फिर मिलेंगे... कहानी - एक महामारी से लॉक डाउन तक - 11 Sarvesh Saxena द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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फिर मिलेंगे... कहानी - एक महामारी से लॉक डाउन तक - 11

शहर के शहर सन्नाटे में डूबे थे, हर तरफ एक सन्नाटे का शोर था वो लोगों के रोने का बिलखने का शोर था, नियति हंस रही थी मानव पर, दिन-रात प्रकृति को असंतुलित करने वाले मानव आज एक लाचार दुखी जीवन जी रहे थे, ऐसा लग रहा था कि यह महामारी एक प्रतिशोध हो धरती का |

महामारी की वजह से लॉक डाॅउन भी धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा था, लोग उम्मीदें लगाते कि अगले महीने लॉक डाउन खुलेगा, अगले कुछ दिनों बाद लॉक डाउन खुलेगा लेकिन लॉक डाउन था जो सुरसा के मुंह की तरह बढ़ता ही चला जा रहा था, लोगों की हिम्मत जवाब दे गई थी ऐसे में देश का एक और भयानक रूप सामने आया, रोज कमाने और खाने वाले मजदूर शहरों में भूख और पैसे की कमी से जूझने लगे, सरकार की तमाम योजनाएं बे फल सी नजर आने लगी, मजदूरों ने शहरों को छोड़कर अपने गांव की तरफ जाने का रुख कर लिया, हजारों से लाखों की संख्या में मजदूर शहरों से पलायन करने लगे कोई पैदल, कोई साइकिल पर किसी भी तरह हर कोई अपने गांव पहुंचना चाहता था, हर कोई कोरोना की मार से बचना चाहता था लॉक डाउन की जंजीरों से बच कर अपने घर जाना चाहता था हालांकि इसके लिए कई व्यवस्थाएं कराई गई लेकिन फिर भी यह मजदूर रोते बिलखते सड़कों पर अपने पैरों के छालों की परवाह ना किए हुए आगे बढ़ते गए, कई लोगों ने इस बात का विरोध किया कि अगर यह मजदूर गांव में आ गए और इनमें से एक भी कोरोनावायरस से ग्रसित निकला तो फिर देश को कोई नहीं बचा सकता लेकिन शंखनाद हो चुका था, वह मजदूर जो घर से निकल लिए थे वह वापस नहीं लौटे, कई राज्यों की ओछी राजनीति तो इतनी गिर गई कि उन्होंने इनकी मदद करने से साफ इनकार कर दिया और कई जगह इन्हीं पर राजनीति शुरू हो गई लेकिन कुछ भी हो यह उदास चेहरे किसी का भी दिल पिघला सकते थे, मीडिया वाले टीवी पर न्यूज़ में दिन-रात मजदूरों को रोते बिलखते, पैदल चलते, भूखे प्यासे दिखाते, इनकी मजबूरी दिखाते लेकिन मजाल है कि कोई इनकी कुछ भी मदद कर देता, कई जगह इनके लिए ट्रेन और बस चलाई गई और मजदूरों को उनके घर पहुंचाया गया लेकिन इसके बावजूद भी कई मजदूर छूट गए, सड़कों पर पैदल चलने के लिए |

देश की हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही थी और कोरोना दिन-ब-दिन अपने पैर पसार रहा था, ऐसा लग रहा था कि यह लॉक डाउन कभी खत्म ही नहीं होगा दिन महीने साल चलता ही रहेगा | जो कोरोना अभी तक शहरों में फैल रहा था वो अब छोटे छोटे गाँव में आ गया था, अब गाँव मे भी रोज ना जाने कितने कोरोना संक्रमित लोग पाए जा रहे थे |

कुदरत भी ठान चुकी थी कि अपना प्रतिशोध पूरा करके रहेगी |

कोरोना का एक दूसरा रूप और भी था जो प्रकृति में साफ दिख रहा था अब नदियां साफ हो चुकी थीं, हवा साफ हो चुकी थी, हर तरफ जैसे प्रकृति नया रूप ले रही थी पर मानव जाति नष्ट हो रही थी, अब तक इस संक्रमण को खत्म करने की दवाई भी नहीं बन पाई थी, सरकार लोगों से हाथ जोड़ जोड़ कर प्रार्थना कर रही थी कि घर से बाहर ना निकले, ऐसे मौके पर कुछ लोग दूसरों की मदद कर रहे थे, सरकार हर संभव सुविधा मुहैया करा रही थी और लोगों को एकजुट रहने और धैर्य रखने की अपील कर रही थी पर संक्रमण था कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था, न जाने कितनी मौतें अब तक हो चुकी थी और कितनी होनी बाकी थीं |

एक दिन….

“अरे मंजेश तुम......” मोहित ने होश में आकर कहा |

मंजेश - “तूने सच में दोस्त को पराया समझा, तू यहां इस हाल में था और मुझे पता भी नहीं चलने दिया, देख हम चारों आज फिर यहां हैं” |

मोहित ने नजर उठा कर देखा तो काफी दूरी पर अर्पित और आफताब वेंटिलेटर पर लेटे हुए थे | ऐसे हालातों में भी चारों एक दूसरे को देख कर मुस्कुरा रहे थे |

अर्पित - “कोई बात नहीं यारों, हम सब एक साथ लड़ेंगे इस बीमारी से” |

आफताब - “मुझे माफ करना यार मैंने तेरी बात नहीं मानी और अपनी मुन्नी और बीवी को भी खो दिया, मैं उन दोनों का गुनहगार हूं... या अल्लाह... मुझे भी बुला ले” | यह कहकर आफताब जोर जोर से रोने लगा |

मंजेश ने बताया की आफताब की पत्नी और मुन्नी इस बीमारी की वजह से चल बसे, सब दोस्त दुखी हो गए |

मोहित - “अब जो हुआ सो हुआ पर हमें इस कोरोना से लड़ना है और जीतना है और वैसे भी अभी तो मुझे और अर्पित को शादी भी करनी है” |

चारों दोस्त हंसने लगे पर सभी की आंखें नम थी |