लॉकडॉउन और अधूरे सपने Pragya Chandna द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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लॉकडॉउन और अधूरे सपने

बबलू जो म.प्र. के उज्जैन के शिप्रा नदी के किनारे बसे एक छोटे से गांव का आठ साल का मासूम बच्चा है, वह गांव के ही सरकारी स्कूल में पढ़ता है। उसे पढ़ने का बहुत शौक है पर उसके पिता की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है कि वह उसे किसी बड़े प्रायवेट स्कूल में पढ़ा सकें। वह पढ़ने में अच्छा है तो उसके स्कूल के शिक्षक भी उससे बहुत लगाव रखते हैं। उन्हें भी बबलू के पिता की माली हालत का पता रहता है कि वह कैसे दिन-रात दूसरों के खेतों पर मजदूरी करके अपना व अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं। बबलू के शिक्षक कभी काॅपी, कभी पेन तो कभी अन्य कोई सामान देकर उसकी मदद करते है ताकि उसकी पढ़ाई में कोई व्यवधान न आए। बबलू भी अपनी पढ़ाई पर बहुत मेहनत करता है क्योंकि उसने उसके शिक्षकों के मुंह से अधिकतर बच्चों को समझाते समय यह कहते सुना है कि उनके परिवार के लोग जो दूसरों के खेतों पर दिन-रात मजदूरी करते हैं फिर भी उन्हें दो वक्त की ढ़ंग की रोटी भी नसीब नहीं होती, यदि वह नहीं चाहते कि उनकी भी स्थिति उनके बाप-दादा जैसी हो तो बहुत मन लगाकर पढ़ाई करें और उच्च शिक्षा प्राप्त करें व किसी अच्छे पद तक पहुंचे तभी उनके हालात सुधरेंगे अन्यथा उन्हें भी अपने बाप-दादाओं के जैसे पूरी जिंदगी दूसरों का नौकर बनकर, उनकी डांट खाकर गुजारनी पड़ेगी और यदि वो अपना भविष्य ऐसा नहीं देखना चाहते तो बहुत मन लगाकर पढ़ाई करें क्योंकि शिक्षा ही ऐसा औजार है जिससे वह अपनी व अपने घर वालों की स्थिति को सुधार सकते है।

बबलू अक्सर अपने दोस्तों के साथ आकर शिप्रा नदी के किनारे बैठ जाता और सपने देखा करता कि वह बहुत पढ़ रहा है उसने १२वीं कक्षा बहुत अच्छे नम्बर से पास करली है अब वह एक बड़ा अधिकारी बन जायेगा। उसके मासूम दिमाग में १२ वीं कक्षा तक की ही पढाई होती है ऐसा विचार घर किए बैठा है क्योंकि उसके गांव में आठवीं तक ही विद्यालय है इसके आगे की पढ़ाई के लिए पास के गांव में जाना पड़ता है।इस कारण उनके गांव के अधिकतर बच्चे आठवीं के बाद पढ़ना छोड़ देते थे, उनके गांव में बिरजू भैया ही थे जिन्होंने पिछले साल १२ वीं कक्षा उत्तीर्ण करी थी। तब सब गांव वालों के मुंह से बबलू ने कहते सुना था कि बिरजू की स्कूली शिक्षा पूर्ण हो गई, बस तब से बबलू सोचता था कि १२वीं तक पढ़ाई करके उसकी पढ़ाई पूरी हो जाएगी फिर वो बड़ा अफसर बन जाएगा और फिर उसके बाबा को किसी ओर के यहां मजदूरी नहीं करना पड़ेगी। बस ८ साल और अभी वह ४थीं कक्षा में है और आठ साल में वह १२वीं कक्षा पास कर लेगा। फिर उनके दुःख भरे दिन समाप्त हो जाएंगे।बस वह दिन-रात इन्हीं सपनों में खोया रहता।

बबलू कक्षा ५वीं में पहुंच गया है।आज उसके बाबा का स्वास्थ्य कुछ ठीक नहीं था सुबह से उनके सीने में दर्द हो रहा है अचानक शाम को उनका दर्द बढ़ जाता है और उन्हें बहुत तेज पसीना आता है घबराहट होती है और फिर एक दम से उनकी सांसें उखड़ने लगती है और शरीर ठंडा पड़ जाता है।

बबलू के बाबा के जाने के बाद पूरे घर की जिम्मेदारी बबलू के नाज़ुक कन्धों पर आ जाती है, उसकी पढ़ाई भी छूट जाती है।वह गांव के उसी आदमी के घर मजदूरी करने लग जाता है, जहां उसके बाबा मजदूरी करते थे। पारिवारिक जिम्मेदारियों के बीच, काम के बोझ के तले धीरे-धीरे उसके बड़े आदमी बनने के सपने भी कहीं दब से जाते है।

वक्त गुजरता जाता है, इसी बीच बबलू की शादी भी हो जाती है, वह गोपाल और छुटकी का पिता भी बन जाता है। उसकी मां का भी देहांत हो चुका होता है। उसके छोटे भाई भी अलग घर में रहने लग जाते है और मजदूरी करके अपना व अपने परिवार का पेट पालते है।

एक दिन बबलू शाम को खेत से लौटता है उसके कदम अपने आप शिप्रा नदी की ओर बढ़ जाते है और उसे वह सारे सपने याद आ जाते है जो वह बचपन में देखा करता था। तभी उसे किसी की आवाज़ सुनाई देती है बबलू ए बबलू!

बबलू आवाज़ की तरफ पलटता है तो उसे जींस-शर्ट में कोई आदमी दिखाई देता है पर बबलू उसे पहचान नहीं पाता। जब वह आदमी बबलू के एकदम निकट आ जाता है तब बबलू उसे पहचानता है कि यह तो उसका बचपन का दोस्त भोला है, जिसके साथ वह बचपन में अक्सर शिप्रा किनारे घूमा करता था और अपने भविष्य के सपने संजोया करता था।भोला उसके पास आकर उसके हालचाल पूछता है वह कहता है कि सब ठीक ही है भगवान रूखी-सूखी दे रहा है जिसे खाकर किसी तरह जिंदगी कट रही है।वह भोला से उसके जीवन के बारे में पूछता है तो भोला उसे बताता है कि आजकल उसका ठिकाना मुम्बई वह दो साल पहले अपने एक रिश्तेदार के साथ मुम्बई चला गया था वहां उसने चाट और पानी पतासे का ठेला लगा लिया जो अच्छा चल गया रोज का दो-तीन हजार का ठेला उठ जाता है, सभी खर्चे काटने के बाद उसको एक से डेढ़ हजार रुपए रोज बचत हो जाती है। बबलू सोचता है रोज के एक-डेढ़ हजार यहां तो महीने के एक-डेढ़ हजार नहीं हो पाते , वह भोला से कहता है मेरे लिए भी मुम्बई में कोई काम ढूंढ ना। मेरे सपने तो सब टूट गए पर अब मैं मेरे बच्चों को पढ़ा-लिखा कर बड़ा आदमी बनते देखना चाहता हूं, यहां रहकर तो वह भी मेरे जैसे मजदूर बनकर ही रह जायेंगे।

भोला उससे कहता है काम ढूंढने की क्या ज़रूरत है तू मेरे साथ चल थोड़े समय मेरे पास एक एक्स्ट्रा ठेला है तुम उस पर काम करना और मुझे उसका किराया रोज के सौ रुपए के हिसाब से देना और एक दिन अपना ठेला खरीद लेना फिर भाभी और बच्चों को भी अपने पास बुला लेना।

बबलू को भोला की बात जम जाती है, वह शाम को ही घर जाकर सबको बता देता है कि वह दो दिन बाद भोला के साथ मुम्बई जाएगा और वहां पर चाट का ठेला लगाएगा और जब काम जम जाएगा तो वह राधा और बच्चों को भी अपने पास बुला लेगा। उसकी पत्नी राधा कहती है कि शहर जाने कि क्या जरूरत है हम दोनों यहीं मिलकर मजदूरी करेंगे और रूखी-सूखी जो मिलेगी उसी में गुजर-बसर कर लेंगे, पर बबलू उसकी एक नही सुनता और उसे कह देता है कि उसने तय कर लिया है कि वह दो दिन बाद जाएगा मतलब जाएगा।

वह अगले दिन अपने भाईयों को भी अपनी योजना के बारे में बताता है और कहता है कि मेरे राधा और बच्चों को बुलाने तक उनका ध्यान रखना और मेरा काम-धंधा एक बार वहां जम गया फिर तुम लोग भी वहां आ जाना यहां कब तक दूसरों के यहां मजदूरी करते रहोगे।

उसके भाई उससे मना कर देते हैं कि वो यहां अपनों के बीच आधी रोटी खाकर खुश हैं, यहां जरा सी तकलीफ आने पर पूरा गांव मदद करने दौड़ा आता है, सुना है वहां मुम्बई में तो उनके पड़ोस में कौन रहता है यह भी कोई नहीं जानता, जरूरत के समय एक-दूसरे की मदद करना तो दूर की बात।और जितना बड़ा शहर उतने बड़े उसके खर्चे। यहां गांव में हमें मकान का किराया नहीं देना पड़ता, सब्जी-भाजी मालिक के खेतों से मिल जाती है, मजदूरी के नाम पर अनाज भी मिल जाता है, बिजली का बिल भी नहीं देना पड़ता, सरकारी स्कूलों में बच्चों की फीस भी जमा नहीं करनी पड़ती, यहां का हवा-पानी भी साफ है तो बिमारियों का खर्च भी नहीं है। वहां जाकर यह सब खर्चे बढ़ जाएंगे और फिर वहां जितना कमाएंगे उतना तो इस सब में ही खर्च हो जाएगा तो फिर अपनों से दूर जाने की जरूरत ही क्या है।हम तो यहां गांव में ही खुश हैं भैया हम शहर नहीं जाना चाहते और आप भी ना जाएं, हमारी तो यही राय है, बाकी आपकी मर्जी भैया। बबलू पर अपने भाईयों की बातों का भी कोई असर नहीं होता, वह अपने घर आकर अपने जाने की तैयारी करने लगता है।

अगले दिन बबलू भोला के साथ मुम्बई के लिए निकल पड़ता है। जैसे-जैसे ट्रैन की रफ्तार बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे भोला के सपने भी तीव्र गति से चलने लगते है, वह सोचता है कि वह खूब मेहनत करेगा। बच्चों को अच्छे बड़े स्कूल में पढ़ाऊंगा, राधा को भी गांव में बहुत मेहनत मजदूरी करनी पड़ती है, जब एक बार धंधा अच्छा चल जाएगा तो फिर उसे कुछ भी काम नहीं करने दूंगा। राधा और बच्चों को कभी अच्छे कपड़े नहीं दिलवा पाया, काम चलने पर सबसे पहले उन सभी के लिए नये कपड़े खरीदूंगा। इन्हीं सब सपनों में गुम हो उसकी आंख लग जाती है।

मुम्बई सेन्ट्रल स्टेशन आ जाता है, भोला बबलू को नींद से जगा देता है और वह उसे अपने साथ अपनी खोली में ले जाता है और अपनी पत्नी से मिलवाता है और कहता है कि यह अभी हमारे साथ ही रहेगा जब तक इसके लिए अलग खोली का इंतजाम नहीं हो जाता।

भोला की पत्नी उन दोनों के लिए खाना पकाती है। वह दोनों नहाकर खाना खाते हैं और फिर बबलू के कहने पर भोला उसे ठेला गाड़ी दिखाता है और कहता है कि तुम इस पर अपना धंधा चालू करों। बबलू कहता है कि उसे इस धंधे का कोई अनुभव नहीं है तो भोला उससे कहता है कि कुछ दिन तुम मेरे साथ मेरे ठेले पर खड़े रहो और काम सीख लो। काम सीख कर तुम अपना ठेला शुरू कर देना। बबलू को भोला की बात जम जाती है वह कुछ दिनों तक भोला के साथ रहता है, फिर जब उसे लगता है कि वह अब अपना खुद का चाट का ठेला लगा सकता है तो वह भोला से कहता है। भोला अपने पास में रहने वाले एक पंडित जी से मुहूर्त निकलवाता है। पंडित जी दो दिन बाद का मुहूर्त बताते हैं, दो दिन बाद बबलू ठेले की पूजा पाठ करके अपना चाट का धंधा शुरु कर देता है। पहले ही दिन भोला के ठेले का किराया और अन्य खर्च निकालने के बाद बबलू के पास पांच सौ रुपए बचते हैं, वह बहुत खुश होता है कि गांव में यह पांच सौ रुपए कमाने के लिए उसे चार-पांच दिन मजदूरी करनी पड़ती, वह भी कभी मिलती कभी नहीं। वह फिर से अपनी सपनों की दुनिया में खो जाता कि उसका ठेला बहुत अच्छा चल रहा है, वह रोज के हजार-पंद्रह सौ रुपए बचा रहा है। उसके बच्चे अच्छे स्कूल में पढ़ रहे हैं।बस इन्हीं सपनों में खोया हुआ वह दिन-रात खुब मेहनत करता । उसका ठेला भी अच्छा चलने लगा, उसने अपने लिए एक अलग खोली भी किराये पर ले ली और खुद का ठेला भी बनवा लिया।
‌वह अपनी पत्नी राधा और बच्चों को भी अपने साथ मुम्बई ले जाता है। गोपाल और छुटकी को वह वहीं एक स्कूल में दाखिला दिला देता है। वह सोचता है कि अब उसके सभी सपने पूरे हो जाएंगे, पर कहते हैं ना कि हम कुछ और सोचते हैं और भगवान कुछ और ही सोचकर बैठा हुआ होता है और होता वही है जो भगवान ने सोचा हो।
पूरी दुनिया में कोरोना महामारी फैल जाती है और भारत सरकार भी उससे बचने के लिए पूरे देश में लाॅकडाॅउन कर देती है।प्रथम लाॅकडॉउन के शुरू के कुछ दिन तो बबलू अपने बचत के रुपयों से जैसे तैसे घर खर्च चलाता है और सोचता है कि यह इक्कीस दिन निकल जाएं फिर सब ठीक हो जाएगा पर बीमारी बढ़ने के कारण जब दूसरे लाॅकडॉउन की घोषणा हो जाती है तो उसके पास की सारी बचत खत्म हो चुकी होती है और खोली का मालिक भी उससे किराए के लिए दबाव बनाने लगता है ‌। इस दूसरे लॉकडाॅउन में भी बबलू जैसे तैसे स्वयंसेवी संस्थाओं और सरकार द्वारा बांटे जा रहे भोजन के पैकेट से अपना व अपने परिवार का भरण-पोषण करता है पर जब तीसरा लॉकडॉउन होता है और उसका खोली मालिक उससे खोली खाली करवा लेता है तो वह अपने अधूरे सपनों की गठरी का बोझ लिए अपने परिवार के साथ अपने गांव की ओर फिर कभी मुम्बई न लौटने के लिए पैदल ही चल पड़ता है।