मकान Lovelesh Dutt द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मकान


“अरे...ठाकुरदास...ओ ठाकुरदास...” अन्दर आते हुए डाकिये की आवाज़ ने अमरावती को असहज कर दिया। उसने पास बैठी अपनी दस वर्षीया बेटी कीर्ति को संबोधित करते हुए उत्तर दिया, “जा...डाकिया ताऊ के लै कुस्सी डार दे” फिर थोड़ी ऊँची आवाज में डाकिए से कहा, “वे घरै नाय हैं दद्दा...आप भीतर आवौ...” अमरावती ने अपने सिर पर पड़ा पल्ला आवक्ष खींच लिया और छप्पर से बाहर निकलकर उसे सहारा देने वाली मोटी बल्ली की आड़ में हो गयी। कीर्ति ने प्लास्टिक की कुर्सी दूर अनार के छितराये हुए पेड़ के नीचे खड़े डाकिये के लिए डाल दी। प्लास्टिक की कुर्सी पर पड़ीं असंख्य खरोंचें और मैल की परत कुर्सी से अधिक उस परिवार की बदहाली की कहानी बयाँ कर रही थीं। दस वर्ष की कीर्ति की सूरत अन्य बच्चों की तरह चमकने की जगह धुँधली और तेजहीन थी उसपर कुपोषण की मटमैली परत कुर्सी पर चढ़ी मैल की परत की तरह साफ दिखाई दे रही थी। साइकिल को स्टैण्ड पर लगा डाकिया कुर्सी की तरफ बढ़ गया।
“बड़े दिनन में फेरी लगाई दद्दा...सब राजी-खुसी?” अमरावती फूल के एक लोटे में डाकिये को पानी देते हुए बोली।
“हाँ, ठाकुरदास की बऊ, ऊपरवाले की नजर जब तक सीधी है, सब राजी-खुशी...कहाँ है ठाकुरदास, क्या घर में नहीं है?” अपने झोले में चिट्ठियों व्यवस्थित करते हुए डाकिये ने अपना दर्शन झाड़ा और साथ ही सहजता के साथ एक प्रश्न भी पूछ लिया। “इत्ते खन वे घर में ठहन्न वाले नाँय...इते-उते फिरत होंगे...उनको का है...” अमरावती ने पानी का लोटा आगे बढ़ाते हुए चिड़चिड़ा-सा उत्तर दिया। एक भूरे रंग का लम्बा-सा लिफाफा और एक कॉपी काँख में दबाते हुए अपना झोला कुर्सी पर रखा और लोटे के पानी से गला तर करने लगा। पानी की शीतलता से मिली ठंडक से आँखें नशीली होने लगीं। चुल्लू में भरे पानी से अपने मुँह पर छिड़काव करके ताजगी की महसूस की और कंधे पर पड़े लाल अँगोछे से मुँह पोंछ कर लिफाफा अमरावती को देते हुए डाकिए ने कहा, “लो...यह चिट्ठी ठाकुरदास को दे देना...अपना अँगूठा यहाँ पर लगा दो” आखिरी वाक्य कहते हुए उसने कॉपी आगे बढ़ा दी।
अमरावती ने लिफाफा हाथ में पकड़ा और सकुचाते हुए बोली, “दद्दा, किरितिया नाँव लिख लेत है...वाई से नाँव लिखवाए दें...नाँय तो लावौ अँगूठो लगाए दें।”
डाकिए ने हल्के-से हँसते हुए कहा, “अरे ठाकुरदास की बऊ, जे कोई साधारण चिट्ठी नहीं है, सरकारी चिट्ठी है। इसे बच्चों का हँसी खेल मत समझ जरा-सी चूक हो गयी तो मुझे अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ सकता है...ले अपने बाएँ हाथ का अँगूठा लगा,” कहते हुए डाकिए ने अपनी खाकी कमीज़ की ऊपरी जेब से इंक पैड निकाला और अमरावती का बाएँ हाथ का अँगूठा पकड़कर पैड से नीला कर दिया और उसकी छाप अपनी कॉपी में लेते हुए कहा, “शायद...ठाकुरदास ने मकान के लिए दरख्वास दी होगी उसी का फारम होगा। आजकल सरकार उन्हीं लोगों को इस तरह की चिट्ठियाँ भेज रही है।” डाकिये ने अपना झोला कुर्सी से उठाया और साइकिल पर सवार होने से पहले एक बार फिर कहा, “याद से उसे यह चिट्ठी दे देना। भूल मत जाना।”
‘मकान की दरखास’ ये शब्द अमरावती को अपनी ज़िन्दगी के सबसे मधुर शब्द लगे और वह खाकी लिफाफा अमरावती के लिए किसी खजाने से कम नहीं था। यही तो उसके सपनों को हकीकत में बदलने वाला था। उसे लगा कि उस लिफाफे के अन्दर उसका अपना मकान बन्द है, ठीक चिराग के जिन्न जैसा। लिफाफा खोला नहीं कि मकान बाहर आया नहीं। उसने बहुत सँभाल कर वह लिफाफा अपने टीन के संदूक में रख दिया और ठाकुरदास की राह देखते हुए अपने पिछले दिनों में खो गयी... ‘करीब पन्द्रह साल पहले वह दुल्हन बनकर इस घर में आयी थी। दशकों पुरानी कोठरी के उसी हिस्से में अनेक सुनहरे सपनों के साथ उसकी गृहस्थी शुरू हुई थी जो आज अपने हालात से हारकर ढह चुकी है। कोठरी के साथ-साथ उसके सपने भी एक-एक करके टूटते गये और उसके हिस्से में सिवाय तसल्ली के और कुछ नहीं आया। तब से आज तक न जाने कितने उतार-चढ़ाव उसकी जिन्दगी में आ चुके हैं। उसके पहले दो बच्चे तो जन्म लेने से पहले ही...। उसे ठाकुरदास के साथ बिताये अपने जीवन के हर सुख-दुख याद आने लगे जिसमें वह भयानक काली रात जो उसकी ज़िन्दगी की सबसे डरावनी रात थी। सावन-भादों के मेल की रात और मूसलाधार बारिश। ऐसी बारिश उसने अपनी पहले कभी नहीं देखी थी। लगता था कि प्रलय आ जाएगी। और सचमुच उसकी कोठरी पर तो प्रलय ही आ गयी। पानी के थपेड़ों से जैसे कोई पुराना बाँध टूटता है वैसे ही कोठरी की छत भरभराकर गिर पड़ी बादल फटने की तरह पानी उसकी कोठरी में फट पड़ा। ऊपर वाले की दया ही थी कि छत गिरने से पहले ही वह और उसका परिवार जाग गये थे वरना न जाने क्या अनहोनी हो जाती? उसे याद है कि वह पूरी रात कोठरी में भरे पानी निकालने और जरूरी सामान उठा-उठाकर एक कोने में रखने में बीती थी। उसी दिन से उसने ठान लिया था कि कैसे भी हो इस कमरे को पक्का करवाना है और वह लगातार ठाकुरदास से कमरा पक्का करवाने की ज़िद कर रही थी। वास्तव में यह कोई ज़िद नहीं थी क्योंकि ज़िद तो प्रायः अपना शौक पूरा करने के लिए की जाती है, यह तो उसकी साधना थी जो अपने परिवार को सुरक्षा देना चाहती थी, जिसमें उससे ज्यादा उसके परिवार का मंगल छुपा था। वह लिफाफा उसकी उसी साधना का प्रसाद था जिसे वह बार-बार सिर-माथे लगा रही थी।
करीब चार साल पहले देश के पिछड़े गाँवों में दुर्बल आय के किसानों के कच्चे मकानों के बदले पक्के मकान बनाने में सरकारी योजना और मकान बनवाने हेतु आर्थिक मदद का समाचार आया था। अखबारों ने सरकार की इस महत्त्वाकांक्षी योजना को इतना प्रचारित किया कि योजना को देश के सैकड़ों-हजारों गाँवों में पहुँचने में देर नहीं लगी। लोगों को इस योजना का लाभ मिलने और कई लोगों के मकान बनने की खबरें भी खूब सुनने में आयीं। हालांकि इस योजना में कुछ लोगों की चाँदी भी हो गयी क्योंकि सरकारी योजना की किरणें जमीन पर रहने वाली गरीब जनता तक बाद में पहुँचती हैं, पहले उसे कई बड़ी-बड़ी इमारतों को रोशन करना पड़ता है, फिर भी रोशनी किसी के बाँधे कब रुकती है। इसलिए योजना के स्वर गोपालपुर गाँव में भी पहुँचे और इस पर कई गरीब किसानों ने अपने सपनों के महल के गीत गाने शुरू कर दिये। उन्हीं दिनों एक सरकारी गाड़ी दो बाबुओं और एक साहब को लेकर आयी थी। गाँव के प्रधान की बैठक में तो पूरा दफ्तर ही खुल गया था। कच्चे और झोंपड़ीनुमा मकान वाले लोगों के नाम और वल्दियत रजिस्टर में दिनभर लिखे गए थे। उन्हीं में एक ठाकुरदास का नाम भी था।
अमरावती ठाकुरदास के मुँह से पुराने दिनों के किस्से कई बार सुन चुकी है। कितनी बार तो उसे बचपन की मधुर स्मृतियों में डूबते-उतराते उसने खुद देखा है। अब भी अक्सर वह बताया करता है कि ‘यह आँगन एक छिटका हुआ टुकड़ा नहीं था बल्कि भरे-पूरे घर का लम्बा-चौड़ा आँगन था। गाँव में सबसे बड़ी बखरी उसी की थी। उसके दो ताऊ और एक चाचा का पूरा परिवार इसी आँगन के किनारे बनीं अपनी-अपनी कोठरियों में रहा करता था। रात को सब इसी बड़े आँगन में एक-साथ सोया करते थे। धीरे-धीरे सब अपने-अपने हिस्से लेकर आँगन में दीवारें खींचते गये और बेचते गये। उसके पिता के हिस्से में केवल दो कमरे और आँगन का छोटा-सा टुकड़ा आया था। बड़े भाई ने मरने से पहले उसका भी बँटवारा कर दिया और दीवार खींचकर अपना हिस्सा अलग कर लिया तथा अपनी दोनों बेटियों के नाम कर दिया। अब उसके हिस्से में आया एक कमरा जिसका आधा हिस्सा बरसात में ढह चुका है। बाप दादाओं के जमाने का बना कच्चा कमरा आखिर चलता भी कब तक?’
अनहोनी की आशंका से ही अमरावती ने कई बार उससे पक्का कमरा बनवाने को कहा लेकिन ठाकुरदास उसकी बात कोई-न-कोई बहाना बनाकर टाल देता। वैसे उसकी खस्ता हालत अमरावती से भी छुपी नहीं थी, वह जानती थी कि ‘अकेला मानुस करे भी तो क्या करे तीन बच्चे और गर्भवती बीवी को जैसे-तैसे दो वक्त की रोटी खिलाना ही उसे कितना भारी पड़ता है, उस पर आये दिन हरज-मरज में भी कुछ-न-कुछ खर्च हो ही जाता है। क्या तो बचे और क्या कमरा बने? गरीब से तो बीमारी को भी बड़ा लगाव होता है, घर छोड़कर जाना ही नहीं चाहती। ऊपर से चौथा भी आने वाला है पता नहीं घर का खर्च कैसे चलेगा?’ यही सब सोचकर अमरावती उससे कोई ज़िद नहीं करती थी। न किसी कपड़े-लत्ते की माँग करती न ईंगुर बिन्दी की।
अँधेरा होते-होते ठाकुरदास वापस लौटा। हमेशा की तरह आज भी वह कुछ उखड़ा-उखड़ा सा है। आते ही खाना लगाने को कहकर नहाने बैठ गया। नहा-धोकर तरोताजा होते ही वह चौकी पर बैठकर खाना खाने लगा। चेहरे पर शान्ति देखकर अमरावती ने हिम्मत करके ठाकुरदास से कहा, “किरितिया के पापा...तुमऊ ने सुनी का...जे सरकार मकान बनवान ताईं पैसा देन की बात कह रई है...लाखन की मेहरूआ संझा लौ आई तौ कहन लागी...” ठाकुर दास ने उसकी तरफ नज़र उठाई और कौर निगलते हुए बोला, “तोय तो मकान की ही परी रैत है...जे नाए कि खानो खान दे चैन से...” ठाकुरदास ने बात काटते हुए कहा। अमरावती चुप हो गयी। उसे इस बात का पूरा भान था कि खाना खाते हुए आदमी से कोई ऐसी बात नहीं करनी चाहिए कि वह खाना खाते से उठ जाए। इसलिए वह मौन साध गयी। खाना हुआ और एक-एक कर बच्चे उस छोटे से आँगन में दरी बिछाकर सोने लगे।
उन्हीं के पास पड़े खटोले पर लेटे हुए ठाकुरदास ने अमरावती से कहा, “का कै रई तू वा वखत...कि सरकार मकान...” अमरावती को मानों मन की मुराद मिल गयी, उसे ऐसा लगा जैसा जेठ के महीने में रात को ठंडी बयार चलने पर लगता है। उसे लगा कि ठाकुरदास का चित्त शान्त है क्योंकि जब उसका चित्त शान्त होता तो वह अमरावती की बोली में ही उससे बात करने लगता। ठाकुरदास के मुँह से प्यार की इस बोली को सुनकर अमरावती को न जाने क्यों विश्वास हो चला था कि जो मकान अब तक उसके सपनों में कई बार बना और बिगड़ा उसकी पहली ईंट उसके हाथ से रखी जाने वाली है। उसने अपनी छाती से चिपककर सो रहे दो साल के विशाल को बहुत आराम से अलग किया और कीर्ति के पास लिटाया। अगले ही पल खटोले पर लेटे ठाकुरदास के हाथ में पैरों के पास आ गयी, “वा लाखन की मेहरूआ संझा को आई, वाई बताए रई कि सरकार मकान बनवान ताईं रुपइय्या दे रई...तुम पतो करिओ कल...होए सकत है कि...” “हूँ...मैं भी जेई सोच रहो हौं...चलौ कल पूछत हौं काऊ से...नाय तो परधान जी के पास जाऊँगो...” ठाकुरदास की बात सुनकर अमरावती की नजरों में लाल लँगोट और ढ़ेरों कलावा बँधा वह पीपल आ गया जिस पर जल चढ़ाने का फल उसे आज मिल रहा है। जो आदमी पक्के कमरे का जिक्र करते ही भाड़ में पड़े मक्के के दाने की तरह उछल पड़ता हो वह मकान की बात कर रहा है। मन ही मन पीपल देवता को प्रणाम किया। आज वह खुद को संसार की सबसे भाग्यशालिनी औरत समझ रही है। उसे लगा भले ही थोड़ा चिड़चिड़ा है लेकिन उसका पति लाखों में एक है। न जाने क्यों इस अँधेरी रात में उसके लिए अपार प्रेम उमड़ पड़ा। अच्छा है कि चाँद भी आकाश में नहीं है जो उसका प्यार देखे। वह झट से बड़े प्यार के ठाकुरदास के पैर दबाने लगी। रात भी गहरा रही थी।
खुशी हो गम सबसे पहले नींद को अपना शिकार बनाते हैं। अमरावती के साथ भी ऐसा ही हुआ। वह रातभर नहीं सो पायी। जब भी पलक झपकती, उसके चारों ओर ईंट और मसाला ढोते मजदूर और दीवारें चुनते मिस्त्री ही घूमते हुए नजर आते। ‘एक-दो-चार-आठ-दस...अरे कितने सारे मिस्त्री...’ और उसकी आँख खुल जाती। एक हल्की मुस्कान उसके साँवले-रूखे चेहरे पर स्निग्धता फैला देती। वह फिर सोने का असफल प्रयास करने लगती। इसी उतावलेपन और बेचैनी में सुबह हो गयी। सुबह और दिनों के मुकाबले कुछ ज्यादा ही उजली थी। ठाकुरदास के जागने और शौच के लिए जंगल में जाने के बाद उसने छोटे से आँगन में झाड़ू-बुहारी करके पतीली में दाल पकने के लिए चढ़ा दी। जब तक ठाकुरदास लौटा दाल-चावल पक चुके थे और रोटी के लिए आटा तैयार था, बस ठाकुरदास के नहाकर आने की देर थी। आज वह एक-एक रोटी उसे खिलाएगी। कितना समय हो गया जब दिन के समय उसने ठाकुरदास को सामने बैठाकर एक-एक रोटी खिलाई थी, वह सोचने लगी, ‘किरितिया पेट में ही तबै जे मुँह अंधेरे खेत पै नाय जात हे, हीनई डोत्त रहत हे’ वह लजा गयी और बड़े प्यार से बोली, “नहाये लेओ तो फुलकिऔ सेंक दें...” फिर कुछ सकुचाकर बोली, “का..परधान जी के...?” “अरे हाँ, याद आए गयो...ला जल्दी खानो खायकर प्रधान जी कै घरै निज्जाऊँ। जानौं तो कि गरीबन के लै मकानन की का योजना है?” अमरावती का मन बल्लियों उछल गया। वह दुगुने उत्साह के साथ काम करने लगी।
ठाकुरदास जब तक नहाकर और कपड़े पहनकर आया उसने थाली में अरहर की दाल-चावल, चटनी और गर्मागर्म मुलायम रोटियाँ लगा दीं। भोजन करते हुए जब वह ठाकुरदास को देखती तो उसे लगता, ‘अच्छे भले तो हैं...बस नसीब साथ नाय दे रओ है वरना कोई कमी नाय है...दसमो तक पढ़ेऊ हैं...जे नाय कि कतई अँगूठा टेक होंए उसकी तरह...” “का देखत है...का भया?” ठाकुरदास ने दाल-चावल मिलाते हुए कहा और हल्का सा मुस्कुरा दिया। “कछु नाय...कितने हार गये तुम...खानो-पीनो ढंग से मिले तो...” अमरावती ने बात बदलते हुए कहा। “अच्छा-अच्छा बस करै...तोए तो हर बखत जेई लगत है कि मैं कछु खात नाय हौं,” पानी पीने के लिए लोटा उठाते हुए ठाकुरदास ने कहा और पानी पीकर डकार मारते हुए उठ गया।
नज़र आसमान की तरफ उठाकर ठाकुरदास ने गर्मी का अन्दाजा लगाया, सिर पर अँगोछा बाँधा और पैरों में चप्पल पहनकर बाहर की ओर चलने को हुआ ही था कि अमरावती संदूक से वह लिफाफा ले आयी, “कल जे सरकारी चिट्ठी आयी...देखिओ तो का है जामे?” ठाकुरदास ने लिफाफा खोल कर देखा उसमें आवास योजना में मकान का आवेदन करने का फार्म था। फार्म देखकर उसके चेहरे पर चमक आ गयी जैसे वह कोरा फार्म नहीं बल्कि मकान बनाने का आदेश हो। वह फार्म लेकर झट प्रधान जी के घर की ओर चल दिया। उधर बच्चों को दाल-चावल देते हुए अमरावती अपनी उत्सुकता रोक नहीं पायी और इतनी ऊँची आवाज़ में बोली कि ठाकुरदास के कानों तक उसके स्वर पहुँच गये, “पूरी बात सही से पतो कल्लियो...जे नाय के बार-बार पूछनों परै।” “हाँ-हाँ, ठीक है...” बखरी से दूर जाते हुए ठाकुरदास ने भी जोर की हामी भरी।
जेठ के महीने की धूप का तीखापन शरीर को झुलसा देता है। अभी सुबह के दस ही बजे होंगे लेकिन लू के थपेड़े लगने लगे थे। प्रधान जी का घर उसके घर से ज्यादा दूर नहीं था लेकिन इस चिलचिलाती गर्मी में एक-एक कदम बढ़ाना भारी पड़ रहा था। गाँव के रास्ते में लगे पाकड़, पीपल और नीम के पेड़ों के नीचे बैठे लोगों को अभिवादन करता और धूप से बचता-बचाता ठाकुरदास लगभग पन्द्रह-बीस मिनट के अन्दर प्रधान जी के दालान में पहुँच गया।
प्रधान जी का आधा घर पक्का और आधा कच्चा है। यह पक्का वाला हिस्सा तो अभी कुछ ही दिन पहले बना है। सुन्दर गुलाबी रंग से पुता दालान और उसके लाल फर्श पर बने बेलबूटे ठाकुरदास को बहुत सुन्दर लग रहे हैं। एक बार को उसके मन में आया, “ऐसोई फरस मैं बनवाऊँगो” और उसका चेहरा खिल उठा। वह अभी सोच ही रहा था कि प्रधान जी अन्दर से निकलते हुए बोले, “अरे, ठाकुरदास...आओ भाई...बहुत दिनों में आए...बैठो” सामने पड़ी प्लास्टिक की कुर्सी पर उसे बैठने का इशारा किया और खुद तख्त पर बैठ गये। लगभग पैंसठ साल के प्रधान जी बातचीत में बहुत भले और सभ्य व्यक्ति हैं। सफेद धोती और सफेद कुर्ता ही उनकी वेशभूषा रही है। किसी और रंग के कपड़े पहने किसी ने उन्हें नहीं देखा। उनका चेहरा भी उनके वस्त्रों की तरह उजला और चमकता रहता है। सिर पर छोटे-छोटे सफेद बाल उनके चेहरे की चमक को बढ़ा देते हैं। उनके चेहरे से ही उनके सम्पन्न और संतुष्ट होने का पता चलता है। उन्हें किसी भी चीज़ की कमी नहीं है। उनके दोनों लड़के खूब पढ़े-लिखे हैं और दिल्ली में रहते हैं। गाँव में उनकी खूब आन-बान और शान है। उनका सदैव प्रसन्नचित्त रहना और लोगों की हर संभव सहायता करते रहना ही उनकी लम्बी प्रधानी का राज है। यह गाँव तो क्या दूर-दूर के गाँवों के लोग भी प्रधान जी के खिलाफ एक शब्द नहीं बोलते। प्रधान जी के मुँह से भी किसी की बुराई कभी नहीं सुनी। किसी काम को न करना तो उन्हें आता ही नहीं। ठाकुरदास कुर्सी पर बैठ गया। “अरे, किशन...जरा पानी लेकर आ...ठाकुरदास आया है,” अन्दर की ओर आवाज लगाते हुए उन्होंने ठाकुरदास से पूछा, “और कहो ठाकुरदास....बाली बच्चे सब ठीक तो है?” “हाँ प्रधान जी! आपकी दया है,” ठाकुरदास ने हाथ जोड़ते हुए कहा। “अरे भाई दया तो ऊपर वाले की होनी चाहिए। मैं तो एक अदना-सा सेवक हूँ। तुम बताओ कैसे आना हुआ?” बीड़ी मुँह में लगाते हुए प्रधान जी ने कहा। किशन अब तक एक जग में पानी और दो गिलास ले आया था। उसने दोनों गिलासों में पानी डालकर ठाकुरदास और प्रधान जी की तरफ बढ़ा दिए। पानी का गिलास हाथ में लेकर ठाकुरदास ने कहा, “प्रधान जी, आप तो जानते ही हैं कि मेरी कोठरी की छत कई साल पहले ढह गयी थी। जैसे तैसे एक कोने में गुजारा कर रहा हूँ। मैने सुना है कि सरकार मकान बनवाने...” ठाकुरदास अपनी बात पूरी नहीं कर पाया था कि प्रधान जी ने बीच में ही टोक दिया, “अरे...हाँ-हाँ...सरकार मकान बनाने का खर्चा दे रही है। तुम भी फार्म भर दो। पर भाई, भागदौड़ करने की हिम्मत अब मेरी नहीं रही। गाँव के सारे काम तो मैं करवा दूँगा लेकिन शहर की भागदौड़ तुम्हें खुद करनी होगी। हो सकता है शहर के चार-छह चक्कर लगाने पड़ें।” “उसके लिए मैं तैयार हूँ। बस मेरा कमरा पक्का हो जाए,” ठाकुरदास ने दयनीय भाव से कहा। “अरे, चिन्ता क्यों करता है? देख जमीन तेरी अपनी है। उसकी तो चिन्ता नहीं, एक कमरा क्या दो कमरों का मकान बन जाएगा। बाकी सब ऊपर वाले की मर्जी, ठहर तुझे फार्म देता हूँ, अभी भर दे।” कहकर प्रधान जी ने अपनी पीछे की अलमारी खोली लेकिन ठाकुरदास ने तुरन्त अपनी जेब से फार्म निकालकर उन्हें देते हुए कहा, “फारम तो कल डाकिया दे गया, देखिओ जेई तो है?” प्रधान जी ने फार्म देखकर कहा, “अरे हाँ, यही है...यह तो अच्छी बात है कि तेरे पास डाक से आ गया...इसे भर ले...फिर किसी दिन शहर चले जाना...वहाँ इसे कम्प्यूटर में भरवाना पड़ेगा। उसके बाद जब इन्क्वायरी करने टीम आएगी तो मैं बैठा ही हूँ। तुझे उसकी फिक्र करने की कोई जरूरत नहीं।” ठाकुरदास ने फार्म भरना शुरू कर दिया। फार्म में ऐसी कुछ जटिलता नहीं थी, वैसे भी दसवीं तक की पढ़ाई ठाकुरदास ने की ही थी उसके बाद उसने पढ़ना तो चाहा लेकिन घर की स्थिति ऐसी नहीं थी कि वह अपनी पढ़ाई आगे बढ़ा पाता। भरे हुए फार्म पर प्रधान जी ने अपने हस्ताक्षर किए, मोहर लगाई और शहर जाकर उसे कम्प्यूटर में भरवाने को कहा। साथ ही उसे बताया कि शहर में विकास भवन के कमरा नंबर दस में चला जाए वहाँ उनका परिचित एक बाबू है—विमल, उससे मिल ले, वह उसका काम आसानी से करवा देगा। सारी बातें भलीभाँति समझकर ठाकुरदास अगले ही दिन शहर चल दिया। अमरावती ने भी सुबह उठकर उसके लिए यह कहते हुए खाना बाँध दिया कि, ‘घर से बैरार जाओ तो अपनी रोटी-पानी साथ लै जानो चइए।’
ऐसा नहीं है कि वह पहली बार शहर जा रहा हो, उससे पहले भी न जाने कितनी बार अपने यार-दोस्तों के साथ वह शहर गया है। कभी कपड़े खरीदने तो कभी सिनेमा देखने। लेकिन तब और अब में बहुत फर्क है। तब वह अकेला था, कुँवारा था बड़े भाई के सहारे था लेकिन अब वह अपनी गृहस्थी के बोझ से इतना झुक गया कि उसे अपने परिवार और आठ बीघे की खेती के अलावा कुछ सूझता ही नहीं। उसे याद आया कि वह लगभग आठ साल पहले शहर गया था जब कीर्ति पैदा होने वाली थी। वह नहीं चाहता था पहले के दोनों बच्चों की तरह यह बच्चा भी पेट में ही...। इस बार उसे शहर जाने में बहुत रोमांच हो रहा था मन में तरह-तरह की बातें आ रही थीं लेकिन उन सारी बातों का केन्द्र केवल दो कमरों का पक्का मकान था जो उसके प्रयासों से पूरा हो सकता था। न जाने क्यों उसका मन एक नये उत्साह से भरा हुआ था। रास्ते में जितने भी पक्के मकान उसे दिखाई पड़ते वह उनका नक्शा, रंग, दीवारें, खिड़कियाँ, दरवाजे सब कुछ देखता हुआ चल रहा था। हर मकान को देखकर वह सोचता कि ऐसा ही रंग, खिड़कियाँ और दरवाजा मैं भी अपने मकान में लगवाऊँगा अगले ही पल वह अपने छोटे से मकान की कल्पना मात्र से रोमांचित हो उठता।
शहर की रौनक उसने पहले भी देखी थी लेकिन पिछले सात-आठ साल में तो शहर बिल्कुल बदल चुका था। जिस अड्डे पर बस रुकी वह अड्डा भी अनचीन्हा लग रहा था। इतनी बड़ी-बड़ी दुकाने बन गयीं, पुल बन गया और सड़क तो इतनी चौड़ी हो गयी कि दस हाथी एक साथ निकल जाएँ...एक बार को उसे लगा कि वह किसी दूसरे शहर में पहुँच गया, लेकिन दूकानों के ऊपर लगे बोर्डों पर ‘बरेली’ नाम देखकर उसे अहसास हुआ कि भले ही उसकी जवानी ढल रही है लेकिन शहर जवान हो गया है। इतनी रौनक, भीड़-भाड़, चहल-पहल उसने पहले कभी नहीं देखी। बस से उतरा ही था कि टैम्पो वालों की आवाजों ने उसे घेर लिया ‘आइए कुतुबखाना, कोहाडापीर, बस अड्डे, सैटेलाइट, रेलवे स्टेशन...आइए-आइए।’ उसने एक टैम्पोवाले से पूछा, “भइया विकास भवन किधर पड़ेगा?” “बैठो-बैठो...विकास भवन की तरफ से ही निकलूँगा...चलो अन्दर बढ़ो...” एक सवारी को अन्दर धकेलते हुए टैम्पो वाले ने उसे बैठाया और चल दिया।
टैम्पो शहर के बीचों-बीच से गुजरता हुआ बढ़ा चला जा रहा था। इतने सालों में शहर कितना बदल गया। जगह-जगह मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री के बड़े-बड़े बोर्ड लगे थे जिन पर लिखा था ‘सबका साथ, सबका विकास’ ठाकुरदास शहर की रौनक के साथ उन बोर्डों को भी आँखें फाड़-फाड़कर देखता चल रहा था। शहर की रौनक और तरक्की देखकर उसे यकीन होने लगा था कि सरकार जिस विकास की बात करती है, वह शायद इसे ही कहते हैं। पिछले सात-आठ सालों में शहर की बदली सूरत को देखकर जहाँ ठाकुरदास खुश हो रहा था वहीं मन के किसी कोने में उसको अपना मकान भी बनता नजर आ रहा था। शहर की चकाचौंध अभी खत्म नहीं हुई थी कि टैम्पो रुक गया और टैम्पो वाला बोला, “लो...उतरो भाई विकास भवन वाले...।” ठाकुरदास ने बाहर की तरफ देखा कि उसकी सवारी एक बड़े से भवन के सामने रुकी हुई है जिस पर पीतल के अक्षरों से ‘विकास भवन’ लिखा है। इतने बड़े भवन को देखकर उसके दिल में एक धक्का-सा लगा। एक पल को उसे लगा कि उसका सारा आत्मविश्वास उड़न छू हो गया। हल्की-सी घबराहट के कारण उसके होंठ सूखने लगे। लेकिन अगले ही पल विमल बाबू का नाम याद आया तो उसे चैन पड़ा। उसे पूरा यकीन था कि विमल बाबू से मिलते ही उसके सारे दुख दूर हो जाएँगे जैसे वह कोई जादूगर हैं, उसे देखते ही उसके सिर पर से छड़ी घुमायी और उसकी किस्मत पलट गयी। चेहरे पर ऐसे मिले जुले भाव लिए वह टैम्पो से बाहर निकला तो उसने महसूस किया कि पैरों में हल्का-सा कम्पन है। उसके साथ एक अन्य आदमी भी उतरा। टैम्पो वाले को पैसे देकर दोनों अन्दर की ओर चले तो ठाकुरदास ने खुद को सँभालते हुए अपने साथ वाले आदमी से पूछा, “यह कमरा नंबर दस किधर पड़ेगा?” “कमरा नंबर दस? क्या तुम भी मकान के लिए आए हो?” उसने प्रतिप्रश्न किया। “हाँ, और तुम?” ठाकुरदास ने पूछा। “अरे भइया, मैं भी इसी चक्कर में मारा-मारा घूम रहा हूँ। कहाँ से आए हो तुम?” उसने कहा। ‘एक से भले दो’ सोचते हुए ठाकुरदास का आत्मविश्वास वापस लौटने लगा था। उसने अपना नाम बताकर बात आगे बढ़ायी, “भइया, हम तो भोजीपुरा तहसील के गोपालपुर गाँव से आए हैं। और आप?” “अरे वाह, भइया ठाकुरदास, हम तो बहेड़ी के सेमीखेड़ा से आ रहे हैं। मोहनदास नाम है हमारो। तुम शायद यहाँ पहली बार आए हो? कागज पूरे हैं?” उस आदमी ने कहा। “हमपै तो जौ एक फार्म है,” कहकर उसने हाथ में पकड़ी प्लास्टिक की थैली से वह फार्म निकालकर मोहन को दिखाते हुए बात आगे बढायी, “प्रधान जी ने किसी विमल बाबू का नाम भी बताया है, और कहा है कि वह सारा काम करवा देंगे।” मोहनदास ने उसे सामने घने पाकड़ के पेड़ के नीचे बने चबूतरे की तरफ ले जाते हुए कहा, “वह तो ठीक है भाई, इस काम को विमल बाबू ही देखते हैं लेकिन भइया ठाकुरदास इतने से काम नहीं चलेगा। इसमें आधार कार्ड, मूल निवास, वारिसान, राशन कार्ड, मेडीकल, बैंक की किताब के साथ और भी कई कागज़ लगेंगे। तब कहीं जाकर बाबू इसे जमा करेगा और फिर चक्कर लगाना शुरू।” मोहनदास ने पैंट की जेब से बीड़ी का बण्डल निकाला और दो बीड़ियाँ सुलगा लीं। एक बीड़ी अपने मुँह में लगाकर दूसरी ठाकुरदास की ओर बढ़ाई। उसकी बातें सुनकर ठाकुरदास का सारा आत्मविश्वास फिर से धुआँ हो गया। एक पल को उसे लगा कि उसके पेट में मरोड़ उठ रही है लेकिन उसने बीड़ी लेकर एक कश खींचा और अपने बुझे हुए चेहरे से मोहनदास की तरफ देखकर बोला, “इत्ते सारे कागज कहाँ से लाऊँ? मुझे तो कुछ पता ही नहीं।” अब तक मोहनदास बीड़ी का गहरा कश खींच चुका था और हल्की-सी खाँसी के साथ धुआँ बाहर निकालते हुए बोला, “सब हो जाएगा, चिन्ता मती न करो। वह देखो, वह सामने जो दूकान है, वहाँ ये सारे कागजात मिलते हैं। बस रुपइया खरच करो और सारे कागज बनवा लो।” “रुपइया? कितने?” ठाकुरदास से अब बीड़ी का कश नहीं खींचा जा रहा था। उसे लग रहा था कि उसका दिल बैठा जा रहा है। उससे सबकुछ सुन्न होता सा लग रहा था, उसके मन के कोने में बनी अपने छोटे से मकान की छवि धुँधली होती लग रही थी। उसे अपना गाँव से आना व्यर्थ लगने लगा। उसके मन की निराशा उसके चेहरे पर साफ झलकने लगी। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? ‘इतने सारे कागज तैयार कैसे होंगे? कहाँ-कहाँ भागना पड़ेगा? किस-किस से मिलना पड़ेगा? कब तक शहर के चक्कर लगाने पड़ेंगे? ऐसे रोज़-रोज़ शहर के चक्कर लगाने में खेती का क्या होगा?’ ऐसी तमाम बातों के साथ जो सबसे बड़ी बात थी उसे सोचकर उसे अपने अन्दर की शक्ति कम होती हुई दिखाई दी और वह बात थी कि ‘इस सबमें कितना खर्चा होगा? उसके लिए पैसा कहाँ से आएगा?’ उलझन बढ़ती देख ठाकुरदास ने अपना सिर पकड़ लिया। मोहनदास उसकी मनःस्थिति समझ रहा था। उसने उसे ढाढस बँधाते हुए कहा, “अरे ठाकुरदास! मैंने कहा ना कि चिन्ता मती करो। चलो उठो। उस दूकान पर चलते हैं और सारे कागज बनवाने का खर्चा पूछते हैं। चलो उठो।” चेहरे और गले पर आए पसीने को अपने अँगोछे से पोछते हुए ठाकुरदास उसके साथ चल दिया।
दूकान सड़क के दूसरी तरफ थी जिस पर बोर्ड लगा था, ‘सुपर फोटोस्टेट और टाइपिंग सेण्टर’ उसके साथ ही नीचे लिखा था—‘यहाँ हर प्रकार के प्रमाण पत्र बनाए जाते हैं।’ उसे पढ़ते हुए एक पल को ठाकुरदास को लगा कि मकड़ी के तार की तरह आशा की बहुत बारीक लकीर खिंच रही है। दोनों दूकान पर पहुँच गये। “भाई मकान के लिए आवेदन करने में जो कागज बनते हैं, वह बनवाने हैं। बन जाएँगे?” मोहनदास ने दूकानदार से पूछा। पिछले दो-तीन महीनों से यहाँ के चक्कर काट-काट कर उसके आत्मविश्वास में गजब की चमक दिखाई दे रही थी जबकि पहली बार आए ठाकुरदास का चेहरा मुरझा चुका था। “बन तो जाएँगे, पर हर कागज का खर्चा अलग-अलग होगा...कौन-कौन से कागज बनवाने हैं?” दूकानदार ने कंप्यूटर के कीबोर्ड पर अँगुलियाँ चलाते हुए पूछा। मोहनदास ने ठाकुरदास का फार्म दूकानदार को देकर कहा, “देख लो...इस फार्म के साथ जो-जो कागज लगें, वो सभी बनेंगे।” दूकानदार ने फार्म लिया। उसके गौर से देखा और कहा, “यह तो पुराना फार्म है...अब यह नहीं चलता...अब ऑनलाइन आवेदन करना होगा।” “आनलैन...मतलब?” ठाकुरदास ने मोहनदास की तरफ देखकर पूछा लेकिन जवाब दूकानदार ने दिया, “मतलब यह कि सामने की बिल्डिंग में कमरा नंबर दस में जाकर पहले विमल बाबू से मिलो...वही ऑनलाइन आवेदन करेंगे तब जाकर कहीं आगे की कार्यवाही होगी। समझे...चलो अब जाओ ग्यारह बज गया है, विमल बाबू आ गये होंगे,” इतना कहकर उसने फार्म उनको दे दिया।
ठाकुरदास को लगने लगा कि हो न हो विमल बाबू निश्चित रूप से कोई करातामाती आदमी हैं जो उसके मकान के सपने को पूरा करने की क्षमता रखते हैं, तभी तो प्रधान जी से लेकर यह दूकानदार तक उनका नाम ले रहा है। पर अगले ही पल उसका मन अज्ञात भय से काँप उठा, ‘अब यह ‘आनलैन’ का क्या चक्कर है? फिर कागज बनवाना उस पर ऊपर से खर्चा...उफ कैसे होगा यह सब?’ ठाकुरदास के मन में उथल-पुथल चल रही थी कि मोहनदास ने कहा, “चलो ठाकुरदास, कमरा नंबर दस में चलें। तुम्हारे बारे में विमल बाबू से भी बात करते हैं। देखो वह क्या कहते हैं? और मुझे भी तो अपने मकान के बारे में पता करना है कि मेरे कागज कहाँ तक पहुँचे?” दोनों दूकान से उतरे और सड़क पार कर विकास भवन के कमरा नंबर दस की ओर चले। “राम-राम बाबूजी” कमरा नंबर दस में घुसते ही सामने बैठे विमल बाबू की तरफ हाथ जोड़कर बढ़ते हुए मोहनदास ने कहा। “अरे मोहनदास! आओ-आओ, यह कौन है?” विमल बाबू ने कंप्यूटर के मानीटर से नजर हटाते हुए सामने देखा और मोहनदास को पहचानते हुए ठाकुरदास की तरफ देखकर कहा। “बाबू जी, यह ठाकुरादास है, भोजीपुरा तहसील के ग्राम गोपालपुर से आया है। मकान के लिए आवेदन करने,” मोहनदास ने ठाकुरदास के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा और उसके फार्म को बाबू की तरफ बढ़ा दिया। “ओह! अच्छा-अच्छा, आओ बैठो ठाकुरदास” फार्म हाथ में लेते हुए बाबू ने ठाकुरदास और मोहनदास को सामने पड़ी कुर्सी पर बैठाते हुए कहा। फार्म को सरसरी दृष्टि से देखा और आगे बोला, “देखो भाई ठाकुरदास! तुम्हारे गाँव के प्रधान जी मेरे पहचान वाले हैं। उन्होंने फार्म पर हस्ताक्षर तो कर दिये हैं लेकिन भाई यह पुराना फार्म है और शायद तुम्हें देर से मिला है। अब मकान के लिए पहले ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन कराना पड़ता है। फिर इन्क्वायरी होगी, जमीन देखी जाएगी, सारे कागज देखे जाएँगे, गाँव में जाकर लोगों से पूछताछ होगी, बैंक का खाता देखा जाएगा और तब कहीं जाकर मकान की बात सोचना, उस पर भी यदि सरकार टिकी रही तो...वरना जै श्रीराम...” कहकर बाबू ऐसे हँसा कि उसका भारी शरीर कुछ पलों के लिए कुर्सी पर उछलता रहा।
“मेरे काम का क्या हुआ, साहब?” बाबू को टोकते हुए मोहनदास ने पूछा। “पता करता हूँ भाई, पहले चाय तो पिलाओ,” कहकर बाबू ने ठाकुरदास की तरह देखा। “हाँ-हाँ क्यों नहीं मँगवा लीजिए चाय,” मोहनदास ने झट से कहा। बाबू ने जो की आवाज़ लगाकर बाहर घूम रहे चाय वाले लड़के को बुलाया, “गोपाssल...जा, छह चाय ले आss” ठाकुरदास की आँखें फट गयीं। वह सोचने लगा, ‘यहाँ तो तीन लोग हैं फिर छह चाय क्यों?’ बाबू ने ठाकुरदास के चेहरे पर आये संशय के भाव को पढ़ लिया और हँसते हुए बोला, “अरे भाई, क्या नाम बताया? हाँ, ठाकुरदास, सरकारी दफ्तरों का यही उसूल है। कमरे भले ही अलग-अलग हों, पर खाना-पीना मिल बाँटकर होता है,” एक आँख दबाते हुए बाबू ने बात जारी रखी, “तीन चाय तो हमारी और एक चाय बड़े बाबू की, एक चाय पड़ोस वाले कमरे में बैठे साहब के टाइपिस्ट और पीए साहब की। समझे?” ठाकुरदास किसी सरकारी दफ्तर में पहली बार आया है। इससे पहले तो उसने केवल अपने सरकारी हाईस्कूल का दफ्तर ही देखा था। बाबू की बात सुनकर वह दफ्तर के तौर-तरीके समझने के लिए अपने दिमागी घोड़े दौड़ा रहा था कि एल्यूमीनियम की ट्रे में सफेद कपों में छह चाय लिए गोपाल कमरे में दाखिल हुआ। एक-एक करके तीन कप तीनों के आगे रखे और बोला, “चाय के पैसे?” बाबू ने ठाकुरदास की तरफ इशारा किया, “ये चाय इन साहब की तरफ से हैं। और हाँ, बड़े बाबू और साहब के कमरे में जाकर कहना कि ये चाय गोपालपुर वाले ठाकुरदास जी की तरफ से है,” कहते हुए उसने गोपाल की ओर देखकर फिर एक आँख दबा दी। यह सुनकर ठाकुरदास का मन खिल गया। कुछ पलों के लिए उसे अपने भाग्य पर गर्व होने लगा और वह झट से अपनी जेब से चाय के पैसे निकालने लगा। गोपाल ने मुस्कुराकर पैसे लिए और कमरे से बाहर निकल गया। चाय की पहली चुस्की लेते ठाकुरदास को लगा कि उसकी गर्दन कुछ तन गयी है।
मोहनदास ने चाय का कप उठाते हुए फिर अपना प्रश्न दोहराया, “बाबू जी, मेरा काम?” “चलो भाई देखता हूँ,” कहकर विमल बाबू ने अपनी अँगुलियाँ कम्पयूटर के कीबोर्ड पर चलना शुरू कर दीं और कुछ ही पलो में बोले, “तुम्हारा फार्म कैंसिल हो गया भाई”, और चाय का कप फिर होंठो से लगा लिया। मोहनदास ने चौंक कर कहा, “कैंसिल हो गया मतलब?” “मतलब यह कि तुम्हारा आवेदन निरस्त हो गया। यह देखो”, कहकर कंप्यूटर का मॉनीटर उसने मोहनदास की तरफ घुमा दिया। मोहनदास ने अपना नाम, पिता का नाम, गाँव, तहसील और प्रधान का नाम देखकर उसके अगले कॉलम में निरस्त लिखा देखा तो उसके चेहरे की आभा धूमिल हो गयी। उसके चेहरे के भाव बदलने लगे और उसने खीझते हुए कहा, “कैंसल क्यों हुआ? क्या कमी रह गयी उसमें?” “अब कमियाँ निकालना अपना काम नहीं है भाई मोहनदास। जो था मैने बता दिया,” विमल बाबू ने बड़ी लापरवाही से कहा। मोहनदास के चेहरे से मुसकान उड़ चुकी थी। उसकी उम्मीद भी कप से उठती गर्म चाय की भाव की तरह उड़ चुकी थी और उसके चेहरे पर गुस्सा बढ़ रहा था। वह एकदम तैश में आ गया और बोला, “विमल बाबू...सच-सच बताइए क्या बात है? क्यों कैंसिल हुआ मेरा फार्म?” विमल बाबू ने देखा कि यह देहाती कहीं उग्र न हो जाए और हाथा-पाई न कर बैठे तो पैंतरा बदलते हुए बड़े प्यार से बोले, “देखो भइया, हम तो ठहरे मामूली बाबू, हम अधिकारियों के दिल की बात क्या जाने? हम तो चाय या पान से ही खुश हो जाते हैं और फाइलें आगे बढ़ा देते हैं, लेकिन ऊपर जो साहब लोग हैं ना, वे बड़े लोग हैं। वे हमारी तरह पान खाकर न तो अपने दाँत खराब करते हैं और न ही चाय पीकर अपना कलेजा फूँकते हैं। हम तो इस बूढ़े पंखे के नीचे बैठकर दिन भर फाइलों में पाँच रूपये वाली कलम घिसते रहते हैं और तुम जैसे लोगों के काम बनाने के लिए मरते-खपते रहते हैं। पर भइया, उन बड़े लोगों को साइन करने के लिए इम्पोर्टेड कलम चाहिए और बैठने के लिए एसी कमरा, बाहर घूमने के लिए एसी गाड़ी। वह हमारी तरह गिलास का पानी भी नहीं पीते, बंद बोतल का पानी पीते हैं और बिना दूध की चाय पीते हैं, वह भी बर्फ डालकर...कुछ समझे? इन सबका खर्चा कहाँ से आता है? कुछ जानकारी है?” विमल बाबू ने दोनों को देखा, दराज में रखी पान की पुड़िया खोलकर पान निकाला और बड़ी नज़ाकत के साथ मुँह में रखते हुए बोले, “इस सबका खर्चा दो जगहों से आता है एक तो सीधा सरकार से और जो उसमें कमी रह जाती है वह पूरा करते हैं आप लोगों के गाँव के प्रधान।” ठाकुरदास का मुँह खुला-का-खुला रह गया उसके मुँह से कोई बोल नहीं फूट रहा था उसके मन में अंतिम शब्द गूंजे ‘गाँव के प्रधान’। मोहनदास के चेहरे निराशा, क्रोध, आवेश, घृणा, खीज सबके मिले जुले भाव थे। उसने उसी भाव से फिर पूछा, “जब काम नहीं होना था तो आप पहले बता देते। आपने ही कहा था कि दस दिन बाद आना तब तक इन्क्वारी हो जाएगी। पर इन्क्वारी के लिए तो कोई आया ही नहीं।” “और न आएगा” बाबू ने बीच में ही टोक दिया। “क्यों?” मोहनदास के चेहरे के भाव बदलते हुए देखकर बाबू ने फिर मीठी वाणी का रस टपकाते हुए कहा, “अरे मेरे भोले मोहन भाई, सीधी-सी बात है कि तुम्हारे गाँव में सरकार की पार्टी के न तो कार्यकर्ता हैं और न ही वोटर तो कोई भी सरकारी आदमी तुम्हारे गाँव जाकर भला क्यों अपना समय खराब करेगा?, सरकारी आदमी तो सरकार के कहने से ही सारे काम करता है, जनता के कहने से नहीं।” मोहनदास को कुछ कहते नहीं बन रहा था लेकिन इस बार ठाकुरदास ने हिचकते हुए पूछा, “तो डाक से फारम भेजना, अखबारों में मकान बनवाने की खबरें देना, मकानों के साथ लोगों के फोटू छापना यह सब क्या है?” ठाकुरदास की बात सुनकर बाबू पुराने अंदाज में हँसकर बोला, “वह इसलिए कि जिस गाँव से सरकार को पिछली बार वोट नहीं मिले इस बार मिल जाएँ...बाकी बातें तुम चाहो तो अपने प्रधान जी से पूछ लेना। तुम्हारी सारी बातों के जवाब उनके पास हैं। अरे भाई, ऐसे ही तो वो तीस साल से प्रधानी कर रहे हैं।” यह सुनकर ठाकुरदास तो जैसे सहम ही गया। उसकी आँखों के आगे प्रधान जी के मकान का पक्का हिस्सा, गुलाबी दीवारें, लाल फर्श एक-एक कर नाचने लगे। धीरे-धीरे उसे सब समझ में आन लगा कि ‘क्यों उसके गाँव में अभी तक एक भी मकान नहीं बना? शायद इसलिए कि उसके गाँव में भी सरकार की पार्टी का कोई आदमी नहीं है या फिर इसलिए कि प्रधान जी...?’ इसके आगे वह कुछ नहीं सोच पाया।
दोनों अपने धूमिल और झुके हुए चेहरे लेकर कुर्सी से उठ खड़े हुए और चुपचाप कमरे से बाहर निकलने के लिए मुड़े ही थे कि बाबू फिर बोला, “वैसे एक अन्दर की बात बताऊँ?” दोनों ने पलटकर बाबू की तरफ प्रश्न भरी दृष्टि से देखा। बाबू अपनी कुर्सी से उठा और उनकी आँखों में आँखें डालकर फुसफुसाते हुए बोला, “तुम दोनों के मकान दो साल पहले ही कागजों में बन चुके हैं इसलिए अब दुबारा आवेदन करने की गलती मत करना वरना सरकार बहुत सख्ती से पेश आएगी...समझे?” अपनी बात कहकर बाबू कुर्सी पर बैठ गया और कंप्यूटर के मानीटर पर आँखें गड़ा लीं। उसकी आखिरी बात सुनकर दोनों ठगे से रह गये और कमरे से बाहर निकल आए। बाहर आकर गहरी साँस छोड़ते हुए मोहनदास ने कहा, “हम तो समझे थे कि सरकार बदल गयी है और अब हम गरीबों की तकदीर भी बदल जाएगी…” कुछ रुककर उसने अपनी बात पूरी की, “...पर सच तो यह है कि सरकारें बदलती रहती हैं लेकिन गरीब आदमी की तकदीर कभी नहीं बदलती। न जाने वह दिन कब आएगा कि हम गरीबों की तकदीर बदलेगी?” उसकी आँखों में आँसू छलक आए थे।
ठाकुरदास ने उसके कंधे पर हाथ रखा और दोनों सड़क पर आकर वापस जाने के लिए टैंपो में बैठ गए। दोनों के सपने टूट चुके थे। सपनों के टूटने की आवाज़ तो नहीं हुई लेकिन उनकी किर्चें दोनों की भावनाओं को बुरी तरह घायल कर चुकी थीं जिसका दर्द वे दोनों महसूस कर रहे थे। न जाने क्यों अब ठाकुरदास को शहर की चहल-पहल और शोर-शराबा बिल्कुल नहीं भा रहा था। उसकी आँखों के आगे अभी तक प्रधान जी के लाल फर्श वाला पक्का मकान घूम रहा था। टैम्पो अभी भी शहर के बीचों बीच से गुजर रहा था लेकिन उल्टी दिशा में।

लवलेश दत्त
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