सलमा सितारा जड़ी मेरी साड़ी
गीताश्री
वह बार बार मुझसे टकरा रही थी। मैं उससे बचने की कोशिश करती हुई भीड़भाड़ में इधर उधर हो रही थी। जब जब पास से टकरा कर निकलती, उसकी साड़ी से कोई चमक फूटती और मेरी आंखें चौंधिया जाती। दिल्ली में भी खूब कशीदाकारी वाली डिजाइनर साड़ियां पहने देखा है स्त्रियों को, वे चमकती भी हैं, लेकिन किसी को चमकाती नहीं हैं। इतना लहरा कर भी नहीं निकलती कि आंखों में सितारे नाचने लगे। इतनी चमचम साड़ी मैंने पहली बार देखी है। सिर पर आंचल और मुहं से पल्लू दबाए, वह मेरे आसपास ही मंडराती रही। मैं असहज महसूस करने लगी। दुबली पतली, मंझोले कद की एक देहाती किस्म की स्त्री को भला मुझमें क्या दिलचस्पी हो सकती है। मैं अपनी बड़ी बहन के घर आई हूं, चंपारण के छोटे से कस्बे में जहां मुझे कोई कोई नहीं पहचानता। दीदी के रिश्तेदार भी नहीं। बीस साल बाद यहां कदम धरा है मैंने। बीस साल बाद क्यों, इसकी कुछ कथा-उपकथाएं हैं, जिसके बारे में फिलहाल सोचना भी नहीं चाहती।
मई के महीने में मेरा माथा ऐसे ही सनक जाता है जब बिहार की यात्रा करनी पड़े। बहन बेटी की शादी है तो जाना ही पड़ेगा। सबने मुझसे रिश्ते तोड़ लिए थे, एक दीदी थीं जो हमेशा छुप छुपा कर मुझसे रिश्ता जोड़े रहीं। जैसे मैं उनके हर गुनाह में साथ थी, वैसे ही वे मेरे हर गुनाह को गर्व से भर कर देखा करती थी। फिर भी मैं बीस साल तक उनकी देहरी पर नहीं आई। हम अच्छे मौसम में मिला करते थे, अपने शहर में, कल्याणी वस्त्रालय में साड़ी खरीदते हुए या हरिसभा चौक पर लंवग लता खाते हुए। लंबी बैठक करनी हो तो हम देवी मंदिर की सीढ़ियों पर जाकर बैठ जाते। हम दोनों खूब हंसते कि किसी जमाने में इन्हीं सीढ़ियों पर बैठ कर हमने कितने लड़के वालो को धता बताई थी। मैं तभी मंदिर आती जब दीदी को कोई लड़के वाला देखने आता। मैंने अपने लिए यह मौका नहीं दिया। मैं मंदिर में रैंप वाक करने को बिल्कुल तैयार नहीं थी जिस तरह दीदी या शहर की दूसरी लड़कियां किया करती थीं। लड़की को चला कर, उठा कर , बैठा कर, हाथ, पैर सब साड़ी से बाहर निकलवा कर देखते थे लड़के वाले, मानो सोनपुर मेला में गाय-बैल खरीदने आए हों।
मुझे याद आया, भइया के लिए हम भी कई लड़कियां देखने इसी तरह गए थे, अब तो किसी की याद भी नहीं। सारी स्मृतियां धुंधली हो चुकी हैं। एक याद है और उसकी वजह भी है। कई लड़कियां छांटने के बाद एक लड़की और देखने हम गए। सहमी सकुचाई लड़की साड़ी लादे, पहने नहीं, पहनने का सलीका गायब था। साफ लग रहा था कि उसे जबरन लपेट दिया गया है शामियाने में और वह भीतर से काफी रुष्ट हो रही है। चाची ने कहा- “जरा चलवा कर दिखाइए...और जरा पैर भी देंखेंगे...”
लड़की की मामी गिड़गिड़ाई- “फोटो तो भेजबे न किए थे। देखीं नहीं क्या आप... उसमें तो साफ साफ पैर नजर आ रहा है...चलवा फिरवा कर देखा देते हैं। कौनौ ऐब नहीं हैं हमारी गुड्डी में...”
“ऐ बउआ...जाओ...देवी मां का एक चक्कर लगा कर आओ तो...”
मामी घूम कर लड़की को बोलीं। लड़की सीढ़ी पर बैठी थी, हड़बड़ा कर उठी और खड़ी होना चाह ही रही थी कि साड़ी में पैर फंसा और लड़खड़ा गई। बैठे बैठे पैर भी झुन्न झुन्न गया होगा। वह लड़खड़ाती हुई कुछ कदम चली, सबकी निगाहे लड़की पर, मामी के माथे पर चिंता की लकीरे, मेरी चाची के भाव ऐसे कि देखा...पकड़ लिया न...लड़की के पैर में खोट है, पकड़ लिया...लड़की मंदिर का पाया पकड़ कर खड़ी हो गई। सबलोग हक्के बक्के। शाम का समय था, मंदिर में भक्तो की भीड़ आने लगी थी।
थोड़ी देर की शांति के बाद सब विदा हुए, सबके मन में अलग अलग किस्म के भाव रहे होंगे। मैं चुपचाप यह सब देख कर मन ही मन कुछ ठान रही थी।
इस घटना के कुछ दिन बाद मैं अपने कॉलेज के कॉमन रुम में बैठी थी कि एक लड़की उछलती कूदती आई और पूरा रुम शोर से भर गया। वह खिलखिला कर हंस रही थी किसी बात पर। मैं मोटे गेस पेपर में छिपा कर गुलशन नंदा का उपन्यास पढ़ रही थी। घर में मौका मिलता नहीं था, क्लास में नहीं पढ़ सकते थे। कॉमन रुम में एकांत मिल जाता था, यहीं छुप कर पढ़ लिया करती थी। दूसरे भले समझते हों कि मैं पढ़ाकू छात्रा हूं, मैं तो बाल्यावस्था से प्रेम के पाठ पर ज्यादा ध्यान दे रही थी। क्या पता था कि जिंदगी के सिलेबस में यह भी शामिल होगा और इम्तहां देने पड़ेंगे। यही पढ़ाई काम आएगी, पता नहीं था । बस अपने कल्पित नायक नायिका को खोज रही थी उसमें।
रुम की शांति भंग हुई तो मैंने किताब बंद करके गौर से उसका चेहरा देखा- अरे...ये तो वहीं लड़की है। कुछ दिन पहले भइया के रिश्ते के लिए जिसे हम देखने देवी मंदिर गए थे और जो ठीक से चल भी नहीं पा रही थी। लड़की ने मुझे नहीं देखा था। मैंने पूरा मुआयना किया उस लड़की का। अच्छी खासी चंगी लड़की, उछल रही है, मस्त है, फिर क्यों इसने ऐसा किया कि शादी की बात टूट जाए। एकबारगी मन हुआ कि सीधे उससे ही झंझोड़ कर पूछ लूं। फिर लगा कहीं बखेड़ा न खड़ा हो जाए। मैं एक क्लास छोड़ कर घर भागी। अपनी खास दोस्त वीणा ढींगड़ा को बोल दिया कि वह मेरे बदले क्लास में प्रॉक्सी कर दे और मैंने बाहर से रिक्शा किया , सीधा घर। मेरी जैसी कंजूस लड़की जो रिक्शा के पैसे बचाकर फिल्में देखा करती थी, वह भूल गई सिनेमा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता और जल्दी से जल्दी घर पहुंच कर सब बता देना चाहती थी।
मेरे घर पहुंचते ही पूरा माहौल बदल गया। चाची को सबने खूब सुनाया और तुरत अगुआ-बरतुहार को बुलाया गया और वह लड़की उसी साल लगन शुरु होते ही मेरी भाभी बन कर घर आ गई। लड़की को पता लग गया था कि कभी कभी कॉमन रुम में हल्ला गुल्ला भारी पड़ जाता है।
आज तक भाभी मुझे उलाहने देती रहती हैं। सोच कर फिर हंसी आई। शादी में वे भी पहुंचने वाली होंगी। एकबार फिर वे उन दिनों को याद करेंगी और हंस हंस कर मुझे कोसेंगी। मैं चिपचिपी गरमी में दो दिन पहले ही आ गई। मेरे लिए गरमी सहन करना मुश्किल हो रहा था। दो तीन बार दीदी को बोला भी कि मुझे यहां कोई एसी होटल में कमरा दिलवा दो, मगर वे माने तब ना। दीदी के अनुसार मोतीपुर जैसे कस्बे में ए सी होटल की कल्पना करना मूर्खता है। बड़े बड़े पंखें मंगवा दिए गए थे जिनकी हवा से हर समय बाल खराब या साड़ियां उधियाती रहतीं। मैं पंखें के सामने चेहरा ले जाती थोड़ी देर राहत पाकर फिर मंडप के पास आकर हथ-पंखा झलने लगती। मेरे लिए यह शादी उत्सव नहीं, सजा थी मानो।
मैं मंडप के किनारे बैठी सोच रही थी कोई हथ-पंखा खाली करें तो चेहरे पर हवा दूं। कई औरतों के हाथों में पंखे थे। पुरुषों की आवाजाही थी, वे दौड़ भाग में व्यस्त थे, इसीलिए उनके कंधे पर लाल रंग का गमछा लटक रहा था, जो कई काम करता था। पंखे की तरह हवा भी कर लो और पसीना भी पोंछते रहो।
मैं कुछेक स्त्रियों के हाथों में पंखा देख कर उन्हें हथियाने के बारे में सोचने लगी। कोई पंखा नीचे धरे तो उठा लाऊं। कि तभी अचानक...
“हम हांक दें पंखा ...?”
वह रंग बिरंगा पंखा हाथ में लिए खड़ी थी। धागे से बना हुआ रंग बिरंगा हथ-पंखा।
“ये मेरा अपना पंखा है...इससे हम हवा को उधर उधर कर देते हैं, हम रोज साथ लेकर ईहां आते हैं...पंखा का यहां कौनो कमी नहीं है, लेकिन समय पर खोजिएगा तो एक्को ठो नहीं मिलेगा, सब एन्ने ओन्ने ढिंगरायल चलता है।“
वह पंखे से मेरे चेहरे पर हवा करने लगी। वही स्त्री थी जो पिछले दो दिन से रोज शाम को गाना गाने आती थी, सबके माथे पर गमकउआ तेल लगाती और सिंदूर टिकती । हथेली पर ड्राई फ्रूट के कुछ दाने रखती। मैं ये सब नजारा दूर से देखती, कभी उस जमात में शामिल नहीं हो पाई। लेकिन यह स्त्री छोड़े तब ना। तीसरे दिन की बात है. रोज सलमा सितारा वाली साड़ी पहन कर दमकती हुई आ जाती थी। उस दिन तो कुछ ज्यादा ही करीब आ गई थी और मैं उसका चेहरा साफ साफ देख पा रही थी।
चेहरे पर झाईंयां पड़ गई थीं और आंखों के नीचे स्याह घेरे। बड़ी बड़ी आंखें सिकुड़ गईं थीं और रंगत उतरी हुई थी। बड़ी-सी चमचमाती बिंदी जरुर माथे पर दमक रही थी। बाल घने मालूम पड़ते थे। बीच से नहर की तरह निकाली गई मांग में आधी दूर तक को लाल टूह टूह सिंदूर भरा हुआ था। कुल मिलाकर वह ग्रामीण औरत का परफेक्ट पैकेज मालूम पड़ रही थी।
मैं सोच में पड़ गई कि यह औरत भीड़भाड़ में सबको छोड़ कर मेरे ही पीछे क्यों पड़ गई है। ज्यादा शालीन भाषा में कहूं तो मुझमें इसकी इतनी दिलचस्पी क्यों। मैं समझ नहीं पा रही थी। मुझे हमेशा इतनी भरी भरी औरतों से अरुचि रही है। इनका इतना लदा फदा रहना मेरी नजर में गंवारपन था। पिछड़ेपन की निशानी। मुझे चिढ़ होती है।
वह हथ-पंखा डुलाए जा रही थी। कब उसने मेरा हाथ पकड़ लिया, मुझे पता ही नहीं चला।
भयानक गर्मी में उसकी चिपचिपी उंगलियां मेरे हाथों में धंस कर मुझे तकलीफ दे रही थी।
“आप मुझे पहचानती हैं क्या, मैं नहीं पहचानती आपको, कुछ कहना चाहती हैं...”
मैंने सीधे दनादन सवाल दाग दिए। कबतक लुकाछिपी का खेल चलता रहेगा। मैं अपरिचय को परिचय में बदल कर सहज हो जाना चाहती थी।
“हम जानते हैं आपको, आप भले नहीं जानती हैं हमको...जानेंगी कैसे, हम गांव के ठहरे, आप दिल्लीवाली...हमको सब पता है आपके बारे में..अभी याद दिलाते हैं आपको...याद पारिए...कुछ याद आएगा...”
मैंने कुछ भी याद करने से इनकार कर दिया।
“कइसे याद परेगा, हम याद दिला ही देते हैं...हम आपकी बहन के पड़ोसन हैं, और हमको इस जीवन में आपसे बिना मिले मरना नहीं था। हम हमेसा चाहे कि आपसे मिले...लेकिन हम गांव और कस्बा के बीच फंसे रहे। कइसे आते दिल्ली। आपके आने का पता चला तो हम खुस हो गए, हमारी मुराद पूरी हो गई। सादी बियाह के भीड़भाड़ में आपसे बात करने का मौका ही नहीं मिल रहा था, इसीलिए आपके पीछे पीछे लगे थे...”
“लेकिन काहे...काहे पीछे लगे थे...” मैं हंसी।
वह मेरे बगल में मोढ़ा खींच कर बैठ गई। हौले हौले पंखा झलती रही।
“गौर से देखिए...कुछ याद परेगा...”
मैंने देखा...उसके चेहरे पर गुजरे वक्त के गहरे निशान थे। गर्दन पर हल्की झुर्रियां आने लगी थीं। आंखों के नीचे स्याह चांद था। मैं स्मृतियों पर बहुत जोर देकर भी नहीं पहचान पा रही थी....कौन थी..? मुझे होस्टल और कॉलेज की कई पोपुलर चेहरे याद थे। उनमें से कई आज भी टच में हैं, कुछ को फेसबुक ने खोज दिया तो कुछ ने व्हाटसप पर ओल्ड फ्रेंडस का ग्रुप बना लिया है। कुछ की खोज जारी है...ये चेहरा तो इस दौर में कहीं नहीं था...मामूली चेहरों को मैं भूल चुकी थी। जिंदगी में चेहरो का कोलाज इतना घना था और इतनी तेजी से रील घूमती है कि स्मृतियां कंपकंपा जाती हैं। दिमाग में उनकी फाइल सेव ही नहीं हो पाती। वैसे भी चेहरे और आवाजें पहचानने में मैं शर्मिंदगी की हद तक बहुत कमजोर हूं।
मैंने उस स्त्री के सामने अपने हाथ खड़े कर दिए। उसने मानो कुछ खुलासा करने के लिए मुंह खोला ही था कि पीछे से किसी स्त्री की आवाज आई- “हे झुन्नी के माई...पांच ठो झूमर गा दीजिए...फिर विधि सुरु करेंगे।“
वह पंखा वहीं छोड़ कर उठी और मड़वा के दूसरी तरफ जहां माइक रखा था, वहीं जम कर बैठ गई। गाने की बात सुनते ही उसके शरीर में बिजली की तड़प दिखाई दी। मुझसे मिलने, कुछ कहने की तड़प फीकी पड़ गई थी। उसके पीछे धीरे धीरे गाने वाली औरतें जुटने लगीं थीं।
कहीं से हसंती हुई मर्दाना आवाज आई- “सादी बियाह के घर में एतना सन्नाटा नहीं न अच्छा लगता है, औरत लोग गाते रहिए, और करना क्या है...लगन में औरत सब पगलाई रहती है, पगलाइए...फेर कहां मौका मिलेगा आपलोगो को, धूमगज्जर मचाइए... “
वह औरत शुरु हो चुकी थी। हाथ में कार्डलेस माइक लेकर गा रही थी और उसकी आवाज बाहर तक जा रही थी। पूरे मोहल्ले को पता लग जाता है कि ये लगन वाला घर है। लगन वाला घर हमेशा सुरीला रहता है। लजीज व्यंजनों से महकता और अश्लील हंसी-मजाक से गूंजता हुआ। वह गा रही थी-
“सलमा सितारा जड़ी...जड़ी मेरी साड़ी...सलमा सितारा जड़ी...
पीछे बैठी औरतें कोरस में गा रही थीं।
सड़िया पहिनी हम बगिया में गइली...
माली के मन में बसी...
बसी मेरी साड़ी...
सलमा सितारा जड़ी...”
पीछे बैठी औरतों ने लय में तालियां बजानी शुरु कर दी।
सड़िया पहिनी हम नगरी में गइली...दारोगा के मन में बसी...
पीछे से एक औरत “दारोगा” जोर से बोली और गाते गाते फिस्स से हंस पड़ी। मैने देखा- सलमा सितारा वाली औरत के चेहरे का रंग उड़ गया था। गाते गाते सुर थोड़ा लड़खड़ाया। लोकगीत में थोड़ा अनगढ़ गायिकाएं सुर के साथ छेड़छाड़ करती रहती हैं। फिर सलमा सितारा वाली ने माइक संभाला और गाना खत्म होने के बाद एक पैरा और गाया...
“सड़िया पहिनी हम कोठरी में गइली....
पिया जी के मन में बसी...बसी मेरी सोड़ी...सलमा सितारा...”
पीछे बैठी औरतों में चुहल शुरु हो चुकी थी। पीछे से किसी औरत ने कहा- “पूरा जमाना से होके कोठरी में गईली...पहिले ही काहे न गइली...”
जोरदार ठहाका लगा । उस औरत ने माइक दूसरी औरत को पकड़ा दिया और स्थिर चित्त बैठी रही थोड़ी देर। दूसरी औरत ने दूसरा झूमर गाना शुरु किया। धीरे से सलमा सितारा वाली खिसक गई वहां से। औरतें झूम झूम के गाती रहीं। मेरी नजर सलमा सितारा पर ही लगी थी। थोड़ी देर में वह पानी का बोतल लिए हुए आई और मेरे पास बैठ गई। थोड़ी हताश जान पड़ रही थी मानों उस गीत ने सारा तेज छीन लिया हो।
मैं गरमी से तरबतर बैठी थी और शिफॉन साड़ी भी मुझ पर भारी पड़ रही थी। मन कर रहा था कि खुद को कैसे पांच मीटर के शामियाने से अलग करुं। कैसे ये औरतें इस मौसम में भी भारी भारी साड़ियां पहन कर झूमती रहती हैं। कितना उत्सव है इनके जीने में। मैंने खुद को गरमी के साथ तालमेल बिठाने लायक बनाना शुरु किया।
सलमा सितारा का मुंह फूटा-
“मैं पूजा कुमारी हूं...पूजा...याद है...आपसे जूनियर थी, एक क्लास। आप हमको अपने भैया के लिए देखने आई थीं देवी मंदिर में। दशहरा के भीड़भाड़ में...याद आया...”
“आप हमको केतना दौड़ाई थीं...चल के दिखाओ...गा के सुनाओ...हाथ ऊपर उठाओ...और आपकी चाची तो मेरी साड़ी उठा कर पैर चेक की थी...”
“क्या...? “ मैं चौंक गई. ऐसा कांड सिर्फ एक लड़की के साथ थोड़े न हमने किया था। गिनती याद नहीं। यह तो निरंतर हो रहा था। जाने कितनी लड़कियां देख के छांटी थी हमने। किसी न किसी कारण से छंट जाती थी। दिल्ली में नौकरी करने वाले भैया के लिए गोरी, छरहरी और थोड़ी बहुत इंगलिश जानने वाली लड़की की तलाश थी हमें। सांवली लड़की तो हम लोग पहले ही मना कर देते थे।
यह तो सांवली थी। हमने कैसे इसको देखा होगा। मुझे याद नहीं आ रहा था।
“आप हैरान हो रही हैं...” वह हो हो करके हंस पड़ी।
“आप लोग तो हमसे बातें ही नहीं की...खाली बकरी की तरह देह को खंगारती रहीं। हमसे बात तो करतीं...”
“हमको बहुत मन था किसी दिल्ली वाले लड़के से बियाह करने का...काहे की हम मैथ में टॉप किए थे, यूनिवर्सीटी टॉप। आप लोग जब देखने आई थी तब हम बी ए का एक्जाम ही दिए थे...रिजल्ट नहीं आया था। हमको आगे की पढ़ाई दिल्ली जाकर करने का मन था...सोचे थे, आपके भैया से बियाह होता तो दिल्ली में पढ़ते आगे, कुछ बनते...सपना ही टूट गया...गांव में चौका-भंसा करते हैं, गोबर लिपते हैं, बच्चो के साथ सारा समय चला जाता है। यही जीवन मिला हमें...”
मैं हैरान होकर उसका मुंह देखे जा रही थी। पूजा कुमारी...वो सांवली-सी लड़की...मरियल सी, फोटो में सुंदर दिखी थी। अब तक जितनी लड़कियों के फोटो आए थे उनमें सब स्टुडियों फोटो थे, फूलों के ऊंचे स्टैंड पर एकतरफ हाथ रखे, दो चोटी किए और मासूम-सा चेहरा। एक लड़की का फोटो था जो स्टुडियो का नहीं था, किताब हाथ में लेकर बाग में खड़ी थी। हमलोग हंसे थे फोटो देख कर – “देखो कितनी बनती है, जताना चाह रही कि हम बड़े पढ़ाकू हैं। शादी के लिए कहीं ऐसी तस्वीर देखी है...?”
चाची बोली थीं- “बड़ी एडभांस लगती है लड़की...हमारे विजय को पढ़ाएगी...”
मजे मजे में लड़की को देखने के लिए बुलावा भेज दिया गया और वहीं हुआ जो हमने पहले से तय कर रखा था। सांवली लड़की तो बिल्कुल ना चलने की...
एकबार मां का मन डोला था...धीरे से फुसफुसाई थीं - “लड़की , विजय से मैच कर रही है। सोने का चेन पहना देते हैं...फाइनल कर देते हैं...कितनी बार लड़की देखो, छांटो...हमसे न होगा अब...”
सांवली लड़की मिचिर मिचिर आंखें खोल कर हम सबको देख रही थी। जबकि लड़कियां आंखें ही नहीं उठाती थीं, शर्म के मारे। चाची कोशिश करती कि आंखों की पुतलियां जरुर देखें...कहीं कुईस (नीली) तो नहीं। लड़कियां जो लाज के मारे गड़ती सो ठुड्ढी पकड़ के उठाने से भी न आंख खोलतीं। लड़की की मां या भाभी कान में फुसफुसाती तब कहीं लड़की हौले से पलके उठाती और डरी सहमी हिरणी की-सी आंखें झपक जातीं। मगर ये सांवरी लड़की तो आंखें खोल कर साहसपूर्वक सबको देख रही थी।
मैंने उन आंखों को याद करने की कोशिश की। वे उत्सुक थीं, कुछ हद तक प्रार्थी भी।
मुझे अतीत से निकालती हुई आवाज फिर आई-
“आपको कहां याद होगें हम, इतनी लड़की देखी होंगी कि सब गड्ड-मड्ड। चलिए नीचे चलते हैं, पीछे बंसवाड़ी में ठंडी हवा चल रही है। वहीं बैठते हैं। वहां हल्ला गुल्ला भी नही होगा। आपसे बहुत बतियाना है हमको...पता नहीं, फिर मौका मिले न मिले...”
“मैं फिर जाड़े के मौसम में...गर्मी में कभी नहीं...”
“आप आ सकती हैं...आपकी बहन का घर है, मेरा पता नहीं...कहां और कहां भाग जाऊं...”
“भाग जाऊं...” बोलते हुए उसने एक आंख दबाई मानो भाग जाने को लेकर कोई रहस्य हो।
उसके साथ चलती हुई मैं उसके चेहरे को गौर से देख रही थी...मुझसे जूनियर लड़की, जो अब अधेड़ स्त्री में बदल चुकी है, जिसके चेहरे पर वक्त के निशां मौजूद है, जिसे वक्त ने असमय बूढ़ा बना दिया है...जो अब भी भागने की बात करती है। युवावस्था में जरुर आकर्षक रही होगी। मुझसे छोटी होते हुए भी कितनी उम्रदराज लग रही है। मैं खुद को नहीं देख सकती थी सामने से लेकिन सामने जो स्त्री थी, वो मुझे बूढ़ी लग रही थी।
मैंनं अपने चेहरे को टटोला। शादी में आने से पहले ब्यूटी पार्लर में पूरा दिन यों ही नहीं गुजारा था। मैं अपने दमकते और कसे हुए चेहरे, बदन को देख सकती थी, उसकी आंखों में। एकबारगी हंसी आई- कोई यकीन नहीं करेगा कि हम दोनों साथ पढ़ते थे या यह स्त्री मुझसे एक क्लास जूनियर थी। मन ही मन सोचा, किसी से बताने की क्या जरुरत। कौन पूछ रहा है मुझसे...।
“मैं दो बार भागी हूं...”
“हायं...”
“और क्या...?”
बसंवाड़ी में बैठने के लिए दो मोढ़ा रखा था। बांसो के हरे भरे झुरमुट में सचमुच मुझे अच्छा लगा। गोवा का वह रेस्तरां याद आ गया। कैलंगुट बीच के पास एक गांव में बांसों के झुरमुट के बीच बना बना वह रेस्तरां बाहर से छुपा छुपा सा लगता है, अंदर रुमानी दुनिया है। फेनी और भुने हुए काजुओ की शोख गंध है और प्रेमी जोड़ो की फुसफुसाहटें।
“हमारे लिए यही कुंजवन है...घर के शोर से घबरा कर ऐसी ही जगहों पर जा बैठती हूं घंटों...”
मुझे लगा, वह मन पढ़ सकती है।
“क्या हुआ फिर तुम्हारे साथ ? पूरा बताओ मुझे...”
भीड़ से अलग, अपनी जूनियर के मुंह से उसकी व्यथा कथा सुनना चाहती थी। उसकी कथा मुझे गिल्ट में डाल रही थी लेकिन मैं क्या करती। तब मैं खुद छोटी थी और कुछ भी मेरे बस में नहीं था। हम दोनों का परिवेश एक था। अंतर बस इतना कि मैं विद्रोह कर सकी, वह फंसी रह गई।
“तुमने अपने घरवालो से विद्रोह क्यों नहीं किया...क्यों चुपचाप उनकी बात मानती रही...तुम इतनी तेज स्टुडेंट थी, कहीं भी नौकरी कर सकती थी, क्या मजबूरी थी...समझौते क्यों किए...?”
“शादी मेरे लिए पहला विद्रोह था। मैं जानती थी कि शादी के बाद सारे पहरे हट जाएंगे और एक पहरा बचेगा। उस पहरे से पार पा सकती थी, मायके के सारे पहरों से पार मेरे लिए असंभव था। शादी मेरे लिए मुक्ति का पहला मार्ग थी। देखती नहीं क्या...शादीशुदा लड़कियां कितनी आजाद हैं...शादी का ठप्पा लगा नहीं कि मायके का रोक टोक खत्म...”
“इससे अच्छा तो तुम घर से भाग जाती...”
“हम भागे थे, दो बार...अब एक बार और आखिरी बार...”
“बच्चों को छोड़ कर...इस उम्र में...किसके साथ, कहां...? “ मुझे हंसी छूट गई. क्या औरत है भाई...इस उम्र में भी भागने का हौसला और इरादा रखती है। क्या दर्द है कि उसे टिकने नहीं दे रहा, भगाए जा रहा है। पहली बार किसी ऐसी दर्दकुमारी से मिली थी। मैंने पूजा कुमारी उर्फ दर्दकुमारी से पूछ ही लिया।
फिर जिंदगी की परतें खुलती गईं....बांस की गांठों पर सुनहरी रंग की परतें हवा से छिल कर झर रही हों जैसे। मैं बेचैनी से बांस की पतली डालियां अपनी ओर खींचती रही। एकाध बार मुंह में डाल कर चबा डाला। कच्चे बांस का स्वाद मुझे कहीं दूर लिए चला जा रहा था...
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तनि ताकअ न बलमुआ हमार ओरिया
पूरे शहर में शोर था- “अघोरिया चौक की एक साधारण परिवार की लड़की को बड़े खानदान वालों ने पसंद कर लिया। अति साधारण लड़की उनकी बहू बनने जा रही है। लड़की के दिन फिर गए। वह पति के साथ अमेरिका सेटल हो जाएगी।“
पूजा के दिमाग में हथौड़े की तरह चोट लगी। एक वो है, जिसे चार लड़के वाले अब तक किसी न किसी कारण से छांट चुके हैं। इसी देवी मंदिर में हर बार उसके साथ खेल खेला गया। उसी देवी मंदिर में अघोरिया चौक वाली लड़की का कल्याण हो गया। पूजा ने उस लड़की को देखा था- मैट्रिक पास, गोरी, शाम, जब उसकी किस्मत पलटी, वह लड़की आंखें बंद किए स्तुति कर रही थी। मधुर कंठ से धीरे धीरे गाती हुई उस लड़की को दो जोड़ी अधेड़ आंखें देख रही थी। शहर के सबसे बड़े रईस, बच्चा बस सर्विस के मालिक, अपने इकलौते बेटे के लिए योग्य लड़की ढूंढते ढूंढते परेशान हो चुके थे। अब तक जितने रिश्ते आए, उन्हें लगता था, सब उनकी दौलत के लालची हैं। बेटा सीधा सादा था। वे डरते थे। किसी रिश्ते पर विश्वास नहीं कर पा रहे थे। थक हार कर वे भी रोज मंदिर आते, हाथ जोड़ते और योग्य बहू मांगते। एक दिन देवी मां ने उनकी सुन ली। पास में ही वह लड़की खड़ी थी। रईस बाबू बच्चा सिंह और उनकी पत्नी की नजर उस पर गई। लड़की की आंखें मिलीं, उसने आदर से आंखें नीचे झुकाई, अपरिचय में ही प्रणाम करके गेट से बाहर निकल गई।
दोनों अधेड़ दंपत्ति ने देवी मंदिर में दो बार सिर नवाया और उस लड़की को मन ही मन बहू के रुप में स्वीकार लिया। मंदिर में शाम की घंटियां बजने लगीं। बच्चा बाबू ने इसे शुभ संकेत माना और उन्हें बिना लगन शहनाई सुनाई देने लगी। कुछ ही दिनों बाद पूरे शहर ने सुना कि अघोरिया चौक की एक गरीब लड़की को बच्चा बाबू ब्याह कर घर ले गए, लड़की का भाग्य पलट गया। उसका खानदार तर गया। फिर क्या था...
शहर की कुछ लड़कियां रोज, शाम देवी मंदिर में स्तुति गाने अपने मन से जाने लगीं तो कुछ परिवार के दबाव में। मंदिर में लड़कियों का आना जाना ज्यादा हो गया। नतीजा मंदिर के गेट पर लड़को की साइकिले ज्यादा पार्क होने लगीं।
पूजा उन लड़कियों में शामिल थी, जो अपनी मर्जी से रोज शाम देवी मंदिर जाने लगी। देवी स्तुति पढ़ते हुए वह एक आंख खोल कर चेक जरुर करती कि उसके आसपास कोई अधेड़ जोड़ा हो या कोई स्त्री या पुरुष। उन्हें प्रभावित करने का कोई मौका वह नहीं छोड़ती। शहर में कई रईस थे और कुछ कुंवारे भी होंगे। क्या पता, किस्मत पर लगा ताला खुल जाए।
किसी किसी की किस्मत के ताले जंग लगे होते हैं, चाबी से नहीं खुलते। उन्हें तोड़ना पड़ता है। या फिर उन्हें झाड़ झंखाड़ के हवाले कर देना पड़ता है। वक्त की बेले उस पर चढ़ जाया करती हैं।
पूजा इसके लिए तैयार न थी कि भाग्य को किसी के सहारे छोड़ा जाए। वह चाहती थी कि उसी लड़की की तरह उसकी किस्मत का ताला खुल जाए नहीं तो एक दिन खुद ही तोड़ देगी ताले को।
कुछ ताले कभी नहीं टूटते। मंदिर की दीवार से सिर टकरा टकरा कर पूजा कुमारी घायल हो गई। किसी अधेड़ दंपति का दिल उस पर न पसीजा। किसी की नजर उस पर न पड़ी। मां बाप समझे, बेटी धार्मिक हो गई है, लगे हाथ बृहस्पति का व्रत भी करवा ही लिया जाए, सुंदर पति मिलने की पक्का गारंटी जो होती है। पीला खाओ, पीला पहनो, केला का पेड़ पूजो। इस काम के लिए भी उसने देवी मंदिर का कोना चुन लिया था। किस्मत का लेखा कुछ और था। एक दिन मंदिर से हताश उदास पूजा कुमारी घर पहुंची तो लगन की खबर मिल गई। पातोपुर के सबसे धनाढ़य किसान परिवार से रिश्ता आया था। व्रत सफल। पूजा कुमारी ने लड़के के बारे में विस्तार से जानना चाहा तो जो पता चला, उसे सुन कर गश खा गईं। लड़का मैट्रिक फेल, खेतीबाड़ी में निपुण। कई लीची बगान का मालिक। लड़के ने शर्त्त रखी है, लड़की आगे नहीं पढ़ाई करेगी न नौकरी। पूजा के घरवालो ने झट से हामी भर दी। अब पूजा कुमारी की क्या चलेगी। शादी हो रही थी, यही क्या कम था। गणित की बी ए टॉपर लड़की ब्याह कर चली गई फसलों का गणित समझने। मगर चित्त चंचल। कहां हार माने। विकल्प की तलाश हमेशा रही। किसी तरह पिंजरे से निकलना था, नौकरी करनी थी। बैंक में पी ओ की तैयारी करनी थी। घर गृहस्थी में सारा तेज भस्म हो गया था। पूजा कुमारी मशीन की तरह सब काम करतीं लेकिन उनकी आंखें दिगंत में खोयी रहतीं। दो बच्चो की मां बनने से पहले एक कोशिश हुई जो विफल रही। पातोपुर थाने का दारोगा अक्सर घर आता जाता था। मोटर साइकिल पर जब वह धूल उड़ाता आता तो पूजा कुमारी का दिल् पुर्जा पुर्जा हो जाता। उससे बात करने की फिराक में रहतीं। दारोगा जी को अकेला पाकर पर्ची फेंकी। दारोगा जी ने उठाया, आसपास देखा, चौखट पर झांकती दो आंखें दिखी, वो निहाल हुए। “तनि ताकअ न बलमुआ हमार ओरिया…” पढ़ के उन पर क्या बीती, ज्यादा नहीं पता। मगर पूजा कुमारी ने वहां से भाग निकलने का प्लान बना लिया। एक दिन हल्के अंधेरे में निकल पड़ीं, गांव के आखिरी छोड़ पर खड़ी खड़ी इंतजार की मूरत बन गई। रात गहराती जा रही थी, आसपास के भूतहा पेड़ जोर जोर से हिलने लगे तो भागी जान बचा के। पिछवाड़े से घर में घुसीं तो दालान पर कुछ लोगो की बातें सुनाई देने लगीं।
“उस दारोगा साले का यहां आना जाना बंद करो....क्या पता, हमारी औरतों को भगा ले जाए...साले ने आज बिंदेसर बाबू की बहू भगा ली...कल किसकी भगा ले जाए...वो तो मरेगा...नौकरी भी जाएगी...बिंदेसर बाबू छोड़ेंगे नहीं, भूमिहार खानदान की इज्जत पर हाथ डालेगा ससुरा...गर्दन रेत देंगे उसका..”
पूजा कुमारी को जिदंगी में फिर एक बार गहरा धक्का लगा।
भागने का प्लान कुछ साल के लिए मुल्तवी। अब जरा घर, पति और बच्चों के आगमन पर ध्यान देने लगीं थीं। जिंदगी के गणित का अभ्यास छूटा नहीं था। एम. ए. में दाखिला ले लिया था, पति को पटा कर। कॉलेज कम ही आती जाती, परीक्षा की तैयारी घर पे करती थीं। परीक्षा नजदीक आया तो नोटस की जरुरत पड़ी। पतिदेव से गिड़गिड़ाई कि किसी गणित के प्रोफेसर या थोड़ा बहुत पढ़वा दें। उन्हे जिला टॉप करने से कोई नहीं रोक सकता। पतिदेव की दिल जल्दी पसीज जाता था। सोचते थे- “हम गणित में फेल हुए तो क्या, बच्चा लोगन का गणित तो ठीक रहेगा...टयूशन भी नहीं पढ़वाना पड़ेगा। घरे में पढ़ लेगा। पहली बार उनको बीवी के गणित ज्ञान पर अभिमान हुआ। “
गणित एम ए पास टीचर का इंतजाम हुआ। घरवालो की मौजूदगी में पढ़ाई शुरु हुई। सिर पर आंचल रखे अपनी स्टुडेंट को देख कर टीचर हंसता मन ही मन। पैसा ज्यादा मिल रहा था, खाना पीना भी मिल जाता है। स्टुडेंट भी इतनी तेज कि टीचर का दिमाग घूम गया। इसे आखिर पढ़ाए तो क्या। वह समझने की कोशिश कर रहा था , पूजा कुमारी उसे कुछ और समझा रही थीं। दोनों कुछ दिन तक तो नहीं समझ पाए। चार छह महीने में दोनों समझ गए।
एक दिन टीचर जी आए गाड़ी से पढ़ाने। रोज तो मोटर साईकिल से आते थे। एक दिन परदा लगा सफेद एंबेसेडर लेकर आ गए। सबकुछ पहले से तय था। सब अपने काम में लगे थे और पूजा कुमारी पर्स उठा कर, कुछ गहने, रुपये रखे और घर से निकल गईं। कार उन्हें लेकर गांव से बाहर। पूजा बहुत खुश थीं, आजादी मिल गई थी। वह कहीं भी जा सकती थी। उसने मुजफ्फरपुर पहुंचते ही टीचर जी को नमस्ते कहा और कुछ पैसे देकर विदा ली। टीचर भौंचक्का। बुक्का फाड़ कर रो पड़ा- “आपने मेरा इस्तेमाल किया...मेरा जीवन बरबाद...आपके घर वाले मुझे नहीं छोड़ेंगे...मैं भी आपके साथ दिल्ली चलता हूं, दोनों मिल कर वहां नई जिंदगी शुरु करेंगे...”
पूजा कुमारी ने उनके पैर पकड़ लिए...अपने सपनों की दुहाई दी। पूरा जीवन खोल कर रख दिया। टीचर को दया आई, उसने रात भर रुकने का इंतजाम कर दिया। सुबह वाली ट्रेन पकड़ कर वह दिल्ली कूच करने वाली थी।
मुजफ्फरपुर स्टेशन पर वैशाली एक्सप्रेस लगी हुई थी। पूजा हमेशा के लिए पुरानी जिंदगी से आजाद हो रही थी। अपने शहर को आंख भर देखा- आंखें छलछला आईं। बिना किसी सामान के वह ट्रेन में चढ़ने जा रही थीं...टीचर दूर खड़ा बेबस नजर आ रहा था। उसकी आंखों में क्या था, पूजा भांप न सकी। बोगी में अंदर अपनी सीट ढूंढती हुई जब पहुंची तो एक बार फिर गश खा कर गिर गई। किस्मत ने दूसरी बार धोखा दिया था। साक्षात पतिदेव सीट पर बैठे थे। साथ में पूजा कुमारी के मामा। दिलजले आशिक का कहर इस तरह टूट पड़ा था।
जिंदगी फिर वहीं गांव के उस घर में लौट आई। पहले से बदतर, कैदखाने में दस साल कटे। जब बच्चे बड़े हुए तो उनकी पढ़ाई के लिए मुजफ्फरपुर की जगह मोतिहारी का चयन किया गया, पूरा मोहल्ला जान पहचान वालों का था। पतिदेव गांव से आना जाना करते थे। पूजा बच्चों में रम गई थी और गणित भूल चुकी थीं।
पूजा कुमारी की कहानी संक्षेप में सुन कर मुझे लगा-रुपहले परदे पर कोई फिल्म चल रही थी, उसका शो खत्म हुआ। मुझे अब यहां से जाना चाहिए।
“क्या अब भी भागने का हौसला बाकी है आप में...?”
मेरे मुंह से इतना ही निकला।
“उस दिन आप लोग हमको पसंद कर लेतीं तो भागने की नौबत बार बार न आती...हम सेट हो गए रहते। हम क्या इतने बदसूरत थे, आपके भाई के लायक नहीं थे, हमने आपके भाई को देखा था, वे तो हमसे कमतर लगे। फिर क्यों हमको छांटा...“
“तो हम कसूरवार...?”
“पूरा समाज...जाने कितनी लड़कियों भेड़ बकरी की तरह ब्याह दी गईं, उनसे पूछा तक न गया, कितनी छांट दी गईं, कितनो के अरमान मिट्टी में मिल गए, कितनी सुंदर लड़कियां, कैसे कैसे बदसूरत लड़को से ब्याह दी गईं, आपको अंदाजा है कुछ...? आप जैसी औरतों ने हीं छांटा है लड़कियों को…”
“अब किस चीज की तलाश है आपको, क्यों कर रही हैं ये सब...? क्यों खतरा मोल ले रही हैं?”
“बिना मरे स्वर्ग नहीं मिलता बहिन...”
पूजा कुमारी उर्फ पूजा देवी झिलमिलाती हुई उठी। सलमा सितारा जड़ी साड़ी झमकी। आंखों में दर्द का लहरा था और अरमानों की चिताएं जल रही थीं।
मेरे पैर सौ सौ मन के भारी हो गए थे। कई छायाओं ने मुझे दबोच लिया था। मेरे बदन में कोई रस्सी-सी कसने लगी थी। कंधे भारी होकर दुखने लगे, मानो बेताल लटक गया हो। मेरे पास कुछ भी कहने को नहीं था। किसी सवाल का कोई जवाब नहीं था।
दूर से दीदी की आवाज आ रही थी...बदली हुई आवाज, जिसमें कई कई आवाजों का कोरस था। पता नहीं, सारी आवाजें मुझे ही क्यों खोज रही थीं।