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सुनहरी साँझ

सुनहरी साँझ
---लवलेश दत्त

“हैलो! भइया...” वीरेन्द्र ने बड़े भाई सुरेन्द्र को फोन किया।
“हाँ वीरू! क्या हुआ?”
“क्या हुआ? आप तो इतने बिजी रहते हैं कि आपको कुछ खबर ही नहीं”
“पर हुआ क्या? इस तरह क्यों बोल रहा है?”
“अरे, बताऊँगा तो होश उड़ जाएँगे”
“अब पहेलियाँ मत बुझाओ, सीधे-सीधे बताओ क्या बात है? ऐसा कौन-सा पहाड़ टूट पड़ा जो ऑफिस टाइम में डिस्टर्ब कर रहे हो?”
“पहाड़ ही टूट पड़ा है, ज़रा मम्मी का व्हाट्सएप स्टेटस और फेसबुक की पोस्ट देखो”
“क्यों क्या हुआ? तुम्हीं बता दो, अभी फुरसत नहीं है यह सब देखने की।”
“मम्मी शादी करने जा रही हैं।”
“व्हाsssssट...क्या कह रहे हो वीरू? आई कान्ट बिलीव दिस...वेट अ मिनट, मैं देखता हूँ” सुरेन्द्र ने फोन होल्ड करके लैपटाप पर अपना फेसबुक लॉग इन किया। स्क्रीन पर उसकी माँ अपने ही उम्र के किसी वृद्ध का हाथ थामे खड़ी थीं। ऊपर टैग लाइन लिखी थी—‘गोइंग टू गेट मैरीड सून’। यह देखकर उसके होश उड़ गए। उसने आश्चर्य से फिर फोन कान पर लगा लिया, “हाँ वीरू, तू सही कह रहा है। यह सब क्या है?”
“मुझे क्या पता क्या है? आप ही मम्मी से बात करो कि बुढ़ापे में यह क्या पागलपन सवार हो गया है? मेरे पास रात से फोन आ रहे हैं। सब पूछ रहे हैं कि यह सब क्या है? मम्मी के साथ वह बुड्ढा कौन है? कितनी बदनामी हो रही है?” वीरेन्द्र ने चिन्तित होते हुए कहा।
“हाँ, वीरू बदनामी की तो बात ही है। पता नहीं मम्मी को क्या सनक सवार हो गयी? लेकिन यार मेरा तो उनसे झगड़ा हो गया है इसलिए तू ही पता कर कि वह किसके साथ हैं फोटो में? हद है यार, हम तो किसी को मुँह दिखाने के काबिल नहीं रहे,” सुरेन्द्र ने माथे का पसीना पोंछते हुए उत्तर दिया।

प्राथमिक विद्यालय से सेवानिवृत्त सुशीला ने अपना पूरा जीवन जिस संघर्ष और परेशानियों के साथ बिताया उससे अच्छे से अच्छा इंसान भी टूट जाता। मगर सुशीला ने विषम से विषम परिस्थिति में भी हौलसा नहीं छोड़ा। बीमार पति, दो छोटे बच्चे और वृद्ध सास की देखभाल के साथ-साथ नौकरी की उलझने। सचमुच सबकुछ इतना आसान नहीं थीं। कई बार नौकरी छोड़ने का विचार मन में उठा, लेकिन पति का अच्छा-खासा व्यवसाय उनकी बीमारी के चलते खत्म हो चुका था। जो कुछ इकट्ठा किया वह व्यवसाय के कर्ज़े उतारने में मुट्ठी से रेत की तरह धीरे-धीरे निकल गया। घर की आर्थिक स्थिति गंभीर होती जा रही थी। ऐसे में यदि वह भी नौकरी छोड़ देती तो फाका करने की नौबत आ जाती। बस यही सब देख-समझकर वह नौकरी छोड़ने की हिम्मत नहीं कर पायी।
उसकी सुबह साढ़े तीन बजे होती थी। बिस्तर से उठते ही भाग-दौड़ शुरू हो जाती। घर की साफ-सफाई, चौका-बर्तन, बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करना, पति और सास के नाश्ते-खाने और दवाई का समुचित प्रबंध करना और इसके बाद तैयार होकर अपनी नौकरी पर जाना। यह तो अच्छा हुआ कि पति की बीमारी के कारण अधिकारियों से बहुत कुछ नहीं कहना पड़ा और उसका तबादला पास के ही एक विद्यालय में हो गया। वर्ना दूर गाँव में जाना तो बहुत मुश्किल हो जाता। इस भागदौड़ के साथ जीवन की गाड़ी जैसे-तैसे खिंच रही थी कि मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। एक सुबह जब वह पति को चाय देने गयी तो देखा कि बिना सहारे के जो हिल भी नहीं सकता था, इस दुनिया से हमेशा के लिए उठ गया। एक लम्बी वेदनापूर्ण चीख ने उसका घर ही नहीं आसपास के घरों को भी वेध दिया। बूढ़ी सास तो अचेत-सी हो गयी। किसी माँ के सामने उसके बेटे की लाश उसके दिल को चीरकर रख देने के लिए बहुत थी। सुशीला दोनों बेटों को कलेजे से लगाए बेसुध हुए जा रही थी और पास-पड़ोस की औरतें उसे दिलासा दे रहीं थीं। सब्र रखने को कह रही थीं। सचमुच होनी को कौन टाल सकता है। हमेशा सिंदूर से सजी उसकी आबाद माँग अब किसी बंजर धरती की तरह वीरान हो चुकी थी।
पति की मृत्यु के समय बड़ा बेटा सुरेन्द्र दस साल का और छोटा नरेन्द्र छह साल का था। घर की जिम्मेदारियों और बूढ़ी सास की सेवा ने उसे दुख मनाने का पूरा मौका नहीं दिया। अन्त्येष्टि, दसवां, तेहरवीं आदि सभी कामों से फुरसत मिलते ही उसकी दिनचर्या यथावत आरंभ हो गयी। पति की मृत्यु को अभी एक साल भी न हुआ था कि सास भी बेटे के ग़म में जाती रहीं। एक ही साल में पति और सास की मृत्यु से असहाय और अकेली सुशीला ने हिम्मत नहीं हारी और अपने जीवन की विषमताओं से लड़ते हुए बेटों के जीवन को सँवारने में जुटी रही।
दोनों बेटों को अच्छी शिक्षा दिलवाई। बड़े बेटे सुरेन्द्र ने इंजीनियरिंग पास की ही थी कि उसे दिल्ली की एक बड़ी कम्पनी में नौकरी मिल गयी और छोटे बेटे वीरेन्द्र ने एमबीए करते ही एक मल्टीनेशनल कम्पनी ज्वाइन कर ली। दोनों बेटों की शादियाँ अच्छे घरों में हुईं। बेटों की तरक्की ने उसके जीवन के दुखों को बहुत हद तक कम कर दिया था। पति की याद अक्सर एक टीस की तरह मन में उठती थी लेकिन बेटों के चहकते परिवारों को निहारकर उसका हर दुख एकदम छू हो जाता। दोनों बेटे अपने परिवारों के साथ बाहर अवश्य रह रहे थे लेकिन रोज़ ही फोन से अपनी माँ का हाल-चाल लेते थे और दो-चार दिन की छुट्टी या त्योहारों पर माँ के पास आते भी थे। सुशीला के आँगन में खुशियाँ अठखेलियाँ कर रही थीं।
परिवर्तन संसार का नियम है और समय अपने साथ बहुत कुछ परिवर्तित कर देता है जिसका पता हमें तब चलता है जब समय बहुत आगे निकल जाता है। ऐसा ही परिवर्तन सुशीला के जीवन में भी हुआ। पिछले कुछ वर्षों में पहले सुरेन्द्र और फिर वीरेन्द्र ने आना बहुत कम कर दिया। केवल फोन से उसका हाल लेते रहते थे। अब फोन का क्रम भी टूटने लगा था। जब कभी उसका मन ऊबता तो वह फोन करती और उधर से ‘अभी बिजी हूँ माँ’, या ‘मैं तुमको बाद में फोन करता हूँ’ कहकर दस-पन्द्रह सेकेंड में ही फोन कट जाता।
एक रात सुशीला के पेट में तेज़ दर्द उठा। पहले तो देसी दवाओं से वह अपना दर्द कम करने का उपाय करती रही लेकिन जब दर्द हद से ज्यादा बढ़ गया तो बेचैन होकर उसने सुरेन्द्र को फोन किया। रात के दो बजे माँ का फोन देखकर सुरेन्द्र को घबराहट हुई। उसने तुरन्त फोन अटेण्ड किया, “हैलो...मम्मी! क्या हुआ?”
“क्या बताऊँ बेटा...मैं तुम्हें परेशान करना नहीं चाहती थी...पर...आह... क्या करूँ...मेरे पेट में बहुत दर्द हो रहा है... आह...बिल्कुल...आराम नहीं मिल रहा तो तुम्हें फोन कर दिया। मैं क्या करूँ बेटा?” दर्द ते तड़पते हुए उसने कहा।
“ओह ! शायद गैस की वजह से होगा। आप परेशान न हों, मैं जिन दवाइयों के नाम बता रहा हूँ उन्हें फर्स्ट एड बॉक्स से ले लीजिए, आराम मिल जाएगा,” कहकर सुरेन्द्र ने उसे दवाइयों के नाम बताए। सुशीला ने दवाइयाँ लीं और आधे घंटे में ही उसे आराम मिल गया। उसने सोचा कि ‘सुरेन्द्र को बता दूँ कि वह चिन्ता न करे’ उसने तुरन्त फोन किया। फोन की लम्बी घंटी जाने के बाद फोन रिसीव हुआ। इस बार बहू ने फोन उठाया, “जी मम्मी जी बताइए, क्या हुआ?” “बेटा, जो दवाएँ सुरेन्द्र ने बताईं थीं उनसे मुझे आराम मिल गया है तो सोचा...” वह बात पूरी न कह पाई थी कि उधर से आवाज आई, “जब आराम मिल गया तो दुबारा फोन करने की क्या ज़रूरत थी मम्मी जी, प्लीज़ यूज़ सम कॉमन सेंस, इतनी रात में आप बार-बार फोन करके हमें डिस्टर्ब कर रही हैं। जब आराम मिल ही गया तो आराम से सोइए और सुबह बात कीजिएगा। गुड नाइट।” फोन कट चुका था। वह हतप्रभ-सी फोन पकड़े रह गयी। यह क्या? उसने कभी सोचा भी नहीं था कि इतनी पढ़ी-लिखी और समझदार बहू उससे उस तरह से भी बात कर सकती है। उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था। पेट का दर्द तो शान्त हो गया लेकिन बहू की बातों से जो शूल हृदय में चुभा उसकी पीड़ा शान्त कैसे होगी? अगले ही पल उसके मन में ममत्व उमड़ पड़ा, ‘ठीक ही तो है, बच्चे सो रहे होंगे और मैं उन्हें डिस्टर्ब कर रही थी। नींद में बार-बार फोन आए तो खीझ तो उठती ही है। वैसे भी जब दर्द ठीक हो गया तो मुझे खुद भी आराम करना चाहिए था। मैं भी बिल्कुल मूर्ख हूँ।’ यह सोचकर मन की पीड़ा उसे कुछ हल्की महसूस हुई और वह बिस्तर पर लेट गयी।
सुबह उठी तो न चाहते हुए भी बहू की बातें उसके मन-मतिष्क में एक अजीब-सा कोलाहल मचाए थीं। उसे लग रहा था कि कल रात एक भयानक सपना उसने देखा था। उसकी बहू उससे ऐसा नहीं कह सकती, लेकिन सच को कैसे झुठलाया जा सकता था। पूरा दिन इसी उहापोह में कट गया। रात के आठ बजे रोज की तरह वह सुरेन्द्र के फोन की प्रतीक्षा करने लगी क्योंकि रोज आठ बजे के करीब खाना खाने से पहले सुरेन्द्र का फोन आता था और खाना खाने के बाद साढ़े नौ बजे वीरेन्द्र उसे फोन करता था। लेकिन आज दोनों में से किसी का फोन नहीं आया। मन एक अनजान आशंका से घबराने लगा। बेचैनी बढ़ने लगी तो उसने स्वयं ही सुरेन्द्र को फोन किया, “हैलो, सुरेन्द्र...बेटा?” फोन तो उठा पर उधर से किसी भी प्रकार की आवाज़ नहीं आ रही थी। कुछ मिनट तक वह ‘हैलो...हैलो’ बोलती रही लेकिन उधर से कोई जवाब नहीं आया। उदास होकर उसने फोन रख दिया और वीरेन्द्र को फोन किया लेकिन वीरेन्द्र का फोन भी नहीं लगा। भारी मन से जैसे-तैसे दो रोटियाँ खाईं और अपने कमरे में आ गयी। बिस्तर पर लेटते हुए वह पिछले जीवन की बातों में खो गयी और धीरे-धीरे उसने नींद आ गयी।
रात के करीब डेढ़ बजे उसे फिर पेट में दर्द उठा। पहले तो लगा कि कुछ चुभ रहा है लेकिन धीरे-धीरे दर्द इतना बढ़ गया कि बर्दाश्त से बाहर हो गया। जब सुशीला से नहीं रहा गया तो उसने सुरेन्द्र को फोन करने के लिए फोन उठाया लेकिन फिर पिछली रात की बात याद आई और उसने तुरन्त फर्स्ट एड बॉक्स से वही दवाइयाँ निकाल कर खा लीं जो सुरेन्द्र ने बताईं थीं। दवाई ने फिर अपना असर दिखाया और उसे आराम मिलने लगा। धीरे-धीरे उसकी आँख भी लग गयी।
सुबह साढ़े पाँच बजे नौकरानी बसंती के आने पर उसकी आँख खुली। यूँ तो वह उसके आने से पन्द्रह बीस मिनट पहले ही जाग जाती थी लेकिन रात को दर्द की वजह से उसकी नींद खराब हो गयी थी इसलिए आज देर तक सोती रही। बसंती की आदत है कि वह सबसे पहले दो कप चाय बनाती है, एक अपने और सुशीला के लिए। दोनों साथ-साथ बैठकर चाय की चुस्कियों के साथ इधर-उधर की बातों का आनंद लेती हैं और फिर घर का काम किया जाता है। बसंती के साथ सुशीला खुद भी लगी रहती है क्योंकि खाली बैठना उसे बिल्कुल पसन्द नहीं। सुशीला बसंती को अपने साथ बीती हर बात बताया करती है। वह भले ही उसकी नौकरानी है लेकिन दोनों सहेलियों की तरह व्यवहार करती हैं। उस दिन बसंती ने जब चाय का प्याला सुशीला को दिया तो उसने चाय न लेने के लिए हाथ से इशारा किया। उसकी ओर देखकर बसंती को हैरानी हुई। उतरा हुआ चेहरा, बुझती हुई आँखें देखकर लगता था कि उसे बेहोशी-सी छा रही है। बसंती ने घबराकर पूछा, “का हुआ जिज्जी? कोई परेसानी है?”
“क्या बताऊँ बसंती, पिछले दो दिनों से पेट का दर्द...” कहते हुए वह सोफे पर लुढ़क गयीं। बसंती घबरा गयी। उसने सुशीला को सँभाल कर लिटाया और दौड़कर पास की बिल्डिंग में गयी जहाँ डॉक्टर मेहरा एक फ्लैट में रहते थे। बंसती उनके घर भी काम करती थी। कुछ ही मिनट में डॉक्टर साहब बसंती के साथ सुशीला के घर पहुँच गये। उन्होंने सुशीला को देखा और अपना ट्रीटमेंट शुरू कर दिया। एक-दो इंजेक्शन लगाये तथा दवाइयाँ देते हुए बसंती को हिदायत देने लगे, “बसंती, जब मास्टरनी को होश आ जाए तो उन्हें कुछ खिला देना और ये दवाइयाँ दे देना और हाँ मुझे फोन भी कर देना।” “जी” कहते हुए बसंती ने दवाइयाँ ले लीं। चलते समय उन्होंने फिर कहा, “और देख, तुझे अभी यहीं रहना चाहिए, मास्टरनी के पास। आज मेरे यहाँ काम करने मत आना। इन्हीं की देखभाल कर।” “जी, बा बात तो ठीक है पर जिज्जी को भओ का है?” बसंती ने दरवाजे तक पहुँच चुके डाक्टर साहब से पूछा। “मुझे लगता है कि पेट में कोई सीरियस प्राब्लम है। हो सकता है अल्ट्रासाउंड करवाना पड़े।” कहकर डॉक्टर साहब चले गये। बसंती घर के कामों में लग गयी।
दस बजे के आसपास सुशीला को होश आ गया। बसंती ने उसने पहले चाय-बिस्किट और फिर दवाइयाँ देते हुए सारी बात बता दी। इसके साथ ही बसंती ने सुशीला से बेटों को फोन करने और यहाँ बुलाने के लिए भी कहा। सुशीला ने हामी भरते हुए बोली, “अरे, पहले अल्ट्रासाउंड तो हो जाने दे। पता चले कुछ भी न निकले। बेकार बच्चों को बुलाऊँ। उनके काम में भी हर्जा होगा।” अपनी बात पूरी करके उसने बसंती को भी जाने के लिए कहा, “मैं अब सही हूँ बसंती, तू भी चली जा।” “नहीं, नहीं जिज्जी, मैं तो संझा से पहले नाय जाऊँगी। डॉक्टर साहब आन को कै गए हैं। वे कै रहे संझा को आय के देखेंगे तईं कोई बात बताँगे...अल्टासौंन करन को भी कै रै हे।” वैसे सुशीला भी नहीं चाहती थी कि बसंती जाए क्योंकि जितना तीव्र और असहनीय दर्द उसे उठता था, उससे अंदाजा हो रहा था कि निश्चित ही उसे कोई कोई गंभीर बीमारी है। ऐसे समय में उसे किसी के साथ की बहुत जरूरत होती थी। उसे याद आया कि ऐसा ही दर्द सालों पहले से उठा था और उसके पति ने उसे तुरन्त अस्पताल में भर्ती करवाया था। लेकिन दो-चार दिनों में वह भली चंगी होकर वापस आ गयी थी। हाँ, कुछ समय दवाई जरूर चली थीं लेकिन उसके बाद फिर कभी उसे ऐसा दर्द नहीं उठा।
बसंती दिन भर उसके साथ रही। पूरा दिन बसंती से बात करने और टीवी देखने में कब गुजर गया पता ही नहीं चला। अस्त होते हुए सूर्य की लालिमा के साथ जब दरवाजे पर आहट हुई तो बसंती ने डॉक्टर साहब के आने की खबर दी। डॉक्टर साहब ने सुशीला का पुनः चेकअप किया और उससे दर्द के विषय में पूरी बात जानने के बाद उससे अल्ट्रासाउंड करवाने की सलाह देते हुए कहा, “देखिए मास्टरनी जी, अगर आप चाहती हैं कि आपका सही इलाज हो तो जरूरी है कि आप अल्ट्रासाउंड करवा लें। बल्कि मैं तो यह कहूँगा कि आप अपने बच्चों को बुला लीजिए। फिर आपकी देखभाल भी सही से हो जाएगी। क्योंकि जैसा आपने बताया यदि उसी तरह अचानक रात-बेरात आपको परेशानी हुई और आपके पास कोई नहीं हुआ तो बहुत दिक्कत हो सकती है। वैसे भी इस उम्र में यूँ अकेले रहना ठीक नहीं।”
सामान्यतः डॉक्टर्स की सभी बातों पर लोग ध्यान नहीं देते। अगर देते भी हैं तो उसकी गंभीरता को नहीं समझते। सुशीला का भी यही हाल था उसने डॉक्टर साहब की तरफ देखते हुए कहा, “अरे डॉक्टर साहब, कोई हल्की-फुल्की बीमारी ही होगी—गैस-वैस। अगर बात बहुत बढ़ी तो अल्ट्रासाउंड करवा लूँगी। आपने यहाँ आने का कष्ट उठाया उसके लिए धन्यवाद। कृपया अपनी फीस बता दीजिए।” डॉक्टर मेहरा को सुशीला की बात बहुत बुरी लगी, वह उठकर खड़े हो गये और खुद को संयत करते हुए बोले, “देखिए सुशीला जी, अगर आपको लगता है कि मैं पैसों के लिए यह सब कह रहा हूँ तो मुझे माफ कीजिए। एक डाक्टर होने के नाते जो मुझे सही लगा वह मैंने कह दिया, रही बात फीस की तो मैं आपको बता दूँ कि मैं फीस क्लीनिक पर भी नहीं लेता तो आपसे क्या लूँगा। इतना जरूर कहूँगा कि आपकी हालत गंभीर है, मुझे शक है कि आपको भयंकर किस्म का आँतों का इन्फेक्शन है, एक तरह से आँतों की टीबी। बस अपने शक को दूर करने के लिए ही मैं आपका अल्ट्रासाउंड करवाना चाहता था। आगे आपकी मर्जी।” कहकर डॉक्टर साहब तेजी से बाहर निकल गये और जाते-जाते बसंती से कह गये कि ‘मास्टरनी को मेरा नंबर दे देना क्या पता कब उन्हें जरूरत पड़ जाए’।
उनके जाने के बाद सुशीला को अपने व्यवहार पर बहुत पछतावा हुआ। उसे लगा कि उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था। अगर अल्ट्रासाउंड नहीं करवाना था तो कम से कम उनके सामने तो नहीं कहना चाहिए। लेकिन वह भी क्या करे। समय और परिस्थितियों के थपेड़ों ने उनके व्यवहार की स्निग्धता छीन ली थी। कभी कभी उसे खुद भी अपने व्यवहार का रूखापन अच्छा नहीं लगता और आज भी कुछ ऐसा ही हुआ। दूसरी तरफ वह इस सम्बन्ध में पहले अपने बच्चों से बात और मशविरा करना चाहती थी, भले ही उसके बेटों का व्यवहार उसके प्रति उचित नहीं था लेकिन फिर भी हैं तो उसके अपने बेटे। उनसे एकबार बात करने में हर्ज ही क्या है? इसलिए भी उसने डॉक्टर साहब को दो टूक जबाव दे दिया बल्कि सच तो यह है कि उसके मुँह से ऐसी बात अनायास निकल पड़ी। जिस कारण उसे अपने व्यवहार पर सचमुच पछतावा हो रहा था। वह अपने आप को कोस ही रही थी कि बसंती बोल पड़ी, “वैसे जिज्जी, आपको एसो नाय कैन चइए। छोटो मुँह बड़ी बात, पर वे आपकी भली के लै ही कै रै। इत्ती उमर को आदमी गलत नाय बोलेगो।” सुशीला आत्मग्लानि से भर गयी और उसे बसंती की बात का जवाब देते नहीं बना।
रात के करीब साढ़े आठ बजे वह टीवी देख रही थी। उसमें खबर आ रही थी कि ‘मुम्बई के किसी फ्लैट में एक कंकाल मिला है।’ समाचारवाचक जोर-जोर से चीख रहा था कि ‘उस फ्लैट में एक बूढ़ी माँ अकेले रहती थी। उसका बेटा विदेश में था जो उससे सालों में एकाध बार ही मिलने आता था। यह कंकाल उसी बूढ़ी माँ का है जो विदेश गये अपने बेटे के इंतजार में चल बसी। उसके मरने की किसी को खबर नहीं हुई। आज जब कई साल बाद बेटा माँ से मिलने आया तो पता चला कि माँ कंकाल में बदल चुकी थी।’ वह आँखें फाड़े टीवी पर यह समाचार देख ही रही थी कि सुरेन्द्र का फोन आ गया और उसने सारी बात कह दी। सुरेन्द्र ने उसकी बात का कोई सही उत्तर नहीं दिया उल्टे झुँझलाकर उसे ही दोष देते हुए बोला, “मम्मी आपसे कितनी बार मैंने और वीरेन्द्र ने भी कहा है कि वहाँ का मकान बेचो और हमारे पास आकर रहो। लेकिन आपको तो न जाने उस मकान से ऐसा क्या लगाव है कि उसे छोड़ना नहीं चाहती? जब आप अपनी ज़िद पर अड़ी हैं, तो कोई क्या कर सकता है? अल्ट्रासाउंड करवाइए या आप्रेशन, अगर यहाँ होतीं तो हम आपकी देखभाल कर सकते थे ना। अब आप वहाँ पड़ी हैं, तो हम लोग छुट्टी लेकर आएँ भी तो कितने दिन तक वहाँ पड़े रहेंगे? वापस तो आना ही है फिर यहाँ मेरे साथ भी न जाने कितनी प्राब्लम्स हैं?” कुछ पल रुककर सुरेन्द्र ने आगे कहा, “मैं तो अब भी यही कहूँगा कि आप उस मकान का मोह छोड़िए और यहाँ आकर...” सुशीला ने चिढ़कर फोन काट दिया। आँखों में आँसू थे वह सोच भी नहीं सकती थी कि ‘यह वही सुरेन्द्र है जिसने इस पुराने मकान को तुड़वाकर नये तरह बनवाने की ज़िद की थी और उसने उसकी ज़िद पूरी करने के लिए उसने बैंक से लोन लेकर पूरा मकान जड़ से तुड़वाया और जैसा-जैसा सुरेन्द्र ने कहा वैसा ही बनवाया। क्या यह वही सुरेन्द्र है जिसे अपने इस घर से बहुत प्यार था?’ सुशीला से सुरेन्द्र की बातें सहन नहीं हुईं। अपने पुराने दिनों की एक-एक घटना को याद करते हुए उसकी आँखों से लगातार आँसू बहे जा रहे थे कि तभी उसकी ममता ने जोर मारा और उसने खुद को सँभालते हुए अपने छोटे बेटे वीरेन्द्र को फोन किया। पर वीरेन्द्र ने भी उसे यह कहकर फोन काट दिया कि ‘मेरी कम्पनी मुझे विदेश भेजने की तैयारी कर रही है। ऐसे में मैं आपके पास नहीं आ सकता, जो करना है आप खुद ही करें। वैसे भी आज तक आप अपने मन का ही तो करती आईं हैं। आपने खुद ही तो सारे फैसले लिए हैं।’ फोन कब का कट चुका था लेकिन वीरेन्द्र के कहे अन्तिम वाक्य उसके कानों में देर तक गूँजते रहे, ‘आज तक आप अपने मन का करती आईं हैं। आपने खुद ही तो सारे फैसले लिए हैं।’ सुशीला को एकाएक आवेश आ गया और वह मन-ही-मन हुँकार उठी, ‘तो किससे पूछती? कौन था मेरे साथ? किसका मुँह ताकती? दो बच्चों की जिम्मेदारी सौंप कर जिस स्त्री का पति भगवान को प्यारा हो जाए उसकी रीढ़ की हड्डी टूट जाती है, एक तरह से बेसहारा हो जाती है, अगर मैं अपने विवेक और हिम्मत से काम न लेती तो क्या तुम लोग आज इस लायक बन बाते? तुम्हारी हल्की-सी आह से मैं बेचैन हो उठती थी। नौकरी पर रहते हुए भी दिल और दिमाग तुम दोनों में ही लगा रहता था। और आज जब मुझे तुम्हारी जरूरत है तो तुम्हारे पास मेरे लिए समय नहीं है...क्या इसी दिन के लिए लोग औलाद माँगते हैं? मेरी गलती यही है ना कि मैंने तुम्हारे कहने से मकान नहीं बेचा। इसी से तुम समझते हो कि मैं अपने मन का करती हूँ तो ठीक है, ऐसा ही सही। आगे भी मैं अपने मन का ही करूँगी।’ इसके बाद सुशीला बिलख पड़ी और रोने लगी। रोते-रोते उसकी आँख लगी ही थी कि उसने एक भयानक स्वप्न देखा। उसने देखा कि ‘मुम्बई के फ्लैट में मिला बुढ़िया का कंकाल उसका अपना अस्थि पंजर है और वह फ्लैट उसका अपना यही घर है जिसके दरवाजे तोड़कर लोग अन्दर आ रहे हैं। चारों तरफ लोगों की भीड़ लगी है, भीड़ में उसका बीमार पति, उसकी सास भी खड़ी है। भीड़ के कुछ लोग उसके कंकाल को देखकर हँस रहे हैं तो कुछ उसके बेटों को कोस रहे हैं, कुछ उसके कंकाल से घृणा कर रहे हैं, तो कुछ लोग डर रहे हैं इसीलिए कोई उसे हाथ नहीं लगा रहा। तभी अचानक उसके कंकाल में हरकत होने लगी। कंकाल की पसलियों के पीछे लटकता दिल धड़कने लगा है। उसकी साँसें तेजी से चलने लगीं और वह घबराकर उठ गयी। चैतन्य होते ही उसने देखा कि वह अपने बिल्कुल ठीक थी। अपने घर में, अपने कमरे में अपने बिस्तर में थी लेकिन बिल्कुल अकेली थी। उस समाचार और सपने को याद करके उसके शरीर में एक सिहरन दौड़ गयी। एक बार फिर उसकी रुलाई फूट पड़ी और रोते-सुबकते ही सारी रात बीत गयी।
सुबह बहुत उदास और बुझी-बुझी-सी थी। बसंती आयी तो सुशीला सोफे पर बैठी थी। उसकी आँखें सूजी हुई थीं। लेकिन चेहरे पर एक आक्रोश और अलग-सा आत्मविश्वास दिखायी दे रहा था। बसंती के साथ चाय पीते हुए उसने सारी बातें बताने के बाद कहा, “क्या आज मेरे साथ अल्ट्रासाउंड करवाने चलेगी।”
“चलिओ जिज्जी, लेकिन वे डॉक्टर साहेब की हालत कल रात बहुत बिगड़ गयी। बा वाली बिल्डीन के गुप्ता जी डॉक्टर साहेब को लेकर रातईं में अस्पताल भाजे,” बसंती चाय की चुस्की लेने लगी।
“अरे क्या हुआ उन्हें? शाम को अच्छे भले थे। और क्या उनके बच्चे नहीं है जो गुप्ता जी उन्हें लेकर गए?”
“अरे जिज्जी, उनको हाल भी तुमारो जैसोई है। अइसे बच्चन से तो बिना बच्चन वारे सही हैं। दुई-दुई लड़का हैं पर बाप को अकेलो छोड़ के मरे विदेसन में बस गए। डॉक्टरनी के मरन के बाद से बिचारे अकेल जैसे-तैसे जी रै हैं।”
“बसंती, अल्ट्रासाउंड करवाने के बाद, उन्हें भी देखने चलेंगे...चलेगी ना?” कुछ सोचते हुए सुशीला ने कहा।
“अरे मोरी जिज्जी, मुँह की बात छीन लई...चलिओ, मैं तो खुदई सोच रई जान की, पर हिम्मत नाय परत है अकेले। सो तुम्हारे साथ कोई बात नाय।”
अल्ट्रासाउंड करवाने के बाद रिपोर्ट लेकर दोनों डॉक्टर साहब को देखने पहुँचीं। डॉक्टर साहब की हालत ठीक थी उन्होंने सुशीला का स्वागत किया। औपचारिक बातचीत के बाद जब सुशीला ने उनसे पूछा, “अचानक ऐसा क्या हो गया? शाम को तो आप सही थे।” डॉक्टर साहब ने बिना किसी बहाने के बताना शुरू कर दिया, “सुशीला जी, कल रात बच्चों की बहुत याद आ रही थी तो उनसे बात करने के लिए मैंने उन्हें फोन किया पर मेरे बेटे ने...” यह कहते हुए उनकी आँखों में आँसू आ गये। उनकी आवाज़ भर्रा गयी। सुशीला को समझते देर नहीं लगी उसे भी कल रात की घटना याद आई और वह भी उदास हो गयी। वह हल्के से बुदबुदाई, “मैं जानती हूँ बच्चों के ऐसे व्यवहार से दिल कितना रोता है।” डॉक्टर साहब ने उसकी तरफ देखा फिर सामने दीवार को एकटक ताकने लगे। सुशीला ने गर्दन झुका रखी थी।
वातावरण में बोझिलता बढ़ गयी दोनों ही अपने बच्चों से आहत और दुखी थे। उन्हें अपना जीवन व्यर्थ लग रहा था। इतने में डॉक्टर साहब की नज़र सुशीला के हाथ पर पड़ी जिसमें उसने अल्ट्रासाउंड की रिपोर्ट पकड़ रखी थी। उसे देखते ही वह बोले, “अरे आपने अल्ट्रासाउंड करवा लिया, लाइए दिखाइए क्या रिपोर्ट है?” सुशीला ने लिफाफा डॉक्टर साहब को दे दिया। रिपोर्ट देखते हुए डॉक्टर साहब के चेहरे के भाव गंभीर हो गये। रिपोर्ट का पूरी तरह से मुआयना करने के बाद उन्होंने गंभीर आवाज़ में कहा, “आखिर वही हुआ जिसका मुझे डर था। आपको आँतो की बीमारी है सुशीला जी। जल्दी ही आपरेशन करना होगा।”
सुशीला के चेहरे पर चिन्ता के हल्के से भाव उभरे लेकिन उसने खुद को सँभालते हुए मुस्कुराते हुए कहा, “आप तो खुद बिस्तर पर हैं आप मेरा आपरेशन कैसे करेंगे?” सुशीला की बात सुनकर डॉक्टर मेहरा भी हँस दिए और बोले, “मैं नहीं कर सकता लेकिन अपनी देखरेख में करवा तो सकता हूँ।” फिर कुछ पल ठहरकर उन्होंने बात आगे बढ़ायी, “सुशीला जी, मेरी पत्नी को भी यही बीमारी थी। मैं बच्चों के भरोसे बैठा रहा और...” एकबार फिर पूरे कमरे में शान्ति छा गयी। डॉक्टर साहब ने गले को साफ करते हुए कहा, “आप चाहें तो अपने बच्चों को...” “नहीं, डॉक्टर साहब, मैं अपनी ज़िन्दगी के फैसले खुद ले सकती हूँ और मैं नहीं चाहती कि मेरी वजह से किसी का प्रमोशन रुके या किसी का विदेश टूर, आप बताइए आपरेशन कब करवाना है?” डॉक्टर मेहरा सुशीला की दृढ़ता और आत्मविश्वास देखते रह गए। उनके मन में आया, ‘काश ऐसी दृढ़ता उस समय मुझमें या मेरी पत्नी में आ गयी होती तो आज...’ उनकी आँखें सजल हो उठीं। सुशीला को देखकर उन्हें गर्व हो रहा था। सुशीला ने सिद्ध कर दिया था कि यदि दृढ़ इच्छाशक्ति और जिजीविषा हो तो बुढ़ापा लाचार नहीं हो सकता।
डॉक्टर साहब के मन में ऐसे विचार चल ही रहे थे कि उनका कंपाउण्डर हाथ में अखबार लिए हुए आया, “अरे सर देखिए तो क्या कमाल की खबर छपी है...साठ साल की दुल्हन और पैंसठ का दूल्हा।” अखबार की खबर पढ़ते हुए वह आगे बोला, “बच्चों की बेरुखी से परेशान होकर दो वृद्धों ने थामा एक दूसरे का हाथ।” इससे पहले वह आगे कुछ कहता बसंती बोल पड़ी, “जिज्जी, छोटो मुँह बड़ी बात, मैं तो कहत हूँ, आप दोनों लोग भी एक दूसरे को हाथ थाम लेयो। अखबार की का कहत हो...मोये याद है, हमाए गाँव में एक मम्मा हे, उनऊ की कहानी आप लोगन जैसी ही। अरे उनै तो बच्चन ने मार के घरै से निकाद्दऔ। का करते बेचारे, एक पंडताइन ने आसरो दऔ। बाद में उन दोनुवन ने एक दूसरे को हाथ पकड़ लौ। अन्त बखत चैन से काटो।” बसंती की बात सुनकर सुशीला की आँखें फटी रह गयीं, “क्या बक रही है बसंती? तेरा दिमाग तो खराब नहीं हो गया?”
“सुशीला जी, बसंती ठीक कह रही है। हमारे बच्चों ने हमें बेसहारा छोड़ दिया। वह भी ऐसे समय में जब हम दोनों को ही सहारे की जरूरत है। क्या आपने वह खबर नहीं सुनी? बम्बई के फ्लैट में रह रही अकेली बूढ़ी माँ ने दम तोड़ दिया। सालों बाद जब उसका बेटा आया तो उस बुढ़िया का कंकाल सोफे के नीचे पड़ा मिला। सोशल मीडिया, समाचार पत्र, टीवी सब पर उस बेटे की बदनामी हो रही है। लोग उसे जी भर कर गालियाँ दे रहे हैं और कोस रहे हैं। क्या आप चाहती हैं कि हम लोगों का अन्त भी ऐसा ही हो?” डॉक्टर साहब की बात विचार करने योग्य थी लेकिन संकोचवश सुशीला ने कहा, “डॉक्टर साहब ऐसे समय में जबकि हम लोगों के जीवन की शाम आ चुकी है जिसके पीछे केवल अँधेरा ही अँधेरा है और जिसमें खुद का अक्स दिखाई नहीं देता, हम अपने जीवन का क्या भविष्य देखे पाएँगे?” सुशीला कह तो गयी लेकिन बुढ़िया के कंकाल की बात उसके दिमाग में चल रही थी।
डॉक्टर साहब ने उसकी तरफ देखते हुए कहा, “माना हमारे जीवन की शाम है जिसके बाद अँधेरा आता है लेकिन अँधेरे में ही तो इनसान सहारा ढूँढ़ता है जिससे उसे ठोकर न लगे। और फिर अँधेरे में चिराग जलाना तो मना नहीं होता। सुशीला जी, हाथ पकड़ने का एक ही मतलब नहीं होता। हमें सहारे की जरूरत है तो सिर्फ इसलिए कि हमारा अन्त भी उस बुढ़िया की तरह न हो। अपने बन्द घरों में पड़े-पड़े हम कंकाल न बन जाएँ। एक दूसरे का हाथ मदद और सहारे के लिए भी थामा जाता है। हाथ थामने की वास्तविक परिभाषा भी यही है कि कठिन समय में एक-दूसरे को सहारा देना। समाज ने भले ही उस परिभाषा को किसी और अर्थ में रूढ़ कर दिया, लेकिन समय के साथ परिभाषाएँ और मान्यताएँ बनती-बिगड़ती रहती हैं। और ऐसे ही लोग परिभाषाओं के अर्थ बदलते हैं जिन पर सदियों से चली आ रही पुरानी और घिसी-पिटी परिभाषाएँ सही नहीं बैठतीं।” सुशीला सिर नीचा किए सुन रही थी। “सुशीला जी, शाम केवल अँधेरे की चादर लपेट कर नहीं आती बल्कि सुनहरी चूनर ओढ़कर भी आती है। सुबह के बिछड़े हुओं को एकसाथ बैठकर अपनी दिल की आवाज़ सुनाने का वक्त देने के लिए भी आती है। अब मैं अधिक तो नहीं कहना चाहता हाँ, इतना जरूर कहूँगा कि आपके आपरेशन के बाद आपको देखभाल की सख्त जरूरत होगी और उसके लिए मैं तैयार हूँ।”
सुशीला दुविधा में घिर गयी थी। वह समझ नहीं पा रही थी कि क्या जवाब दे। एक तरफ उसके जीवन का सूनापन था। एक ऐसी वीरानी थी जो उसे अपनों ने दी थी तो दूसरी ओर शाम का सुनहरापन उसके स्वागत के लिए खड़ा था। उसकी मनःस्थिति को पढ़कर डॉक्टर साहब ने कहा, “लगता है आप निर्णय नहीं ले पा रही । कोई बात नहीं आप आराम से सोचिएगा। पर ध्यान रखिए, समय अब बदल चुका है और उसी ने हमें एक अवसर दिया है कि हम अपनी साँझ सुनहरी बना सकें।” इतना कहकर डॉक्टर साहब मौन हो गये। सुशीला भी चुपचाप वहाँ से वापस आ गयी।
रातभर सुशीला के दिमाग में डॉक्टर साहब की बातें घूमती रहीं। वह विचारों के ऐसे भँवर में फँसी थी जिससे निकलना उसे अंसभव लग रहा था। वह कुछ भी सोचने में खुद को असमर्थ पा रही थी कि तभी फोन की घंटी बजी और उसने फोन उठाया। फोन सुरेन्द्र का था। वह कह रहा था, “मम्मी, अल्ट्रासाउंड करवा लिया? अगर डॉक्टर आप्रेशन करवाने को कहे तो करवा लेना। मैं तो ऑफिस की वजह से नहीं आ पाऊँगा और प्रिया को भी नहीं भेज पाऊँगा क्योंकि बच्चों के यू टी चल रहे हैं। वैसे भी वह बच्चों की पढ़ाई के लेकर बहुत सेंसिटिव है। देखभाल के लिए एक नर्स रख लेना। हाँ, अगर पैसों की जरूरत हो तो जितने बताओगी भेज दूँगा। बच्चों के यू टी के बाद...” सुशीला ने पूरी बात सुने बिना ही फोन काट दिया। इसके बाद कई बार फोन बजता रहा लेकिन सुशीला ने फोन नहीं उठाया।

आज जब सुशीला के दोनों बेटों ने उसका फेसबुक पोस्ट और व्हाट्सअप स्टेटस देखा तो दोनों चौंक गए। आपस में बात करने के बाद वीरेन्द्र ने तुरन्त सुशीला को फोन किया और बहुत गुस्से में उसे पूछने लगा, “यह सब क्या बकवास है मम्मी, तुम्हें हमारी इज्जत की कोई परवाह है या नहीं? इस उम्र में आप शादी...” सुशीला ने बहुत संयत स्वर में कहा, “परवाह है तभी तो यह फैसला लिया, क्योंकि मैं नहीं चाहती कि किसी के प्रमोशन या विदेश टूर में मैं बाधा बनकर ज़िन्दगी भर ताने सुनुँ और अपने बुढ़ापे पर आँसू बहाऊँ। न यह चाहती हूँ कि तुम्हें मेरा कंकाल सोफे पर पड़ा मिले और दुनिया वाले तुम्हारे नाम पर थूकें। बस इसीलिए मैंने एकबार फिर अपनी ज़िन्दगी का फैसला खुद किया है। शादी का केवल एक ही मतलब नहीं होता बेटे! जी तोड़ मेहनत करते हुए पूरा जीवन कड़ी धूप में बिताने के बाद, अपने हिस्से का हर सुख तुम्हारे नाम करने के बाद मुझे भी अपनी ज़िन्दगी को अपनी तरह से बिताने का पूरा हक़ है क्योंकि मैं तुमसे नहीं, तुम मुझसे हो। ईश्वर करे तुम्हें जीवन की सारी खुशियाँ मिलें लेकिन मुझे भी, कुछ पल के लिए ही सही, पर शाम का सुनहरापन देखने का पूरा हक़ है।” कहकर सुशीला ने फोन काट दिया और आकाश में ढलते सूरज को देखने लगी क्योंकि अब उसे भी सुनहरी साँझ की प्रतीक्षा थी।

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