द्रोपा भाभी Lovelesh Dutt द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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द्रोपा भाभी

“द्रोपा खत्म हो गयी” सुबह आँख खोलते ही माँ ने बताया, “सुबह तीन बजे के करीब खत्म हुई। लोगों की भीड़ लगी है। तुम भी हो आना, मैं तो देख आई।” जब तक मैं बिस्तर से उठता माँ ने मुझसे कह दिया। दैनिक क्रियाओं से निवृत्ति पा, मैं अपने घर से तीसरे घर में जा पहुँचा, जहाँ द्रोपा भाभी चिरनिद्रा में लीन थी। उसके मृत चेहरे को एकटक देखना मुश्किल हो रहा था। दीर्घ कालीन बीमारी, दुख, कुंठा और मानसिक वेदना के थपेड़ों ने उसके चेहरे को इतना कुरूप कर दिया था कि मैंने एक पल देखने के बाद तुरन्त मुँह फेर लिया और अंतिम यात्रा का समय पता कर मैं घर लौट आया।

न जाने क्यों द्रोपा भाभी की मृत्यु से मन में एक शान्ति का अनुभव हो रहा था। ऐसा लग रहा था कि वह भाग्यशाली रही जो कुछ ही समय में इस संसार को छोड़कर चली गयी, वरना ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो जीवित रहने के लिए मृत्यु से भी भयानक दुख झेल रहे हैं। दैनिक क्रियाएँ भी बिस्तर पर करने को मजबूर हैं। परजीवियों की तरह सदैव दूसरों की आस लगाए रहते हैं। ऐसे लोगों की देखभाल करने वाले भी उनका मलमूत्र साफ करते-करते उकता जाते हैं और उनके मरने की कामना करने लगते हैं। द्रोपा भाभी के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ लेकिन उन्होंने बहुत लम्बे समय तक अपनी देखभाल नहीं करवाई। लगभग पन्द्रह बीस दिन पहले तक वह पूरी गली में लँगड़ाते हुए चक्कर काटती दिखाई देती रही थी। लेकिन एक दिन उसने ऐसा बिस्तर पकड़ा कि फिर उसकी मिट्टी ही बिस्तर से उठी।

चौदह साल की द्रोपदी, तीस साल के ओमप्रकाश के साथ इसी घर में बहू बनकर आई थी। नई नवेली साँवली दुल्हन द्रोपदी, खूब गोलमटोल थी। मोटे-मोटे हाथ और गोलगोल गालों वाली द्रोपदी के चेहरे पर बालों की घुँघराली लटें लटकती थीं। उसकी एक झलक देखकर दुबारा उसे गौर से देखने के लिए नजर न उठे ऐसा हो ही नहीं सकता था। यही कारण था जो एक शादी में द्रोपदी के गाँव गई ओमप्रकाश की माता जी का मन उस पक्के रंग वाली द्रोपदी पर आ गया। द्रोपदी के मातापिता होते तो शायद दुगुनी उम्र के लड़के से द्रोपदी का विवाह न होता लेकिन चाचा-चाची ने अपने सिर का बोझ उतारने के लिए बिना कोई ना-नुकुर करते हुए ओमप्रकाश से द्रोपदी का रिश्ता पक्का कर दिया। सुना तो यह भी गया था कि ओमप्रकाश का चाल-चलन ठीक न होने के कारण उसकी शादी नहीं हो रही थी, सो उसकी माता जी ने पाँच-सात चाँदी के सिक्के द्रोपदी की चाची के हाथ में पकड़ा दिए। जहाँ दो वक्त का चूल्हा जलाने के लिए भी न जाने कितने यत्न करने पड़ते थे, वहाँ चाँदी के सिक्कों के वजन से किसका ईमान नहीं डोल जाता। परिणामतः, द्रोपदी ओमप्रकाश की हो गई। पहली ही रात में द्रोपदी को इस बात का अहसास उस समय हो गया जब ओमप्रकाश अपने अर्द्धविक्षिप्त भाई हरिओम को अपने बिस्तर में चिपकाए लेटा था। वह समझ गयी कि ओमप्रकाश की शादी अब तक क्यों नहीं हुई। उसने अपने नसीब को बहुत कोसा लेकिन अब क्या हो सकता था। नसीब भी सबका साथ कहाँ देता है? नसीब को अपने पक्ष में करने के लिए लोग न जाने कितनी तरह की घूस देते हैं लेकिन फिर भी नसीब को मनाना आसान नहीं होता।

द्रोपदी की अगली सुबह का आरंभ उसके नये नामकरण से हुआ जब सास ने उसे ‘द्रोपा’ कहकर पुकारा और देर तक सोने के लिए कोसा। सास की कर्कश आवाज ने किशोरी द्रोपा की गहरी नींद को ऐसी ठोकर लगाई कि उसके बाद उसे वैसी गहरी नींद मृत्यु से पहले शायद कभी नसीब नहीं हुई। नींद से उसका बहुत याराना था। खाया-पिया और बिस्तर पर लोट गयी। चाची भी कई बार उसकी नींद के लिए कोसती थी और अक्सर पानी डालकर या उसकी कमर पर लात जमाकर उसे उठा देती थी। वह अधमुँदी पलकें लिए घर के कामों में लग जाती। सास की आवाज़ सुनकर वह हड़बड़ाकर उठी और कमरे से बाहर निकलते समय ओमप्रकाश की खाट पर नजर दौड़ाकर तुरन्त उधर से नज़र हटा ली क्योंकि ओमप्रकाश और उसका भाई आपत्तिजनक स्थिति में बेसुध पड़े थे। बिस्तर से नीचे पड़ी आधी रजाई उसने ओमप्रकाश के ऊपर डाल दी और कमरे से बाहर निकल आई। सुबह की हल्की-हल्की रोशनी आँगन में लगे पेड़ पर पड़ने लगी थी। पेड़ पर चिड़ियों की चहचहाट से पूरा घर भरा हुआ था और गोबर-मिट्टी से लिपा कच्चा आँगन चिड़ियों के टूटे पंखों, बीट और पत्तों से भरा था। पूरे घर को झाड़ू लगाकर साफ करके नहा धोकर वह बैठी ही थी कि सास ने उसे ओमप्रकाश को उठाने के लिए कहा। वह डरते-सहमते कमरे में गयी लेकिन वहाँ की स्थिति कुछ और थी सो बिना कुछ कहे ही बाहर आकर सास के पास बैठकर सुबकने लगी। सास को समझते देर न लगी। उसने द्रोपा से सिर्फ इतना कहा कि “क्या किया जाए अब तुझे ही ओमी को सुधारना है। मैं तो हार गयी”। यह कहकर सास कमरे में गई और गाली-गलौच करते हुए ओमप्रकाश को बाहर घसीट कर ले आई। आँखें नीची किए ओमप्रकाश अपना अंडरवियर संभालता हुआ सीधे शौचालय में घुस गया। उस दिन के बाद यह दृश्य अक्सर उस घर में दिखाई देने लगा। द्रोपा ने भी अपनी किस्मत से समझौता कर लिया। आखिर लड़ने से उसे मिलता भी क्या? ओमप्रकाश एक दूकान पर काम करने लगा था। द्रोपा का दैनिक कार्य एक-सा था, सुबह उठकर घर की झाड़ू-बुहारी और रसोई। ससुराल वालों का चार समय का खाना दस लोगों के बराबर था, लिहाजा उसे पूरा-पूरा दिन रसोई में ही बीत जाता। समय अपनी गति पकड़कर बीतने लगा।

ओमप्रकाश के मँझले भाई विजय की नौकरी पक्की हो चुकी थी। वह अपनी पत्नी के साथ उसी घर में था लेकिन उसकी रसोई अलग थी। विजय के अब तक तीन लड़कियाँ और एक लड़का हो चुका था। द्रोपा अपनी देवरानी से लगभग दस साल छोटी थी। विजय की बहू पेट से थी। उस दिन सुबह-सुबह सास दाई को बुला लाई। दाई के आने के लगभग दो घंटे बाद घर में किलकारी गूँज उठी। विजय की बहू ने चौथी लड़की को जन्म दिया था। चौथी बेटी सुनकर सास का दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ गया लेकिन अपने कमरे में बैठी द्रोपा नवजात की किलकारी सुन पुलक उठी और देवरानी के कमरे की ओर लपकी कि चौखट पर खड़ी सास ने हाथ पकड़ लिया, “न री...द्रोपा...अभी तो तेरी गोद नहीं भरी है अभी तू लड़की की सूरत मत देख...नई नवेलियों को पहले-पहल लड़के की सूरत देखनी चाहिए जिससे पैलोठी का लड़का हो।” बेचारी द्रोपा मन मसोसकर अपने कमरे में आ गयी, हालाँकि उसका मन बहुत था कि देवरानी से मिले और नन्हीं कली को अपनी गोद में उठाए। चाची के सभी बच्चे उसने गोद में खिलाए थे। पर, सास के हुकुम के आगे वह मजबूर थी। अपने कमरे में आकर उसने सास के वाक्यों पर गौर किया कि "पैलोठी का लड़का हो..." वह सोचकर लजा गई और अपने बच्चे को अपनी गोद में लेने की कल्पना से उसका साँवला चेहरा खिल गया। इतने में ओमप्रकाश भी दूकान से आ गया और 'रोटी दे' कहकर हाथ-मुँह धोने चला गया। वह रसोई में जाकर थाली सजाने लगी। ओमप्रकाश के सामने थाली रखकर उसने कहा, “लल्ली आई है...” “हूँ...पतो है...अम्मा कह रही थी कि तू लल्ला पैदा करना...” आँखें बन्द करे रोटी के बड़े-बड़े रोटी कौर चबाते हुए ओमप्रकाश ने कहा। “क्या है...हठो भी...” कहते हुए द्रोपा शरमा गयी और उसने दो रोटियाँ ओमप्रकाश की थाली में बढ़ा दीं।

घर में नामकरण की तैयारियाँ हो रही थीं। पंडित जी आने वाले थे। घर में चार लोग जुड़ेंगे। नाइन पूरे मुहल्ले में बुलावा लगा आई। सास का मिजाज भी अब सामान्य हो चुका था। लड़की होने को लेकर चार-छह दिन बहुत नाराजगी जताई लेकिन उसके बाद नवजात लाडली को गोद में लिए ही बैठी रहतीं। जलपान से लेकर खाना-पीना, पान-सुपारी सबकी व्यवस्था द्रोपा ने ही की। पंडित जी के पीछे-पीछे गली मुहल्ले औरतें भी आ गयीं। उधर नामकरण के मंत्र शुरू हुए और इधर द्रोपा ने ढोलक बजाकर ऐसा गाना-बजाना किया कि पूरी गली ही नहीं मुहल्ले की औरतें द्रोपा की मुरीद हो गयीं। सास भी फूली नहीं समा रही थी। आज नाचती-गाती द्रोपा सबके मन को मोह रही थी। उसका साँवला रंग भी उसकी कला के आगे फीका पड़ने लगा था। विजय के दोस्त-यार भी दावत में शामिल होने के लिए आए हुए थे। उन्हीं में प्रेमशंकर भी था। बाहर बैठक से उसने घुँघराले बालों वाली द्रोपा को ठुमके लगाते देखा तो उसके मन के सरोवर में भी तरंगें उठने लगीं। ‘एक बार द्रोपा भाभी को और देखूँ’ यह सोचकर प्रेमशंकर अन्दर चला गया और द्रोपा भाभी की दस रूपये से न्योछावर करके नाइन के हाथों में दस का नोट थमा दिया। साथ ही ‘जियो भाभी जियो क्या नाचती हो...दिल ही ले बैठीं मेरी भाभी’ कहता हुआ वह बैठक में वापस आ गया। यह घटना सबकी नज़रों में सामान्य देवर-भाभी की चुहलबाजी थी लेकिन प्रेमशंकर और द्रोपा के लिए यह सामान्य घटना नहीं थी।

उस दिन के बाद अक्सर प्रेमशंकर घर आने लगा और द्रोपा से बातें भी करने लगा। सास अब लाडली को गोद में उठाए पूरे मुहल्ले में घूमती फिरतीं। देवरानी भी घर का काम करने लगी थी। सो, द्रोपा को जेठानी बनने का सुख मिल रहा था। वह अक्सर अपने कमरे में खाली रहती। ओमप्रकाश को खाना खिलाया और फिर अपने कमरे में आ बैठती। ऐसे में उसे प्रेमशंकर से बात करने का अवसर भी मिलने लगा। प्रेमशंकर पाँच-दस मिनट विजय की बैठक में बैठकर सीधे अन्दर आ जाता और द्रोपा भाभी के कमरे में घुस जाता। पति के प्यार से वंचित द्रोपा, प्रेमशंकर की ओर आकर्षित हो गयी। दोनों में क्या बातें होतीं? इस बात का किसी को कुछ पता नहीं। हाँ, इतना अवश्य था कि ओमप्रकाश जब प्रेमशंकर को अपने कमरे में देखता तो खुद ही बाहर चला जाता। द्रोपा और प्रेमशंकर के सम्बन्ध के बारे में पूरी गली और फिर पूरे मुहल्ले में तरह-तरह की बातें उड़ने लगीं। लेकिन घर में प्रेमशंकर के आने और द्रोपा के कमरे में घंटों बैठने पर किसी को कोई आपत्ति नहीं हुई और यह सिलसिला सालों चलता रहा।

कुछ साल बाद विजय की बहू के पैर फिर भारी हुए। यह खबर लगते ही द्रोपा के तन-बदन में आग लग गयी। एक वह है जिसकी शादी के सात साल हो चुके थे, बच्चा होना तो दूर उसका पति आज तक उसके साथ एक बिस्तर पर भी नहीं सोया था और दूसरी विजय की बहू है जो छठी बार फिर पेट से है। मन की कलुषता धीरे-धीरे उसकी वाणी में आने लगी थी। विजय की बहू का बढ़ता पेट देखकर उसकी आँखों में चिंगारियाँ छूटने लगतीं और उसके सामने पड़ते ही वह झट अपने कमरे में घुस जाती।

इस बार जब दाई आई तो वह कमरे में ही पड़ी रही। बच्चे की किलकारी ने इस बार उसके शरीर में लाखों शूल चुभो दिए। सास ने थाली बजाई और लड्डू गोपाल के आने सूचना दी। इस खबर ने मानों द्रोपा के कानों में पिघला सीसा उड़ेल दिया हो। सास ने कमरे के बाहर से ही द्रोपा को आवाज़ लगाई, “अरी ओ द्रोपा...विजय के लल्ला को गोद में ले ले...हो सकता है इस साल तेरे भी बच्चा हो जाए...लल्ला न सही लल्ली ही सही...कुछ तो पैदा कर...क्या निरबंसिया ही रहेगी?” यह सुनकर ईर्ष्या और कुंठा की मारी द्रोपा को सैकड़ों साँप डसने लगे। वह अत्यन्त आवेश में आ गयी। उसे सास और ओमप्रकाश पर बहुत गुस्सा आ रहा था। वह बिजली की तरह लपक कर आँगन में आ गयी और सास पर चीख पड़ी, “मैं निरबंसिया रहूँगी...शरम नहीं आती अम्मा जी यह बात कहते हुए? अरे अपने लौंडे को देखो, जिसे हाथ रखने की तमीज नहीं, वह क्या बच्चा पैदा करेगा? उसे कुछ आता ही नहीं। अरे वह तो...” इसके बाद उसने जो कहा वह सबने सुना। सुनकर अपने कानों को अपनी हथेली से ढँक लिया और कुछ दिन बाद भूल भी गये लेकिन सास को ऐसी ठेस लगी कि शाम तक खाट पकड़ ली।

इस बार नामकरण खूब जोर-शोर से हुआ। होता भी क्यों न दूसरा लड़का जो हुआ था। गाना-बजाना भी हुआ। द्रोपा नाची-गायी भी लेकिन अब उसके नाचने में वह लचक और गाने में वह कसक नहीं थी। सब खुश थे लेकिन सास और द्रोपा के मन खट्टे हो चुके थे। दोनों ने लोक-लाज के लिए पूरे कार्यक्रम में हिस्सा तो लिया लेकिन भारी मन से। केवल लोगों को दिखाने के लिए। मेहमान जाते-न-जाते द्रोपा अपने कमरे में घुस गयी। रातभर रोती रही और अपने नसीब को कोसती रही।

कुछ दिनों के बाद विजय अपने परिवार को लेकर हरिद्वार जाने की तैयारी करे लगा। छोटी बेटी के साथ बेटे का मुंडन भी हो जाएगा। इस आशा से माँ को भी साथ ले गया। द्रोपा घर में ही रुकी। ओमप्रकाश के दूकान जाने के बाद वह कमरे में बैठी ही थी कि प्रेमशंकर आ गया। प्रेमशंकर से अपने मन की सारी वेदना कहते-कहते वह फूट पड़ी और खूब रोई...इतना रोई की प्रेमशंकर उसे अपनी बाहों में भरने को मजबूर हो गया। उसने उसे मुश्किल से चुप कराया और समझाया लेकिन दोनों के शरीरों की गर्मी आग में बदल चुकी थी और उस आग को शान्त किया जाना अनिवार्य हो चला था। उसके बाद प्रेमशंकर तब तक प्रतिदिन आता रहा जब तक परिवार के सारे लोग वापस नहीं आ गये।

उस दिन सुबह द्रोपा उठी ही थी कि उल्टी और चक्कर के मारे उसका बुरा हाल हो रहा था। सास ने उल्टी की आवाज़ सुनी तो एक पल को दौड़ी खुशी की लहर शंका में बदल गयी। सास के माथे पर आईं सिलवटें द्रोपा के चरित्र की सिलवटों को पहचान गई क्योंकि वह ओमप्रकाश की पौरुषहीनता से परिचित थी। लेकिन बदनामी के भय और परिवार में खुशी की लहर के कारण वह चुप्पी साथ गयी और यह राज़ उसके चेहरे की झुर्रियों में कहीं खो गया। उल्टी की आवाज़ पर देवरानी ने झट आकर द्रोपा को गले से लगा लिया। द्रोपा भी खुशी के मारे फूली नहीं समा रही थी। समय का पहिया घूमता रहा और वह दिन आ गया जब द्रोपा की गोद में भी नन्हीं कली आ चुकी थी। ओमप्रकाश को लोग बाप बनने की बधाई दे रहे थे। दावत में शामिल होने आया प्रेमशंकर आज सास को बहुत खटक रहा था लेकिन वह कर भी क्या सकती थी। उसकी किसी भी चिढ़ या ईर्ष्या से बड़ी बहू की गोद हरी होने की खुशी कहीं ज्यादा थी।

अब द्रोपा की सारी चिन्ताएँ मिट चुकी थीं। वह अपनी बच्ची के चेहरे को देख-देख इठलाती थी। उस नवजात के भावी जीवन लिए-लिए हजारों सपने सजाती थी और रह-रहकर उसके गाल और माथा चूमती। उस दिन अपनी लाड़ली को नहला-धुलाकर अपने बगल में लिटाए लोरी गुनगुनाते-गुनगुनाते उसे नींद आ गई और वह भी ऐसी जो बचपन में आया करती थी। नींद में उसे पता ही नहीं चला कि कब उसका गोलमटोल और माँसल हाथ उस दुधमुँही के मुँह और नाक पर आ गया और दमघुटने से नवजात कन्या सारे सपने बटोर कर छू हो गयी। जब द्रोपा उठी तो कलेजे के हजारों-लाखों टुकड़े हो गए। उससे रोया भी नहीं जा रहा था। बार-बार अपना माथा दीवार से मारती, अपने आपको कोसती और बाल नोचती रही लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ जिसके जन्म पर जश्न मनाये थे अब उसी नवजात के मातम की पीड़ा भला कैसे सही जाती? इधर उस नवजात की मिट्टी उठी और उधर सास ने भी आँख मूँद ली।

समय के तीव्र प्रवाह में द्रोपा के शरीर का माँस ही नहीं सूख गया बल्कि उसके चेहरे का आकर्षण भी जाता रहा। उसका साँवला स्निग्ध चेहरा रूखा हो चला था। बालों की लटें भी अब पहले जैसी नहीं रहीं। लटें तो थीं लेकिन दुख और पीड़ा के दो पाटों के बीच में आकर वे अब घुँघराली नहीं रहीं थीं, सीधी और रूखी हो चुकी थीं। उसकी वाणी कर्कश हो गयी थी। विजय की बच्चों को ही नहीं गली-मुहल्ले के बच्चों को भी हर समय डाँटती और फटकारती रहती थी। इतनी गहरी वेदना ने उसे निर्मोही बना दिया था। ऊपर से अब प्रेमशंकर ने भी आना बन्द कर दिया था। इन्हीं दिनों विजय की बड़ी लड़की का विवाह तय हो गया। वह विवाह की तैयारियों को घूरकर और ईर्ष्यालु दृष्टि से देखते हुए वह उन सबमें बेमन से शामिल हो रही थी। विजय के दूर का रिश्तेदार फत्तू शहर में रहने आया हुआ था। शादी वाले घर में पचास काम होते हैं। उन्हें निपटाने के लिए जितने हाथ हों उतने कम, इसलिए फत्तू शादी में हाथ बँटाने के बहाने कुछ दिनों के लिए विजय के घर आकर ठहर गया। यूँ तो दिनभर काम में निकल जाता लेकिन रात में भोजन के बाद जब आँगन में औरतों की मजलिस लगती तो फत्तू उनके बीच बैठी द्रोपा से छेड़खानी करता रहता। पहले-पहल तो द्रोपा को उससे चिढ़ हुई लेकिन धीरे-धीरे फत्तू की छेड़खानी द्रोपा के शुष्क चेहरे पर मुस्कान बिखरने लगी।

शादी वाले दिन पहले तो द्रोपा ने बड़ी सादी-सी साड़ी पहनी लेकिन जब फत्तू ने उसे टोका और कहा कि वह हरी वाली साड़ी में ज्यादा अच्छी लगती है तो पहले तो दिखावे के लिए उसने एक-दो बार मना किया लेकिन जब मेहमान इकट्ठा हुए तो उसने हरी साड़ी पहन ही ली। फत्तू ने उसे देखते ही चुटकी ली, “वाह भाभी...इस साड़ी में तो कातिल लग रही हो...” “घत्” कहकर उसने फत्तू की बाँह में नोच लिया। उसका नोचना था कि दोनों के शरीर तरंगित हो उठे। द्रोपा के शुष्क मन की बंजर धरती एकबार फिर उर्वर हो उठी। शादी, एकदूसरे को कनखियों से देखते, चुहल व छेड़खानी करते निपट गयी और उसके साथ ही निपट गयी द्रोपा की जिन्दगी की उदासी। अब उसे फत्तू का साथ मिल चुका था।

फत्तू तो उसी घर में रहता था। दिनभर यहाँ-वहाँ आवारगर्दी करता घूमता और मौका पाकर द्रोपा के कमरे में घुस जाता। एक दिन फत्तू एक बड़ा-सा डिब्बा लिए घर में प्रविष्ट हुआ कि बच्चे खुशी के मारे चिल्ला पड़े—“फत्तू चाचा टीवी ले आए”। उस दिन से घर में आए दिन वीसीआर चलता और रात-रात भर फिल्में देखी जातीं। पूरा घर जब घुप्प अंधकार में बैठा फिल्में देख रहा होता फत्तू और द्रोपा की अलग कहानी चल रही होती। एकदिन अचानक पता चला कि फत्तू कहीं बाहर चला गया। बहुत दिन बीतने के बाद भी जब फत्तू नहीं लौटा तो द्रोपा की बेचैनी बढ़ने लगी। उसके चेहरे पर चिन्ता की रेखाएँ और झुर्रियाँ अब साफ दिखाई देने लगीं थीं। उसके चेहरे और शरीर से लगने लगा था कि कोई ऐसा गम है जो उसे अन्दर ही अन्दर खाए जा रहा है। उसका पति ओमप्रकाश तो किसी दीन का नहीं बचा था केवल खाना, सोना और पान चबाना ही उसका काम रह गया था। उसे द्रोपा के सुख-दुख से पहले ही कोई मतलब नहीं था अब तो शरीर भी क्षीण हो चला था। दिनभर दुकान पर खपने के बाद रात में खाना खाकर दुनिया से बेखबर होकर सो जाता। द्रोपा अपना दर्द कहे भी तो किससे?

एक दिन द्रोपा सुबह नहीं उठी तो विजय की पत्नी रामवती उसके कमरे में गयी। देखा द्रोपा का शरीर बुखार से तप रहा है और वह ऊल-जलूल कुछ बड़बड़ा रही है। रामवती और उसके बच्चों ने उसकी खूब सेवा की जिससे वह रामवती और उसके बच्चों के प्रति स्नेह से भर उठी और उनके प्रति जो ईर्ष्या उसके मन में थी, बुखार के उतरते-उतरते वह भी खत्म हो गयी। इसी बीच उसने रामवती को बताया कि 'उसने थोड़े-थोड़े करके कुछ पैसे इकट्ठे किए थे जो उसने फत्तू को दिये थे कि वह अपनी कम्पनी में रूपये जमा करके उन्हें दुगुना करके वापस करेगा। उसने यह भी बताया था कि रूपये जमा करने वाले हर आदमी को कम्पनी ईनाम में एक टीवी दे रही है। जब वह टीवी लाया तो उसे लगा कि फत्तू सच बोल रह है। उसने कुछ और पैसे फत्तू को दिए लेकिन उन्हें लेने के बाद वह वापस नहीं लौटा', इतना कहकर द्रोपा फूट-फूटकर रोने लगी। रामवती के प्रेम और आत्मीयता ने द्रोपा के घावों पर मरहम का काम किया और वह कुछ ही समय में ठीक हो गयी।

अब द्रोपा अपने देवर के बच्चों के साथ हँसी-खुशी से रहने लगी थी। बच्चे भी दौड़-दौड़कर उसका काम करते। लेकिन उसके नसीब में खुशियाँ बहुत समय तक नहीं रहीं एक दिन दुकान से ओमप्रकाश नहीं आए बल्कि उनका मृत शरीर आया। जिसे देखकर द्रोपा की हालत खराब हो गयी। कपड़े सुखाने छत पर गयी द्रोपा छत से जल्दी-जल्दी उतरते समय सीढ़ियों से गिर गयी। इधर ओमप्रकाश की लाश धरती पर पड़ी थी और वह बिस्तर पर। ओमप्रकाश का क्रियाकर्म और द्रोपा का इलाज सब कुछ विजय और रामवती ने किया लेकिन इलाज में न जाने कौन-सी चूक हो गयी कि उसके पैर की हड्डी ठीक से न जुड़ सकी और हमेशा के लिए लँगड़ाकर चलने लगी।

बाहर के शोर से मैं द्रोपा भाभी के जीवन से बाहर आया। देखा द्रोपा भाभी की अन्तिम यात्रा आरंभ हो रही थी। जब उनका शव मेरे घर के सामने से गुजरा तो उन्हें अन्तिम प्रणाम कर मैं उनकी अंतिम यात्रा में शामिल हो गया।


लवलेश दत्त

9412345679