महामाया
सुनील चतुर्वेदी
अध्याय – चार
भोजनशाला में अखिल की अनुराधा से मुलाकात हुई। दोनों बहुत देर तक भोजनशाला में ही खड़े-खड़े बतियाते रहे। सामान्य परिचय से शुरू हुई बातचीत व्यक्तिगत रुचियों और अनुभवों तक पहुंच गयी।
‘‘आप यहाँ कब से आ रही हैं’’
‘‘पाँच-छः साल से’’
‘‘आपकी बाबाजी से मुलाकात कैसे हुई?’’
‘‘मेरी बाबाजी से मुलाकात.......यह एक लम्बी कहानी है। चलो कहीं बैठकर बात करते हैं।’’
अखिल और अनुराधा भोजनशाला के पास ही आम के पेड़ के नीचे एक बैंच पर बैठ गये। अनुराधा ने बातचीत शुरू की।
‘‘हाँ तो आप पूछ रहे थे कि मेरी बाबाजी से मुलाकात कैसे हुई’’
अखिल ने हाँ में सिर हिलाया। अनुराधा ने कहना शुरू किया।
‘‘हमारे लिये मतलब हम माँ-बेटी के लिये तो बाबाजी का मिलना किसी चमत्कार से कम नहीं है। आज भी सोचती हूँ कि बाबाजी मुझसे नहीं मिलते तो मैं पता नहीं कहाँ होती......क्या करती?’’ हमेशा संयत दिखाई पड़ने वाली अनुराधा भावुक हो गई थी लेकिन तुरंत ही उसने अपने आपको संभाल लिया।
‘‘मैं जब हाईस्कूल में पढ़ती थी तभी पापा हमें छोड़कर चले गये थे.....उन्होंने दूसरी शादी कर ली थी। पापा हमेशा मुझसे कहते थे मैं तुझे डाॅ क्टर बनाऊंगा। मैं भी डाॅक्टर बनना चाहती थी पर हमारे लिये वो सबसे बुरा समय था। पापा के यूं अचानक घर से चले जाने से मेरा मन पढ़ाई से उचट गया था। माँ तो जैसे पूरी तरह टूट गई थी। नानी उस समय जिंदा थी उन्होंने ने ही माँ को सम्हाला। वो माँ को सत्संग में ले जाती....धीरे-धीरे माँ सम्हलने लगी। उन्हीं दिनों दिल्ली में बाबाजी का कार्यक्रम हुआ। माँ बाबाजी से बहुत प्रभावित हुई थी। अगले दिन वो मुझे भी अपने साथ ले गई। मैं बाबाजी को प्रणाम कर उनके पास बैठी थी कि अचानक बाबाजी ने जैसे ही मेरे सिर पर हाथ रखा। मुझे न जाने क्या हुआ। मेरी आँखों से आँसू बहने लगे। मेरे पापा के प्रति जितना गुस्सा मेरे अंदर था मैंने सब बाबाजी से कह दिया। बाबाजी ने मेरे आँसू पोंछे और बड़ी ही आत्मीयता से कहा था तुम्हे डाॅक्टर बनना है।’’
अनुराधा ने अपने गले में पहिनी माला को बाहर निकालकर अखिल को दिखाया ‘‘फिर उन्होंने अपने गले से यह माला निकालकर मेरे गले में डाल दी। आज भी उनका यह आशीर्वाद मेरे साथ है।’’ अनुराधा ने माला को सिर से लगाया और फिर से गले में डाल लिया। ‘‘सच पूछो तो बाबाजी के कारण ही मैं अपना एम.बी.बी.एस. पूरा कर सकी। मेरी फीस बाबाजी ही भरते थे। माँ तो हर साल महिने-महिने भर बाबाजी के पास आकर रहती हैं। हम दोनों माँ-बेटी की अब तो यह हालत है कि कोई भी परेशानी हो या कुछ भी अच्छा हो तो जब तब बाबाजी को नहीं बता देते चैन नहीं पड़ता है। मेरे लिये तो पिता से भी बढ़कर हैं बाबाजी।’’ बोलते-बोलते अनुराधा की आँखें नम हो गई। उसने पर्स में से रुमाल निकालकर अपनी आँखों को पोंछा।
कुछ देर दोनों के बीच चुप्पी छायी रही फिर अनुराधा ने थोड़ा सहज होकर अखिल से कहा।
‘‘लो, अपनी पूरी कहानी सुना दी और आपसे कुछ पूछा ही नहीं।’’
‘‘तो अब पूछ लीजिए’’ अखिल ने मुस्कुराते हुए कहा।
‘‘बताइये आप बाबाजी से कब से जुड़े हैं’’
‘‘मैं तो अभी दो दिन पहले ही बाबाजी से मिला हूँ। असल में मैं धर्मगुरूओं की प्रासंगिकता पर शोध चाहता हूँ। बस इसी सिलसिले में यहाँ आया हूँ....।’’
‘‘वेरी गुड, शोध पूरा हो जाय तो मुझे जरूर पढ़वाईयेगा।’’
‘‘जरूर.....जरूर। वैसे भी लेखकों को सुधी पाठक की हमेशा जरूरत होती है, फिर आप जैसा सुधी पाठक मिले तो उसे कौन लेखक छोड़ना चाहेगा’’ कहते हुए अखिल हँस दिया। लेकिन अनुराधा अपनी ही रौ में थी। उसने संजीदगी और गंभीर स्वर में कहा ‘‘आप भले ही अपने शोध के सिलसिले में यहाँ आये हों लेकिन बाबाजी का व्यक्तित्व ही ऐसा है कि एक बार जो मिल लेता है वो चाहकर भी उन्हें छोड़ नहीं पाता। यह बात मैं दावे के साथ कह सकती हूँ।’’
‘‘अच्छा.....आपके इस दावे का आधार क्या है?’’
‘‘एक नहीं दसियों उदाहरण हैं। निर्मला माई को ही ले लो। आपने देखा होगा न.....वो सांवली सी सुंदर माई’’
‘‘हाँ......बाबाजी ने परिचय करवाया था लेकिन उनसे कोई बात नहीं हुई’’ अखिल ने जवाब दिया।
‘‘निर्मला माई के मामाजी विष्णु जी बाबाजी के पुराने भक्त हैं। उन्होंने सोनीपत में बाबाजी का कार्यक्रम आयोजित किया था। इस कार्यक्रम में जब निर्मला माई पहली बार बाबाजी से मिली तो उन्हें अपने आप बहुत सी क्रियाएँ होने लगी थी। फिर देर तक बाबाजी से लिपट कर रोती रही।
‘‘क्या उन्हें कोई साइक्लोजिकल प्राब्लम है’’ अखिल ने आश्चर्य से पूछा।
‘‘कैसी बात करते हैं आप?’’ निर्मला माई को कोई साइक्लोजिकल प्राब्लम नहीं है। असल में बाबाजी की नजर पड़ते ही निर्मला माई की कुंडलिनी जागृत हो गई थी। पलभर में ही ऊर्जा मूलाधार से सहस्त्राधार तक पहुँच गई थी। उनके सारे चक्र जागृत हो गये थे। बस उसी दिन निर्मला माई ने घर छोड़ा और बाबाजी से दीक्षा ग्रहण कर ली। आज निर्मला माई का जीवन पूरी तरह बदल चुका है। बाबाजी के आशीर्वाद से ही निर्मला माई को समाधि उपलब्ध हुई है।
‘‘कुंडलिनी जागरण........ऊर्जा......चक्र......आप डाॅक्टर होकर भी इन सब बातों पर विश्वास करती हैं’’ अखिल ने पूछा।
‘‘इन्डायरेक्टली क्या आप मुझे दकियानूसी कहना चाह रहे हैं। डाॅक्टर हूँ तो क्या हमारे ऋषि-मुनियों द्वारा लिखे गये शास्त्रों पर ही विश्वास न करूं। चक्रों का भेदन, कुंडलिनी जागरण यह तो शास्त्रोक्त है। पातांजल ने अपने सूत्रों में इसकी स्पष्ट व्याख्या करते हुए अष्टांग योग प्रतिपादित किया है। आप किसी दिन बाबाजी से इस विषय पर चर्चा कीजियेगा तो आप भी विश्वास करने लगेंगे’’ अनुराधा का स्वर थोड़ा सा उद्विग्न हो गया था।
‘‘साॅरी......मेरा मतलब आपको दकियानूसी कहने का नहीं था। मैंने तो यूं ही जिज्ञासावश पूछा था’’ अखिल ने सफाई दी।
‘‘राधा माई को भी देखा होगा आपने। राधा माई सिक्किम की रहने वाली है। दिल्ली में रहकर पढ़ रही थी। सन्यास के पहले का उनका नाम स्वीटी था। राधा माई तो मेरे सामने ही स्कर्ट-टाॅप पहिनकर बाबाजी से मिलने आती थी। फिर अचानक एक दिन इस फैशनेबल लड़की के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया और उसने भगवा कपड़े पहिन लिये। बताईये ऐसा क्यों हुआ? अचानक एक लड़की में इतना बड़ा बदलाव कैसे आ गया? अनुराधा के स्वर में तल्खी थी।
अखिल निरूत्तर था। वो आँखे गड़ाये अनुराधा के चेहरे की ओर देख रहा था। तभी साध्वी कुसुम कंधे पर बड़ा सा थैला उठाये उन दोनों के पास पहुंची और अनुराधा से पूरे अधिकार से कहने लगी।
‘‘अनुराधा दीदी जल्दी से फाईव हंड्रेड रूपिज निकालिये’’
‘‘पर क्यों कुसुम दीदी। आपको पाँच सौ रुपये किस बात के लिये चाहिए।’’ अनुराधा ने संयत होते हुए कहा।
‘‘मुझे चायनीज फूड का स्टॉल लगाना है। आश्रम में बहुत सारे बच्चे भी आये हैं। उनका कोई ध्यान नहीं रखता। सबके सब बाबाजी के दिवाने हैं। चलिये......जल्दी कीजिए। मुझे बाजार जाना है, नूडल्स, साॅस सब लाना है। फिर स्टॉल लगाने के लिये भी तो बहुत सारी व्यवस्थाएँ करनी हैं’’ साध्वी कुसुम अपनी बात पर अड़ी हुई थी।
‘‘पर कुसुम दीदी मेरे पास अभी फाइव हंड्रेड रुपिज नहीं है’’ अनुराधा ने कुसुम को टालना चाहा।
‘‘अरे वाह दीदी। कुसुम को देनें के लिये तुम्हारे पास पाँच सौ रुपये नहीं है और बाबाजी के लिये चट से पाँच हजार निकल आयेंगे। आश्रम में आने वाले सब भक्त एक जैसे होते हैं। गुरू पर जितना कहो न्यौछावर कर देंगे पर सोशल कोज के लिये फूटी दमड़ी नहीं निकालेंगे।’’ कुसुम ने हाथ नचाते हुए कहा। अखिल को अनुराधा के साथ कुसुम का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा। उसका मन कुसुम को पाँच सौ रूपये देने का हुआ। उसने पेंट की जेब में हाथ डाला ही था कि अनुराधा ने उसे रोक दिया।
‘‘नहीं आप रहने दीजिए।’’ फिर कुसुम की तरफ मुड़ते हुए कहा चलिये कुसुम दीदी मैं आपको देती हूँ।
अनुराधा के पीछे-पीछे कुसुम भी चली गई। अखिल वहीं बैठा-बैठा अनुराधा को जाते हुए देखता रहा। डाॅ. अनुराधा सांवले रंग और साधारण कद-काठी की थी। उसकी आँखों में गज़ब का आकर्षण था। इस वक्त अखिल अपने आपको इस आकर्षण में बंधा महसूस कर रहा था। उसकी आँखों में एक खिंचाव है और यही खिंचाव वो इस वक्त अपने अंदर भी महसूस कर रहा था।
क्रमश..