दूसरा सूरज Lovelesh Dutt द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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दूसरा सूरज

दूसरा सूरज
--लवलेश दत्त

“लोग कहते हैं...मैं शराबी हूँ...तुमने भी ...” लड़खड़ाती ज़बान से गाते हुए चरनजीत घर में घुसा और दरवाजे को जोर से बन्द करके गुसलखाने में चला गया।
दरवाजे की आवाज से मनप्रीत की आँख खुल गयी। वह झटपट सोफे से उठी और रसोई में जाकर खाना गरम करने लगी। लगभग दो मिनट बाद चरनजीत डायनिंग टेबल पर आ बैठा और जोर से बोला, “ओए प्रिंसी की माँ, जल्दी ला खाना, पेट में आग पड़ी है।”
“आज फिर पीकर आए हो, कितनी बार कहा तुमसे कि बच्चे...” कहते हुए उसने थाली लाकर चरनजीत के आगे रख दी।
“ओए चुपकर, खाना खाने दे चैन से। पीकर आए हो...पीकर आए हो...हर रोज की यही बकवास,” कहकर वह मुँह नीचे किए बड़े-बड़े कौर निगलने लगा।
मनप्रीत मन मसोस कर रह गयी और उसे देखते हुए सोचने लगी, ‘शराब की लत ने चरनजीत को क्या से क्या बना दिया। शरीर ही बेकार नहीं हुआ, चेहरा भी अजीब-सा लगने लगा है। शरीर से शराब की बू आने लगी है। पता नहीं किस घड़ी में मदनलाल से दोस्ती हुई कि इन्हें घर-परिवार, बीबी बच्चों से भी ज्यादा प्यारी शराब हो गयी। उस मदनलाल का क्या है—आवारा है, लुच्चा है। बाप ने कंजूसी की हद कर दी और पैसा जोड़कर इसे करोड़ों का मालिक बनाकर चल बसा। बस, बाप का पैसा उड़ा रहा है। खुद तो शराबी है लोगों को भी बरबाद करने पर तुला है। घर-गृहस्थी है नहीं जो उसे किसी की चिन्ता हो। बीबी तीन साल पहले बीमारी और मदनलाल की लापहरवाही की भेंट चढ़ गयी। बचा एक बेटा, वह भी दिमाग से पैदल है। खुद का परिवार तो तहस-नहस हो ही गया अब दूसरों के घरों में आग लगाता फिर रहा है...’
“सब्जी दे” चरनजीत की आवाज ने मनप्रीत की विचार शृंखला को भंग किया। वह रसोई से सब्जी का डोंगा और रोटियाँ ले आई। चरनजीत की थाली में परोसकर बोली, “प्रिंसी के पापा, बच्चे बड़े हो गये हैं। यह सब अच्छा नहीं लगता, आप खुद समझदार हैं फिर भी...?”
“...”
“बोलते क्यों नहीं, इस तरह शराब...” मनप्रीत ने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा।
“क्या मुसीबत है...साला खाना भी चैन से नहीं खा सकता...हटा सब यहाँ से...” चरनजीत ने एकदम भड़ककर उसका हाथ झटका। दूसरा हाथ थाली में मारा और उठ गया। मनप्रीत घबरा गयी। उसे इसी बात का डर था कि चरनजीत कहीं उठा-पटक न कर दे। पिछले कुछ दिनों से वह जरूरत से ज्यादा शराब पीने लगा था। उसके समझाने या कुछ कहने पर खाने की थाली, घर का सामान जो उसके हाथ आता उसे फेंकने-तोड़ने लगा था। चरनजीत की ऐसी हरकत के बाद ज्यादा बात न बढ़ने के भय से मनप्रीत ने चुप हो गयी और जमीन पर बिखरा खाना समेटने लगी। उधर चरनजीत सोने के लिए अपने कमरे में जाते हुए बड़बड़ाता जा रहा था, “एक तो दुकान में घाटा ही घाटा हो रहा है ऊपर से इतना कर्जा। साला कोई मदद तो करता नहीं लेक्चर झाड़ने लगता है।” मनप्रीत उसके बड़बड़ाने से समझ गयी कि पिछले हफ्ते उसने चरनजीत को अपने मायके से दो लाख रुपये मँगवाने के लिए मना कर दिया था उसी का गुस्सा वह निकाल रहा है। वह मन ही मन कहने लगी, ‘पापा रहे नहीं, भाई है, वह भी बेचारा कितनी मदद कर सकता है? दस-बीस हजार की बात होती तो एक बार को कह भी देती लेकिन दो लाख रुपये वह कहाँ से लाएगा। नहीं, मैं भइया से कभी इतने पैसे नहीं माँगूँगी। उधार किया क्यों? किसने कहा था कि शराब और पार्टियों में पैसे उड़ाओ? दुकान नहीं चल रही है तो मेरा क्या दोष? तुम जानो और तुम्हारा काम।’
मनप्रीत ने काम निबटाया और जाकर चरनजीत के बगल में लेट गयी। चरनजीत बेसुध पड़ा खर्राटे भर रहा था और मनप्रीत को एक बड़ी चिन्ता खाए जा रही थी—वह थी प्रिंसी की शादी। उसने एक बार चरनजीत की ओर देखा और सोचने लगी, ‘प्रिंसी का रिश्ता पक्का हो गया है। उसका बीए पूरा होते ही शादी करनी है। लेकिन अगर यही हालात रहे तो पता नहीं क्या होगा? कैसे होगी मेरी बच्ची की शादी? और फिर नैनसी का नंबर है। मिंकू की पढ़ाई है...उफ! यह आदमी कुछ समझता नहीं। घर की स्थिति भी पहले जैसी नहीं रही। ऊपर से इनकी शराब की लत ने कंगाली में आटा गीला कर रखा है। कर्ज़ा कर-करके इन्होंने भी दुकानदारी मिट्टी में मिला दी है। हे भगवान! अब तू ही कुछ कर सकता है। इनकी शराब की लत छुड़वा दे।’ कहते हुए उसकी आँखों में पानी आ गया। उसने ऊपर की ओर देखा और हाथ जोड़कर कुछ बुदबुदायी। अगले ही पल जैसे उसे कुछ स्मरण हो आया जिससे उसके चेहरे पर हल्की-सी मुस्कुराहट बिखर गयी। एकाएक उसे विश्वास हो गया कि सबकुछ ठीक हो जाएगा। ‘मनुष्य की सकारात्मक सोच उसे विषम-से-विषम परिस्थिति में भी जीने का हौसला देती है। कितना भी बुरा समय क्यों न आ जाए पर हिम्मत नहीं हारनी चाहिए’ पापा के ये शब्द उसके कानों में गूँजने लगे और उसकी आँखें भारी होने लगीं।


पंजाबी मार्केट में चरनजीत की कपड़े की दुकान थी। भारत-विभाजन के समय उसके दादा परिवार के साथ रावलपिंडी से यहाँ आकर बस गये थे। उस समय बड़ी संख्या में लोग पाकिस्तान से भारत आ रहे थे और अलग-अलग शहरों में बसते जा रहे थे। तत्कालीन सरकार ने भी इन्हें शरणार्थी की संज्ञा देते हुए इनकी हर भरसक सहायता की थी। उसके दादा अपने साथ सोना और कुछ नगदी लेकर आए थे। कुछ समय दिल्ली और फिर बरेली आकर बस गए। उन्हीं दिनों यहीं पंजाबी मार्केट में एक दुकान उन्होंने ली थी जिस पर ‘रावलपिंडी क्लॉथ हाउस’ का बोर्ड लगाकर कपड़े का व्यापार करने लगे। ‘रावलपिंडी क्लाथ हाउस’ अच्छा चल निकला। पिता के समय में बरेली और आसपास के कस्बों-गाँवों तक उनकी ग्राहकी जम चुकी थी। पिता की मृत्यु के बाद चरनजीत ने दुकान संभाली। शुरू में तो सब ठीक-ठाक रहा लेकिन जैसे-जैसे रेडीमेड गार्मेन्ट्स और ब्रांडेड कपड़ों की तरफ ग्राहकों का रुझान बढ़ने लगा, कटपीस या थान वाले कपड़ों की दुकानदारी पर मंदी छाने लगी। ऊपर से चरनजीत के आलसी स्वभाव और लापरवाही ने करेले को नीम पर चढ़ा दिया, जिसका परिणाम यह हुआ कि न केवल उसकी ग्राहकी टूटी बल्कि जो कुछ पहले का जोड़ा-बचाया पैसा था, वह भी धीरे-धीरे निकलने लगा।
एक दिन उसने अपनी परेशानी को मदनलाल नामक एक व्यापारी नेता से कहा। मदनलाल का कपड़ों के होलसेल का पुराना काम था। पूरे शहर के लोग उससे कपड़े लिया करते थे। अच्छा रसूख वाला आदमी था। धनी भी था। कोई दुकानदार ऐसा नहीं था जो मदनलाल का कर्ज़दार न हो। उसने चरनजीत को ढाढस बँधाते हुए कहा कि वह चिन्ता न करे यदि उसे पैसों या किसी और चीज की जरूरत हो तो बेझिझक उससे कहे। उसकी बातों से चरनजीत का हौसला बढ़ गया। चरनजीत एक दिन उसे अपने घर भी लाया और परिवार से मिलाया। हालांकि मनप्रीत को मदनलाल और उसकी भावभंगिमाएँ अच्छी नहीं लगीं लेकिन वह चुप रही। चाय-नाश्ता करके मदनलाल चला गया।
मदनलाल और चरनजीत की दोस्ती बढ़ने लगी थी। उस समय मदनलाल की पत्नी का स्वर्गवास हो चुका था जिससे वह मानसिक रूप से परेशान था। इसलिए अक्सर चरनजीत उसे घर ले आता। चाय-पानी-भोजन इत्यादि करवाता था। कभी छुट्टी के दिन दोनों शाम से ही छत पर बैठकर दो-दो पैग लगाते और फिर एक दूसरे का साथ न छोड़ने की कसमें खाते। मदनलाल ने व्यापार में उसकी खूब सहायता की जिससे चरनजीत की दुकानदारी में सुधार आया। चरनजीत और मदनलाल अब अच्छे दोस्त बन चुके थे। दोनों एक दूसरे से अपने घर-परिवार की बातें भी साझा करने लगे थे। प्रायः रोज ही दुकान बंद होने के बाद दोनों दो-तीन घंटे बार में बैठते और नशे मे धुत्त होकर वहाँ से निकलते। चरनजीत का कभी-कभी पीने का शौक अब उसकी आदत बन चुका था। स्थिति ने पलटा खाना शुरू कर दिया और जो दुकानदारी अभी कुछ ही समय पहले संभली थी, वह फिर डगमगाने लगी। आमदनी का बड़ा हिस्सा शराब ने अपने नाम कर लिया था। मदनलाल उसे कपड़ों के थान के थान उधार दे दिया करता। जब पैसे की बात आती तो वह कहता, “अरे यार न तू भागा जा रहा है, न मैं, आ जाएँगे पैसे पहले तू अपना काम जमा ले, फिर दे देना।” इस तरह मदनलाल, चरनजीत का विश्वास जीतता गया और उसे अपने कर्ज़ में दबाता चला गया।
चरनजीत, मदनलाल की सहायता और अहसानों से पूरी तरह दब चुका था। उसकी बुद्धि पर मदनलाल ने अतिक्रमण कर लिया था। वह उसके कहने से न केवल अपना व्यापार बल्कि अपनी ज़िन्दगी भी चलाने लगा था। एक शाम जब दोनों बार में बैठे थे और शराब अपना काम कर चुकी थी तो मदनलाल ने चरनजीत से कहा, “यार चरनजीत, तुझसे कुछ कहना है।”
“हाँ-हाँ बोल ना, क्या बात है?” चरनजीत ने गिलास खाली करते हुए कहा।
“देख यार, बुरा मत मानना, मेरा माल लुधियाना में फँसा पड़ा है और उसे निकालने के लिए कुछ पैसे कम पड़ रहे हैं। यदि कुछ पैसों की जुगाड़ कर दे तो...” बात बीच में रोककर मदनलाल ने अपने गिलास से एक बड़ा सा घूँट लिया।
मदनलाल की बात सुनकर चरनजीत को हल्का सा झटका लगा। उसे उम्मीद नहीं थी कि मदनलाल उससे यूँ एकदम पैसे माँग सकता है। आज तक तो पैसे लेकर उसने कभी वापस माँगे नहीं, ‘इसका मतलब उसे सचमुच जरूरत है, पर मैं पैसे दूँगा कहाँ से?’ यह सोचते हुए उसने पूछा, “कितने पैसों की जरूरत है?”
“यार सारा पेमेंट लगभग पच्चीस लाख का है। तू मुझे दस लाख दे दे बाकी मैं कर लूँगा”, मदनलाल ने सिगरेट का कश खींचते हुए कहा।
“दस लाख!” चरनजीत का नशा मानों हल्का पड़ गया, “पर इतने रूपये एकदम?”
“अरे यार बस महीने भर की बात है। एक महीने के बाद लौटा दूँगा,” मदनलाल गिड़गिड़ाया।
“वह तो ठीक है लेकिन मैं दूँगा कहाँ से?” चरनजीत का नशा अब तक आधा उतर चुका था।
“एक रास्ता है, अगर तू माने तो...” मदनलाल ने कहा।
“क्या? अगर मेरे वश में हुआ तो तेरी मदद जरूर करूँगा,” चरनजीत ने अपना गिलास फिर भरते हुए कहा।
“तूने प्रिंसी की शादी के नाम से जो दस लाख रूपया जमा किया हुआ है, वह मुझे दे दे। मैं महीने भर बाद तुझे वापस कर दूँगा। अगर तू कहेगा तो चार-पाँच लाख रूपया ऊपर से दे दूँगा,” मदनलाल एक साँस में कह गया।
यह सुनकर चरनजीत सन्न रह गया। अब तक जितनी भी पी थी, वह सब बेअसर हो गयी। वह सोच में पड़ गया, ‘अगर पैसा दे दिया तो प्रिंसी की शादी कैसे करूँगा। पर हाँ, यह अगले महीने लौटाने को भी तो कह रहा है। वैसे भी इसने आज तक मेरी मदद की है, मेरा भी तो फर्ज बनता है उसकी मदद करने का। फिर एक महीने की ही तो बात है,’ मन को पक्का करके उसने कहा, “चल ठीक है यार, ले ले तू पैसा। अपना काम चला, पर मेरे यार अगले महीने...” “अरे तुझे कहने की जरूरत नहीं पड़ेगी यारा...प्रिंसी मेरी भी बेटी जैसी है, उसकी शादी हम दोनों मिलकर करेंगे,” बीच में ही टोकते हुए मदनलाल ने कहा और फिर वेटर को आर्डर करके एक बोतल और मँगवाई। जब दोनों आकंठ नशे में डूब गये तो वहाँ से चल दिए।
अगले दिन घर में बिना किसी को बताए चरनजीत ने बैंक जाकर अपनी एफडी तुड़वायी और मदनलाल के लिए दस लाख रूपये ले आया और दुकान खुलते ही उसे दे दिए और मॉल छुड़वाने के लिए लुधियाना चला गया। लेकिन बीस दिन बाद भी जब वह नहीं लौटा तो चरनजीत को चिन्ता होने लगी। जैसे ही रूपयों का ध्यान आता दिल की धड़कनें अनियंत्रित होने लगतीं। जैसे एक-सी गति से चलती गाड़ी कार्बोरेटर में कचरा फँसने के कारण झटके खाने लगती है, वैसी ही चरनजीत के दिल की धड़कनों की हालत थी। जैसे-जैसे महीने के दिन नजदीक आ रहे थे चरनजीत की घबराहट बढ़ती जा रही थी। शराब भी उसकी चिन्ता को मिटाने में असमर्थ थी।
मदनलाल को गये सत्ताइस दिन हो चुके थे। चिन्ता और अवसाद में डूबा चरनजीत अपनी दुकान बढ़ाकर बार की ओर जा रहा था कि उसे मदनलाल मिल गया। उसके कंधे पर बैग टंगा था। चरनजीत के मुरझाए मन में मानों बहार आ गयी। उसे देखते ही वह उससे लिपट गया और बोला, “अरे यार, कहाँ था तू? मैं कितना घबरा रहा था। चल बाकी बातें बैठकर करेंगे।” दोनों उसी बार में जा पहुँचे जहाँ अक्सर बैठा करते थे। शराब का आर्डर दिया और बातों का सिलसिला शुरू हो गया। मदनलाल ने इतने दिनों में वापस आने का कारण बताया और फिर माफी माँगते हुए बोला, “भाई चरनजीत मैं तेरा पैसा नहीं लौटा पाऊँगा। मुझे बहुत नुकसान हो गया है,” कहकर उसने गिलास भरी व्हिस्की एक ही साँस में हलक से नीचे उतार ली और अजीब-सा मुँह बनाकर बैठ गया। चरनजीत को मानों साँप सूँघ गया। कुछ पलों के लिए ऐसा लगा जैसे कान सुन्न हो गये हों। बार में बजने वाला मधुर संगीत उसे सुनाई देना बंद हो गया। बार के बीचों बीच रोशनी के लिए लटका हुआ बड़ा सा काँच का गोला मानो घूमते-घूमते ठहर गया। उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। धीरे-धीरे जब वह चैतन्य हुआ तो उसने कहा, “अरे यार प्रिंसी की शादी के पैसे थे। अब मैं क्या करूँगा?” उसकी आँखों में आँसू आ गये। जब गोला घूमते हुए चरनजीत के चेहरे पर पड़ा तो उसकी गीली आँखें देखकर मदनलाल ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए उससे कहा, “कोई-न-कोई रास्ता जरूर निकलेगा। तू चिन्ता मत कर। अब मैं बरेली वापस आ गया हूँ। कुछ-न-कुछ सोचता हूँ।” उस दिन शराब अपना रंग ज्यादा नहीं दिखा पायी और दोनों जल्दी ही अपने-अपने घर चले गये।
लगभग छह-सात दिन के बाद मदनलाल उसकी दुकान पर आया और उसे अपने साथ लेकर चल दिया। दोनों जानते थे कि उन्हें कहाँ जाना है? उसी बार में बैठकर और दो दो पैग पीने के बाद मदनलाल ने कहा, “यार चरन, मैंने तेरी समस्या का हल निकाल लिया है। तुझे प्रिंसी की शादी की चिन्ता है ना?” चरनजीत ने कुछ नहीं कहा, लेकिन उसकी आँखों व चेहरे के भावों ने मदनलाल की बातों का समर्थन किया और साथ ही यह प्रश्न भी उसकी आँखों से साफ उछलता दिख रहा था कि ‘क्या हल निकाल लिया?’ मदनलाल उसके चेहरे से उसकी बात समझ गया और बोला, “देख भाई, तुझे प्रिंसी की शादी करनी है और और मुझे भी अपने बेटे की शादी करनी है। तेरे पास शादी करने का पैसा नहीं है। मेरे पास थोड़ा-बहुत पैसा है। तेरी भाभी के जाने के बाद घर में क्या हालत है तू जानता ही है। वैसे भी बिना औरत के घर एक जेलखाना होता है। इसलिए मैंने यह सोचा है कि अगर तेरी प्रिंसी मेर घर की बहू बनकर आ जाए तो कैसा रहे? फिर न तुझे पैसों की चिन्ता रहेगी और न ही प्रिंसी की शादी की,” गिलास खाली करके उसने पूछा, “बोल, क्या कहता है? है ना धाँसू आइडिया?” उसकी बात सुनकर चरनजीत सोच में पड़ गया। उसे मदनलाल की बात में कोई कमी नजर नहीं आयी। उसे लगा कि शायद वह सही कह रहा है। इस तरह उसका हर संकट कट जाएगा। कुछ सोचते हुए उसके चेहरे पर एक कुटिल मुसकान आयी, ‘सबसे बड़ी बात कि जो उधार उसने मदनलाल से ले रखा था वह भी नहीं देना पड़ेगा। रिश्तेदारी होने के बाद वह और भी पैसा मदनलाल से माँग सकता है।’ लेकिन अगले ही पल उसे अपनी पत्नी मनप्रीत की याद आयी। उसे यकीन था कि मनप्रीत उसकी यह बात कभी नहीं मानेगी। एकाएक शराब ने उसके दिमाग पर चढ़ना शुरू कर दिया। उसे अपने पति होने का नशा भी चढ़ने लगा जिसने शराब से भी ज्यादा असर किया। उसने मन बना लिया कि वह मदनलाल के बेटे से ही प्रिंसी की शादी करेगा। इससे उसे कई समस्याओं से छुटकारा मिल जाएगा। उसने मन-ही-मन सारी बातें सोच लीं और झट से मदनलाल के गले लग गया। दोनों ने अपनी ओर से अपने बच्चों की शादी तय की और खुशी मनाने के लिए एक बोतल और मँगवा ली। जब बोतल खाली होने के साथ-साथ बार बन्द होने का समय हो गया तो दोनों अपने-अपने घर चल दिये। चरनजीत को जब ज्यादा चढ़ जाती तो वह एक ही गाना गाता, ‘लोग कहते हैं, मैं शराबी हूँ...तुमने भी शायद...।’ आज भी वही गाना गुनगुनाता हुआ वह घर में घुसा था। उसे बहुत नशा था क्योंकि जो शराब उसने पी थी उसमें पति होने का नशा भी शामिल था।

सुबह चरनजीत जब तक उठा, नैनसी और मिंकू स्कूल जा चुके थे। मनप्रीत रोज की तरह रसोई में लगी थी। आँखें मलते हुए चरनजीत कमरे से बाहर आया और चाय की फरमाइश करके सोफे पर पड़ गया। मनप्रीत ने चाय बनाई और उसे देते हुए संयत स्वर में बोली, “ध्यान रखिएगा, अगले महीने से प्रिंसी के फाइनल एग्जाम हैं और उसके तुरन्त बाद उसकी शादी का इन्तजाम करना होगा। कल शाम मंजीत ने प्रिंसी को फोन करके कहा है कि एक्जाम खत्म होने के पन्द्रह दिन के अन्दर शादी कर लेंगे। वैसे भी साल भर से ऊपर हो गया रोका किये हुए। ज्यादा दिन शादी टालना भी सही नहीं है...कहीं कुछ ऊँच-नीच...” चरनजीत ने उसकी तरफ घूरते हुए देखा और चाय का घूँट लेते हुए बोला, “मना कर दो उससे। नहीं करनी हमें अपनी बेटी की शादी मंजीत के साथ। साले दो टके के लोग हैं और हमारी बराबरी करने चले हैं।”
उसकी बात सुनकर मनप्रीत के होश उड़ गये। वह आँखें फाड़कर बोली, “क्या? दिमाग तो खराब नहीं हो गया है आपका? रिश्ता पक्का करके एक साल के बाद तोड़ रहे हैं? आखिर क्या कमी है मंजीत में? आपने ही तो कहा था कि लुधियाना में अपनी दुकान है। बहुत अमीर नहीं लेकिन ठीक-ठाक है। प्रिंसी खुश रहेगी। फिर अब क्या हुआ?”
“एक बार कह दिया ना, कि नहीं करनी उससे शादी। आज शाम प्रिंसी का रोका करने मदन अपने बेटे के साथ आ रहा है। पाँच बजे तक सारी तैयारी कर देना” चरनजीत ने अकड़ कर कहा और नहाने चला गया। मनप्रीत को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि अचानक क्या हो गया? मदनलाल के लड़के की स्थिति के बारे में सोच कर उसे अपने पेट में मरोड़ उठने का अहसास हुआ। उसके होंठ सूख गये। सिर घूमने लगा। उसे लगा कि वह अभी गिर पड़ेगी। वह सिर पकड़कर वहीं बैठ गयी। इतने में कमरे में अपनी पढ़ाई कर रही प्रिंसी बाहर निकल आयी और मनप्रीत से बोली, “मम्मी...मुझे मंजीत के अलावा किसी और से शादी नहीं करनी। कह देना पापा से।”
“क्या कहा...सालों ज्यादा दिमाग खराब हो गया है...जैसा मैं कहता हूँ वैसा करो वरना या तो मैं सबकी जान ले लूँगा या अपनी जान दे दूँगा”, चरनजीत ने गुसलखाने से ही दहाड़ लगायी। मनप्रीत ने प्रिंसी को चुप रहने का इशारा किया। वह नहीं चाहती थी कि चरनजीत फिर से फेंक-फाँक या तोड़फोड़ करने लगे। उसने प्रिंसी को कमरे में जाने का इशारा किया। सहमी हुई प्रिंसी आँखों में आँसू लिए अपने कमरे में लौट गयी।
कमरे में आते ही पलंग पर लेट गयी और रोने लगी। उसे बहुत घबराहट होने लगी। रह रहकर पिछले एक साल की सारी बातें उसे याद आने लगीं, ‘जब से रोका हुआ है वह मंजीत से रोज बात करती है। जाने क्या-क्या प्लानिंग उसने अपने जीवन के लिए कर रखी हैं? न जाने कितने सपने देखे हैं? उसे याद है जब उसने मंजीत के साथ घूमने का प्लान बनाया था तो उदास मन से मंजीत ने अपनी सीमित आय और दुकान की बात कही थी। उसने मंजीत का हाथ अपने हाथों में लेकर कहा था कि वह बिल्कुल भी चिन्ता न करे, वह उसके साथ हर तरह से खुश रहेगी। उसे पैसे से ज्यादा प्यार चाहिए। बस उसकी इसी बात ने मंजीत का दिल जीत लिया और तभी से वह शादी के दिन गिन रहा है। एक साल में सात आठ बार मंजीत चोरी से बरेली आ चुका था, वह भी केवल उससे मिलने। दोनों ने पूरा-पूरा दिन साथ में बिताया। मॉल में घूमे, फिल्में देखीं, वाटर पार्क गये। एकबार तो दोनों नैनीताल भी गये थे। बरेली से केवल एक सौ पैंतीस किलोमीटर ही तो है। सुबह गये और शाम को घर वापस। मम्मी के अलावा कोई नहीं जानता था कि मंजीत प्रिंसी से मिलने बरेली आता रहता है। प्रिंसी भी अपनी हर बात, हर सपना मम्मी से शेयर करती है। हाय, अब वह क्या करेगी? मंजीत को धोखा देकर कैसे किसी और से शादी कर ले। दोनों ने साथ जीने-मरने की कसमें खाईं थीं। अब क्या होगा? घबराहट बढ़ने लगी। दिल जोरों से धड़कने लगा। आँखों के आगे अंधेरा-सा छाने लगा। उसे पापा से बहुत डर लगता है। मम्मी से तो वह फिर भी सबकुछ कह सकती है लेकिन पापा...नहीं, नहीं, पापा के खिलाफ वह नहीं जा सकती। उनके घर में आते ही वह ऐसी खामोश हो जाती है कि उसके शरीर में जान ही न हो। आज भी पापा की दहाड़ सुनकर उसकी रूह काँप गयी।’ एक बार तो उसने सोचा कि मंजीत को फोन करके सब बता दे लेकिन अगले ही पल पापा-मम्मी के झगड़े की आवाज़ से उसका दिल बैठ गया और वह तकिये में मुँह दबाए अपने पलंग पर पड़ी रही।
वह सुबक ही रही थी कि पापा ने दुकान जाने से पहले जोर से कहा, “सुन ले मनप्रीत, शाम पाँच बजे तक सब कुछ रेडी हो जाना चाहिए,” थोड़ा जोर से उन्होंने कहा, “और सुन प्रिंसी, पाँच बजे तक तैयार हो जाना। मुझे कोई ड्रामा नहीं चाहिए।” पापा घर से बाहर निकल गये। मनप्रीत, प्रिंसी के कमरे में आयी तो प्रिंसी उससे लिपटकर रो पड़ी। दोनों माँ-बेटी काफी देर तक ऐसे ही लिपटी रोतीं रहीं। फिर मनप्रीत ने प्रिंसी के सिर पर धीरे से हाथ फेरते हुए कहा, “बेटा, कभी-कभी दूसरों का दिल रखने के लिए अपना दिल तोड़ना पड़ता है। भगवान पर भरोसा रख जो होगा अच्छा ही होगा।” प्रिंसी सिसकते हुए बोली, “पर, मंजीत मुझसे बहुत प्यार करते हैं माँ...वह सुनेंगे तो...” वह आगे नहीं बोल पायी और फूट कर रो पड़ी। मनप्रीत ने प्रिंसी को गले से लगा लिया। प्रिंसी को तो उसने दिलासा दे दिया लेकिन खुद को नहीं दे पायी। अपनी बेबसी पर वह, उससे भी ज्यादा जोर से बिलख पड़ी। रोते-रोते बस यही कहती, “हाय मेरी बच्ची, मुझ-सी अभागी माँ नहीं होगी। तेरे सपने मुझे अपने ही हाथों तोड़ने पड़ रहे हैं। हे भगवान! मेरी बच्ची ने कौन से पाप किये थे जो उसके सपनों में आग लग गयी।”
शाम के ठीक पाँच बजे चरनजीत, मदनलाल और उसके बेटे जगजीत के साथ घर में आया। थोड़ी बहुत औपचारिकता के बाद रोके की रस्म की गयी। बुझे मन से मनप्रीत काम में लगी थी। प्रिंसी तो जिन्दा लाश की तरह हो गयी थी। मंजीत के साथ देखे सपनों की डोर एक-एक कर टूटती जा रही थी और उनके टूटने की पीड़ा प्रिंसी की आँखों से बह रही थी। मदनलाल का बेटा जगजीत मानसिक रूप से अस्वस्थ था। उम्र भी प्रिंसी की अपेक्षा अधिक थी। शरीर बेडौल था और सिर पर बाल भी कम थे। वह केवल खाने-पीने की चीजों में ही लगा था। प्रिंसी की तरफ उसने आँख उठाकर भी नहीं देखा। कभी लड्डू मुँह में भरता तो कभी समोसा। उसकी हरकतें देखकर प्रिंसी और मनप्रीत का दिल बैठा जा रहा था। माँ और बहन पर टूटी इस विपदा से बेखबर दोनों छोटे बच्चे जगजीत को देखकर मुँह दबाकर हँस रहे थे। मनप्रीत सोच रही थी, ‘मेरी बच्ची कैसे इसके साथ पूरी ज़िन्दगी बिताएगी।’ उसे लग रहा था कि वह खुद अपनी बेटी को ऐसे अँधेरे में धकेल रही है जिसमें वह हर दिन घुट-घुट कर मरती रहेगी। उसने मन-ही-मन औरत की किस्मत को कोसा, ‘पता नहीं ऊपर वाला औरत की किस्मत की किताब कौन-सी स्याही से लिखता है कि उसका एक भी पन्ना सुनहरा नहीं होता, होता है तो सिर्फ काला। और उसी कालेपन में औरत ताउम्र घुटती रहती है। क्यों औरत की ज़िन्दगी में नया सूरज नहीं होता? युगों पुराने सूरज को वह हर दिन अपने सिर पर चढ़ता देखती है और ढोती रहती है,’ मनप्रीत सोच ही रही थी कि मदनलाल से बात करते हुए चरनजीत ने फैसले की तरह कहा, “तो तय हुआ अगले हफ्ते ही शादी हो जाएगी।” मदनलाल ने उसकी बात का समर्थन करते हुए कहा, “बिल्कुल यार, कौन-सी हमें भीड़ इकट्ठी करनी है। मंदिर में शादी कर देंगे और फिर शाम को किसी होटल में रिसेप्शन हो जाएगा। वह भी मेरी तरफ से,” कहते हुए मदनलाल ने प्रिंसी को नजर गढ़ाकर जिस तरह देखा, वह मनप्रीत के सीने में चुभ गयी। कुछ पल प्रिंसी को गौर से देखने के बाद मदनलाल बोला, “बेटे जी, आप चिन्ता मत करो। आपको कभी किसी भी चीज़ की कमी नहीं होगी।” अब प्रिंसी खुद को नहीं सँभाल पायी। उसके सब्र का बाँध टूट पड़ा और वह वहाँ से उठकर एकदम अपने कमरे में भाग गयी। उसका कमरा ही हर मुसीबत में उसे अपना आश्रयस्थल लगता था। प्रिंसी अन्दर ही अन्दर घुट रही थी। बिना आँसुओं के सिसक रही थी। बाहर उसकी किस्मत का फैसला हो चुका था और अन्दर उसके सपनों की लाशें बिछ रहीं थीं।
थोड़ी देर में सब शान्त हो गया जैसे कोई बहुत बड़ा अंधड़ गुजर जाने के बाद होता है, लेकिन प्रिंसी की ज़िन्दगी में जो भयंकर तूफान आने वाला था उससे प्रिंसी और माँ मनप्रीत सहमी हुई थीं। मेहमानों के साथ चरनजीत भी चला गया और देर रात अपने उसी पुराने अन्दाज़ मे लौटा। पाँव और जुबान लड़खड़ा रहे थे। लड़खड़ाती जुबान से गीत गुनगुनाते हुए वह घर में आया और मनप्रीत को बुलाकर कहा, “यह ले, पाँच लाख रूपये हैं। मदनलाल ने प्रिंसी के लिए गहने, कपड़े और जरूरी सामान खरीदने के लिए दिए हैं, सँभाल कर रख दे।” मनप्रीत चरनजीत के भावशून्य चेहरे को देखकर समझ गयी कि शादी-ब्याह सब दिखावा है, सच्चाई तो यह है कि उसने प्रिंसी को बेच दिया है। उसने बिना हाथ में रूपये लिए चरनजीत से कहा, “यह आप ठीक नहीं कर रहे हो। वह हमारी बेटी है कोई दुश्मन नहीं, उसके भविष्य का तो थोड़ा ख्याल किया होता।”
“भविष्य का ख्याल करके ही मैं यह सब कर रहा हूँ, मनप्रीत। मैं भी उसका दुश्मन नहीं हूँ। मुझे पता है कि मदनलाल के घर उसे कभी कोई कमी नहीं होगी। जगजीत को तो तूने देख ही लिया। उसके वश का कुछ भी नहीं। अपनी प्रिंसी रानी बनकर रहेगी। है कहाँ मेरी बच्ची?” चरनजीत ने कहा।
“अपने कमरे में बैठी रो रही है, आप क्यों नहीं समझते? पैसे का इतना लालच ठीक नहीं है। अरे माँ-बाप अपने बच्चों के लिए सबकुछ कुर्बान कर देते हैं और आप हैं कि...” मनप्रीत ने दुखी होकर कहा लेकिन चरनजीत बिना कोई जवाब दिए प्रिंसी के कमरे की तरफ बढ़ गया।
प्रिंसी औंधे मुँह अपने पलंग पर पड़ी सुबक रही थी। पिता की आहट पाते ही उठकर पलंग के एक कोने में दुबक गयी। चरनजीत ने उसके पास बैठते हुए कहा, “प्रिंसी बेटा, मुझे गलत मत समझना। मैं सबकुछ तेरी खुशी के लिए ही कर रहा हूँ। बेटा मुझ पर बहुत कर्जा हो गया है। मैं सिर से पाँव तक मदनलाल के कर्ज में डूबा हूँ। बेटा, तू ही मुझे इससे उबार सकती है। इसीलिए मैंने तेरी शादी जगजीत से तय की। बेटा, रिश्तेदार अगर अमीर हों तो हौसला बना रहता है। दुख-सुख में वो साथ खड़े होते हैं तो समाज में इज्जत बनी रहती है। मदनलाल खानदानी रईस है, तुझे उसके घर कोई कमी नहीं होगी। तेरे बाप के सिर से कर्जे का बोझ भी उतर जाएगा और उसकी ज़िन्दगी बढ़ जाएगी। फिर तेरी छोटी बहन और भाई के लिये क्या तेरी कोई जिम्मेदारी नहीं? बेटा, मंजीत से रिश्ता पक्का करने के बाद मुझे पता चला कि उसे तो दो वक्त की रोटी कमानी ही मुश्किल पड़ती है। किसी दुख-दर्द में वह कैसे हमारी मदद कर पाएगा। मुझे मालूम है कि तेरे दिल पर क्या बीत रही है? लेकिन दिल तो शरीर के अन्दर होता है, वह किसी को दिखता नहीं, उसे हम किसी तरह मना सकते हैं। वह तो पल-पल में बदलता है, उसकी कोई कीमत नहीं है। लेकिन सिर और इज्जत बाहरी चीजें हैं। इन दोनों की बहुत कीमत है। झुका हुआ सिर और समाज में बेइज्जती किसी को चैन से जीने नहीं देती। मेरी बच्ची, अब तेरे बाप की इज्जत और ज़िन्दगी तेरे हाथों में है,” कहकर चरनजीत ने अपना सिर प्रिंसी के पैरों पर रख दिया। पिता के स्नेह की बौछार से प्रिंसी का मन इतना भीग गया कि उस पर बनी मंजीत की तस्वीर धुँधली होती दिखाई देने लगी। कभी अपनी कक्षा में उसने नैतिकशिक्षा की एक किताब में पढ़ा था कि ‘बच्चों को अपने माता-पिता की हर बात माननी चाहिए। सदा उनके सम्मान करना चाहिए। ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जिससे समाज में उनका अपमान हो।’ आज उस किताब का वही पन्ना उसके सामने फिर खुल गया था। उसे अपने पिता के आँसुओं का वजन अपने सपनों से अधिक लगने लगा। पिता के झुके हुए सिर का भार इतना था कि उसके सपनों वाला पलड़ा ऊपर उठता चला गया। इतना ऊपर कि उसके सपने पिता के भरे गले से निकलने वाली बातों की हवा के साथ एक-एक कर उड़ने लगे। वह पापा से लिपट गयी और बिलख पड़ी। मनप्रीत की आँखें भी भरी हुई थीं। वह मन ही मन सोच रही थी कि काश कोई ऐसा चमत्कार हो जाए कि वह यह शादी रोक सके। उसके मन में बार-बार आ रहा था कि ‘क्यों वह अपने पति का विरोध नहीं कर पाती? क्यों हमेशा डर-सहमी रहती है? कौन-सी स्त्रियाँ होती हैं जिन्हें चंडी और दुर्गा का रूप मानते हैं? क्या उसके अन्दर चण्डी और दुर्गा नहीं हैं? अगर हैं तो शरीर के कौन से हिस्से में छुपकर बैठी हैं? बाहर क्यों नहीं निकलतीं? क्या एक माँ अपनी बेटी की ज़िन्दगी बर्बाद होते हुए देखती रहेगी?’ अचानक जाने कौन-सी शक्ति उसके अन्दर दौड़ गयी। वह एकाएक चीखी, “नहीं, मैं अपनी बच्ची की शादी उस पागल के साथ नहीं करूँगी।” प्रिंसी ने चौंक कर अपनी माँ की ओर देखा। चरनजीत भी हक्का बक्का रह गया। एकपल को उसे कुछ समझ नहीं आया फिर अगले ही पल उनसे मनप्रीत की ओर देखकर कहा, “क्या पागल हो गयी है? जब सारी बातें तय हो गयीं तो तुझे क्या दौरा पड़ गया?”
“हाँ, पड़ गया दौरा...और यह दौरा तब तक शान्त नहीं होगा जब तक कि तुम प्रिंसी की शादी उस पागल से तोड़ नहीं देते,” वह एक साँस में कहे जा रही थी, “अगर ऐसा नहीं हुआ तो मैं अपनी जान दे दूँगी।” चरनजीत की आँखें फट गयीं। अपनी बात का विरोध देखकर वह गुस्से से आग बबूला हो गया। उसने पूरी ताकत से एक थप्पड़ मनप्रीत को मारा। मनप्रीत झटके से पलंग पर जा गिरी। प्रिंसी ने घबराकर माँ को को पकड़ लिया। अगले ही पल चरनजीत ने अपना सिर दीवार में दे मारा। उस पर जैसे कोई भूत सवार हो गया। उसके नथुने फूल रहे थे। आँखें लाल हो गयीं थीं। मुँह से थूक निकल रहा था। वह जोर से चीखा, “ठीक है स्सालों, करो अपने मन का, जिसको जैसा सही लगे वह वैसा करे। मैं ही अपनी जान दिए देता हूँ,” कहकर उसने प्रिंसी के कमरे में प्लग में लगी मच्छर मारने की दवा की मशीन से डिब्बी निकाल कर मुँह में रखकर तोड़ ली और इससे पहले कि मनप्रीत या प्रिंसी उसे रोक पातीं, वह सारी जहरीली दवा पी गया। कुछ ही सेकेंड में वह जमीन पर गिर गया उसके मुँह से झाग निकलने लगे। उसकी आँखें चढ़ गयीं। दोनों स्त्रियाँ घबराकर गयीं। मनप्रीत ने ‘हाय मेरे रब्बा’ कहकर माथा पकड़ लिया और वहीं बैठ गयी। प्रिंसी ने तुरन्त डॉक्टर के फोन कर दिया।
चरनजीत को अस्पताल में भर्ती करवा दिया गया। डॉक्टर ने बताया कि उसकी जान खतरे में है। बुरी तरह से घबरायी मनप्रीत मन-ही-मन ईश्वर से प्रार्थना करने लगी, ‘हे भगवान, कैसे भी करके इनकी जान बख्श दे। मैं कसम खाती हूँ। अब कभी इनसे नहीं झगड़ूँगी।’ उसका अन्तस्थल चीत्कार कर रहा था, वह अपने आक्रोश को कोस रही थी, ‘न जाने मुझपर कौन-सी हवा सवार हो गयी कि मैं खुद को काबू में नहीं रख पायी और देखते ही देखते मेरी गृहस्थी का चिराग बुझने लगा।’ उसकी आँखों के आँसू रुक नहीं रहे थे। उसके मन में डर बस गया था कि उसका विरोध, उसकी बसी-बसायी गृहस्थी को उजाड़ कर रख देगा। सबकुछ बर्बाद कर देगा। यही सोचकर मनप्रीत की सारी हिम्मत पिघलकर उसकी आँखों से बहने लगी। प्रिंसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा और अपनी पनीली आँखों से इशारा करके उसे रोने के लिए मना किया। मनप्रीत ने प्रिंसी को सीने से लगा लिया और फूट पड़ी। पाँच दिन के बाद अस्पताल से चरनजीत की छुट्टी हुई। उसके मुँह और गले से लेकर खाने की नली तक छाले पड़ गए थे। हर समय मुँह खोलकर हाँफता रहता था। पूरी तरह ठीक होने में उसे एक महीना लग गया। इस घटना के बाद घर में मुर्दनी सी छायी रहती थी। कोई किसी से कुछ नहीं बोलता था। मनप्रीत और प्रिंसी ने भी परिस्थितियों से समझौता कर लिया था।

प्रिंसी की शादी हुए तीन साल होने को आए। इन तीन सालों में वह कई बार घर आ चुकी थी। उसके कपड़ों, गहनों और चेहरे की स्निग्धता से उसके सम्पन्न होने का पता चलता था। लेकिन उसके मन की टीस को केवल मनप्रीत ही जानती थी। तीन सालों में भी प्रिंसी की गोद न भरने का कारण पूछने पर उसने बताया था कि ‘जगजीत पूरी तरह से विक्षिप्त है। उसे पति-पत्नी के आपसी रिश्ते की समझ ही नहीं है। खाना और सोना ही उसका काम है। उस घर में केवल पैसा है लेकिन खुशियाँ नहीं।’ मनप्रीत को प्रिंसी की हालत देखकर बहुत अफसोस होता था। उधर चरनजीत को शराब ने खत्म करना शुरू कर दिया था। दुकान तो पिछले साल ही मदनलाल ने हथिया ली थी। अब वह केवल उस पर बैठने वाला एक सेल्समैन बनकर रह गया था। सब अपनी-अपनी ज़िन्दगी जी रहे थे लेकिन उसमें खुशी नाम की चीज नहीं थी।
एक दिन अचानक आधीरात के समय प्रिंसी का फोन आया। वह बुरी तरह से रो रही थी और बता रही थी कि ‘जगजीत नहीं रहा’। मनप्रीत पर तो जैसे पहाड़ टूट पड़ा। ऐसे समय में न जाने क्यों उसके पेट में जोर की मरोड़ उठने लगती है और सिर चकराने लगता है। वह मोबाइल पकड़े-पकड़े ही जमीन पर बैठ गयी। कुछ पल के बाद उसने होश आया कि प्रिंसी फोन काट चुकी थी। उसने नशे में धुत्त पड़े चरनजीत को जगाया और उसके साथ प्रिंसी के घर चली गयी। घर के बाहर आस-पड़ोस के लोग खड़े थे। घर के अन्दर हाल में सफेद कपड़े से ढँकी जगजीत की लाश पड़ी थी। कुछ लोग इधर-उधर बैठे थे। मदनलाल लाश के पास बैठा रो रहा था तो थोड़ी दूरी पर बैठी प्रिंसी सुबक रही थी। मनप्रीत को देखकर वह दहाड़ मार कर रो पड़ी। चरनजीत भी मदनलाल से चिपक गया। इस हृदय विदारक दृश्य ने वहाँ उपस्थित लोगों को भी भावुक कर दिया। बाहर से दो चार लोग भी अन्दर आ गये।
जगजीत को मरे एक महीना हो चुका था। एक रात जब चारों तरफ सन्नाटा था। मनप्रीत के घर का दरवाजा किसी ने ज़ोर-ज़ोर से खटकाना शुरू कर दिया। मनप्रीत की आँख खुल गयी वह घबराकर दरवाजे के पास पहुँचकर बोली, “कौन है?” “मम्मी...म...मैं...” बाहर से आवाज़ आयी। “अरे प्रिंसी...क्या हुआ बेटा...क्या बात है, इतनी रात में?” कहकर मनप्रीत ने दरवाजा खोल दिया, बदहवास प्रिंसी माँ से लिपट कर बिलख पड़ी, “मम्मी मुझे बचा लो...जगजीत के पापा...” इसके बाद वह कुछ न कह पायी और फूट-फूटकर रोने लगी। मनप्रीत ने उसे सोफे पर बैठाया, दरवाजा बन्द किया और सांत्वना देने लगी। मनप्रीत को न जाने क्यों पहले से ही इस बात का डर था। उसने प्रिंसी को शान्त करके पूरी बात पूछी तो पता चला कि मदनलाल पहले भी कई बार इस तरह की हरकत करने की कोशिश कर चुका था लेकिन किसी अनजान भय के कारण उसके कदम रुक जाते थे लेकिन उस रात तो उसने सारी हदें पार कर दीं। नौकर भी घर में नहीं थे। वह और प्रिंसी अकेले ही थे। वह शराब के नशे में धुत्त प्रिंसी के कमरे में घुस आया। उसके हाथ में सिंदूर की डिब्बी थी। वह उसकी माँग में सिन्दूर भरने की जिद करते हुए उसके साथ जबरदस्ती करने की कोशिश करने लगा। जैसे-तैसे प्रिंसी उसकी गिरफ्त से छूटकर भाग आयी। वह रो-रोकर कह रही थी, “मम्मी, मुझे अब वहाँ नहीं जाना। मैं यहीं रहूँगी या मर जाऊँगी लेकिन उस घर में दुबारा वापस नहीं जाऊँगी।” मनप्रीत प्रिंसी को सीने से लगाए उसका सिर पर हाथ फेरकर उसे शान्त करती रही।
सुबह चरनजीत को जब सारी बात पता चली तो वह आग बबूला हो गया। वह भड़ककर बोला, “मैं साले, मदनलाल की...” लेकिन मनप्रीत और प्रिंसी ने उसे रोक लिया। वैसे भी उसके शरीर में अब इतना दम नहीं रह गया था कि वह झगड़ा कर सके। वह केवल चिल्ला सकता था या गालियाँ दे सकता था। शरीर से कमजोर आदमी केवल यही कर सकता है। पर, प्रिंसी के वापस न जाने की बात का समर्थन उसने किया और मदनलाल को घर में न घुसने देने की बात भी की। आज पहली बार मनप्रीत को लगा कि चरनजीत के अन्दर सोया बाप जागने लगा है। वह जल्दी-जल्दी काम निपटाकर चरनजीत के साथ प्रिंसी को लेकर थाने चली गयी और सारी बातें बताते हुए मदनलाल के खिलाफ रिपोर्ट लिखवा दी। उस दिन के बाद न तो मदनलाल ने उस तरफ का रुख किया और न ही उसका नाम उस घर में लिया गया।
प्रिंसी ने एक छोटे से स्कूल में नौकरी कर ली और अपने खर्चे खुद उठाने लगी। कभी-कभी घर की जरूरतों को भी वह पूरी कर देती थी। जीवन धीरे-धीरे पटरी पर लौटने रहा था। उस दिन रविवार था। स्कूल नहीं जाना था इसलिए प्रिंसी जाग तो गयी थी लेकिन अलसाई सी अपने बिस्तर में पड़ी मोबाइल चला रही थी। मनप्रीत रोज की तरह जल्दी उठकर घरेलू कामों में लगी थी कि दरवाजे पर दस्तक हुई। मनप्रीत ने दरवाजा खोला तो हक्की-बक्की रह गयी। दो पल बाद कुछ हिचकती हुई बोली, “आओ, अन्दर आओ बेटा मंजीत।” मंजीत का नाम सुनकर प्रिंसी सन्न रह गयी। उसने अपने कमरे से झाँककर देखा मंजीत सोफे पर बैठ चुका था। उसकी एक झलक देखते ही प्रिंसी के मन में आया, ‘कितना स्मार्ट हो गया है, कितने अच्छे कपड़े पहने है।’ उसके मन में अनजानी घबराहट और खुशी के मिलेजुले भाव उमड़ने लगे। उसने अपने कान मनप्रीत और उसकी बातों पर लगा दिए जिससे उसे पता चला कि मंजीत का काम बहुत बढ़ गया है। अपने काम के सिलसिले में ही कल रात वह बरेली आया है। यहाँ दो-तीन दिन वह ठहरेगा। उसने सोचा कि उन लोगों से एक बार मिल ले, बस इसीलिए चला आया। इन्हीं बातों के बीच उसे पता चला कि प्रिंसी से रिश्ता टूटने के बाद उसने फिर किसी और से शादी नहीं की। जब उसने प्रिंसी और उसके परिवार के बारे में पूछा तो मनप्रीत ने सारी बातें उसे बता दीं। सबकुछ सुनकर मंजीत ने प्रिंसी से मिलने और बात करने की इच्छा जाहिर की। मनप्रीत ने प्रिंसी को आवाज लगाई। कुछ ही पलों में सकुचाई और घबराई प्रिंसी अपने कमरे से बाहर निकलकर मंजीत के सामने सोफे पर बैठ गयी। मनप्रीत रसोई की तरफ चली गयी पर उसका ध्यान उन दोनों पर था। दोनों ने एक दूसरे से कुछ नहीं कहा लेकिन आँखों ने सबकुछ जाहिर कर दिया। उन्हें देखते हुए मनप्रीत को लग रहा था कि शायद उसकी बेटी की ज़िन्दगी में दूसरा सूरज उगा है। उसने एक बार फिर मन ही मन भगवान से प्रार्थना की कि ‘इस बार मेरी बेटी के हिस्से का सूरज उसे दे दो। मैं ज़िन्दगी भर तुमसे और कुछ नहीं माँगूँगी।’ मनप्रीत की आँखें भर आईं उसने जो कुछ सुना उससे उसे यकीन हो गया कि सच्चे मन से माँगी दुआ कभी बेकार नहीं जाती। मंजीत प्रिंसी से कह रहा था, “विल यू मैरी मी।”

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