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महामाया - 3

महामाया

सुनील चतुर्वेदी

अध्याय – तीन

अखिल ने खिड़की के सामने लगा परदा हटाया और खिड़की खोल दी। ताजी ठंडी हवा का एक झोंका कमरे में प्रवेश कर गया। हवा के झोंके के साथ ही खिड़की के रास्ते धूप का एक टुकड़ा भी कमरे में उतरा और लंबाई में फैल गया। अखिल ने महसूस किया कि सुबह के नौ बज चुके हैं लेकिन धूप में अभी भी गर्माहट नहीं हैं हल्का सा कुनकुनापन जरूर है। अखिल दोनों हाथ बांधे खिड़की के सामने खड़ा हो गया। खिड़की गंगा घाट की तरफ खुलती थी। खिड़की से बाहर का दृश्य किसी सुंदर लैंडस्केप जैसा था। धीर-गंभीर बहती गंगा नदी। घाट पर नहाती, सूर्य को अद्ध्र्य चढ़ाती मानव आकृतियाँ। नीले आसमान में उड़ते पक्षी, दूर तक फैले हरे-भरे मैदान और ठंड से कुम्हलाई केसरिया धूप। कुछ देर तक अखिल इस दृश्य का आनंद लेता रहा। उसे एक पल को तो लगा कि किसी आश्रम में नहीं बल्कि किसी मंहगे रिसोर्ट में है। डबल बैड, वार्डरोब, डेªसिंग रूम, टी टेबल, दो आरामदायक कुर्सियां, साफ-सुथरा बड़ा सा बाथरूम, ए.सी., हीटर जैसी सुविधाओं सहित करीने से सजा एक कमरा। अखिल ने सोचा दस-पन्द्रह दिन यहीं टिककर लिखने-पढ़ने का काम पूरा कर सकता है।

असल में उसे वर्तमान संदर्भ में धर्मगुरूओं की प्रासंगिकता और उनके बदलते स्वरुप पर शोध करना था। उसे यहाँ धर्म और अध्यात्म को लेकर नये आयाम खुलने की संभावनाएँ दिखाई देने लगी थी। उसके मन में कईं सवाल उठने लगे थे। विचारों में डूबा अखिल कुछ देर और खिड़की के सामने खड़ा रहकर अलसायी सुबह का आनंद लेना चाहता था लेकिन हवा में घुली ठंडक के आगे धूप का यह छोटा सा टुकड़ा बेअसर साबित हो रहा था। उसके शरीर में हल्की सी कंपकंपी भर गयी थी। उसने खिड़की बंद की और हीटर चालू कर बिस्तर पर लेट गया। थोड़ी ही देर में ठंडी हवा का असर खत्म हो गया था। उसने बिस्तर से उठकर कमरे में रखी इलेक्ट्रिक केतली में अपने लिये चाय बनाई और चाय पीते हुए डायरी लिखने लगा।

डायरी: कल की रात आश्रम की डोरमेटरी में गुजारी। थोड़ी कष्टप्रद थी लेकिन बाबाजी से मुलाकात के बाद अब सब कुछ ठीक है। आश्रम में सामान्य कमरे भी हैं। लेकिन रावत ने बाबाजी के आदेश से मुझे वी.आई.पी. कमरा दे दिया है, थैंक्स बाबाजी थैंक्स डाॅ. सब्रतो। मेरे सामने वाले कमरे में शायद डाॅ. अनुराधा है। मैंने सुबह उन्हें कमरे से बाहर जाते देखा था। हो सकता है वो यहीं ठहरी हो। यह भी हो सकता है वो यहाँ किसी काम से आयी हो। जो भी हो.... मुझे लगता है कि आश्रम से जुड़े कुछ करीबियों को जानने-समझने से बाबाजी को जानना-समझना आसान होगा।

एक सवाल है। सवाल क्या एक फाँस है जो मुझे बरसों से अंदर ही अंदर सालती रहती है कि आखिर समाज की कौनसी आवश्यकता है, जिसकी पूर्ति के लिये धर्म के इस स्वरूप और धर्मगुरूओं का प्रादुर्भाव हुआ? क्या यहाँ भी बाजार की तरह ही मांग और आपूर्ति का सिद्धांत काम करता है?

आदिम युग में बिजली का कड़कना, सूरज का निकलना, मौसम का बदलना जैसी घटनाएँ रहस्यमयी रही होगी। जीवन अधिक कष्टप्रद और संघर्षपूर्ण था। हर पल मौत सामने खड़ी होती थी। ऐसे में अनावश्यक मानसिक संबल के लिये किसी पराशक्ति की कल्पना सहज थी। इन रहस्यमयी घटनाओं का कारण ईश्वरीय तत्व में खोजा जाना स्वाभाविक था। ऐसे में कुछ विद्वानों ने इन घटनाओं, चमत्कारों की व्यवस्था की होगी। आमजन को भयमुक्त करने और सुखी जीवन की राह दिखाई होगी। ऐसा करना इन विद्वानों ने अपना धर्म माना होगा। और लोगों ने इन्हें अपना धर्मगुरू। समाज में इसी तरह धर्मगुरूओं का प्रादुर्भाव हुआ होगा। धर्मगुरूओं की प्रासंगिकता भी सिद्ध हुई होगी। लेकिन वर्तमान समय में...............?

पिछले वर्षों में हम तेजी से भौतिकवाद की ओर बढ़े हैं। हमारी जीवनशैली और विचारों में भारी बदलाव हुआ है। जहाँ पहले जीवन की सार्थकता परलौकिकता में ढूंढी जाती थी वही आज जीवन लौकिकता का पर्याय हो चुका है। विज्ञान इतना उन्नत है कि किसी भी घटना में ‘कार्य-कारण’ संबंध स्थापित किया जा सकता है। अब बहुत से प्राकृतिक रहस्यों से पर्दा उठ चुका है। बहुत कुछ एकदम साफ है। केवल और केवल विज्ञान की मदद से जीवन सरल और आरामदायक हुआ है। कई असाध्य बीमारियों पर विजय पायी है। तकनीक के क्षेत्र में टी.वी., मोबाइल, इंटरनेट जैसे आविष्कार हुए हैं।

लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि इस सबके बावजूद समाज में अंधेरा बढ़ा है। अंध श्रृद्धा और भक्ति बढ़ी है। मठ, मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे, गिरजाघर बाजार की तरह समाज में फैल गये हैं। अलौकिक धारणाओं, चमत्कारों के प्रति आकर्षण बढ़ा है। चमत्कारों से लैस धर्मगुरूओं की नई फौज पैदा हुई है। त्याग और तपस्या का मार्ग माने जाने वाला धर्मगुरूओं का संसार ऐश्वर्य और विलासिता का पर्याय बना है। छल, छद्म और धोखा देने की प्रवृत्तियाँ बढ़ी है।

यहाँ मजेदार बात यह है कि जिस समाज में अंतर्जातीय या सगौत्र में शादी करने वाले दो युगल प्रेमियों को जान से मारने का फतवा जारी करने वाली खाप पंचायतें है, उसी समाज ने परम्परागत धार्मिक धारणाओं और मूल्यों के विपरीत स्वरूप में उभरकर सामने आये धर्मगुरूओं को जस का तस स्वीकार कर लिया है, आखिर क्यों?

सोचते-सोचते सिर चकराने लगता है। समझ में नहीं आता कि आखिर गलत कौन है? धर्मगुरू या इन्हें स्वीकारने वाला समाज?

मेरे दिमाग में भारी झंझावत है। मैं संशय में हूँ। मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि किधर जाऊँ? दायें या बायें? धर्म और अध्यात्म को लेकर मन में कईं सवाल हैं। एक गहरा असमंजस है। मैं तय नहीं कर पा रहा हूँ कि आखिर सही क्या है? दांया या बायां.......?

बाबाजी से मिलने के बाद यह संशय का तूफान और तेज हो गया है। बाबाजी के विचार एकदम स्पष्ट और मन को छूने वाले हैं। बाबाजी ने धर्म और अध्यात्म को लेकर कितनी साफगोई से अपनी बात कही। ‘‘बेटे धर्म एक व्यवस्था है। धर्म जीवन को जीने की एक पद्धति भर है। लेकिन वर्तमान में इस व्यवस्था में भारी दोष पैदा हो गये हैं। धर्म सिर्फ व्यवस्था नहीं रह गया बल्कि लोगों ने हथियार के सांचे में ढाल दिया है। हम जैसे कईं भगवाधारी हैं, मुल्ला मौलवी हैं, पादरी है जो धर्म की सूई से अग्म लोगों का खून खींचने में लगे हैं। आज जो धर्म की ध्वजा अपने हाथों में थामे हैं वो वास्तव में धर्म के रक्षक नहीं बल्कि धर्म के व्यापारी हैं।

इतने क्रांतिकारी विचार सुन मैं तो अवाक रह गया था। बाबाजी ने आगे जो बात कही उसे सुन मेरी जड़े तक हिल गयी। मैंने धर्मगुरूओं को लेकर जो धारणा बना रखी है कहीं वो गलत तो नहीं है?

बाबाजी ने शांत और स्थिर चित्त रहते हुए कहा ‘‘जो धर्मगुरू यह दावा करते हैं कि ध्यान की उच्च अवस्था में उन्होंने फलां देवी-देवता से साक्षात्कार किया है। वास्तव में ऐसा कुछ होता नहीं है बेटे। ये तो मन की एक अवस्था है। अरे, अपनी जवानी के दिनों में एक नवयुवक सपने में किसी लड़की के साथ संभोग कर स्खलित हो जाता है और एक साधु सपने में कंधे पर गदा धारण किये एक बंदर को देखकर स्वयं को सिद्ध पुरूष घोषित कर देता है। मैं ऐसे साधुओं से पूछता हूँ कि एक नवयुवक के सपने में नंगी लड़की का आना और एक धर्मगुरू को सपने में गदाधारी बंदर का दिखायी देना दोनों में क्या अंतर है?’’

मैं अचंभित था, मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि बाबाजी सच में साधु है या कोई भगवाधारी कामरेड? अध्यात्म को लेकर भी बाबाजी ने अपने विचार प्रकट किये थे इस विषय पर और अधिक विस्तार से बात करने की जरूरत है। अध्यात्म को लेकर बाबाजी ने जो कुछ कहा था मुझे लगता है उसे यहाँ लिख लेना चाहिए। बाबाजी ने कहा था ‘‘अध्यात्म स्वयं को जानने की प्रक्रिया है। सेल्फ रिएलाइजेशन.....इनलाइनमेंट......परम सत्ता से साक्षात्कार। बुद्ध ने हमें यही खोज विरासत में दी है। उन्होंने दुनिया को एक विचार दिया था लेकिन हमने उस विचार को तोड़-मरोड़कर एक व्यवस्था में तब्दील कर बौद्ध धर्म खड़ा कर दिया और फिर उसमें भी शाखाएँ पैदा कर ली। रामकृष्ण ने समाधि की उच्चावस्था को प्राप्त किया और नरेन्द्र को विवेकानन्द बना दिया। अब लोग नरेन्द्र से विवेकानन्द होने को भी एक चमत्कार मानते हैं। वास्तविकता तो यह है कि विवेकानन्द एक चमत्कार नहीं बल्कि रामकृष्ण के इनलायटन होने का प्रमाण है। यह कौन जानता है कि कल तुम भी विवेकानन्द की तरह ही एक विचार बनकर दुनिया में फैल जाओ.......’’ कहते हुए बाबाजी ने मेरे सिर पर हाथ रखा था। जैसे ही बाबाजी ने मुझे छुआ मेरे शरीर में बिजली सी कौंध गयी थी। मैं थोड़ी देर तक यूं ही बाबाजी के सामने हाथ जोड़े सम्मोहन की मुद्रा में बैठा रहा। क्या सच में बाबाजी ने मुझ पर सम्मोहन विधि का प्रयोग किया था? वास्तविकता क्या है कह नहीं सकता। वैसे भी एक दो दिन के अनुभवो के आधार पर किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी।

अखिल ने डायरी बंद की और कुछ देर यूं ही बिस्तर पर पड़ा रहा फिर नहा धोकर भोजनशाला की ओर चल दिया।

क्रमश..

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