महामाया
सुनील चतुर्वेदी
अध्याय – दो
प्रवचन हॉल के पीछे वाला दरवाजा सीढ़ियों की तरफ खुलता था और सीढ़ियां एक लम्बे गलियारे में जाकर समाप्त होती थी। गलियारे में विलायती रेड कार्पेट बिछा था। गलियारे के अंत में एक बड़ा सा दरवाजा था। दरवाजे के उस पार एक वातानुकुलित सुसज्जित कमरा था। कमरे में सामने की ओर सिंहासन नुमा कुर्सी पर बाबाजी बैठे थे और नीचे दस पंद्रह भक्तगण। बाबाजी की आँखे बंद थी। इतने लोगों की मौजूदगी के बावजूद कमरे में निस्तब्ध शांति थी।
अखिल दूर से ही बाबाजी को प्रणाम कर पीछे की पंक्ति में बैठ गया। बाबाजी का व्यक्तित्व आकर्षक था। सुंदर नाक-नक्श, गौर वर्ण, लम्बा कद, कंधे तक झूलते लम्बे काले बाल, छाती को छूती लम्बी काली दाढ़ी, गले में सोने से गढ़ी रूद्राक्ष की माला, भगवा वस्त्र से ढका कमर के नीचे का हिस्सा, चेहरे पर असीम शांति।
बाबाजी की कुर्सी के दोनों तरफ चांदी की दो चोकियाँ थी। एक पर लगभग चार फुट ऊँची देवी की और दूसरी पर लगभग उतनी ही ऊँचाई की ध्यान मग्न बुद्ध की प्रतिमा थी। दोनो मूर्तियां अष्टधातु की बनी हुई थी। कमरे के दांयी और बांयी दीवार के सहारे दो दिवान रखे हुए थे जिन पर मंहगी रेशमी चादरें झूल रही थी। दोनो दिवान के बीच के हिस्से को रेशमी गलीचे से ढका गया था। उस पर भक्तगण बैठे थे। कमरे के एक कोने में फल और मेवे के टोकरे रखे थे। कमरे में सुगंधित अगरबत्ती और फलों की मिलीजुली गंध थी। दांयी ओर लगे दिवान पर दो साध्वियाँ बैठी थी। एक साध्वी का रंग गेहुआँ जरूर था लेकिन सुंदर नाक-नक्श, ऊँची कसी हुई कद-काठी और मांसल शरीर उसे अप्रितम सौंदर्य प्रदान कर रहा था। दूसरी साध्वी के चेहरे पर अप्रितम सौंदर्य था। अखिल की नजर दोनों साध्वियों से टकराई। अखिल झेंपकर अपनी आँखे नीची करता उसके पहले ही सांवले रंग वाली साध्वी ने उससे पूछा
‘‘आप इंदौर से आये हैं’’
‘‘जीऽऽ......जी’’
‘‘बातों का सिलसिला आगे चलता लेकिन तभी संतु महाराज ने तेजी से कमरे में प्रवेश किया और सीधे बाबाजी के पास पहुंचकर उनके कान में कुछ कहा।
‘‘हाँ उन्हें अंदर ले आओ।’’ बाबाजी ने पलभर के लिये आँखें खोली और फिर बंद कर ली। आदेश पाते ही संतु महाराज उल्टे पाँव लौट गये। थोड़ी ही देर में उनके साथ तीन लोगों ने प्रवेश किया। इनमें से एक सज्जन अधेड़वय के थे और दो नौजवान। सभी ने सफेद कुर्ते पजामे पहन रखे थे। बाबाजी को साष्टांग प्रणाम करके वे बाबाजी के सामने बैठ गये। अधेड़ उम्र, मोटी तोंद और गोल चेहरे वाला व्यक्ति बाबाजी के करीब पहुँचकर कुछ फुसफुसाने लगा। बाबाजी भी उसकी बात सुनने के लिये थोड़ा-सा नीचे झुक गये। धीमे स्वर में दोनों के बीच कुछ बातचीत होती रही। फिर बाबाजी उन्हे अंदर के कमरे में ले गये व साथ में आये दोनों नौजवान उठकर बाहर चले गये.
बाहर भक्तों की आँखों में अब श्रद्धा के बदले कोतूहल था। पीछे बैठे एक भक्त ने बड़े ही धीमें स्वर में पूछा ‘‘ये कौन है?’’
‘‘अरेऽऽ इन्हें नहीं जानते!..... ये गुजरात के उप मुख्यमंत्री जिग्नेश शाह हैं ।’’ दूसरे ने आश्चर्य प्रकट करते हुए जवाब दिया।
‘‘ये भी बाबाजी के भक्त हैं !’’ पहले की आँखों में आश्चर्य था।
‘‘क्यों नहीं होंगे, इन्हे तो रोज बाबाजी के चरण धोकर पीना चाहिये। अरे बाबाजी के आशीर्वाद से ही मिनिस्टर बने हैं वरना पार्टी में इनकी कोई इज्जत नहीं रह गई थी’’ दूसरे का राजनीतिक ज्ञान अपार था।
थोड़ी ही देर में बाबाजी और मंत्री जी आगे वाले कमरे में लौट आये। मंत्री जी ने बाबाजी को साष्टांग दंडवत कर दोनों हाथ जोड़ते हुए बाबाजी की ओर भावपूर्ण दृष्टि से देखा।
‘‘बाबाजी ने मुस्कुराते हुए एक हल्की सी चपत उनके गंजे सिर पर लगाई और कहा - ‘‘निश्चिंत रहो।’’
मंत्री जी ने दोनों माताओं को भी दंडवत किया और तेजी से बाहर की ओर चल दिये। बाबाजी की आँख का ईशारा पाकर संतु महाराज भी उन के पीछे-पीछे कमरे से बाहर चले गये।
बाबाजी कुछ देर तक कुर्सी पर आँख बंद किये बैठे रहे फिर आँख खोलकर सभी भक्तों पर नजर डाली और अंत में अखिल की ओर देखकर मुस्कुराने लगे। अखिल ने हाथ जोड़ दिये। बाबाजी ने रहस्य भरे स्वर में कहा -
‘‘कुछ जानने आये हो बेटे’’
‘‘जीऽऽ.....जी बाबाजी मेरे मन में धर्म और अध्यात्म को लेकर बहुत से प्रश्न हैं।’’
‘‘केवल जिज्ञासा से सत्य को नहीं पाया जा सकता। सत्य की खोज के लिये तपस्या, त्याग और गहरे समर्पण की जरूरत होती है। मन की सारी जिज्ञासाओं को शांत करने के लिये तुम्हे अंतर्यात्रा करनी होगी और उसके लिये तुम्हे ध्यान में उतरना होगा।’’
‘‘ध्यान क्या है बाबाजी’’ एक भक्त ने पूछा।
‘‘ध्यान यानि स्वयं से साक्षात्कार और स्वयं से साक्षात्कार ही प्राणी मात्र का धर्म है’’ बाबाजी का स्वर धीमा लेकिन गंभीर था। बाबाजी ने बोलते-बोलते आँखें फिर से बंद कर ली जैसे ध्यान में चले गये हों। थोड़ी देर कमरे में सन्नाटा छाया रहा फिर अखिल ने पूछा -
‘‘बाबाजी धर्म चमत्कार है या विज्ञान?’’
‘‘विज्ञान बेटे......चमत्कार तो कुछ होता ही नहीं है?’’
‘‘फिर धर्म और विज्ञान अलग-अलग क्यों है?’’ अखिल ने प्रतिप्रश्न किया।
अलग-अलग कहाँ है। धर्म और विज्ञान तो हमेशा से साथ-साथ हैं । जहाँ तक का विज्ञान हमने जान लिया, धर्म और अध्यात्म उसके आगे का विज्ञान जानने की प्रक्रिया है। धर्म और विज्ञान के बीच आज यह जो कन्फ्यूजन है वो तथाकथित महामंडलेश्वरों, आचार्यों, साधु-महात्माओं और बुद्धिजीवियों द्वारा फैलाया जा रहा है। धर्म और अध्यात्म को लेकर समाज में जो भी भाषाएँ प्रचलित हैं वो सड़ी-गली और पुरानी है जबकि आज का समाज बहुत आगे निकल गया है। मैं चाहता हूँ कि अब धर्म और अध्यात्म को नई भाषा देनी चाहिए.......विज्ञान की भाषा, ताकि धर्म और विज्ञान फिर से एक साथ हो सके और इस काम के लिये मुझे तुम जैसे नौजवानों की जरूरत है।’’ बाबाजी ने अखिल की आँखों में देखते हुए कहा।
सभी भक्त जड़वत बैठे, पूरी श्रृद्धा और मनोयोग से बाबाजी को सुन रहे थे। बाबाजी के बाजू में खड़े प्रौढ़ सज्जन ने अपनी अंगुलियों से रूद्राक्ष की माला घुमाते-घुमाते ही अपने दोनों हाथ जोड़े और बुदबुदाये।
‘‘महायोगी........महामंडलेश्वर की जय हो’’ यह वानखेड़े जी थे बाबाजी के पुराने चेले।
जय हो......जय हो......कहते हुए सभी ने बाबाजी को साष्टांग दंडवत किया।
बाबाजी धीरे से अपने आसन से उठे कुछ कदम चलकर वापस पलटे और अखिल के पास पहुंचकर उसके सर पर हाथ रखते हुए बोले-
‘‘अभी तो कुछ दिन हो ना बेटे’’
अखिल ने झुककर कहा ‘जी बाबाजी।’
इस बीच दोनों माताएँ भी उठकर बाबाजी के पीछे आकर खड़ी हो गई थी। बाबाजी ने दोनों माताओं का अखिल से परिचय कराया। सांवले चेहरे वाली निर्मला माई थी और अप्रितम सौंदर्य वाली राधा माई। बाबाजी ने अखिल को ठहराने संबंधी निर्देश वानखेड़े जी को दिये और दांयी ओर वाले दरवाजे से अंदर चले गये। दोनो माताएँ भी उनके पीछे-पीछे अंदर चली गई।
बाबाजी के जाते ही वानखेड़े जी ने अखिल को थाम लिया।
‘‘बेटे बाबाजी ने जो कुछ कहा है उसे अच्छी तरह समझ लेना। ये लीलाधारी है। संकेत में ही बात करते हैं। वैसे तो लीलाधारी संतों की लीला सिर्फ भगवान ही समझ सकते हैं पर हमने इतने बरसों में अपनी मोटी बुद्धि से इतना जरूर जान लिया है कि तुम पर बाबाजी की आज विशेष कृपा हुई है । हमें जो कहना था सो कह दिया अब आगे तुम जानो। रही बात तुम्हारे ठहरने की तो हम रावत को बाबाजी का संदेश दे देंगे वो तुम्हारे लिये एक अच्छा कमरा खोल देगा।’’ कहते हुए वानखेड़े जी कमरे से बाहर निकल गये। उनके पीछे-पीछे भक्तों का लवाजमा भी चल दिया।
बाबाजी के आदेश से रावत ने अखिल के लिये एक वी.आई.पी. कमरा खोल दिया था। आरामदायक कमरा मिलते ही अखिल ने रात की बाकि नींद पूरी की। आँख खुली तो शाम हो चुकी थी। अखिल फ्रेश होकर बाहर निकल आया।
भक्त और साधक सीधे भोजनशाला की ओर बढ़ रहे थे। अखिल भी भीड़ के पीछे-पीछे भोजनशाला में जा पहुँचा। दरवाजे पर खड़ा एक साधु सभी भक्तों को निर्देशित कर रहा था ‘‘चलिये...जल्दी-जल्दी प्रसादी ग्रहण करिये। थाली में कोई जूठा नहीं छोड़ें।’’
‘हअओ ऽ ऽ महाराज’ कहते हुए लोग अंदर घुस रहे थे।
भोजनशाला में पूरा उत्सवी माहौल था। बड़े से रसोड़े में बहुत सारी महिलाएँ काम कर रही थीं। कुछ रोटी बेलने में लगी थी... कुछ रोटी सेक रही थी तो कुछ परोसने वाले बड़े-बड़े धामों में दाल, सब्जी और खिचड़ी भर-भर कर पुरूषों को दे रही थी। पुरूष परोसगारी में लगे थे। लोग भोजन कर रहे थे और आपस में हंसी-ठिठोली भी जारी थी।
अलग-अलग मिजाज के सैंकड़ों लोग, सब के अलग-अलग दुख, सबका अलग रंग, अलग-अलग शौक... लेकिन यहाँ एक जाजम पर सब एक-दूसरे में ऐसे गडमड कि अलग करना मुश्किल। कोई पारिवारिक, जातिगत रिश्ता न होते हुए भी सबके बीच एक रिश्ता है, गुरू भाई...गुरू बहिन का। अखिल यह सब देख अभिभूत हो गया। तभी परोसगारी कर रहे एक भक्त ने टोंका ‘‘प्रशादी नहीं पानी क्या महाराज’’ अखिल बिना कोई जवाब दिये पंगत में बैठ गया।
उसके पास की खाली जगह पर लगभग पच्चीस-छब्बीस साल की लड़की आकर बैठ गई। लड़की ने प्लेट वाली काली सलवार और गुलाबी रंग का कुर्ता पहन रखा था। उसके गले में चुन्नी नहीं थी। सफेद कुर्ता पजामा पहने एक बीस-बाईस साल का युवक राम रस......राम रस बोलते हुए सबकी पत्तल में नमक परोस रहा था। उस लड़की की पत्तल में नमक परोसकर वह युवक वहीं ठहरकर बतियाने लगा -
‘‘नमो नारायण दीदी’’
‘‘नमो नारायण...... नमो नारायण......।’’
‘‘आज आप के पसंद की प्रसादी है दीदी’’
‘‘कढ़ी बनी है क्या’’
‘‘हाँ..... ब्रह्मचारी जी ने खुद बनाई है स्पेशल पंजाबी कढ़ी’’
‘‘चलो....चलो.....जल्दी परोसगारी करो बातें-चीतें बाद में कर लेना’’ पीछे से सब्जी परोसने आये एक प्रौढ़ ने युवक को धकियाते हुए कहा।
युवक रामरस......रामरस.....कहते हुए आगे बढ़ गया।
अखिल सलाद का टुकड़ा उठाकर मुँह में रखने ही जा रहा था कि लड़की ने टोंका।
‘‘अभी नहीं..........पूरी परोसगारी हो जाने दीजिए फिर ब्रह्मचारी जी भोजन मंत्र का पाठ करवायेंगे तब आप प्रसादी खा सकते हैं।’’
अखिल ने सलाद का टुकड़ा वापस पत्तल में रखते हुए पूछा -
‘‘आप यहीं रहती है’’
‘‘नहीं आती-जाती रहती हूँ, यह तो मेरा घर ही है। लगता है आप पहली बार आये हैं।’’
‘‘जीऽऽ.......’’
‘‘कहाँ से आये हैं?’’
‘‘इंदौर से.....और आप?’’
‘‘दिल्ली से.........मैं डाॅ. अनुराधा’’
‘‘मैं अखिल’’
बातों का सिलसिला आगे चलता लेकिन ब्रह्मचारी जी ने भोजन मंत्र का पाठ शुरू कर दिया।
‘‘ऊँ सहना भवतु...............।’’ भोजन मंत्र समाप्त होते ही सब लोग भोजन करने में जुट गये।
उधर रसोई में चूल्हे पर रोटी सेक रही एक प्रौढ़ महिला ने अपना हाथ रोकते हुए कहा -
‘‘ए सुनो... आज हम लोग रतजगा करेंगे।’’
‘‘पर ढोलक के बिना भजन का मजा नहीं आयेगा’’ एक महिला ने रोटी बेलते-बेलते कहा।
‘‘ढोलक हम पे है’’ रसोई मे घुस रहे ब्रह्मचारी ने कहा।
‘‘क्यों काकी रतजगे में क्या आदमी शामिल नहीं होंगे?’’ परोसगारी के लिये रोटियाँ लेने आये एक पुरूष ने पूछा।
‘‘क्यों नहीं बेटा... रतजगे में आदमी-औरत वाली कोई बात नहीं है। जिसकी श्रद्धा हो वो भजन करे’’ तवे पर रोटी पलटते हुए प्रौढ़ महिला ने स्पष्ट किया।
‘‘तो फिर मैं बाहर सबको बता देता हूँ’’ रोटी का धामा उठाकर पुरूष तेजी से बाहर निकल गया।
भोजन के बाद सब लोग प्रवचन हॉल के बाहर चबूतरे पर इकट्ठा हो गये। जो लोग अपने-अपने कमरों में चले गये थे उन्हें भी अनुनय विनय, जोर जबरदस्ती कर बाहर निकाला गया। अखिल भी वहीं भीड़ में एक ओर बैठ गया। डाॅ. अनुराधा महिलाओं की मंडली में बैठी थी।
ब्रजेश की बहू के हाथ ढोलक पर थाप देने लगे। ब्रम्हचारी जी ने हारमोनियम ले लिया। कोई मंजीरे पर... कोई झांझ पर... तो कोई अपने घुटनों पर ही थाप देने लगा। प्रौढ़ महिला का तीखा लेकिन सुरीला स्वर गूँज उठा।
‘‘सतगुरु हो महाराज, मौपे सांई रंग डारा।
सबद की चोंट लगी मेरे मन में, बेध गया तन सारा।।’’
भजनों का दौर एक बार जो शुरू हुआ तो थमने का नाम ही नहीं ले रहा था।
ऊपर आसमान में चाँद तेजी से पश्चिम की ओर सरक रहा था और नीचे सब भजन की तरंग से सराबोर थे।
क्रमश..