।”

  “क्या?” वे व बुआजी एक साथ चीखती हैं।

बुआजी बोली,“अभय तुझे शर्म नहीं आती? ये तुझे मार डालना चाहती है? तेरे ऑपरेशन के समय इसने महीनों कितनी मेहनत की है। तेरे दिमाग़ में ये ज़हर कौन भर रहा है?”

अभय के चेहरे व शरीर में वहशीपन उभरता आ रहा है। वह भयानक चेहरे से फिर कहते हैं, “सच ही ये मुझे मार डालना चाहती है।”

बुआजी चिल्लाती है, “अभय ! आगे मत बोलना।”

अभय वहाँ से उठकर चले जाते हैं।

  उसे रोना चाहिए था लेकिन वह सख़्त हो चुकी है। बुआजी उसके पास आकर उसके सिर पर हाथ फेरकर प्यार से समझाती है, “कल मैं जा रही हूँ। तुम दोनों प्यार से बैठकर, बात कर इस समस्या का हल ढूँढ़ो।”

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-नीलम कुलश्रेष्ठ

ई –मेल---kneeli@rediffmail.com

 

 

 

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