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महामाया - 7

महामाया

सुनील चतुर्वेदी

अध्याय – सात

हॉल में धूपबत्ती और गूगल की खूशबू। दो व्यवस्थापकनुमा लोग जल्दी-जल्दी तखत की चादर ठीक करने, देवी प्रतिमा के सामने दीपक जलाने, अगरबत्तियाँ जलाने जैसे काम पूरे करने में जुटे थे। धीरे-धीरे लोग हॉल में जुट रहे थे। तखत के समीप बैठे चार-पाँच भगवाधारी धीमी लय में ‘ऊँ नमः शिवाय’ का जाप कर रहे थे। लोग दोहरा रहे थे।

‘ऊँ नमः शिवाय’ की धुन तेज और तेज होती जा रही थी।

करीब आधे घंटे बाद बाबाजी ने प्रवेश किया। महायोगी महामंडलेश्वर की जय के साथ कीर्तन समाप्त हो गया। बाबाजी तखत पर विराजित हो गये। बाबाजी के एक और संतु महाराज और दूसरी तरफ वानखेड़े जी खड़े थे।

कुछ पल शांति छायी रही फिर एक नवयुवती ने बाबाजी के सामने आकर अपनी समस्या रखी -

‘‘बाबाजी मैं ध्यान करती हूँ तो मुझे लगता है कि मेरा शरीर फैल रहा है। बहुत डर जाती हूँ। बाबाजी मेरे साथ ऐसा क्यों हो रहा है?’’

‘‘कुंडलिनी जागरण में ऐसे अनुभव होते हैं बेटा। अभी तुम्हे कईं और दिव्य अनुभव होंगे।

कहते हुए बाबाजी ने नवयुवती के चेहरे पर दोनों भृकुटियों के बीच अंगूठे से स्पर्श किया। नवयुवती के शरीर में सिहरन-सी दौड़ गई। फिर उसकी दोनों आँखे बंद हो गई।’’

एक बुढ़िया बाबाजी के पैरों में सिर रखकर बिलखने लगी। जवान बेटा घर से भाग गया था। बाबाजी ने बुढ़िया से उसके बेटे का फोटो माँगा। फोटो हाथ में लेकर कुछ बुदबुदाये। कुछ पल के लिये आँखे बंद की।

बुढ़िया पल्लू से आँसू पोंछते हुए आशा-भरी निगाहों से बाबाजी की ओर देख रही थी। बाबाजी ने आँखें खोलते हुए कहा-

‘‘माई अब तेरा बेटा जल्दी घर आ जायेगा, उसे हमने आदेश दे दिया है।’’

‘‘तुम्हारा ही आसरा है’’ कहते हुए बुढ़िया अपनी जगह बैठ गई। उसके हटते ही एक प्रौढ़ दंपत्ति नज़दीक खिसक आये। उनकी ओर स्नेह से देखते हुए बाबाजी ने पूछा-

‘‘सेवफल लाये हो ?’’

‘‘हाँ बाबाजी’’ उत्साह के साथ महिला ने सेवफल बाबाजी की ओर बढ़ाया। बाबाजी सेवफल हाथ में लेकर मन ही मन कुछ बुदबुदाये। फिर सेवफल में दाँत गड़ाकर महिला की ओर बढ़ाया। महिला ने श्रद्धा से आँचल फैलाकर झेल लिया। दोनों बाबाजी को साष्टांग दंडवत् कर पीछे सरक गये।

‘‘बेटा होते ही सीधे बाबाजी के चरणों में लाकर डाल देना माई।’’ बाबाजी के बांयी ओर खड़े संतु महाराज ने महिला को निर्देश दिया।

एक महिला जो बहुत देर से पीछे बैठी थी वो उठकर बाबाजी के करीब पहुँच गयी। उसने बाबाजी के दोनों पैरों के अंगूठों को चूमा। अपनी आँखों को अंगूठे से छुआ फिर अपने दोनों हाथ बाबाजी के घुटनों पर रख दिये। उसकी आँखों में आँसू थे। बाबाजी ने बड़े लाड़ से उसकी पीठ पर हल्के से एक घौल जमाते हुए कहा-‘‘पगली है क्या? तेरा गुरू सब जानता है।

महिला बिलखने लगी। बाबाजी ने एक हाथ से महिला की ठोड़ी पकड़कर चेहरे को ऊपर उठाया और दूसरे हाथ से उसके आँसू पोंछते हुए मुस्कुरा दिये।

‘‘चिंता नहीं करूं तो क्या करूं गुरू महाराज। महिला अब सामान्य हो चली थी, आँसू थम गये थे।

बाबाजी ने रहस्यमयी तरीके से दोनों हाथ आपस में रगड़कर भभूत पैदा की फिर महिला के सिर पर मलते हुए कहने लगे ‘सब ठीक हो जायेगा।’

एक-एक कर भक्त आगे आ रहे थे। बाबाजी उनकी समस्याओं का निराकरण कर रहे थे। लेकिन अचानक लाल बत्तियों के लवाजमें के साथ कुछ लोगों के आ जाने से सिलसिला रूक गया। बाबाजी उन्हें लेकर अंदर चले गये। कुछ लोग बाबाजी के सामने न कह सके वे सन्तु महाराज से अपनी राम खानी कह रहे थे . संतु महाराज सब की दुख गाथा सुन रहे थे। उनके चेहरे से दास वाला भाव उतर चुका था। गुरू का खुमार उनकी आँखों में चढ़ चुका था। वानखेड़े जी चुपचाप माला फिराने में व्यस्त थे।

अखिल गहरे सोच में था। अभी कितने ही लोग यहाँ आये। सबकी अलग-अलग समस्या थी। बाबाजी ने उनके निदान सुझाये। इसके पीछे क्या तर्क थे यह उसकी समझ से परे था। वानखेड़े जी भक्तों को समझा रहे थे।

‘‘देखिये श्रद्धा में तर्क का कोई स्थान नहीं है। बाबाजी कोई साधारण संत नहीं हैं वे तो लीलाधारी हैं। एक बार ऐसी लीला हुई कि हम तुमसे कछु नहीं कह सकें...’’ वानखेड़े जी ने आँखे बंद की, माला घुमाते-घुमाते दोनों हाथ जोड़कर सर पर लगाये।’’

‘‘क्या लीला हुई थी जरा हमें भी तो बताओ न!’’ एक भक्त की आवाज में सभी भक्तों की उत्सुकता शामिल थी।

‘‘अब क्या बताएँ भैया.. ये तो लीलाधारी हैं । पिछले साल नवरात्रा की बात है। बाबाजी के संग हम, दस-बारह भक्त पिथौरागढ़ देवी दर्शन के लिये गये थे। आगे-आगे बाबाजी फिर दोनों माई, उनके पीछे हम, हमारे पीछे सारे भक्त। बाबाजी आख़री सीढ़ी चढ़ ही रहे थे कि एक आठ-दस साल की कन्या मंदिर से निकली। आहऽऽ का रूप थो कन्या को। ये बड़ी-बड़ी आँखें.. तीखी नाक, गौरा रंग, मुस्कुराये तो गालों पर गड्डे पड़े.. नाक में छोटी सी नथ, कानों में छोटी-छोटी बालियाँ, कंधे पर झुलते काले बाल...। हम लोग कुछ समझ पाते तब तक बाबाजी ने कन्या का हाथ पकड़ा और चरण छू लिये। कन्या ने भी हँसते हुए बाबाजी के हाथ में चिरोंजी के चार दाने धरे और खट-खट सीढ़ियाँ उतर गयी। अब भैया, हमारी मोटी बुद्धि में ट्यूबलाईट चमकी। हम झट से पलटे, पर भैया वहाँ क्या रखा था। कन्या अलोप हो चुकी थी। दो-चार भक्तन ने पूछी भी क्यों वानखेड़े जी क्या ढूँढ रहे हो। हमने उनसे कन्या वाली बात कही तो सबके सब हमें ऐसे देखने लगे जैसे हमने भूत देख लिया हो। सबके मुंडे फटे रह गये। फिर बाबाजी मंदिर में नहीं गये, बाहर सीढ़ी पर ही बैठ गये।

भैया आप ही बताओ जिनने साक्षात् देवी के दर्शन करें हों उनके लिये तो मूर्ति पत्थर ही हुई न! उन्हें मंदिर में जाने की का जरूरत? ऐसी लीलाएँ हैं अपने गुरू की फिर भी लोग तर्क करते रहते हैं, भगवान है कि नहीं? अब भैया ऐसे लोगों को तो भगवान ही सद्बुद्धि देगा... वानखेड़े जी ने फिर से आँखें बंद कर लीं दोनों हाथ जोड़े और सिर पर लगाते हुए बुदबुदाये ‘‘जय लीलाधारी...।’’

महिलाओं ने खाली तखत की ओर अपना पल्लू नीचे बिछाते हुए माथा झुका दिया.......जय गुरूदेव... पुरूषों ने भी तखत के सामने साष्टांग दण्डवत किया, जय गुरूदेव.....।

‘‘अखिल उठकर बाहर की ओर चल दिया। पहले लोगों के दुखों का अमूर्त समाधान और अब देवी दर्शन का किस्सा......विचित्र है यह संसार।’’ अखिल ने खुद से ही कहा। उसके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान थी।

‘‘प्रभू.......गंगा स्नान को चल रहे हैं क्या?’’ अखिल ने देखा दिव्यानंद जी एक बगल में कपड़ों की पोटली दबाये और दूसरे हाथ में साबुनदानी, लोटा लिये चले आ रहे थे। वह बिना कुछ बोले उनके साथ चल दिया।

सुबह के ग्यारह बजे थे। इक्का-दुक्का लोग ही घाट पर थे। दिव्यानंद जी ने कपड़ों की पोटली और साबुनदानी नीचे रखी। लौटे में गंगाजल भरा और दिशा मैदान के लिये निकल पड़े। वैसे तो आश्रम में शौचालय बने हुए थे लेकिन दिव्यानंद जी को सुकुन खुले में ही मिलता था।

अखिल एक सीढ़ी पर बैठकर पानी में देखने लगा। नीचे तैर रही मछलियों की झांई भर दिख रही थी। पानी में तैरते साबुन के झाग और कुछ प्लास्टिक की पन्नियाँ पानी को और अधिक गंदला बना रही थी।

इस बीच दिव्यानंद जी दिशा मैदान से लौट आये। उन्होंने किनारे की मिट्टी से लौटे को साफ किया। मिट्टी से ही तीन बार हाथ धोये फिर कपड़े की पोटली खोलकर एक चैड़ी सीढ़ी पर धोबी घाट लगा लिया। अखिल किनारे पर एक पैर ऊँचा कर ध्यान मग्न खड़े बगुले को देखने लगा।

विदेशियों के आने के बाद से आश्रम में भी नियमित ध्यान कक्षाएँ लगने लगी थी। राधामाई सबसे पहले साँस अंदर-बाहर करके कुछ प्रयोग करवाती फिर तीस मीनट का आर्य मौन। न कोई शब्द, न कोई हलचल, आँखें खोलने तक की मनाही थी। पहले दिन तो अखिल को तीस मीनिट पूरे युग जैसे लगे थे। उसने कितनी ही बार चुपके से आँखें खोलकर देखा था। सारे विदेशी रीढ़ की हड्डी को ऊपर की ओर ताने, आँखें बंद किये इस बगुले की तरह शांत बैठे थे। उसे खुद पर ग्लानि हुई थी। ध्यान कैसे करें यह बात जब उसने राधामाई से पूछी तो उन्होंने जवाब में कहा ‘‘ध्यान किया नहीं जाता ध्यान घटता है’’ यह जवाब सुन वो कन्फ्यूज हो गया था।

तभी बगुले ने दूसरा पैर नीचे रखते हुए डुबुक करके अपनी चोंच पानी में डुबोई और बाहर निकाल ली। उसकी चोंच में एक छोटी मछली थी जो फड़फड़ा रही थी।

दिव्यानंद जी कपड़ों को पछाड़ना बंद करके उन्हें पानी में खगालकर साफ कर रहे थे। उसने दिव्यानंद जी के सामने ध्यान को लेकर अपना संदेह प्रकट किया। कपड़ों को जस का तस पानी में ही छोड़ दिव्यानंद जी कमर सीधी करके खड़े हो गये।

‘‘शुरू-शुरू में हमने भी बहुत कोशिश की थी। पर कभी भी आँखें बंद करके पाँच-सात मीनिट से ज्यादा नहीं बैठ पाये।’’ दिव्यानंद जी के गीले हाथों से साबुन का झाग मिश्रित अभी भी टपक रहा था। ‘‘हम बाबाजी के सामने खूब रोये। महाराज हमारे सिर पर भी हाथ रख दो। साधु का बाना पहिना है और पूजा-पाठ, ध्यान-जप में बिल्कुल मन नहीं लगता। लोग हंसेंगे......रोटी राम साधु नाम धरेंगे.......’’

‘‘आप साधु क्यों बने दिव्यानंद जी’’ अखिल ने बीच में टोंका।

‘‘वो लंबी कथा है प्रभू। फिर कभी बतायेंगे। अभी हम कह रहे थे कि जब बाबाजी के सामने हमने अपना रोना रोया तो कहने लगे गुरु सेवा ही तेरा ध्यान है। बस उसी दिन से बाबाजी की सेवा में लगे हैं। बाबाजी जो काम बताते हैं उसी में श्रृद्धा से जुट जाते हैं। हमें लगता है हमारा तारण गुरु की सेवा से हो जायेगा।‘‘ कहते-कहते दिव्यानंद जी कमर को दोहरी कर हाथों से कपड़ों को पानी में फिर से खगालने लगे। ‘‘हम तो कहते हैं प्रभू आप भी ये ध्यान-व्यान का चक्कर छोड़ो और जुट जाओ बाबाजी की सेवा में।’’

अखिल चुप रहा। दिव्यानंद जी ने कपड़ों को पानी में खगालकर निचोड़ा, घाट के दोनों ओर बनी रैलिंग पर सुखाते-सुखाते कहने लगे।

‘‘लग क्या जाओ, आप तो लग ही गये हो। बाबाजी ने तो आपके लिये काम ढूंढ लिया है। आपके साथ अनुराधा दीदी को भी जोड़ा है। हमारे बाबाजी की यही विशेषता है कि वो पहली बार में ही ताड़ जाते हैं, भक्त किस लायक है। अब लिखने-पढ़ने की सेवा बाबाजी दिव्यानंद को थोड़े ही दे सकते हैं। उसके लिये तो आप और अनुराधा दीदी ही ठीक है।

‘‘क्यों स्वामी जी आप हमारे बारे में क्या बात कर रहे हैं’’ अनुराधा ने वहाँ पहुँचकर दोनों को चौंका दिया।

‘‘अरे आप......’’ अखिल ने मुड़कर देखा।

‘‘वाह दीदी! अच्छा हुआ आप आ गई। मैं अखिल प्रभू को बता रहा था बाबाजी ने सूर्यानंद महाराज की समाधि की तैय्यारियों और कुछ लिखने-पढ़ने का काम आप दोनों को सौंपा है।’’ दिव्यानंद जी ने कपड़े सुखाने का काम खतम किया और वहीं बैठ गये। ‘‘आईये दीदी, आप भी यहीं बैठ जाईये।’’

अनुराधा दिव्यानंद जी के पास बैठते हुए बोली ‘‘नहीं स्वामी जी, मुझे तो कल रात तक हर हालत में दिल्ली पहुँचना है। नौगाँव जाना मेरे लिये संभव नहीं है।’’

‘‘अब हमने तो जो सुना था सो कह दिया। पर एक बात हम जानते हैं कि काम हो आप बाबाजी का कहा टाल नहीं सकती’’ दिव्यानंद जी ने दोनों हाथों को पीछे टिकाकर दोनों पैरों का आगे फैलाते हुए सुस्ताने वाली मुद्रा बनाई।

‘‘समाधि कार्यक्रम देखने की मेरी बड़ी ईच्छा है। आप भी चलिये न! अच्छा रहेगा’’ अखिल ने अनुराधा की आँखों में झांकते हुए कहा।

‘‘नहीं अखिल, मुझे परसों ही ज्वाइन करना है। इस बार वैसे भी मुश्किल से छुट्टी मिली है।’’ अनुराधा ने अपनी गरदन को दिव्यानंद जी की ओर घुमाया।

‘‘स्वामीजी, असल में गलती मेरी ही रही। मुझे बाबाजी को अपना कार्यक्रम पहले ही बता देना था। सोचा था जिस दिन जाऊंगी बता दूंगी। आज तो बताना ही पड़ेगा वरना गड़बड़ हो जायेगी।’’ कहते-कहते अनुराधा उठ खड़ी हुई।

‘‘अरे, आप तो एकदम चलने की तैयारी में आ गई’’ अखिल चाहता था कि अनुराधा कुछ देर यहीं बैठे।

‘‘नहीं अखिल, बाबाजी कहीं चले गये तो फिर से मुलाकात संभव नहीं हो पायेगी।’’ अनुराधा जाने को उद्धृत थी।

‘‘हाँ दीदी.....शायद बाबाजी ऋषिकेश जाने वाले हैं। आप जल्दी मिल लीजिए।’’ दिव्यानंद जी उठे और नीचे की तरफ उतरने लगे।

‘‘ठीक है अखिल, दोपहर में खाने के समय मिलते है’’ कहते हुए अनुराधा खट्-खट् सीढ़ियाँ चढ़ती हुई आश्रम की ओर चली गई।

दिव्यानंद जी पानी के किनारे वाली सीढ़ी पर दोनों पैर पानी में डालकर बैठ गये और जूड़े की शक्ल में बंधे अपने बालों को खोल दिया। बाल लहराकर पीठ के नीचे तक झूल गये। पहले उन्होंने पानी में डुबकी लगाकर शरीर को गीला किया। फिर सिर से पैर तक मुलतानी मिट्टी लगाकर पद्मासन में बैठ गये।

घाट पर पूरी तरह खामोशी थी। अखिल सोच रहा था, क्या समाधि में भी ऐसी ही खामोशी होती होगी? उसने समाधि को लेकर पिछले दो-तीन दिनों में बहुत कुछ पढ़ा था।

बौद्ध महायान सम्प्रदाय की एक शाखा का मानना है कि.....समाधि शून्यावस्था है। जिसमें आत्मा को किसी तरह की अनुभूति नहीं होती। डाॅ. गोपीराज ‘अंतर्यात्रा’ में लिखते हैं कि जगत के समस्त विषय ‘एक’ में लीन होकर उस ‘एक’ की पुष्टि करते हैं तथा ज्ञान लोक में ही सत्ता भासित होती है। यह समाधान ही समाधि है। यहाँ भी समाधि शून्यावस्था है।

यदि समाधि शून्यावस्था है तो फिर शून्यावस्था की अनुभूति कैसे संभव है?

वहीं इन सबसे अलग कबीर सहज समाधि की बात करते हैं।

‘‘साधौ सहज समाधि भली।

आँख न मूंदो कान न रुंधो, तनिक कष्ट नहीं धरो।

खुले नैन पहिचानों, हंसि-हंसि सुंदर रुप निहारो।।

सबत निरंतर से मन लागा, मलिन वासना त्यागी।

उठत-बैठत कबहुं न छूटै, ऐसी हारि लागी।।

समाधि के लिये तीन दिन तक किसी गड्ढे में बैठने की किसी भी साधु को क्या जरूरत है? फिर....समाधि को एक कार्यक्रम की तरह आयोजित करना..........?

मन सशंयग्रस्त हो चला था। देखने से ही शायद आँख खुले। मुझे समाधि कार्यक्रमों में जरूर जाना चाहिये। ‘छपाक’ दिव्यानंद जी ने गंगा में छलांग लगाई और तैरते हुए दूर तक निकल गये। अखिल की तंद्रा टूटी। वह दिव्यानंद जी को पानी में तैरते हुए देखने लगा। दिव्यानंद जी लहरों के भरोसे दोनो हाथ पैर फैलाये पीठ के बल निश्चेष्ट पड़े थे। लहरें उन्हें किनारे की ओर ढकेल रही थी। कुछ देर में दिव्यानंद जी ने अपना नहान कार्यक्रम सम्पन्न किया। रैलिंग पर सूख रहे कपड़ों को समेटते हुए पोटली बनाकर बगल में दबा लिया। दूसरे हाथ में पहले की तरह की साबुनदानी और लोटे को पकड़ा।

‘‘चलिये प्रभू! आज बहुत आनंद रहा। जब तक मिट्टी लपेटकर मैया में डुबकी नहीं लगा लें, हमें आनंद नहीं आता’’

‘‘चलिये......चलिये’’ अखिल उठ खड़ा हुआ। दोनों बतियाते हुए आश्रम लौट आये।

क्रमश..

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