कहानी - रांग नम्बर Lovelesh Dutt द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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कहानी - रांग नम्बर

“हैलो...हैलो...अंकित बेटा...हम पहुँचने वाले हैं...ट्रेन आउटर पर खड़ी है।”

“अच्छा पापा, मैं भी निकलता हूँ ऑफिस से, बस दस मिनट में स्टेशन पहुँच जाऊँगा। आप वेटिंग रूम में बैठ जाइएगा” कहकर अंकित ने फोन काट दिया।

उधर ट्रेन में बैठे राजेन्द्र जी और उनकी पत्नी उर्मिला ने भी बड़े उत्साह से अपना बैग-अटैची सँभाल ली क्योंकि दिल्ली का स्टेशन आने वाला ही था। गाड़ी भी रेंगने लगी थी।

उर्मिला ने बहुत गद्गद् होते हुए कहा, “पता ही नहीं चला कि पाँच साल कैसे बीत गये? लड्डू भी तो अब बोलने लगा है।”

राजेन्द्र जी भी मुस्कुराकर बोले, “हाँ...अगर उसने फोन पर नहीं कहा होता कि ‘दादा दी तब आओदे’ ...तो मैं आता नहीं। पाँच साल में एकबार भी नहीं बुलाया अंकित और सलोनी ने।”

“ओफ्फो! आप तो हर समय झुँझलाते ही रहते हैं। अरे बच्चे अपने काम में बिजी थे कि हमारी देखभाल करते। दोनों को ऑफिस जाना होता है। खाली घर में क्या करते हम? ठीक है, अब बुला लिया ना?” उर्मिला ने समझाते हुए कहा, “अच्छा सुनिए, उनके फंक्शन में कुछ भी हो ज्यादा टेंशन मत करना...दिल्ली का सिस्टम अलग है।”

“हाँ-हाँ जानता हूँ...चलो प्लेटफार्म आ गया” राजेन्द्र जी ने कहा और अपनी अटैची ट्रेन के डिब्बे की गैलरी में घसीटते हुए गेट की ओर चल दिए। पीछे-पीछे बैग और पानी की बोतल सँभाले उर्मिला भी चल रही थी।

पाँच साल पहले अंकित और सलोनी ने दिल्ली में ही गुपचुप शादी कर ली थी। राजेन्द्र जी और उर्मिला को जब पता लगा तो वे बहुत नाराज़ हुए। अब पाँच साल बाद जब उनका बेटा लड्डू दो साल का हो गया तो उसके जन्मदिन पर एक ग्रांड पार्टी का आयोजन दिल्ली के एक बड़े होटल में किया जा रहा है। बहुत मनाया, कई-कई बार दोनों ने सॉरी बोला तब कहीं जाकर राजेन्द्र जी और उर्मिला ने पार्टी में दिल्ली आने का मन बनाया लेकिन पक्का निर्णय उस समय लिया जब दो साल के नन्हें लड्डू ने अपनी तोतली जबान में दादा-दादी को इन्वॉइट किया और सारे गिले-शिकवे भुलाकर दोनों ने रिज़र्वेशन करवा लिया।

राजेन्द्र जी ने उर्मिला को हाथ पकड़कर प्लेटफार्म पर उतारा और अंकित को फोन करने लगे, “बेटा, हम प्लेटफार्म पर आ चुके हैं...तुम कितनी देर में आ पहुँच रहे हो?”

“ओह पापा, बस आधा घंटा लगेगा। आप वेटिंग रूम में बैठिए। चाय-वाय पीजिए मैं ऑफिस से निकलता हूँ” अंकित ने उत्तर दिया।

“तुम अभी तक ऑफिस से निकले ही नहीं हो...तुम तो कह रहे थे कि दस मिनट में...” राजेन्द्र जी को झुँझलाहट आ रही थी।

“अरे पापा! एक इम्पार्टेंट फाइल साइन करनी थी, बस निकल ही रहा हूँ बीस-पच्चीस मिनट में” कहकर अंकित ने फोन काट दिया।

राजेन्द्र जी बड़बड़ाते हुए वेटिंग रूम की ओर चलने लगे, “अभी तक जनाब ऑफिस से निकले ही नहीं हैं...अभी आधा घंटा लगेगा...पहुँचेंगे करीब एक-डेढ़ घंटे में...ऑफिस यहाँ रखा है...हद है।”

“ओफ्फो, अब क्यों बड़बड़ा रहे हो? आ जाएगा। काम कर रहा है घूम तो नहीं रहा” उर्मिला ने कहा।

“तुम्हारी इसी आदत से मुझे चिढ़ है। हमेशा अंकित का पक्ष लेती हो। अरे! जब उसे मालूम था कि हम आज आ रहे हैं तो क्या गाड़ी नहीं भेज सकता था स्टेशन? और फिर जब पार्टी आज है तो एक दिन की छुट्टी भी ली जा सकती थी” राजेन्द्र जी बोले।

“छुट्टी की क्या ज़रूरत है? पार्टी होटल में है। सबकुछ तैयार करना तो होटल का काम है। हमें क्या हम तो पैसा लेकर पहुँच जाएँ बस” उर्मिला जी ने शान्ति से पुल पर चढ़ते हुए कहा।

“बस...माँ-बाप, रिश्तेदार सबको चूल्हे में झोंको और...” राजेन्द्र जी झुँझलाने लगे।

“अच्छा बस करो...किधर जाना है?” उर्मिला जी ने बात काटी।

“इधर चलो, प्लेटफार्म एक इधर है...वेटिंग रूम भी इधर ही है” राजेन्द्र जी सूटकेस घसीटते हुए बढ़ने लगे।

वेटिंग रूम में आकर हाथ-मुँह धोकर दोनों ने एक-एक कप चाय पी। लगभग आधा घंटा बीतने के बाद राजेन्द्र जी ने फिर अंकित को फोन किया, “हैलो...कहाँ हो?”

“बस पापा...अभी पहुँचा। ऑफिस से निकल चुका हूँ...ज़रा होटल में कुछ एडवांस देकर स्टेशन पहुँच रहा हूँ” अंकित का जवाब था।

फोन अपनी जेब में रखते हुए राजेन्द्र जी को खामोश देखकर उर्मिला ने कहा, “क्या हुआ?”

“अभी होटल जा रहा है...एडवांस देने। उसके बाद यहाँ आएगा” राजेन्द्र जी ने बिस्किट मुँह में डालते हुए कहा।

“चलो ठीक है। आ जाएगा। वैसै अभी साढ़े ग्यारह ही तो हुआ है...पूरा दिन पड़ा है। पार्टी तो शाम सात बजे से है” उर्मिला ने कहा।

लगभग एक बज चुका था। दोनों बैठे-बैठे ऊँघने लगे थे कि राजेन्द्र जी ने फिर अंकित को फोन किया। बहुत देर तक घंटी बजती रही और कोई उत्तर न मिला। दो-तीन बार फोन करने पर भी जब कोई उत्तर नहीं मिला तो राजेन्द्र जी झल्लाते हुए बोले, “अब फोन ही नहीं उठ रहा है।”

उर्मिला ने राजेन्द्र जी को समझाया, “क्यों गुस्सा कर रहे हैं? ट्रेफिक में फँसा होगा। गाड़ी चलाए कि फोन उठाए।”

“आधे घंटे में आ रहा हूँ बोला था और डेढ़ घंटा हो चुका है। क्या तरीका है?” राजेन्द्र जी के चेहरे पर अभी भी गुस्से के भाव थे।

“दिल्ली का ट्रेफिक मालूम है...खामख्वाह नाराज़ हो रहे हैं आप। आ जाएगा” उर्मिला ने कहा ही था कि फोन की घंटी बज उठी। राजेन्द्र जी ने झट से फोन उठाया, “हैलो...हाँ...कहाँ हो?”

अंकित ने उत्तर दिया, “अरे पापा, सारी...मैं जाम में फँसा हूँ...पता नहीं कितनी देर लगेगी...मैं सलोनी को फोन करता हूँ वह आपको लेने आ जाएगी...उसका ऑफिस स्टेशन के पास ही है।”

“जब उसका ऑफिस पास है तो पहले नहीं कर सकता था...ठीक है करो...हम भी बैठे-बैठे थक गये हैं” राजेन्द्र जी ने कहा और फिर उर्मिला जी के पास आकर बेंच पर बैठ गये।

प्रतीक्षा करते-करते एक घंटा और बीत गया। लगभग दो बज चुके थे, भूख भी लगने लगी थी और धैर्य भी साथ छोड़ रहा था। झुँझलाते हुए राजेन्द्र जी ने कहा, “क्या तमाशा लगा रखा है? ऑफिस पास है तो अभी तक नहीं आ पाई देवी जी...अच्छा बेवकूफ़ बनाया...ये बड़े शहर वाले भी...अरे हमें पता भी नहीं बताया वरना हम खुद ही पहुँच जाते।”

“आप बहुत जल्दी नाराज़ हो जाते हैं। अपना काम एकदम छोड़कर कोई कैसे आ सकता है? आ जाएगी, वैसे भी पहली बार उसे देखेंगे। अब तक तो केवल फोटो में ही तो देखा है। अच्छा, अब कुछ खा लीजिए,” कहते हुए उर्मिला ने पूड़ी-आलू और अचार डिस्पोज़ेबल प्लेट में लगाया और प्लेट राजेन्द्र जी के सामने बढ़ा दी। भूख ज़ोरों की लग रही थी, अतः सबकुछ भूलकर राजेन्द्र जी ने पूड़ी-आलू खाए, पानी पिया और एक-एक चाय का आर्डर देकर फिर इन्तज़ार करने लगे।

पौने तीन बज चुके थे पर अभी तक कोई भी नहीं आया था। राजेन्द्र जी ने फिर फोन किया तो अंकित ने कहा, “अरे पापा! मैं तो समझ रहा था कि सलोनी आपको ले आयी होगी। मैं तो बड़ी मुश्किल से जाम से निकलकर घर की तरफ जा रहा हूँ। मैं अभी सलोनी से बात करता हूँ।” फोन कट गया। राजेन्द्र जी एकदम शान्त होकर बैठ गये, उर्मिला बेंच पर पैर पसार चुकी थी। लगभग बीस मिनट बाद फिर अंकित का फोन आया, “हैलो पापा जी...सलोनी पहुँच रही है अभी, आप इन्क्वायरी ऑफिस पर पहुँच जाइए।” राजेन्द्र जी ने झटपट उर्मिला को उठाया और अपनी अटैची, बैग आदि सँभालते हुए इन्क्वायरी ऑफिस पर पहुँच गये। लगभग आधा घंटा तक खड़े-खड़े थकने के बाद पास ही पड़ी बेंच पर बैठ गये और घड़ी देखते हुए बोले, “लो, साढ़े तीन बज गया और अभी तक हमारी सुध नहीं आई इन लोगों को। तुम्हें क्या हुआ? आर यू ओके?” उर्मिला जी के चेहरे की ओर देखकर राजेन्द्र जी बोले।

“पता नहीं क्यों एकदम से पेट और सिर में दर्द होने लगा”, उर्मिला ने दर्द के कारण मुँह बिगाड़ते हुए कहा।

“अच्छा चलो, वेटिंग रूम में चलो वहीं लेट जाना। जब सलोनी आयेगी तो यहीं बुला लूँगा। अरे! उसका नम्बर तो पूछा ही नहीं अंकित से,” राजेन्द्र जी ने कहा और दोनों वेटिंग रूम लौट आए।

उर्मिला को बेंच पर लिटाना चाहा लेकिन तब तक अन्य यात्री आकर बैठ चुके थे। अतः केवल बैठने का ही स्थान शेष था जिसपर उर्मिला बैठ गयी। राजेन्द्र जी ने सलोनी का फोन नम्बर पूछने के लिए अंकित को कई बार फोन लगाया लेकिन फोन नॉट रीचेबल बताता रहा। थककर वह भी एक कोने में बैठ गये। शाम के साढ़े चार बज चुके थे। उर्मिला के चेहरे से पता लग रहा था कि उनकी तकलीफ़ बढ़ रही है। अब राजेन्द्र जी परेशान हो रहे थे। एकबार फिर अंकित को फोन मिलाया, “हैलो, बेटा तुम्हारी माँ की तबियत खराब हो रही है...जल्दी आओ।”

“आप कौन बोल रहे हैं?” एक नारी स्वर ने फोन पर प्रश्न पूछा।

“बेटा मैं अंकित का पापा बोल रहा हूँ...तुम सलोनी हो ना?”

“यस मैं सलोनी बोल रही हूँ...पर मैं आपको नहीं जानती और यह अंकित कौन है? सारी रांग नम्बर।” फोन कट गया।

राजेन्द्र जी हैरान व परेशान थे, ‘अभी थोड़ी देर पहले तक तो अंकित के नम्बर पर उससे बात हो रही थी, अब अचानक यह रांग नम्बर कैसे हो गया?’ उनके चेहरे पर उदासी और परेशानी के भाव साफ झलक रहे थे। उर्मिला भी अब तक कराहने की स्थिति में आ चुकी थी। उन्हें धर्य बँधाकर कुछ दवाइयाँ लेने वह स्टेशन के बाहर निकल आए। यहाँ-वहाँ देखा कोई मेडिकल स्टोर नज़र नहीं आया। आने-जाने वालों से पूछते हुए थोड़ी दूरी पर एक मेडिकल तक पहुँचे लेकिन उसने ऐसे कोई भी दवा देने से मना कर दिया और पहले डॉक्टर को दिखाने की सलाह दी।

राजेन्द्र जी दुखी हो रहे थे। इधर-उधर देखकर सड़क पार करके स्टेशन की ओर बढ़ गए और जेब से फोन निकाल कर फिर से अंकित को फोन किया, “हैलो...अंकित बेटा...तुम्हारी माँ की तबियत बिगड़ रही है...तुम कहाँ हो...” उनकी बात पूरी भी नहीं हो पाई थी कि “सारी रांग नम्बर” सुनकर वह चुप हो गए। रुआँसा चेहरा लिए वे स्टेशन पर वेटिंग रूम में लौट आए। उर्मिला अभी तक कराह रही थी। राजेन्द्र जी को देखकर पूछने लगी, “कितनी देर में आएगा अंकित?” राजेन्द्र जी ने कुछ नहीं कहा, बस प्रश्न किया, “बहुत दर्द है?” ‘हाँ’ में सिर हिलाने के बाद उर्मिला ने फिर पूछा, “कितनी देर...?” “चलो बाहर किसी डॉक्टर को दिखा दूँ। पता नहीं क्या हो गया अचानक?” उर्मिला की बात काटते हुए राजेन्द्र जी उन्हें उठाने लगे।

“अरे, अंकित कब आएगा...आप कहाँ परेशान हो रहे हैं? अंकित को आने दीजिए, वही दिखा देगा” उर्मिला ने कहा।

राजेन्द्र जी ने उर्मिला से बिना नज़रे मिलाए कहा, “पता नहीं कब आयेगा...और तुम कब तक दर्द सहती रहोगी...चलो बाहर चलो...कोई-न-कोई डॉक्टर मिल ही जाएगा।”

उर्मिला चलने को खड़ी हुई पर लड़खड़ाकर फिर बैठ गयी, “नहीं चला जा रहा है, लगता है पैरों में जान ही नहीं रही।”

“अरे हिम्मत तो करो...आओ मैं पकड़ लेता हूँ” राजेन्द्र जी ने कहा।

“नहीं...रहने दो। मुझे लिटा दो बस...” उर्मिला ने आँखें बंद कर लीं और बेंच पर ही लुढ़कने लगी।

राजेन्द्र जी बहुत विचलित हो गये। जैसे-तैसे उर्मिला को लिटाकर फिर फोन निकाला और न चाहते हुए भी नंबर मिलाया लेकिन ‘नॉट रीचेबल’ ही सुनते रहे। लाचार मजबूर राजेन्द्र जी की आँखें उर्मिला के दर्द में डूबे चेहरे पर पड़ते ही भर आईं। उनकी इस हालत को वेटिंग रूम का सहायक बहुत देर से देख रहा था। वे रुमाल से अपनी आँखें पोंछ ही रहे थे कि वह उनके पास आकर बोला, “क्या हुआ अंकल, कोई परेशानी?” राजेन्द्र जी ने गीली आँखें लिए भर्राए गले से सारा हाल कह सुनाया।

सहायक बोला, “अरे अंकल! आप किस चक्कर में पड़े हैं? यह दिल्ली है। आपका बेटा और बहू कोई आपको लेने आने वाला नहीं है। आप मेरी सलाह मानों पहले आंटी को डॉक्टर को दिखाओ फिर गाड़ी में बैठकर वापस घर चले जाओ। यह दिल्ली जितनी बड़ी है, यहाँ के लोगों के दिल उतने ही छोटे हैं। रुकिए मैं अभी डॉक्टर को बुलाकर लाता हूँ।” सहायक चला गया।

राजेन्द्र जी उसकी बातों को याद करके सोचते हुए उर्मिला के चेहरे को देखते रहे। लगभग दस मिनट बाद वह सहायक डॉक्टर को साथ लेकर लौटा। डॉक्टर ने चेकअप किया और कुछ दवाइयाँ लिखकर राजेन्द्र जी को पर्चा पकड़ा दिया। राजेन्द्र जी ने डॉक्टर से फीस पूछी लेकिन डॉक्टर ने यह कहकर मना कर दिया कि “आप मेरे माता-पिता की तरह हैं, आपसे कैसी फीस? आप जल्दी मेरे साथ चलकर दवाइयाँ ले लीजिए, मेरा मेडिकल स्टोर भी यहीं पास में है।”

राजेन्द्र जी डॉक्टर के पीछे जाने को उठे तभी सहायक ने कहा, “अंकल, आप आंटी के पास बैठिए मैं दवाइयाँ लेकर आता हूँ।” डॉक्टर और सहायक को जाता हुआ देखकर राजेन्द्र जी को आश्चर्य हो रहा था कि इस शहर में जहाँ अपने भी बेगानों जैसे हो गये हैं, ये बेगाने लोग मेरी मदद कर रहे हैं। राजेन्द्र जी उर्मिला के पास बैठ गये। लगभग पन्द्रह-बीस मिनट के बाद सहायक लौटा और उसने दवाइयाँ राजेन्द्र जी को दे दीं। राजेन्द्र जी ने उर्मिला को उठाया और दवाइयाँ दीं।

सहायक अभी तक पास में खड़ा था। उसने राजेन्द्र जी से कहा, “अंकल, आप बरेली से आए हैं ना?” “हाँ... आज सुबह ही तो...” राजेन्द्र जी अपनी बात पूरी नहीं कर पाए कि सहायक ने कहा “जी मैंने देखा था। अंकल...वही गाड़ी अभी एक घंटे बाद इसी प्लेटफार्म से वापस जाएगी। यदि आप मेरी सलाह माने तो वापस चले जाइए क्योंकि आपको लेने यहाँ कोई नहीं आएगा। अभी चार दिन पहले आपकी ही तरह एक अंकल-आंटी पंजाब से आए थे। इसी वेटिंग रूम में दो दिनों तक अपने बेटे का इन्तज़ार करते रहे लेकिन वह नहीं आया और अन्त में उन्हें भी वापस जाना पड़ा। वैसे यदि आप चाहें तो मुझे अपने बेटे का पता बता दीजिए, मैं आपको आपके बेटे के पास पहुँचा...” वह बात पूरी नहीं कर पाया था कि राजेन्द्र जी ने जेब से पाँच सौ का नोट निकालकर उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा, “लो बेटे, दवाई के पैसे ले लेना और हम दोनों का वापसी का टिकट भी ले आना।” नोट लेकर सहायक चला गया।

उर्मिला को दवाई से आराम मिलने लगा था। बरेली की ओर वापस जाने वाली ट्रेन भी प्लेटफार्म पर लग रही थी। टिकट लाकर और ट्रेन में आराम से बैठाकर सहायक ने कुछ बिस्किट-नमकीन, जूस के पैकेट और फल उर्मिला दे दिए और उनके पास बैठकर अपने परिवार की बातें करने लगा।

गाड़ी का सिगनल हो चुका था। सहायक ने दोनों को उनकी यात्रा के लिए शुभकामनाएँ दीं और उनके पैर छूकर वहाँ से चला गया। गाड़ी भी प्लेटफार्म से धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी कि तभी फोन की घंटी सुनकर राजेन्द्र जी ने फोन उठाया लिया। “हैलो...पापा...कहाँ हैं आप?” अंकित फोन पर पूछ रहा था।

“सॉरी रांग नम्बर” कहकर राजेन्द्र जी ने बन्द कर दिया और खिड़की से बाहर तेजी से पास होते हुए स्टेशन को देखने लगे।