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महामाया - 20

महामाया

सुनील चतुर्वेदी

अध्याय – बीस

समाधि का वक्त नजदीक आता जा रहा था। समाधि स्थल पर तीनों माताएँ पहुँच चुकी थी। वे आँख बंद किये जोर-जोर से ऊँ नमः शिवाय का जाप कर रही थी। अखिल, अनुराधा और वानखेड़े जी तीनों माताओं के पीछे बैठे थे। समाधि स्थल के चारों ओर एकत्रित जन समुदाय भी पूरे भक्ति भाव से झूम रहा था।

बीच-बीच में माईक पर संतु महाराज की आवाज गूँज रही थी। समाधि में सिर्फ एक घंटा शेष है... सिर्फ आधा घंटा... समाधि की परिक्रमा करना मत भूलिये, समाधि की परिक्रमा से सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होती है।

हजारों की संख्या में लोग ‘ऊँ नमः शिवाय’ का जाप करते हुए समाधि स्थल के चारों ओर परिक्रमा कर रहे थे। परिक्रमा पथ पर महिलाएँ बच्चों को घसीटते हुए तेज गति से चल रही थी। पुरूष एक दूसरे को ठेलकर आगे बढ़ रहे थे। जिनकी एक सौ आठ परिक्रमा पूरी हो गई थी। वे भीड़ में बैठने के लिये जगह बनाने की जुगत लगा रहे थे।

आज जालपा मंदिर परिसर खचाखच भरा हुआ था। कहीं पैर रखने को जगह नहीं थी। मंदिर परिसर में बने भवनों की छतों, छज्जों और पेड़ों पर भी चढ़कर लोग बैठ चुके थे। कुछ लोग मंदिर के गुम्बद पर भी चढ़े हुए थे। समाधि स्थल पर ही पद्रह-बीस विदेशी बड़े-बड़े कैमरे लगाये फिल्म बना रहे थे। समाधि के साथ-साथ विदेशियों का जमघट भी लोगों के लिये कोतुहल का विषय था।

दोपहर ठीक एक बजे बाबाजी ने सूर्यानंद महाराज, आयोजन के मुख्य अतिथि मंत्री महोदय, किशोरीलाल, सारिका और उसके माता-पिता के साथ समाधि स्थल पर प्रवेश किया। पूरा प्रांगण महायोगी... महामण्डलेश्वर और सूर्यानंद महाराज के जयकारों से गूंज उठा।

समाधि स्थल पर पहुँचकर बाबाजी ने संतु महाराज से माइक लेकर एक हाथ आशिर्वाद की मुद्रा में उठाकर कहना प्रारंभ किया।

‘‘यह समाधि आपके लिये एक अवसर है। समाधि के दौरान हिमालय में साधनरत बड़े-बड़े तपस्वी, ऋषि-मुनी कईं बार सूक्ष्म रूप में तो कभी सशरीर प्रकट होकर आप लोगों को अपना आशिर्वाद प्रदान करेंगे। आप सभी की मनोकामना पूर्ण करेंगे। आप लोग यदि ऐसे संत महात्मओं का आशिर्वाद पाना चाहते हैं तो तीन दिनों तक समाधि स्थल के दर्शन अवश्य करें। समाधि देखना पुण्य का काम है...। मैं आप सभी पुण्यात्माओं को एक बार फिर आशिर्वाद प्रदान करता हूँं। ऊँ नमः शिवाय... हरिओम तत्सत्।

हजारों की संख्या में उपस्थित लोगों ने एक बार फिर महायोगी... महामण्डलेश्वर के जयकारे से आसमान गूंजा दिया।

हजारों लोगों ने, अपनी-अपनी जगह बैठे-बैठे, खड़े-खड़े दोनों हाथ जोड़कर, सिर प्रणाम की मुद्रा में झुका लिये। सूर्यानंद महाराज ने भी अपने दोनों हाथ सर के ऊपर ले जाकर नमस्कार मुद्रा में जोड़े और चारों दिशाओं में घूम-घूमकर लोगों के प्रणाम का प्रत्युत्तर देने लगे। भीड़ ने भी बड़े ही ऊँचे स्वर में सूर्यानंद महाराज का जयघोष किया और अगले ही पल सूर्यानंद महाराज बाबाजी के पीछे-पीछे सीढ़ी के सहारे समाधि के गड्डे में उतर गये।

हजारों लोगों की मौजूदगी के बावजूद कुछ देर के लिये वातावरण में निस्तब्धता छा गई। सभी के चेहरों पर श्रद्धा और उत्सुकता का भाव था। लोग एक दूसरे के कंधे पर चढ़कर गड्डे के भीतर झांकने का प्रयास कर रहे थे।

बाबाजी ने गड्डे के बाहर आकर कौशिक को गड्डा ढ़कने का ईशारा किया। कौशिक और जग्गा ने बिना देर किये फुर्ती से गड्डे के खुले हिस्से को चद्दर और मिट्टी से ढक दिया। एक बार फिर बाबाजी और सूर्यानंद महाराज की जय, उद्घोष हुआ। फिर भीड़ आश्चर्य और कोतुहल का भाव लिये बिखरने लगी।

संतु महाराज की माइक से उद्घोषणा जारी थी।

‘‘सूर्यानंद महाराज की यह पहली भूमिगत समाधि है। वे ठीक तीन दिन बाद दोपहर एक बजे समाधि से बाहर आयेंगे । इन तीन दिनों तक इस प्रांगण में निरंतर ऊर्जा का प्रवाह होगा। समाधिकाल में समाधि की परिक्रमा का बहुत पुण्य लाभ बताया गया हैं। समाधि की एक सौ आठ परिक्रमा पूर्ण करने से हर प्रकार की मनोकामना पूर्ण होती है।

एक विशेष सूचना कल दीक्षा कार्यक्रम रखा गया है। जो भक्तजन बाबाजी से दीक्षा लेना चाहते हो वो नीलू महाराज यानी मेरे पास नाम लिखवा दें। दीक्षा कार्यक्रम केवल एक दिन के लिये रखा गया है।

यह उद्घोषणा रूक-रूक कर निरंतर जारी थी। हजारों की संख्या में मौजूद लोग किसी यंत्रचलित मशीन की तरह उद्घोषणा के साथ ही समाधि स्थल की परिक्रमा लगा रहे थे, साथ ही समाधि स्थल पर निरंतर जाप चल रहा था। ऊँ नमः शिवाय... ऊँ नमः शिवाय

बाबाजी दस पंद्रह मीनिट समाधि स्थल पर रूके रहे। फिर मंत्री महोदय, किशोरीलाल जी और वानखेड़े जी के साथ संत निवास की ओर चल दिये। सारिका आँखें बंद किये ध्यान की मुद्रा में समाधि स्थल पर ही बैठी थी और पास में बैठे उसके माता-पिता चिंतित थे।

तीनों माताये, अखिल, अनुराधा, कौशिक , जग्गा समाधि स्थल पर मौजूद थे।

समाधि के बाद स्टॉल्स पर लोगों की भीड़ बढ़ रही थी। कोई माला खरीद रहा था.....कोई बाबाजी का हिमालय में समाधिस्थ चित्र......कोई घर में सम्पन्नता के लिये यंत्र खरीद रहा था तो कोई माताओं के चित्रों वाला लाॅकेट....कोई भाग्य चमकाने वाली अंगूठी खरीद रहा था तो कोई घर में शंति के लिये पिरामिड। कोई कब्जियत की दवाई खरीद रहा तो कोई ताकत की दवाई हाथों में लेकर आजू बाजू देख रहा था। कोई स्टॉल के सामने खड़े होकर प्रवचन की सीडी सुन रहा था। कुछ देर अखिल किताबों में खोया रहा फिर अचानक किताब को नीचे रख बाबाजी के कमरे की ओर चल दिया।

बाबाजी के पास सारिका और उसके माता-पिता बैठे थे। बाबाजी मसनद के सहारे अधलेटे थे। उनकी आँखें बंद थी। सारिका सिर नीचा किये अपनी ऊंगलियाँ चटका रही थी। सारिका के माता-पिता चिंतित से बैठे शून्य में ताक रहे थे। कमरे में खामोशी थी। अखिल बिना कोई व्यवधान पैदा किये पीछे दिवार के सहारे टिक कर बैठ गया।

कुछ देर बाद खामोशी को तोड़ते हुए सारिका की माँ ने कहा ‘‘बाबाजी यह सन्यासिन होकर अपना पूरा जीवन कैसे काटेगी।‘‘

‘‘बेटे सारिका का प्रारब्ध ही ऐसा है। इसे कोई रोक नहीं सकता। न मैं न तुम।‘‘ बाबाजी सिद्धासन में बैठते हुए बोले।

‘‘पर, अभी इसकी उम्र नहीं है सन्यास लेने की‘‘ सारिका के पिता ने मौन तोड़ा।

‘‘सन्यास की कोई उम्र नहीं होती। आदिशंकराचार्य ने तो सात वर्ष की उम्र में ही सन्यास धारण कर लिया था।’’

‘‘वो आपकी सब बात ठीक है पर बाबाजी पर हमारी एक ही बच्ची है। हम अपनी बच्ची के बिना नहीं रह सकते।’’ कहते-कहते सारिका की माँ की आँखो से आंसुओं का ज्वार फूट पड़ा। सारिका के पिता की आँखों से भी आंसू टपक रहे थे। बाबाजी ने सारिका की माँ के चेहरे को अपने एक हाथ से ऊपर उठाया और आँसू पोछते हुए गंभीर स्वर में कहने लगे।

‘‘देखो बेटे जिसे तुम प्यार समझ रही हो वो तुम्हारा स्वार्थ है। प्रेम मुक्ति है, बंधन नहीं। यदि तुम सच में अपनी संतान से प्रेम करती हो तो उसे मुक्त कर दो।

‘‘नहीं बाबाजी हमें इतना बड़ा ज्ञानी नहीं बनना। हमें इसके भविष्य की चिंता है।’’ सारिका के पिता का स्वर भीगा हुआ लेकिन तल्ख था।

‘‘यदि तुम आज इसे मुक्त नहीं करोगे तो इसके संचित संस्कारों का क्षय कैसे होगा? आज तो इसके संस्कारों पर हल्की सी अज्ञान की धुंध है जो समर्थ गुरु की दृष्टि मात्र से छट जायेगी। इसका जीवन सुखमय हो जायेगा। लेकिन बार-बार के जीवन से यही धुंध कालिख बन जायेगी और इसी कालिख को साफ करने के लिये इसे कितनी ही योनियों में भटकना पड़ेगा।’’ बाबाजी कहते-कहते अचानक चुप हो गये।

सारिका जड़ बैठी थी। सारिका की माँ अभी भी सिर नीचा किये सुबक रही थी। बाबाजी ने गंभीर आवाज में फिर बोलना शुरू किया।

‘‘फैसला तुम्हे करना है तुम लोग अपनी बच्ची का क्या भविष्य देखना चाहते हो। तुम इसे क्या दे सकते हो। ज्यादा से ज्यादा अच्छा खाता-कमाता लड़का देखकर इसकी शादी करा दोगे। इसके बच्चे होंगे। ये अपने परिवार में खपकर एक गुमनाम ज़िंदगी बिता देगी। बस......इसी को भविष्य कहते हो।

पर इसका भविष्य कुछ और ही है। लाखों लोग इसे प्रणाम करेंगे.......इसका जयघोष करेंगे। इसका अपना परिवार होगा। जिसमें चार नहीं लाखों लोग होंगे। जो इसे श्रद्धा के साथ पूजेंगे। अपने सर आँखों पर बैठाकर रखेंगे। इसके पास वो सब होगा जिसकी तुम कल्पना भी नहीं कर सकते। तुम इसका क्या भविष्य बनाओगे। ये तुम्हारा भविष्य बदलने वाली है।

एक बात ध्यान रखना, गुरु को सत्य के खोजी का सदैव इंतजार रहता है। मुझे भी सदैव इसका इंतजार रहेगा’’ बाबाजी ने फिर से दीवार से सिर टिकाते हुए आँखे बंद कर ली।

सारिका के माता-पिता की रूलाई रूक नहीं रही थी इसलिये उठकर बाहर चले गये। कमरे में कुछ देर सन्नाटा छाया रहा। फिर बाबाजी ने कौशिक को बुलवाया और हाथ से कुछ ईशारा किया। कौशिक कुछ ही देर में बाबाजी के प्रवचनों की किताबों के दो सेट ले आये। बाबाजी ने सभी किताबों पर ‘सत्य के खोजी को आशीर्वाद‘ लिखते हुए अपने हस्ताक्षर कर किताबों का एक सेट अखिल को दिया और एक सारिका को। अखिल ने गर्व और संकोच के भाव से किताबें माथे से लगाते हुए बाबाजी को प्रणाम किया। सारिका ने भी यही सब दोहराया।

‘‘बाबाजी मन में एक जिज्ञासा है‘‘ अखिल ने धीरे से कहा।

‘‘पूछो बेटे‘‘

‘‘बाबाजी........ कोई भी खोजी सदगुरू को कैसे पहचान सकता है‘‘

बेटे, सद्गुरू तो वह है जो स्वयं सच्चे शिष्य को एक नजर में पहचान लेता है। तुम्हें सद्गुरू को पहचानने की जरूरत नहीं है। सदगुरु तो खुद तुम्हें ढूँढता हुआ तुम तक पहुँच जायेगा। विवेकान्नद ने रामकृष्ण को नहीं पहचाना था। रामकृष्ण ने विवेकानन्द को एक नजर में जान लिया था।

‘‘गुरू क्या किसी को भी दीक्षा दे सकता है?’’

‘‘यहाँ बहुत सावधान रहने की जरूरत है बेटे। कई सन्यासी खुद को गुरु घोषित कर बड़े-बड़े मठ चला रहे है। मठ में चेलों की लंबी चैड़ी फौज है। कई गुरु हजारों की संख्या में लोगों को एक साथ बैठाकर नाम दीक्षा दे रहे है। लेकिन बेटे वहाँ न तो गुरु का तारण होगा और ना ही शिष्य का। सद्गुरु तो वही है जो बहुत सोच विचार कर केवल पात्र को ही दीक्षा देता है। सद्गुरु कभी शिष्यों की फौज खड़ी नहीं करता........।

बाबाजी अभी अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाये थे कि वानखेड़े जी ने माला के मनकों को घुमाते-घुमाते कमरे में प्रवेश किया। उनके साथ छह-सात जापानी थे। वानखेड़े जी और विदेशी भक्तों के आ जाने से बातचीत का क्रम छूट गया। बाबाजी उनके साथ बातचीत में व्यस्त हो गये। अखिल और सारिका भी बाबाजी को प्रणाम कर बाहर चले आये।

अखिल बाहर निकलकर अपने कमरे की और बढ़ गया। सारिका अपने माता-पिता के पास पहुंच गई। उसके माता-पिता प्रवचन हॉल की सीढ़ियों पर बैठे थे। सारिका के पिता शून्य में ताक रहे थे। सारिका की माँ के आंसू गालों पर ही सूख गये थे। वह घुटनों पर दोनों हाथों को टिकाये मुँह नीचा किये बैठी थी। सारिका ने नीचे वाली सीढी पर बैठते हुए अपने दोनो हाथ माँ के हाथों पर धीरे से रख दिये और उनके चेहरे की तरफ देखने लगी। माँ ने सारिका के सिर पर हाथ फिराते हुए उसे अपने सीने से चिपका लिया।

क्रमश..

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