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महामाया - 1

महामाया

सुनील चतुर्वेदी

अध्याय – एक

आधी रात से ही हरिद्वार के कनखल घाट पर लोगों की आवाजाही शुरू हो गई थी। गंगाजी के ठंडे पानी में जैसे ही लोग नहाने के लिये उतरते ‘डुबुक’ की आवाज के साथ ही ‘हर्रऽऽ हर्रऽऽ गंगेऽऽ’ का कंपकपाता स्वर वातावरण में फैल जाता। रात सिमटने के साथ ही घाट पर भीड़ बढ़ती जा रही थी।

पौ फटते ही घाट के ऊपर की तरफ बने विशाल परकोटे का द्वार खुला और सैकड़ों साधुओं की जमात घाट की ओर बढ़ने लगी। लम्बी दाढ़ी-जटाएँ, शरीर पर भस्म, अंगारों सी दहकती आँखें, किसी के हाथ में चिमटा, किसी के हाथ में त्रिशूल तो किसी के हाथ कमंडल। वस्त्र के नाम पर ज्यादातर सिर्फ कोपिन धारण किये हुए थे। कुछ एकदम नंग-धडं़ग थे। इनके बीच एक दैदीप्यमान साधु भी था। गठा हुआ शरीर, कमर पर लुंगी की तरह लपेटा गया भगवा वस्त्र, सुंदर नाक-नक्क्ष, गले में स्वर्णजटित रूद्राक्ष की माला, आँखों में गहन शांति और चेहरे पर असीम तेज। गंगा का तट महायोगी....... महामंडलेश्वर की जय के उद्घोष से गूँज उठा। इसके साथ ही घाट के किनारे पेड़ों पर बैठे हजारों पक्षी डरकर उड़े और ऊपर आसमान में चक्कर लगाने लगे। गंगा में डुबकी लगा रहे लोग हड़बड़ाकर पानी से बाहर निकल आये और हाथ जोड़कर किनारे खड़े हो गये। हर-हर-गंगे, हर-हर महादेव की आवाज के साथ सैकड़ों डुबकियों से गंगा के शांत जल में असंख्य लहरें उठने लगी।

थोड़ी ही देर में हर-हर महादेव का उद्घोष करती साधुओं की जमात गंगा स्नान कर वापिस परकोटे की ओर लौट गयी। परकोटे का विशाल द्वार फिर से बंद हो गया।

पच्चीस-तीस एकड़ को घेरता एक विशाल परकौटा। परकोटे के अंदर आम और लीची के बगीचों के बीच एक बड़ा सा दो मंजिला मुख्य भवन। भवन के दोनों तरफ दो सुंदर इमारतें, मुख्य भवन के सामने थोड़ी दूरी पर ही पूस की छत डालकर बनायी गई यज्ञशाला। यज्ञशाला में हवनकुंड की धधकती अग्नि की लपटों में ‘‘ऊँ त्रयम्बकं यजामहे सुगंधिम पुष्टिवर्धनम........’’ के उच्चारण के साथ ही आहुति डालते साधु, पंडित, आचार्य और भक्त। हवनकुण्ड से उठता सुवासित धुंआ पूस की छत से छन-छनकर चारों तरफ फैल रहा था। यह महायोगी का आश्रम था।

आश्रम में रहने वाली साधुओं की जमात अभी-अभी गंगा स्नान करके लौटी थी। कुछ साधु यज्ञ में सम्मिलित हो गये, कुछ आम के पेड़ के नीचे आसन बिछाकर आसन प्रणायाम करने लगे, कुछ अपनी जटाओं को समेटकर अपने शरीर पर भस्म और अष्टगंध से श्रृंगार में व्यस्त थे। महायोगी सीधे अपने पूजा कक्ष में चले गये थे।

अखिल देर रात आश्रम में पहुंचा था। आश्रम का माहौल उसके लिये नया था। वह यहाँ-वहाँ घूमकर यहाँ होने वाली गतिविधियों का जायजा लेने के साथ ही इस कोशिश में भी था कि किस तरह वह अपने वाइस चांसलर डाक्टर सुब्रतो की चिट्ठी महायोगी तक पहुंचाये। डाक्टर सुब्रतो बाबाजी के अन्यन्य भक्तों में से एक थे और वह उनकी ही सलाह पर यहाँ आया था।

यज्ञशाला से थोड़ी ही दूरी पर, एक पेड़ के नीचे, धूनी ताप रहे साधु को अकेला देखकर अखिल साधु के पास पहुँच गया। उसने साधु को प्रणाम कर महायोगी से मुलाकात के बारे में जानना चाहा।

‘‘अभी तो उनके ध्यान साधन का बखत है, कहाँ से आये हो प्रभू’’

‘‘इंदौर से’’

‘‘इंदौर तो बड़ा भारी शहर है हम गये हैं एक बार बाबाजी के संग’’

‘‘जी....जी’’

‘‘वो देखो, संतु महाराज जा रहे हैं उनको पकड़ लो वो ही तुम्हें बाबाजी से मिलवायेंगे’’

अखिल ने देखा कि एक युवक हाथ में थाली लेकर यज्ञशाला से मुख्य भवन की ओर जा रहा था। उसने कमर के नीचे पीले वस्त्र को लुंगी की तरह लपेट रखा था और ऊपर पीले रंगी की बुश्शर्ट पहन रखी थी। वह लपककर संतु महाराज के पास पहुंच गया। उसने उन्हें प्रणाम किया और पत्र आगे बढ़ाते हुए एक ही साँस में अपनी बात कह डाली।

संतु महाराज के साँवले चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कुराहट उभरी उन्होंने थाली को एक हाथ में पकड़ते हुए दूसरे हाथ से पत्र पकडा। ‘‘आप हॉल में थोड़ी देर इंतजार करिये, बाबाजी जैसे ही ध्यान से उठेंगे, यह पत्र मैं उन्हें दे दूँगा’’ कहते हुए वे मुख्य भवन को पार करते हुए पीछे के दरवाजे से अंदर चले गये। अखिल हॉल में ही रूक गया और एक कोने में बैठकर जायजा लेने लगा। सामने की तरफ सुंदर नक्काशीदार ठोस चांदी का एक बड़ा तखत रखा हुआ था। तखत के बांयी ओर चांदी की आठ फुट ऊँची देवी की प्रतिमा थी। फर्श पर सुंदर लाल कालीन बिछा था। हॉल में पाँच-सात सौ लोग आराम से बैठ सकते थे। पर इस वक्त केवल दस-बारह लोग यहाँ-वहाँ बैठे थे। कोई माला जप रहा था। कोई आँखें बंद कर ध्यान की मुद्रा में था। कोई जोर-जोर से श्वांस अंदर-बाहर कर रहा था। देवी की प्रतिमा के सामने धूपबत्ती, गुगल और सुगंधित पुष्पों की महक वहां के वातावरण को सुवासित बना रही थी।

दांयी तरफ कोने में पद्मासन लगाये प्रौढ़ आयु वाला एक गोल-मटोल साधु भी बैठा था। साधु ने सिर्फ एक कोपिन धारण कर रखी थी। माथे पर त्रिपुण्ड बना था। गले और हाथों में छोटे-बड़े रूद्राक्ष और रंग-बिरंगे मोतियों की मालायें थी। जटाओं को लपेटकर सर पर जुड़ा बांधा गया था। जूड़े की ऊंचाई से इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता था कि साधु की जटायें कम से कम घुटनों तक लम्बी होगी। साधु के पीछे खड़ी एक प्रौढ़वय की साध्वी साधु की जटाओं में फूलों से श्रृंगार कर रही थी।

‘‘इन साधु बाबा का नाम क्या है?’’ एक किशोर ने माला फिराने में व्यस्त अपनी माँ से पूछा।

‘‘खप्पर बाबा ’’

‘‘और इन माताजी का?’’ किशोर जानने को उत्सुक था।

‘‘कुसुम माई’’ जवाब देकर वो महिला फिर से माला घुमाने लगी।

खप्पर बाबा निर्विकार भाव से बैठे थे और साध्वी कुसुम उनके श्रृंगार में व्यस्त थी। कुसुम गोरी चिट्टी, छरहरे बदन वाली लगभग पैंतीस-चालीस वय की खूबसूरत महिला थी। उसने अपने सिर के बालों को ऊपर की तरफ लपेटकर साधुओं की तरह ही जुड़ा बनाया हुआ था। जूड़े में मोगरे के फूलों की वेणी थी। कुसुम ने एक भगवा रोप पहना हुआ था। जो उसकी सुंदरता का छुपाने के बजाय और अधिक उभार रहा था। पहले तो उसने खप्पर बाबा की जटाओं में ढेर सारे फूल सजाये और फिर खुद से बातें करते हुए एक-एक फूल जटाओं से निकाल-निकाल कर फर्श पर फैंकने लगी।

‘‘ना.....ना..... यह पीला फूल यहाँ अच्छा नहीं लग रहा। यहाँ तो लाल फूल होना चाहिए। पर.....मेरे पास तो लाल फूल है ही नहीं! चलो यह सफेद फूल ही लगा देती हूँ। पीले के साथ सफेद रंग भी अच्छा खिलेगा। इतना बड़ा आश्रम है पर फूलों की एक क्यारी भी नहीं है यहाँ। कितनी बार मैंने बाबाजी से कहा कि आश्रम में कुछ सुंदर फूलों के पौधे लगवा दीजिए पर मेरी सुनता कौन है? यहाँ तो सिर्फ निर्मला माई की चलती है। निर्मला माई जो कहे सो सही। मेरे गुरू के आश्रम में कितना सुंदर बगीचा था। मैं अपने गुरू को रोज अपने हाथों से माला बनाकर पहनाती थी। रोज बगीचे से ताजे, सुंदर और खुशबुदार फूल चुनती फिर एक-एक फूल को डोरे में गूंथकर माला बनाती। कितना दिव्य और सुंदर था मेरा गुरू। चेहरे पर सूरज सा तेज और आँखों में कृष्ण कन्हैया सा सम्मोहन पर.........छोड़ो’’ बड़बड़ाते हुए कुसुम ने खप्पर बाबा की जटाओं से सारे फूल निकाल-निकालकर फैंक दिये और सामने खड़े होकर अपना दाहिना हाथ फैलाते हुए कहने लगी -

‘‘लाईये फिफ्टी रूपिज निकालिये’’

‘‘क्या करेगी पचास रूपये का’’ खप्पर बाबा ने अपना मौन भंग किया।

‘‘फूल लाऊँगी। एक माला आपके लिये बनाऊंगी और एक बाबाजी के लिये’’

‘‘यहां पैसे कहाँ धरे हैं’’

‘‘झोले में हैं। लाईये टाइम वेस्ट मत कीजिए’’

‘‘अरी पगली, एक बार कहा न कोई पैसा-वैसा नहीं है मेरे पास’’ खप्पर बाबा ने अपना झोला काँख में दबाते हुए कहा।

‘‘आप नहीं देंगे फिफ्टी रूपिज’’

‘‘कहा न.....नहीं देंगे’’

‘‘तो फिर हम खुद ही निकाल लेंगे’’ कहते हुए कुसुम ने चील की तरह झपट्टा मारकर खप्पर बाबा का झोला छीन लिया।

खप्पर बाबा इस अप्रत्याशित हमले के लिये तैयार नहीं थे। इसलिये पहिले तो थोड़ा बौखलाये फिर उन्होंने कुसुम को पूरी ताकत से धक्का दिया और उसके हाथ से अपना झोला छुड़ाकर वहाँ से चल दिये। कुसुम बड़बड़ाते हुए हॉल में यहाँ से वहाँ तेज-तेज घूमने लगी।

‘‘साला मोटा........लेने के नाम पर हमेशा आगे रहता है। कोई भक्त सीधे से भेंट नहीं दे तो जमाने भर का झूठ सच करके उससे भेंट निकलवा लेता है लेकिन देने के नाम पर कुसुम को पचास रुपये भी नहीं दे सकता। बड़ा साधु बनता है। चलो, बाबाजी से ही ले लेती हूँ। पर.....बाबाजी होंगे कहाँ ? एक तो यह आश्रम भी इतना बड़ा है कि पता ही नहीं चलता कौन कहाँ है ? पर, फिफ्टी रूपिज चाहिए तो बाबाजी को ढूंढना पड़ेगा! चलो, कहीं न कहीं तो मिलेंगे ही’’ कहते हुए कुसुम ने एक बड़ा सा बोरा कंधे के पीछे टांगा और बाबाजी को ढूंढने प्रवचन हॉल के बाहर चल दी।

‘‘सब बाबाजी की लीला है’’ बुदबुदाते हुए प्रौढ़ महिला तेज-तेज माला फिराने लगी।

एक वृद्ध से दिखने वाले व्यक्ति ने हाथ की माला गोद में रखते हुए जोर-जोर से साँस अंदर-बाहर कर रहे नवयुवक से पूछा-

‘‘यह साध्वी ज्यादा ध्यान साधन करने से पागल हो गई है या पहले से’’

नहीं बब्बा, सुना है किसी कॉलेज में प्रोफेसर थी। अक्सर बाबाजी के पास आती-जाती थी। एक दिन देवी दर्शन की जिद कर बैठी। बाबाजी ने बहुत समझाया पर नहीं मानी।’’ नवयुवक द्वारा एक लंबी सांस अंदर खींचने के प्रयास में उसकी बात में स्वतः विराम आ गया।

‘‘फिर क्या हुआ?’’ वृद्ध व्यक्ति ने अपना शरीर थोड़ा और आगे की ओर झुकाते हुए पूछा।

‘‘होना क्या था, बाबाजी ने दोनों भृकुटी के बीच अंगूठा रखा और एक बार में ही सम्पूर्ण ब्रह्मांड के दर्शन करा दिये।’’ इसी के साथ नवयुवक ने साँस बाहर छोड़ दी।

प्रौढ़ा हाथ की माला अपने किशोर लड़के को सौंपकर इन दोनों के नजदीक खिसक आयी। गंजे सिर और मोटी तोंद वाले सज्जन भी ध्यान छोड़कर मंडली का हिस्सा बन गये।

‘‘पर पगलाई कैसे?’’ प्रौढ़ा उत्सुक थी।

‘‘देवी-देवताओं के दर्शन सहज है क्या माई ?’’ अरे बाबाजी के चेहरे की तरफ तो देखा नहीं जाताघड़ी भर फिर देवी-देवताओं का तेज... हर कोई सहन कर सकता है क्या ? नवयुवक ने फिर से सांस फेंफडों में भर ली।

‘‘सच्ची कही भैया, देवी-देवताओं का तेज सहने के लिये बड़ा तप चाहिये’’ प्रौढ़ा ने नवयुवक की बात का समर्थन किया।

‘‘फिर ऽऽऽऽ..., साधु महात्मा सालों साल हिमालय में तपस्या करते हैं तब जाके देवी-देवताओं के दर्शन कर पाते हैं।’’ वृद्ध ने भी अपने ज्ञान का भंडार खोला।

‘‘तुमने भी सच्ची कहीं बब्बा ... वो तो बाबाजी की आन रही होगी सो बच गई नहीं तो देवताओं के दर्शन के चक्कर में लोग मर भी जाते हैं। प्रौढ़ा ने श्रद्धा से दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा।

‘‘भले ही दिमाग पर थोड़ा असर हुआ हो पर इसने ब्रह्मांड के दर्शन तो कर लिये। धन्य है ... धन्य है ...बाबाजी आप, धन्य हैं आपकी लीलाएँ’’ मोटी तोंद वाले ने फिर से ध्यान की पोजीशन लेते हुए कहा।

‘‘अरे बाबाजी की तो इतनी लीलाएँ हैं कि कहते-कहते ज़िदगी खतम हो जाये पर लीलाएँ खत्म न हों।’’ अपनी बात समाप्त कर नवयुवक फिर जोर-जोर से साँस अंदर-बाहर करने लगा।

‘‘बाबाजी मेरी सुध न जाने कब लेंगे अब तो मरे पास समय भी कम बचा है’’ वृद्ध ने एक लंबी आह भरी और सिर दीवार से टिका दिया।

‘‘बाबाजी सबके तारण हार हैं वो तुम्हारी भी सुध लेंगे’’ प्रोढ़ा ने वृद्ध को दिलासा देते हुए अपने लड़के के हाथ से माला लेकर घुमाने लगी।

यह नया परिवेश अखिल को रोचक जान पड़ा। उसका मन हुआ कि वो नवयुवक के पास जाय और बाबाजी की लीलाओं के बारे में बात करें। लेकिन तभी संतु महाराज ने थोड़ी दूरी से हाथ का ईशारा करते हुए कहा।

‘‘चलिये, बाबाजी ने याद किया है’’

‘‘अखिल उठ खड़ा हुआ और संतु महाराज के पीछे-पीछे चल दिया।

क्रमश..

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