“हाँ, जी कविता मैडम को पहचानता हूँ।” दुकानदार समिधा की बात का उत्तर देता है।
“उनका मोबाइल बंद है। यदि वह बाहर सड़क पर आये उसे बता दीजिये आज महिला समिति की चार बजे मीटिंग है।”
वह कविता के बंद घर रखने के नाटक से सशंकित है वर्ना उसे पता है महिला समिति तो वह कब की छोड़ चुकी है।
चार बज़े वह तैयार होकर निकलती है। आज उसने लाल बॉर्डर वाली कलकत्ते की साड़ी बहुत दिनों बाद पहनी है। सुर्ख रंग के कोरल्स की माला भी बहुत दिनों बाद पहनी है। वह सड़क पर से ही आखिरी दुकान वाले से पूछती है, “कविता निकली या नहीं?”
“अभी तक नहीं।”
वह चैन की साँस लेती है। खिड़की के पीछे सजी-धजी लोलुप आँखें उसके मीटिंग में जाने का ही इंतज़ार कर रही होंगी । दुकानदार से बातचीत से वह अपने पर पहरा बिठाने की गलतफ़हमी में ज़रूर पड़ेगी।
मीटिंग से लौटकर वह घर की चाय ज़रूर पीती है। अभय से पूछती है, “चाय पियेंगे?”
“नहीं।” अभय जैसे हुंकारते हैं।
तो उसका शक व सावधानी सही थी। वह गुनगुनाती रसोई से चाय बना लाती है।
चाय का दूसरा मग उनके हाथ में देते हुए कहती है, “थोड़ी ज्यादा चाय बन गई है, पी लीजिये।”
“अच्छा....पी लेते हैं।”
चाय पीकर अभय सुन्न व चुपचाप बैठे रहते हैं, वह समझ नहीं पाती । उन्होंने अपनी दिनचर्या बदल दी है। अब छत पर नहीं जाते। आठ बजे करीब वे दोनों घूमने निकलते हैं। थोड़ा घूमकर वह लौट आती है। वे ग्राउन्ड में घूमने चले जाते हैं। दिसंबर की हल्की सर्दी आरंभ हो गयी है। अभय एक दिन सात बज़े ही तेज़ी से हड़बड़ाहट में स्पोर्ट् स शूज़ पहन कर तैयार हो रहे हैं। वह चकित होकर पूछती है, “आप सात बज़े ही घूमने जा
रहे हैं ?”
उन्होंने बेचैनी में घड़ी देखी, “आज जल्दी ग्राउंड पर जा रहा हूँ ।”
“मैं भी साथ चलती हूँ ।”
“तुम तो इस समय किचिन में खाने की तैयारी करती हो।”
“जब आप जा रहे हैं तो मैं भी साथ चलती हूँ।”
“तुम्हें ग्राउन्ड से लौटकर अकेले आना होगा।”
“रोज़ नहीं आती क्या?” वह बिना कपड़े बदले उनके साथ हो लेती है । ये अभय है या रोबोट? वह तेज़ कदमों से चलते बार-बार घड़ी देखते उससे आगे निकल जाते हैं. वह हाँफती सी उनके साथ चल रही है, कभी पीछे रह जाती है। ये कैसा खेल शुरू हो गया है ? अभय ऐसे चल रहे हैं जेसे नींद में हों, जैसे उन्हें होश नहीं है ।
ग्राउंड आते ही वह रोज़ की तरह लौट लेती है। क्यों आज दिल बुरी तरह धड़क रहा है? घर के पास वाली दुकानें दिखाई देनी आरंभ गई है। बबलूजी के घर की तरफ जाने वाली लेन बाँयी तरफ़ दिखाई देने लगी है। तभी दुपहिये पर एक लड़की दुपट्टे का बुर्का पहने तेज़ी से स्कूटर दौड़ाती उसके पास से गुज़र जाती है। वह फिर भी सोनल को पहचान लेती है।
कविता के घर की सारी बत्तियाँ बंद है लेकिन बालकनी में फैले अँधेरे में एक छोटी काली परछाईं को वह पहचान लेती है। वह परछाईं तेज़ी से कमरे में समा जाती है। समिधा का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगता है। कहीं कुछ बेहद गड़बड़ है। वह आखिरी दुकान पर खड़ी होकर ब्रेड खरीदती है। ब्रेड खरीदते समय उसकी आँखें अँधेरे में डूबी पहली मंज़िल की खिड़की पर टिकी हुई है। उस अँधेरी खिड़की में घूरती हुई दो काली हिंस्त्र आँखें ज़रूर होंगी। वह भी कुछ क्षण अपनी दृष्टि उस खिड़की पर टिका देती है।
वह तेज़ कदमों से चलती अपने घर आकर हाँफती सी सोफ़े पर निढाल पड़ जाती है। उसका दिमाग चक्कर खा रहा है .एक-एक नस में अजीब दहशत सनसना रही है। वह टी.वी. ऑन करती है फिर बंद कर देती है। पानी पीकर जैसे ही अख़बार खोलती है। कॉलबेल बज उठती है। हमेशा बीस पच्चीस मिनट बाद पहुँचने वाले अभय जल्दी आ गये हैं। वह खुश है, अच्छा है इसे ब्रेड ख़रीदने की युक्ति सूझ गयी। उनके चेहरे पर हवाई उड़ रही है। वह बिना कुछ कहे बैडरूम में चले गये हैं। डिनर के समय वह बड़ी मुश्किल से फँसे गले से कहती है, “मैं तुमसे कहती थी न ! बबलू जी के घर में बहुत गड़बड़ है। रात में भी उनकी बेटी दुपट्टे का बुर्का पहने बाहर जा रही थी।”
“आजकल सभी लड़कियाँ ऐसे ही निकलती हैं।”
“रात में बुर्के की किस तरह की लड़कियों को ज़रूरत पड़ती है?”
“तुम्हें दूसरे के घर से क्या मतलब?” वह टी.वी. का वॉल्यूम तेज़ कर देते हैं। अभय जब शाम को घर आ जाते थे तो वह भयमुक्त हो जाती थी। शाम को तो कविता के बच्चे भी घर में रहते हैं, लेकिन ये औरत है या हैवान? दुकानों के सामने कितने ही लोग खड़े होते हैं। सामने की अपनी चार मंज़िल की इमारत में रहने वाले ढेर से लोगों की नज़रों का भी उसे भय नही लगता?
समिधा हिस्टीरिया की मरीज जैसी हो गई है। मन ही मन उद्विग्न व घबराई स़ी। टी.वी. धारावाहिकों से उसे इन्हीं वर्षों पता लगा है ऐसी स्त्रियाँ भी होती हैं जो अपनी कुटिल नसीहत दूसरी स्त्री को दे रही होती हैं, “तुम अपनी बातों, अपनी अदाओं से उसे इतना पागल कर दो कि उसका दिमाग़ कुछ सोचने के लायक न रहे।”
अभय किसी शर्म व डर से दूर चले गये हैं। उनसे लड़कर कुछ न होगा। वह बबलूजी के ऑफ़िस का फ़ोन नम्बर पता करती है। किसी न किसी बहाने उनकी ड्यूटी का समय पता करती रहती है।
वे चिढ़ते हैं, “बबलूजी की ड्यूटी से मुझे क्या मतलब?”
“कुछ तो होगा ही। तुम क्यों नहीं सोच पाते पति तक बात पहुँच गई है, वह औरत रुक नहीं रही तो वह कितनी बदमाश होगी।”
“वे लोग सही कह रहे हैं तुम साइकिक हो गई हो, किसी अच्छे न्यूरोलॉजिस्ट को दिखा देते हैं। दस पंद्रह दिन बाद तुम्हें दौरे पड़ते हैं।”
“पंद्रह दिन बाद तुम्हारी डोर खींची जाती है मुझे पता लग जाता है।”
“सच ही तुम न्यूरोटिक हो रही हो।”
“मेरी जगह कोई कमज़ोर औरत होती तो न्यूरोटिक हो जाती।”
“तुम्हें शर्म नहीं आती तो अपने पति की शिकायत दुकानदारों से करती हो?”
“मैंने कब की तुम्हारी शिकायत? हम दोनों के बीच आग लगाई जा रही है तुम्हें ये बात समझ में नहीं आ रही ? वैसे मैंने दुकानदारों से कह दिया है वर्मा परिवार में गड़बड़ है यदि हमारे परिवार का कोई सदस्य वहाँ जाता दिखाई दे तो मुझे बता दें।”
“तुमने ऐसा कह दिया है?”
“हाँ, पता नहीं तुम्हारा दिमाग किस तरह ‘ पैरालाइज़’ कर दिया गया है। एक कम पढ़ी-लिखी काली कलूटी औरत तुम्हें नचा रही है, तुम समझ नहीं पा रहे हो।”
“मैं क्या बेवकूफ हूँ जो मुझे कोई औरत नचा देगी?”
“अभय! मुझे तुम्हारे लिए एक चिन्ता है उसका किशोर बेटा बड़ा हो रहा है, उसे ख़बर लग गई तो किसी का खून न कर दे।”
अभय चीखते से फ़ोन की तरफ झपटे, “मैं अभी तुम्हारे पापा को फ़ोन करता हूँ, तुम्हें आकर ले जायें।”
वह हँसे या रोये फिर भी कहती है, “मेरे पापा, फ्रेक्चर के कारण बिस्तर पर हैं। यदि तुमने उन्हें फ़ोन किया तो मैं तुम्हारे भाई को दिल्ली फ़ोन कर दूँगी। तुम क्या मुझे अँगूठा छाप औरत समझते हो जिसे एक गुंडी औरत घर से निकलवा देगी?”
अभय की लाल-लाल वहशी आँखों को झटका लगता है। उनका वहशी दौरा कम हो जाता है,“बच्चों की शादी हो जाये तो मैं तुमसे तलाक ले लूँगा।”
“ले लेना, अब तो ख़ुश ।” समिधा ये तो नहीं कह पाती कि कोठेवालियों व गृहणियों में आदिकाल से जंग होती आई है। ये कोठेवालीनुमा औरत एक गृहणी का नकाब पहने है तो क्या?
वह नोट करती है जब भी उन दोनों के बीच झगड़ा होता है अभय दस बारह दिन तनावमुक्त होकर पहले जैसे हो जाते हैं। उसके बाद पता नहीं क्या होता है वह फिर सुन्न रहने लगते हैं, अपने में गुमसुम, उतना ही बोलते हैं जब उनसे कुछ पूछा जाये। अक्सर ये गाना सुना करते हैं, “मन तरसे, मन तरसे अपने बालम को... हाय कितने दिन बीते, तुम न क्यों आये रे-------।”
या “संसार से भागे फिरते हो....”
इस बार भी चौदह पंद्रह दिन बाद उनकी मनोदशा ऐसी ही होने लगी है। वह तैयार है कोई न कोई अब गुल खिलेगा।
अभय रात में ग्राउंड की तरफ मुड़ते हुए पूछते हैं, “तुम लौटी क्यों नहीं?”
“आज मन और घूमने का कर रहा है।” इतने बड़े ग्राउंड में एक चक्कर लगाकर वह थक जाती है। उसने चप्पल उतारकर घास पर बैठकर तलवे नर्म घास पर रख दिये। नर्म घास की ठंडक तपते मन में भी उतर गई है।
मैदान के दूसरी तरफ अशोक के पेड़ो की कतार है, वहाँ अँधेरा रहता है। पास ही एक कमरा बना है। उसने देखा दूर अभय उस कमरे के पास से लौट रहे हैं। एक छोटी काली छाया कमरे के पास बने गेट से बाहर जा रही है। अभय पास आते जा रहे हैं।
“आप आधा चक्कर लगाकर ही क्यों लौट आये?”
“बस ऐसे ही थक गया हूँ, घर चलते हैं।”
वह चुपचाप नर्म घास पर पड़ी चप्पल पहन कर चल देती हैं। अक्षत व रोली उसके पास होते तो क्या वह अकेले ऐसी बदहवास हो रही होती? दुकानें पास आती जा रही हैं तभी कविता का बेटा स्कूटर से अपने घर की तरफ मुड़ता दिखाई देता है। तो महाशय बारहवीं कक्षा की कोचिंग से रात के आठ बजे करीब वापस आते हैं। उसका मैदान में दूर से देखी काली छाया के बारे में शक सही था। वह अभय को ये बात जताने के लिए स्कूटर पर जाते कविता के बेटे की पीठ पर नजरे जमाये हल्के से खाँसती है। वे निर्विकार चेहरे से आगे बढ़ते जा रहे हैं।
घर पर जाकर वह चुप ही रहती है। यदि कुछ कहेगी तो अभय गला फाड़कर चिल्लायेंगे,“तुम साइकिक हो रही हो। तुम्हें साइकेट्रिस्ट को दिखाना पड़ेगा।”
वह रोज़ ही अभय के साथ ग्राउंड पर जाना शुरू कर देती है। रात में ट्यूशन के बच्चों की होमवर्क की कॉपीज़ देर तक जाँचते हुए नींद के झोंके खाती रहती है। दिन में थकान महसूस करती रहती है।
एक नई बात उधर आरंभ हो गई है। अभय आठ दस दिन के अंतराल के बाद माथे पर पूजा का लम्बा तिलक लगाये हुए आते हैं। उनकी आँखें लाल हुई, उभरी हुई लगती हैं। वह आँखें इधर-उधर नचाते से घर में घुसते हैं। उनके चेहरे की गुंडई, आँखों की वहशी चमक देखकर उसकी हिम्मत नहीं होती कि पूछे, “अभय ! आप इतने पुजारी कब से हो गये?”
पूजा करके आने के दो तीन दिन वह बहुत बेचैन रहते हैं। कभी अख़बार पढ़ते हैं, फिर उसे पटककर कोई पत्रिका उठा लेते हैं। थोड़ी देर बाद टी.वी. ऑन कर लेते हैं। यदि उनसे गलती से नज़र मिल जाती है तो उनका डरावनापन देख कर वह उनके सामने से हट जाती है।
दिसंबर सरक रहा है। पहली जनवरी को अभय के ऑफ़िस जाते ही वह तनाव में घिरने लगी है।
उसे कुछ शक होता है कहीं वह सचमुच तो साइकिक तो नहीं हो रही लेकिन एक-एक घटना याद करके तसल्ली कर लेती है, ऐसा नहीं है।
वह बबलूजी के ऑफ़िस फ़ोन लगाती है। उत्तर मिलता है,“वे अभी नहीं है। उनकी इंटर ड्यूटी है। शाम को चार बजे आयेंगे।”
वह जानती है विकेश गिरा हुआ इन्सान है लेकिन अभय का दोस्त है। उससे सहायता के लिए बात करनी चाहिए, अभय को सम्भालने का और कोई चारा भी नहीं है। वह फ़ोन करती है। उत्तर मिलता है, “विकेश साहब तो टूर पर मुम्बई गये हैं।”
दोपहर को अभय लंच के बाद ऑफ़िस के लिए निकलते हैं। वह उनसे धीमें स्वर में कहती है, “आज बबलूजी की इंटर ड्यूटी है।”
अभय चीखते से बोलते हैं, “तो? तो मैं क्या करूँ?”
“आज ‘न्यू ईयर’ है इसलिए तुम्हें अलर्ट कर रही हूँ।” वे खौलती आँखों से उसे देखते चले जाते हैं। उनकी चढ़ी हुई देखकर त्यौरियां वह सोचती है कि शाम को घर में कुछ हंगामा होगा क्या ?
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नीलम कुलश्रेष्ठ .ई –मेल---kneeli@rediffmail.com
एपीसोड –२३