एपीसोड –२३
शाम को वह साफ़ महसूस कर रही है अभय व उसकी साँसों में तनाव उनके घर में आने के साथ आ घुसा है। वह शाम को बैडरूम में रखी अलमारी में कपड़े ठीक कर रही हैं। अभय डबल बैड पर पीठ से तकिया टिकाकर बैठ गये हैं, “मुझे तुमसे बात करनी है।”
“हाँ, कहिये।”
“मेरे पास आकर बैठो।”
वह हल्की डरी हुई उनके पैरों की तरफ बैठ गई है जैसे उसने ही अपराध किया है।
“मैं जब ऑफ़िस जा रहा था तो तुम क्या कह रही थी?”
“कब?”
“इतनी जल्दी भूल गई?”
“ओ ऽ ऽ .... मैं तुम्हें बता रही थी कि बबलूजी की इंटर ड्यूटी है।”
“मुझसे क्यों कह रही थीं?”
वह मन ही मन ख़ुश हो रही है कि तीर सीधा निशाने पर लगा था। तूफ़ान तो उसे झेलना ही होगा। अभय बोल नहीं रहे हैं, पंचम स्वर में चीख रहे हैं, “तुमने मेरा मूड ख़राब कर दिया।”
“इस बात से तुम्हारे मूड का क्या सम्बन्ध?”
“तुमने मेरा न्यू ईयर ख़राब कर दिया।”
“अपना न्यू ईयर कहाँ ख़राब हुआ? रात में फ्रेन्ड्स के साथ कितना हंगामा किया। काले लोगों का न्यू ईयर काला ही होना था।”
“वॉट? तुम लिमिट में रहा करो।” उन्होंने कसकर उसका हाथ पकड़ लिया।
वह फुसफुसाई, “धीमे तो बोलो। पड़ौसी सुनेंगे।”
“सुन लेने दो।”
“जो औरत पति के पास शिकायत पहुँचाने के बाद रुक नहीं रही, वह कितनी बदमाश है। ‘आय एम फ़ीलिंग इनसीक्योर्ड’ ऐसा लग रहा है मुझे तुमसे कोई छीन ले रहा है।” अभय के तेवर ढ़ीले पड़ गये हैं लेकिन वे रटा-रटाया वाक्य बोल ही पड़े, “बट यू स्पॉइल्ड माई न्यू ईयर।”
“मैं तुम्हें बचाने के लिए कुछ भी कर सकती हूँ।”
अभय का मूड ठीक नहीं होता, वे मुँह फुलाये ही रहते हैं। तीसरे दिन रात को कहते हैं, “चलो घर का सामान ले आयें।”
उसे एयरकंडीशन्ड “पेराडाइज़” शॉप के बाहर ड्रॉप करके कहते हैं, “मुझे आर.टी.ओ. वाले पटेल से मिलना है, बस अभी आया।”
“ओ.के.।”
वह काँच के दरवाज़े पर लिखे पुल के पास वाला हैंडिल पकड़ कर दरवाज़ा खोलती है कम्प्यूटर पर काम करते अडवानी से हर महीने की तरह आदतन पूछती है,“इस महीने की गिफ़्ट?”
“न्यू ईयर गिफ्ट है।”
वह ट्राली में सामान रखती जा रही है अलमारी में ऊँचाई पर रखे क्रीम बिस्कुट के पैकेट पर हाथ नहीं पहुँचता तो सर्विस ब्वॉय को इशारा करती है। ट्रॉली इधर से उधर धुमाते घड़ी देखती जा रही है पंद्रह मिनट..... बीस.... चालीस.... अभय दरवाज़ा खोलकर अंदर आ रहे हैं, “सब सामान ले लिया?” उनका चेहरा उद्विग्न है, साँसें तेज़ चल रही हैं।
दूसरे दिन अभय की डायरी में से पटेल का नम्बर ढूँढ़कर डायल करती है,“नमस्ते! मैं मिसिज अभय बोल रही हूँ। उन्होंने आपको फ़ोन करने को बोला था। उनका आर.टी.ओ. का काम हो गया क्या?”
“सर को मैंने बता दिया था कि शनिवार को फ़ोन कर लें।”
“ओ ! वह ये बात भूल गये होगें। कल आपके यहाँ क्या बहुत भीड़ थी?”
“नहीं, वे तो अपने कागज़ देकर फ़ौरन चले गये थे।”
उसे लगता है कमरे की दीवारें तक थरथरा गई हैं। इतनी हिम्मत इस औ औरत की? वह अभय को कैसे दोष दे? उन्हें चुनौती देकर उनकी मर्दानगी को ललकार कर एक हृदयरोगी व्यक्ति की जान से खेल रही है ये औरत! और समिधा चिंता की अतल गहराईयों में डूबी जा रही है।
दूसरे दिन विकेश को फिर ऑफ़िस फ़ोन करती है। उत्तर मिलता है, “वे अपनी सीट पर नहीं है।”
उसका आज बाज़ार जाना भी बहुत ज़रूरी है. लौटकर देखती है अभय लंच के लिये घर चुके हैं. क्या करे वह? अभय को ही लंच के समय घेरती है, “अभय! आँध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन.टी. रामाराव की मृत्यु कैसे हुई थी?”
“उन्हें हार्ट अटैक हुआ था।”
“असली बात पता है?”
“क्या?”
“उनकी बॉयोग्राफ़ी लिखने के लिए उनके पास एक पैंतीस वर्ष की औरत आने लगी । वृद्ध रामाराव को उसने फँसाकर शादी कर ली।”
“ये क्यों नहीं कहती कि उनसे वह सच्चा प्यार करती थी इसलिए सत्तर वर्षीय एन.टी.रामाराव से शादी की।”
“आगे सुनो तो सही। शादी के बाद जल्दी ही उनकी मृत्यु हो गई। उनके बेटों ने प्रेस को बताया था कि हर समय वह उन्हें ‘वल्गर टॉक्स’ करके उत्तेजित रखती थी। इस उम्र में हर समय उत्तेजित रहने के कारण उनकी मृत्यु हो गई।”
“तुम मुझे ये क्यों सुना रही हो?”
“तुम ऐसी ही औरत के चंगुल में पड़ गये हो। वह तुम्हारी जान से खेल रही है।”
“तुम्हारा दिमाग़ ख़राब हो रहा है। तुम्हें दिखाना पड़ेगा। तुम तीनों मुझे पूछते कहाँ हो, सब एक हो। मैं ही अपने परिवार से अलग कर दिया गया हूँ ।” वे रटी-रटाई बातें बोल रहे हैं।
“तुम हम तीनों के लिये बेशकीमती हो।”
“ये औरत चैन से खाना भी नहीं खाने देती। तुम तो चाहती हो मुझे हार्ट-अटैक हो जाये और मैं मर जाऊँ।”
“अभय ऽ ऽ .....” वह वहाँ से हट जाने में ही अपनी भलाई समझती है। बैडरूम में पर्स रखने जाती है तो ये देखकर हैरान रह जाती है कि उनके डबल बैड की दिशा बदली हुई है। सिरहाना खिड़की के विपरीत दिशा में है। वह गुस्से से अभय के पास आ जाती है, “अभय! ये डबल बैड की दिशा किसने बदली है?”
“वास्तु शास्त्र के हिसाब से यही दिशा ठीक है।”
दूसरी दोपहर वह उन्हें बताती है, “मैंने बाई की ‘हेल्प’ लेकर पलंग की दिशा ठीक कर दी है।” अभय का चेहरा सपाट है, आँखें किसी रोबोट की आँखें लग रही हैं चेतनाशून्य। वह क्या कहे उनसे ?अपना पलंग घुमवाने वाले वास्तुशास्त्री की अक्ल ठीक करके ही रहेगी समिधा।
वर्ष के प्रथम माह के तीसरे इतवार को उनके घर असली नूतन वर्ष पदार्पण कर रहा है क्योंकि दोनों बच्चे एक साथ आ रहे हैं। वह शनिवार को बाज़ार जाकर चुन-चुन कर दोनों की पसंद की खाने-पीने की चीज़ें ख़रीदती रहती है। रात को नौ बजे तक बच्चे आ गये हैं। घर का वातावरण बदल गया है। अभय व उसके चेहरे से तनाव की शिकनें लुप्त होती जा रही हैं।
रोली ने आदतन पूछा, “और बताइए मॉम, आपकी पढ़ाई-लिखाई कैसी चल रही है?”
“मेरी दादी माँ ! अच्छी तरह चल रही है।”
इतवार तक वह बार-बार उन्हें जगाने जाती है। वे छोटे बच्चों जैसे आँखें मलते उठते हैं लेकिन उसके कमरे से बाहर जाते ही फिर चादर तान लेते हैं। बमुश्किल उठकर नाश्ते की प्लेट लेकर टी.वी. के सामने बैठ जाते हैं। इस सबके बीच अभय का चेहरा गंभीर व चिन्तातुर है। वह दोपहर में रसोई में काम कर रही है। ड्राइंग रूम से आता अभय का स्वर उसे चौंकाता है, “मुझे तुम दोनों से बात करनी है।”
“कहिए।”
“तुम्हारी मम्मी बिना बात ही कविता को लेकर मुझ पर शक करती रहती है। हर हफ़्ते झगड़ा करती है।”
“जी।”
“मैं रोली की शादी का इंतज़ार कर रहा हूँ। उसकी शादी के बाद अक्षत तुम उन्हें अपने साथ ले जाना।”
रसोई में इतने तनाव में भी समिधा की हँसी निकल जाती है। अभय के लकवाग्रस्त दिमाग़ में उसे घर से निकाल देने की बात भर दी गयी है। वे सोच नहीं पा रहे कि वह कोई चीज़ नहीं है जिसे उठाकर अक्षत के घर रख देंगे। वे उसकी शिक्षा के बारे में क्यों नहीं सोच पा रहे ? क्या वह चुपचाप चली जायेगी वह भी एक घिनौनी बदमाश औरत के कारण ?
रोली का रुआँसा स्वर सुनाई देता है, “पापा !आप क्या कह रहे हैं?”
“मैं सच कह रहा हूँ। रोज़ की लड़ाई से तंग आ गया हूँ। हार्ट पेशेंट हूँ इनके कारण मरना नहीं चाहता।”
रोली रो ही पड़ी, “अक्षत ! तू ऐसी बात सुन कैसे रहा है? कुछ बोलता क्यों नहीं है ?”
अक्षत ने कभी पापा के सामने ऊँची आवाज़ में बात नहीं की है। वह सिर झुकाकर चुप बैठा रहता है।
रोली रोती जा रही है, “पापा ! हाऊ यू डेअर टू से इट? वह भी शादी के इतने बरसों बाद?”
समिधा कमरे के दरवाजे के पीछे से बच्चों को आँख से इशारा करती है, वे दूसरे कमरे में चले आते हैं । रोली अपने कमरे में जाकर पलंग पर उल्टी लेट कर फूट-फूट कर रोने लगती है। अक्षत रसोई में आकर कहता है, “मॉम ! आप तुरन्त अपना सामान पैक करिए व मेरे साथ अभी चलिए।”
“बेटे ! तू घबरा मत। पापा का किसी तरह पागल जैसा दिमाग़ कर दिया गया है। यदि वो सच ही इनकी दोस्त होती तो मैं चल भी देती। वह इस तरह जाल फैला रही है मैं यहाँ से हट जाऊँ और वह यह घर-बार लूट ले।”
“आपसे मैं पहले भी कह चुका हूँ किसी डिटेक्टिव एजेंसी को ये केस सौंप दीजिये।”
“पैसा तो मैं दे दूँगा।”
“बात पैसे की नहीं है। मैं ही उसकी अक्ल ठीक कर दूँगी।”
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बच्चों के जाने के बाद ही अभय की बुआ जी का फ़ोन आता है। वे एक महीने के लिए उनके पास आ रही हैं। समिधा बड़ी उलझन में है वह हर समय अभय के हाव-भाव देख, कभी बबलू जी की ड्यूटी पता करके अभय को बचाती रहती है लेकिन बुआजी के सामने कैसे बार-बार फ़ोन कर पायेगी ?
क्या करे वह ? अक्षत के बताये रास्ते पर अमल करे? सच ही वह डिटेक्टिव एजेंसी पर पूछताछ करने चल देती है। अपना पता एक एन जी ओ की सचिव के रूप में देती है। ‘जेम्स बाँड एजेंसी’ के मालिक की बताई राशि को सुनकर उसका दिमाग़ चकरा जाता है। वह उनका का विज़िटिंग कार्ड लेकर उसके प्रॉपराइटर से कहती है, “मैं अपनी संस्था के प्रेसीडेंट से पूछकर आपको खबर करूँगी।”
घर आकर खीजती है, वह क्यों दे एक घटिया औरत के लिए इतना रुपया ? वह उस एजेंसी का कार्ड लेकर लिविंग रूम की मेज पर पेपरवेट से दबा देती है व अपने व कविता के नृत्य करते हुए फ़ोटो में से कविता का फ़ोटो काटकर आलमारी में छिपाकर अपना फ़ोटो रख देती है। इस मेज़ पर अभय अपनी रोज़मर्रा की चीज़ें रखते हैं। समिधा दिखाना चाह रही है कि वह कविता की फ़ोटो जेम्स बाँड एजेंसी में दे आई है। ये ट्रिक कुछ दिन तो चल ही जायेगी।
वह समझने लगी है सुन्न दिमाग़ वाले अभय से झगड़ा करो तो कोई फ़ायदा नहीं है । तनाव से दिमाग़ व शरीर में बहुत बेचैनी हो जाती है। ऑफ़िस जाते समय़ अभय अपनी घड़ी व चश्मा मेज़ से उठाते हैं। खिड़की से जाते हुए अभय का फक्क पड़ा चेहरा देखकर वह चैन की साँस लेती है। मतलब उन्होंने विज़िटिंग कार्ड देख लिया है । उसकी छठी इंद्रिय अभी भी सशंकित है। कुछ और इंतज़ाम भी करना होगा।
चार दिन बाद ही वे बताते हैं, “हमारे ऑफ़िस का वॉलीबाल टुर्नामेंट आरम्भ होने वाला है मैं शाम को लेट घर आया करूँगा।”
“ओ.के.।” वह लापरवाह सा उत्तर देती है लेकिन फिर सोचती है यह बात विकेश को बता ही दे। वही अभय को सम्भाल सकता है। शाम के सात बज़े जब दिल घबराने लगता है तो सोचती है शायद विकेश अपने घर पहुँच गया हो। वह उसके घर का नम्बर डायल करती है। फ़ोन रोमा उठाती है, “नमस्कार ! भाभी जी ! कहिए कैसे याद किया?”
“तुम्हें तो याद करते रहते हैं। विकेश आ गये क्या?”
“नहीं, टुर्नामेंट के कारण देर से आयेंगे।”
समिधा इधर-उधर की बात करके फ़ोन रख देती है। तीन बार कोशिश करके देख ली, विकेश से सम्पर्क ही नहीं हो पाता।
अभय साढ़े सात बजे एक उन्मादी से घर में घुसते हैं।
“आजकल तो आप बहुत ‘एन्ज्वाय’ कर रहे हैं।”
“तुम्हें जलन हो रही है?”
“अभय ! आप खुश हैं तो मैं क्यों जलूँगी?”
वे ड्रेसिंग टेबल के पास जाकर स्वयं को दाँये-बाँये घूमकर निरखते हैं व बाल काढ़ते हुए बकने लगते हैं, “मुझमें कुछ अलग सा है इसलिए तो लोग मुझ पर मरते हैं।”
वह भुनभुना उठती है, “सड़क छाप लोग तुम्हें बेवकूफ़ बना रहे हैं। तुम्हें क्यों नहीं कुछ समझ में आ रहा ?”
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नीलम कुलश्रेष्ठ
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