Dah-Shat - 21 books and stories free download online pdf in Hindi

दह--शत - 21

ऋचा ने पड़ौसिन का स्वागगत किया “मैं ऋचा हूँ। अंदर आइए।”

“मैं आपसे माफ़ी माँगने आई हूँ। आपके यहाँ के गृहप्रवेश के समय हम लोग बाहर थे, आ नहीं पाये।”

“कोई बात नहीं। आपके फ़्लैट का ताला देखकर अफ़सोस हो रहा था कि नज़दीक के पड़ौसी ही पूजा में नहीं आ पाये।”

“सब चाँस की बात है। लो अब आ गये बधाई देने।” उन्होंने सोफ़े पर बैठते हुए कहा था।

“हमने भी फ़्रिज मैं आपके लिए प्रसाद रखा हुआ है।”

“ओ रियली?”

“जी हाँ।” मिसिज कुमार इस तरह गप्पे मारने लगीं थीं जैसे उनके बरसों से जान-पहचान हो।

“मैंने भाईसाहब को तो आते जाते देख लिया है लेकिन आपके बच्चे नहीं देखे।”

“मेरा एक ही बेटा है। एक एम.एन.सी. में मैनेजर है। नौ साढ़े नौ बजे से पहले घर कहाँ आ पाता है किसी संडे को आपसे मिलवाऊँगी।”

“क्या इत्तफ़ाक है मेरे भी एक ही बेटी है।”

“क्या कर रही है?”

“बी. काम. करने के बाद उसका पढ़ाई में दिल नहीं लगा तो उसे ब्यूटीशियन का कोर्स करवा दिया है। अब घर में ही छोटा-मोटा पार्लर चला रही है। हम तो इसी शहर में लड़का ढ़ूँढ रहे हैं। यहीं शादी हो जाये तो अच्छा है। एक ही लड़की है पास में रहे तो अच्छा है।”

“ये बात भी ठीक है।”

नये फ़्लैट में आने के कुछ दिन बाद ही भाभी की माँ की अचानक मृत्यु हो गई थी। उन्होंने उन्हीं सहृदय पड़ौसिन का दरवाजा खटखटाया था, “मेरी माँ की डेथ हो गई है।”

“हाय ! हाय ! कैसे?”

“अचानक हार्ट अटैक हो गया। हम लोग आज ही निकल रहे हैं। निखिल बंगलौर टूर पर गया है, कल सुबह वापस आयेगा। कल संडे भी है तो ज़रा उससे मिल भी लीजिए। वह थोड़ा शर्मीला है।”

“आप चिन्ता मत करिए जी। पड़ौसी पड़ौसी के काम नहीं आयेगा तो कौन आयेगा? हम लोग उसके खाने-पीने का भी ध्यान रखेंगे।”

“वीक डेज़ मे कम्पनी लंच देती है।”

“तो डिनर हम दे देंगे जी..... ।”

इतवार को निखिल ने मोबाइल द्वारा अपने घर पहुँचने की सूचना दे दी थी। सोमवार को उसका फ़ोन मिला, “मॉम ! किस बला को मेरे पीछे लगा गई हैं ?”

“क्या हुआ?”

“कल एक कोई मोटी कुमार आँटी आकर मुझसे कह गई कि लंच भिजवा रहीं हैं। दोपहर उनकी बेटी रिम्पा एक टिफ़िन में खाना लेकर आ गई। ऐसा लग रहा रहा था फ़ैशन परेड करने आई है । मैंने उससे कहा टिफ़िन मेज़ पर रख दे मैं बाद में खाना खा लूँगा लेकिन ज़िद करने लगी कि मैं आपको खाना खिलाकर ही जाऊँगी । मैं खाना खाता रहा वह घूम-घूम कर सारा घर देखती रही ।”

“घर क्यों देख रही थी ?”

“क्या पता । हर चीज़ की तारीफ़ कर रही थी कि क्या ‘एस्थेटिक सेंस’ है ।”

दुख में भी भाभी के चेहरे पर मुस्कराहट फैल गई, “हमारा घर देखकर सभी यही कहते हैं ।”

वह झुंझलाया, “आप को घर की पड़ी है । रात में ऊटपटाँग ड्रेस पहन कर खाना लेकर आ गई थी। मम्मी! मैं रात में अपने दोस्त के यहाँ सोऊँगा। नानी के त्रयोदशी संस्कार में पहुँच जाऊँगा।”

“अरे! एक लड़की से इतना घबरा रहा है ?”

“घबरा नहीं रहा हूँ । वह चीप लड़की है इसलिए गुस्सा आता है।”

उनके लौटने पर श्रीमती कुमार उनसे मिलने आईं व माँ की मृत्यु की बात पूछती रहीं फिर मतलब की बात पर आ गईं, “आपके यहाँ बुज़ुर्गों की मृत्यु के बाद एक वर्ष तक शादी नहीं होती होगी?”

“ये सब पहले की बातें हैं । अब तो त्रयोदशी संस्कार के समय की बरसी कर देते हैं जिससे कोई शुभ काम नहीं रुके।”

“ओ ! ये तो अच्छा है । हम लोग भी रिम्पा की शादी जल्दी ही चाह रहे हैं।”

“मेरी माँ की मृत्यु से उसकी शादी का क्या लेना-देना है?”

“हमारी रिम्पा को आपका घर व निखिल बहुत पसंद आ गया है।”

“क्या? निखिल को अधिक पढ़ी-लिखी लड़की चाहिए।”

“पढ़-लिखकर पैसा ही तो कमाना होता है । हमारे पास दो फ़्लैट्स हैं , नये शॉपिंग मॉल में रिम्पा अपना पार्लर खोलने जा रही है। हमने बुक भी करवा दिया है और क्या कमी है हमारी रिम्पा में?”

वह उनका मुँह देखती रह गई, “आपकी रिम्पा में कमी कुछ नहीं है किन्तु हमारी व निखिल की पसंद अलग है।”

“क्या अलग है? आपकी जाति वालों के पास पैसा कहाँ होता है ? हम ऐसी शादी करेंगे कि आप सपने में सोच भी नहीं सकतीं।”

“हमें पैसे से नहीं लड़की से शादी करनी है।”

वह आग बबूला सी हो गईं, “रिम्पा के लिए लड़कों की कमी थोड़े ही है । वह तो उसे निखिल बहुत पसंद आ गया है ।”

दो महीने बाद ही दीपावली थी । माँ की मृत्यु के बाद पहला त्यौहार था उन्हें भाई के घर जाना ही था। उनके चलने से पूर्व श्रीमती कुमार आ गईं। “आप घर की व निखिल की चिन्ता मत करना। हम उसके खाने की देखभाल कर लेंगे।”

निखिल गुस्से से चिल्लाया,“मम्मी! बात करती रहेंगी तो ट्रेन निकल जायेगी।”

भाभी भाईसाहब के जाते ही वह भी रिम्पा और उसकी माँ से बचने के लिए अपने दोस्त के साथ तीन दिन रहने चला गया। तीन दिन बाद वह पहले घर लौट आया जिससे नौकरानी से फ़्लैट की सफ़ाई करवा सके। दरवाज़े के पास ज़मीन पर पड़ी डाक उठाकर उसने मेज़ पर रख दी व जल्दी जल्दी नहा धोकर फ्रेश होकर ऑफ़िस निकल गया। कहीं पड़ौसी न आ जाये।

दोपहर को भाभी भाईसाहब ने घर का दरवाज़ा खोला। सामान रखकर फ़्रेश होकर चाय पी। भाईसाहब ने मेज़ पर रखे पत्रों को देखना शुरू किया । एक शादी के कार्ड को देखकर बोले, “लो, कहीं से एक शादी का कार्ड आया है।”

“किसकी शादी का कार्ड है?”

“अभी देख रहा हूँ ।” उन्होंने उसे हाथ में लेकर सीधा किया। उनके मुँह से चीख़ निकल गई, ‘निखिल वैड्स रिम्पा।’

“क्या?”  भाभी को उनकी बात पर विश्वास नहीं हुआ, वे तेज़ चलती उनके पास आ पहुँची व कार्ड खोलकर पढ़ने लगीं, “निखिल ऐसा नहीं कर सकता। किसी ने मज़ाक किया है।”

भाईसाहब ने उत्तेजित होकर कार्ड पढ़ा निखिल के नाम के साथ हमारा ही नाम है । उन्होंने काँपते हाथों से निखिल का नम्बर डायल किया, “क्यों,बर्खुरदार शादी कर रहे हो?”

“कौन?”

“तुम और कौन?”

“डैडी! क्या मज़ाक कर रहे हैं?”

“हमें तुम पर पूरा विश्वास है लेकिन घर में तुम्हारी शादी का प्रिन्टेड कार्ड मिला है।”

“ओ नो। मैं अभी घर आ रहा हूँ।”

घर पहुँच कर उसने कार्ड उलट-पलट कर देखा, “मैं उस चीप लड़की से कैसे शादी कर सकता हूँ? मैं अभी उनके यहाँ ये कार्ड लेकर जा रहा हूँ ।”

भाभी ने उसका हाथ पकड़ लिया, “गुस्से से कुछ नहीं होगा। हम दोनों उनसे मिलकर आते हैं ।”

श्रीमती कुमार ने ही निर्लज्ज मुस्कान के साथ स्वागत किया, “हम लोगों के पास आप लोगों का मोबाइल नम्बर नहीं था इसलिए हम लोगों ने शादी की तारीख के लिए आप लोगों से पूछा नहीं था।”

“हाऊ यू डेयर इट?”  भाई साहब गरज पड़े थे।

“भाई साहब ! ज़माना बहुत आगे निकल चुका है । जब लड़के व लड़की ने एक दूसरे को पसंद कर लिया है तो हम आप कौन बीच में बोलने वाले होते हैं?”

“मेरे आई.आई.टी. इंजीनियर बेटे व तुम्हारी बेटी का क्या मैच है?”

“देखिए, जोड़ियाँ तो ऊपर वाला बनाता है । हमारे सारे रिश्तेदारों ने तो दिल्ली आने का रिज़र्वेशन भी करवा लिया है।”

“आप क्या कह रही हैं? मैं शाम को कुमार साहब से बात करूँगा।”

“उनसे क्या बात करेंगे? वे तो रिम्पा को लेकर साउथ से साड़ियाँ ख़रीदने गये हैं।”

“क्या?”

“कुछ लेन-देन की बात करनी हो तो मुझसे करिए। शादी के आपकी तरफ़ के कार्ड्स भी हमने छपवा लिए हैं।”

“आपकी हिम्मत कैसे हुई?”

“आपको जो माँगना है माँगिए। मेरे दो भाई स्टेट्स में हैं। रिम्पा को बस निखिल पसंद है।”

“आपने शादी को मज़ाक समझ रखा है?”

“शादी तोड़ना क्या आपने मज़ाक समझ रखा है? हम और कुमार साहब ने पहले ही सोच रखा है यदि आप लोगों ने ये शादी नहीं की तो दहेज माँगने के इल्ज़ाम में आपको अंदर करवा देंगे।”

“अच्छी ज़बरदस्ती है।”

और सच ही कुमार साहब ने उन पर दहेज़ माँगने का इल्ज़ाम लगा कर केस कर दिया। उस नये घर में रहना दूभर हो रहा था।

उन्होंने उसे बेचकर नया फ़्लैट लिया है ये मुकदमा कब तक चलेगा। भाईसाहब इस समस्या से ज़ूझते सोचते रहते हैं।

अभय या समिधा उन्हें क्या और कैसे सांत्वना दें ? उन दोनों को पैतृक मकान में फ़रीदाबाद भी जाना है ।

अभय के पैतृक घर में उनके भाई के यहाँ आकर समिधा का खोया हुआ आत्मविश्वास सुदृढ़ हो गया है। भाईसाहब के घर के पास के मंदिर में वे दर्शन के लिए जाते हैं। मूर्तियों, देवी-देवताओँ की तस्वीरों, सिंदूर व मोतियों की मालाओं से सजी दुकान में सजी मूर्तियों में से वह जीभ निकालती तलवार उठाये काली माँ की मूर्ति चुन लेती हैं। क्या उसके घर में तरल बहता काला-काला सा कुछ उस पर इतना हावी हो गया है? दिमाग़ की नसें पराजित सी लटकी रहती हैं। वह क्या अपने भय से काली माँ की मूर्ति की आराधना से मिली शक्ति से लड़ना चाहती या समझ गई है कि वह कोई पिशाचिनी की हद तक गिरी हुई औरत है जिसे काली माँ ही बस में कर सकती है ।

बहरहाल अपने घर में लौटकर अपने मंदिर वह मूर्ति रख उसके सामने दीप प्रज्वलित कर देती हैं। वह स्वयं आश्चर्यचकित हैं वह कैसी पारम्परिक स्त्री में ढ़लती जा रही है .

अभय इस मूर्ति को देखकर पूछते हैं, “ये काली माँ की मूर्ति कौन लाया है?”

“एक काली नागिन व पिशाचिनी को ये महाकाली ही अपने रौद्र रूप से वश में कर सकती है।”

“ये शब्द तुम अपने लिए तो नहीं कर रही?”

“जिस आदमी का दिमाग ही काम नहीं कर रहा उसे क्या समझ में आयेगा?”

हर रात में पूजा के समय वह देखती है काली की मूर्ति को उल्टा किया हुआ है। वह उनको सीधा कर पूजा करती है।

दूसरे शहर से लौटो तो घर का काम बढ़ ही जाता है। घर की अच्छी तरह धूल साफ़ करवानी होती है, जाले निकलवाने होते हैं। फ्रिज़ साफ करो, दूध, सब्जी, फल का इंतज़ाम करो, गंदे कपड़े धुलवाओ। इन सब कामों को करते हुए समिधा का मन अटका हुआ है पीछे के फ़्लैट में। दो-तीन दिन से नोट कर रही है। दिन में सारा घर बंद रहता है। बस सोनल के कपड़े बालकनी में सूखते दिखाई देते हैं, तो सोनल को छोड़कर सारा परिवार बाहर गया है। वह समझ नहीं पाती वह क्यों सशंकित रहती है या कविता की बेहयाई ने उसका दिल थर्रा दिया है। दिन में भी पीछे कम्पाउंड में निकलो तो मन पर, पूरे कम्पाउंड में एक ख़ौफनाक औरत की कालिमा की पर्त छाई रहती है। जबकि कविता की इमारत का पीछे का हिस्सा इस तरफ़ है। कविता की बाई कम्पाउंड के गेट के पास खड़ी होकर पूछती है, “बेन! केम छो(बहिन कैसी हो)?”

“सारु(अच्छी हूँ)। क्या तुम्हारे साहब मैम साहब कहीं बाहर गये हैं?”

“ना रे, सब इधर ही है। साहब की माँजी की तबियत ख़राब है इसलिए वे अजमेर गये हैं । दो दिन बाद आयेंगे।”

“अच्छा?” तो कविता सारा दिन सारा घर बंद रखकर क्या दिखाना चाहती है ? यही कि वह शहर से बाहर है।

कल महिला समिति की मीटिंग है, समिधा के दिमाग़ में बिजली कौंध जाती है। उसे घबराहट क्यों आरम्भ हो गई है? अभय बाहर रह कर नॉर्मल हुए हैं। कहीं काला शिकंजा कसन फिर आरंभ न हो जाये।

वह नहा धोकर, गीले बालों को रबर बैंड में कस कर बाहर की आठ दस दुकानों में आख़िरी दुकान तक आ जाती है। इसी दुकान के पीछे प्रथम मंज़िल पर है कविता की खिड़की। जब भी उस खिड़की के सामने से गुज़रो को यही अहसास होता है कि दो काली भयानक आँखें उस अँधेरी खिड़की से घूर रही हैं। दुकानदार उसे देखकर नमस्ते करता है। वह पूछती है, “आप ऊपर रहने वाली कविता को पहचानते हैं?``

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नीलम कुलश्रेष्ठ

ई –मेल---kneeli@rediffmail.com

 

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