महामाया - 21 Sunil Chaturvedi द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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महामाया - 21

महामाया

सुनील चतुर्वेदी

अध्याय – इक्कीस

स्टॉल्स पर लोगों की भारी भीड़ थी। कोई माला खरीद रहा था.....कोई बाबाजी का हिमालय में समाधिस्थ चित्र......कोई घर में सम्पन्नता के लिये यंत्र खरीद रहा था तो कोई माताओं के चित्रों वाला लाॅकेट....कोई भाग्य चमकाने वाली अंगूठी खरीद रहा था तो कोई घर में शंति के लिये पिरामिड। कोई कब्जियत की दवाई खरीद रहा तो कोई ताकत की दवाई हाथों में लेकर आजू बाजू देख रहा था। कोई स्टॉल के सामने खड़े होकर प्रवचन की सीडी सुन रहा था। कुछ देर अखिल किताबों में खोया रहा फिर अचानक किताब को नीचे रख बाबाजी के कमरे की ओर चल दिया।

बाबाजी के पास सारिका और उसके माता-पिता बैठे थे। बाबाजी मसनद के सहारे अधलेटे थे। उनकी आँखें बंद थी। सारिका सिर नीचा किये अपनी ऊंगलियाँ चटका रही थी। सारिका के माता-पिता चिंतित से बैठे शून्य में ताक रहे थे। कमरे में खामोशी थी। अखिल बिना कोई व्यवधान पैदा किये पीछे दिवार के सहारे टिक कर बैठ गया।

कुछ देर बाद खामोशी को तोड़ते हुए सारिका की माँ ने कहा ‘‘बाबाजी यह सन्यासिन होकर अपना पूरा जीवन कैसे काटेगी।‘‘

‘‘बेटे सारिका का प्रारब्ध ही ऐसा है। इसे कोई रोक नहीं सकता। न मैं न तुम।‘‘ बाबाजी सिद्धासन में बैठते हुए बोले।

‘‘पर, अभी इसकी उम्र नहीं है सन्यास लेने की‘‘ सारिका के पिता ने मौन तोड़ा।

‘‘सन्यास की कोई उम्र नहीं होती। आदिशंकराचार्य ने तो सात वर्ष की उम्र में ही सन्यास धारण कर लिया था।’’

‘‘वो आपकी सब बात ठीक है पर बाबाजी पर हमारी एक ही बच्ची है। हम अपनी बच्ची के बिना नहीं रह सकते।’’ कहते-कहते सारिका की माँ की आँखो से आंसुओं का ज्वार फूट पड़ा। सारिका के पिता की आँखों से भी आंसू टपक रहे थे। बाबाजी ने सारिका की माँ के चेहरे को अपने एक हाथ से ऊपर उठाया और आँसू पोछते हुए गंभीर स्वर में कहने लगे।

‘‘देखो बेटे जिसे तुम प्यार समझ रही हो वो तुम्हारा स्वार्थ है। प्रेम मुक्ति है, बंधन नहीं। यदि तुम सच में अपनी संतान से प्रेम करती हो तो उसे मुक्त कर दो।

‘‘नहीं बाबाजी हमें इतना बड़ा ज्ञानी नहीं बनना। हमें इसके भविष्य की चिंता है।’’ सारिका के पिता का स्वर भीगा हुआ लेकिन तल्ख था।

‘‘यदि तुम आज इसे मुक्त नहीं करोगे तो इसके संचित संस्कारों का क्षय कैसे होगा? आज तो इसके संस्कारों पर हल्की सी अज्ञान की धुंध है जो समर्थ गुरु की दृष्टि मात्र से छट जायेगी। इसका जीवन सुखमय हो जायेगा। लेकिन बार-बार के जीवन से यही धुंध कालिख बन जायेगी और इसी कालिख को साफ करने के लिये इसे कितनी ही योनियों में भटकना पड़ेगा।’’ बाबाजी कहते-कहते अचानक चुप हो गये।

सारिका जड़ बैठी थी। सारिका की माँ अभी भी सिर नीचा किये सुबक रही थी। बाबाजी ने गंभीर आवाज में फिर बोलना शुरू किया।

‘‘फैसला तुम्हे करना है तुम लोग अपनी बच्ची का क्या भविष्य देखना चाहते हो। तुम इसे क्या दे सकते हो। ज्यादा से ज्यादा अच्छा खाता-कमाता लड़का देखकर इसकी शादी करा दोगे। इसके बच्चे होंगे। ये अपने परिवार में खपकर एक गुमनाम ज़िंदगी बिता देगी। बस......इसी को भविष्य कहते हो।

पर इसका भविष्य कुछ और ही है। लाखों लोग इसे प्रणाम करेंगे.......इसका जयघोष करेंगे। इसका अपना परिवार होगा। जिसमें चार नहीं लाखों लोग होंगे। जो इसे श्रद्धा के साथ पूजेंगे। अपने सर आँखों पर बैठाकर रखेंगे। इसके पास वो सब होगा जिसकी तुम कल्पना भी नहीं कर सकते। तुम इसका क्या भविष्य बनाओगे। ये तुम्हारा भविष्य बदलने वाली है।

एक बात ध्यान रखना, गुरु को सत्य के खोजी का सदैव इंतजार रहता है। मुझे भी सदैव इसका इंतजार रहेगा’’ बाबाजी ने फिर से दीवार से सिर टिकाते हुए आँखे बंद कर ली।

सारिका के माता-पिता की रूलाई रूक नहीं रही थी इसलिये उठकर बाहर चले गये। कमरे में कुछ देर सन्नाटा छाया रहा। फिर बाबाजी ने कौशिक को बुलवाया और हाथ से कुछ ईशारा किया। कौशिक कुछ ही देर में बाबाजी के प्रवचनों की किताबों के दो सेट ले आये। बाबाजी ने सभी किताबों पर ‘सत्य के खोजी को आशीर्वाद‘ लिखते हुए अपने हस्ताक्षर कर किताबों का एक सेट अखिल को दिया और एक सारिका को। अखिल ने गर्व और संकोच के भाव से किताबें माथे से लगाते हुए बाबाजी को प्रणाम किया। सारिका ने भी यही सब दोहराया।

‘‘बाबाजी मन में एक जिज्ञासा है‘‘ अखिल ने धीरे से कहा।

‘‘पूछो बेटे‘‘

‘‘बाबाजी........ कोई भी खोजी सदगुरू को कैसे पहचान सकता है‘‘

बेटे, सद्गुरू तो वह है जो स्वयं सच्चे शिष्य को एक नजर में पहचान लेता है। तुम्हें सद्गुरू को पहचानने की जरूरत नहीं है। सदगुरु तो खुद तुम्हें ढूँढता हुआ तुम तक पहुँच जायेगा। विवेकान्नद ने रामकृष्ण को नहीं पहचाना था। रामकृष्ण ने विवेकानन्द को एक नजर में जान लिया था।

‘‘गुरू क्या किसी को भी दीक्षा दे सकता है?’’

‘‘यहाँ बहुत सावधान रहने की जरूरत है बेटे। कई सन्यासी खुद को गुरु घोषित कर बड़े-बड़े मठ चला रहे है। मठ में चेलों की लंबी चैड़ी फौज है। कई गुरु हजारों की संख्या में लोगों को एक साथ बैठाकर नाम दीक्षा दे रहे है। लेकिन बेटे वहाँ न तो गुरु का तारण होगा और ना ही शिष्य का। सद्गुरु तो वही है जो बहुत सोच विचार कर केवल पात्र को ही दीक्षा देता है। सद्गुरु कभी शिष्यों की फौज खड़ी नहीं करता........।

बाबाजी अभी अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाये थे कि वानखेड़े जी ने माला के मनकों को घुमाते-घुमाते कमरे में प्रवेश किया। उनके साथ छह-सात जापानी थे। वानखेड़े जी और विदेशी भक्तों के आ जाने से बातचीत का क्रम छूट गया। बाबाजी उनके साथ बातचीत में व्यस्त हो गये। अखिल और सारिका भी बाबाजी को प्रणाम कर बाहर चले आये।

अखिल बाहर निकलकर अपने कमरे की और बढ़ गया। सारिका अपने माता-पिता के पास पहुंच गई। उसके माता-पिता प्रवचन हॉल की सीढ़ियों पर बैठे थे। सारिका के पिता शून्य में ताक रहे थे। सारिका की माँ के आंसू गालों पर ही सूख गये थे। वह घुटनों पर दोनों हाथों को टिकाये मुँह नीचा किये बैठी थी। सारिका ने नीचे वाली सीढी पर बैठते हुए अपने दोनो हाथ माँ के हाथों पर धीरे से रख दिये और उनके चेहरे की तरफ देखने लगी। माँ ने सारिका के सिर पर हाथ फिराते हुए उसे अपने सीने से चिपका लिया।

सुबह पाँच बजे से ही मंदिर परिसर में भक्तों की भीड़ जुटना शुरू हो गई थी। सभी हाथों में पूजा की थाली लिये उत्साह से पूर्ण थे। संतु महाराज संत निवास के दांयी ओर से ऊपर जाने वाली सीढ़ियों के नजदीक टेबल कुर्सी लगाकर बैठे थे। वह दीक्षा प्राप्त करने आये लोगों की थाली में सामग्री की जाँच कर रहे थे।

‘‘अम्मा भेंट में देने के लिये बरतन कहाँ है?‘‘

‘‘अब क्या हमारी दीक्षा नही हो पायेगी?‘‘ बुढ़िया चिंतित हो गई।

‘‘करते है.......तुम्हारे लिये कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा। बैठ जाओ थोड़ी देर।

‘‘जुग-जुग जियो महाराज‘‘ कहते हुए बुढ़िया जमीन पर ही बैठ गई।

‘‘अरे भाई साहब शाल नहीं है थाली में‘‘ संतु महाराज ने अगली थाली पर निगाह घुमाते हुए कहा।

‘‘वो क्या है कि रात को जब यहाँ से लौटकर गये तब तक दुकान बंद हो चुकी थी‘‘ प्रौढ़ व्यक्ति की आँखों में गलती का भाव था।

‘‘कोई बात नहीं.....शाल के लिये कुछ जुगाड़ बिठाते हैं‘‘संतु महाराज अगली थाली का परीक्षण करने लगे।

संतु महाराज ने जब ज्यादातर पूजा की थालियों में कुछ ना कुछ सामान कम देखा तो उन्होने माइक से सभी भक्तों के लिये एक घोषणा की।

‘‘दीक्षा के समय गुरुदेव की पूजन के लिये आपकी थाली में हार-फूल, कंकु, चावल, एक बरतन, वस्त्र, शाल , मिठाई, नारियल और नगद भेंट होना चाहिए। जिसकी भी थाली में इनमें से कोई भी सामान कम हो वो जसविंदर भैया से संपर्क करें। थाली में सामग्री पूर्ण करने के बाद आप लोग प्रवचन हॉल में पहुंचे। वहाँ पहले श्री माताजी आप सबको आशीर्वाद देंगी।

इस उद्घोषणा को सुन दीक्षा के लिये आये सभी भक्त जसविंदर से बची हुई सामग्री खरीद कर प्रवचन हॉल में पहुँचने लगे। वहां बहुत से भक्त पहले ही मौजूद थे। अनुराधा और अखिल भी हॉल में मौजूद थे।

साढ़े सात बजे के लगभग श्रीमाता ने निर्मला माई और श्रद्धा माता के साथ प्रवचन हॉल में प्रवेश किया। तीनों ने सुंदर रेशमी गैरिक वस्त्र पहने हुए थे। तीनों के चेहरों पर सद्यस्नाता सी चमक थी। बालों से रह रहकर अभी भी रेशमी वस्त्रों पर गिरकर पानी की बूंदें मोतियों सी चमक रही थी। तीनों माताओं के साथ ही आनन्दित कर देने वाली मंहगे डियो की खुशबू ने भी प्रवेश किया। लोगों की पूजा की थाली में रखे ताजे फूलों की गंध पहले ही मौजूद थी। कुल मिलाकर दिव्य गंध से हॉल सुवासित था।

मंच पर विराजित होते ही ऊँ नमो नारायण के अभिवादन के साथ ही श्रीमाता ने बोलना शुरू किया। लोग रीढ़ की हड्डी को सीधाकर दोनों हाथ प्रणाम की मुद्रा में जोड़े पूरी तन्मयता से श्रीमाता को सुन रहे थे।

‘‘हमे इस बात पर गर्व होना चाहिए कि हमारे पूर्वजों ने गुरु-शिष्य परंपरा के माध्यम से परमात्मा को प्राप्त करने की विधि बताई। इन महापुरूषों ने एक ऐसी धर्म पद्धति विकसित की जिस पर चलकर साधारण से साधारण मनुष्य भी दिव्यता को प्राप्त कर सकता है।

यह आप सभी के लिये परमसौभाग्य की बात है कि आज बाबाजी से दीक्षा प्राप्त कर आप दिव्य होने का आशीर्वाद प्राप्त करेंगे। यह बड़ा ही दुर्लभ क्षण है। सच मानिये आज आप पर साक्षात परमात्मा की कृपा बरस रही है।

आज से आपके सारे दुख संकट समाप्त हो जाएंेगे। आज आप एक नये जीवन में प्रवेश करेंगे.........। आप सभी के जीवन में सुख होगा। आप सभी को मेरी तरफ से बहुत-बहुत बधाई। ऊँ नमो नारायण, हरि ओम तत्सत्।’’

श्रीमाता के आशिर्वचनों के बाद लोग हॉल से निकलकर सीढ़ियों के पास खड़े हो गये।

अनुराधा और अखिल तीनो माताओं के साथ चर्चा करते हुए संत निवास की ओर बढ़ गये।

लोग एक-एककर ऊपर पहुँच रहे थे और दीक्षा प्राप्त कर लौट रहे थे। लौटने वाले भक्तों के सिर पर कुंकुम तिलक, उस पर चमकते चार-पांच चांवल के दाने, गले में माला, हाथ में खाली थाली और चेहरे पर साधारण से असाधारण हो जाने का भाव था। जो दीक्षा ग्रहण कर नीचे उतरे थे वो आज बाकि लोगों के लिये विशिष्ट थे। वे लोगों की बधाईयां स्वीकार कर रहे थे। साथ ही उन्हें भी दीक्षा लेने की समझाईश दे रहे थे।

‘‘अब आप भी दीक्षा ले लो’’

‘‘सोच तो रहे हैं’’

‘‘अब सोचना क्या.........ऐसे अवसर जिंदगी में बार-बार नहीं आते।’’

‘‘हाँ कौशिक जी भी बता रहे थे कि बजरंगगढ़ में बाबाजी ने किसी को दीक्षा नहीं दी।’’

‘‘नौगाँव पर तो मेहरबान है बाबाजी.....इसलिये कह रहे हैं कि लगे हाथ निपट ही लो।’’

‘‘तो फिर ले लें........?’’

‘‘ले लो.......ले लो.....और भाभीजी को भी दिला दो।

‘‘हमारे पास वाले गड़करी जी भी पूछ रहे थे।’’

‘‘उनको भी ले आओ’’

‘‘तो फिर फायनल रहा। हमको मिलवा दो बाबाजी से।’’

‘‘मिलवा देंगे। शाम को आ जाओ।’’

‘‘बाबाजी मिल तो जायेंगे ?’’

‘‘अरे अब हम कभी भी बाबाजी से मिल सकते हैं। किसी को भी मिलवा सकते हैं। बाबाजी से दीक्षा जो ले ली है।’’

‘‘तो फिर पक्का शाम को मिलते हैं।’’

कईं लोग दीक्षा के बाद शांत होकर बिना किसी से बातचीत किये प्रवचन हॉल में जाकर ध्यान अवस्था में बैठ गये। कुछ लोग एक-दूसरे को आपस में गुरु भाई और गुरु बहिन संबोधित करते हुए गले मिल रहे थे। उधर माला वाले स्टॉल पर भारी भीड़ थी। किसी को स्फटिक की माला से जाप करना था। किसी को रुद्राक्ष की माला से।

दिन भर मंदिर में उत्साह और उल्लास का माहौल बना रहा। टुकड़ों में बंटे लोग दीक्षा के समय हुए अनुभवों को आपस में बांट रहे थे। किसी ने कहा कि दीक्षा के बाद उसने आँखें खोली तो बाबाजी कृष्ण के रूप में थे। किसी ने बाबाजी को शिव के रूप में देखा। किसी ने हनुमानजी के रूप में। एक भक्त ने तो बाबाजी को अर्द्धनारीश्वर रूप में देखा।

माला घुमाते-घुमाते यहाँ-वहाँ भक्तों के बीच घुमते वानखेड़े जी ने इस संकेत को स्पष्ट करते हुए कहा ‘‘बेटे तुमने तो बाबाजी में अर्द्धनारीश्वर के दर्शन करके सारी सृष्टि के दर्शन कर लिये। शिव का अर्द्धनारीश्वर स्वरूप ही तो सृष्टि का प्रतीक है।’’

बातों का सिलसिला दिनभर चलता रहा और वातावरण में दिव्य रंगों को घोलता रहा। जो भी यहाँ आता वो इस दिव्य रंग में रंगने लगा। दीक्षा लेने के इच्छुक लोगों की संख्या बढ़ने लगी। एक तरह से दीक्षा लेने के लिये लोगों में होड़ सी शुरू हो गई। सभी दीक्षा लेना चाहते थे। संतु महाराज कुर्सी पर बैठे दीक्षा लेने के इच्छुक लोगों के नाम एक रजिस्टर में लिख दीक्षा लेने के इच्छुक भक्तों की बढ़ती संख्या देखकर दीक्षा का समय दो दिन और बढ़ा दिया गया।

क्रमश..