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गंध-मुक्ति

गंध-मुक्ति

गीताश्री

अस्पताल के कारीडोर में बैठे बेठे सपना ऊब गई थी। लगातार लोगों की आवाजाही लगी थी। अपनी पारी का इंतजार करती हुई उसने आंखें मूंद कर पीछे दीवार से सिर टिका दिया। उसे अंदाजा था कि उसका नंबर देर से आएगा। शहर का सबसे व्यस्तम अस्पताल है, मनोचिकित्सा का। वह पागल नहीं है, मगर कुछ है जो उसे पागल बनाए हुए है। कोई बीमारी नहीं, सबकुछ दुरुस्त है...फिर क्यों कहीं भी खिंची चली जाती है। बगल में बैठी हुई उसकी खास दोस्त नेहा अपने मोबाइल में बिजी थी। सपना, सोच में डूबी, अपना ही आकलन कर रही थी कि कोई भीनी भीनी गंध नथुनों से टकराई। झटके से तंद्रा टूटी। आंखें फाड़ फाड़ कर चारो तरफ देखा कि ये गंध किधर से आ रही है। सारे लोग अपनी पारी के इंतजार में बैठे थे, एक औरत दूर जाती हुई दिखी। उसकी पीठ पर लटकी हुई चुन्नी के दोनों कोर हिल रहे थे। बैगनी रंग का सूट पहने वह मचलती हुई बाहर जा रही थी। सपना झटके से अपनी सीट से उठी और उस औरत के पीछे भागी। वह औरत लंबे गलियारे में चलती रही, पीछे पीछे सपना घिसटती रही। उस औरत तक पहुंचना था। जैसे जैसे करीब आती जा रही थी, गंध तीखी होती जा रही थी। लगता था कि पूरी शीशी उड़ेल कर आई थी या खुशबू में नहा कर आई। लपकती-झपकती हुई उस औरत के आगे खड़ी हो गई। लगभग मदहोशी का आलम था। गंध से चकरा कर वह गिरने वाली थी कि पीछे पीछे लपकती हुई नेहा आई और उसे थाम लिया।

“कौन-सी गंध है...क्या नाम है...प्लीज बताइए....क्या लगाया है आपने...?”

लड़खड़ाती जुबान से पूछ रही थी। वह औरत उसे इगनोर करके जा चुकी थी। गंध भी दूर। अब वह सचेत हो गई थी। नेहा उसे वापस सीट की तरफ ले आई। कुछ समय से खास गंध का पीछा करते करते थक चुकी थी। कुछ तलाशो और वो न मिले तो बेचैनी अपने चरम पर पहुंच जाती है। उसके दिल की हालत आजकल कुछ ऐसी ही हो गई थी। अपनी सबसे करीबी दोस्त नेहा से पूछा था – “यार, तुझे भी कोई गंध परेशान करती है कभी...जैसे मन करता हो, उठ कर उस गंध के पीछे चले जाएं...या उसकी याद खींचती हो, आप अनायास कहीं दूर तक चलते चले जाएं...”

नेहा ने चकित होकर पूछा- “नहीं, तेरे साथ होता है ऐसा...लेकिन क्यों...गंध का क्या चक्कर है, कैसी होती है...?”

नेहा को चिंता हो गई, कहीं ये लड़की पगला तो नहीं रही है। धीरे धीरे सनकीपन की तरफ बढ़ते हुए उसने अपने भाई को देखा था। वो हर थोड़ी देर पर हाथ धोने नल पर पहुंच जाता था। इतनी बार हाथ धोता कि उसके हाथ हमेशा गीले ही रहते। घरवालों ने साबुन छुपा दिया, नल में पानी की आपूर्ति बंद कर दी। फिर भी वह न माने। कहीं से ढूंढ कर पीने वाला पानी ले आता और हाथ धोने लगता। धोते धोते कहता- “मुझे गंदगी से सख्त नफरत है, कितनी धूल जमती है हाथों पर...देखो तो...सबको हाथ धोना चाहिए...”

एक दिन उकता कर पापा ने हैंड सैनिटाइजर लाकर दिया।

“लो, हाथ ही धोना है न, इसकी एक बूंद हाथ पर रखो, और पूरी तरह लगा लो, सारी बैक्टिरिया खत्म...”

कोई भला अपने हाथ से इतना घिनाता है, गोरे चिट्टे हाथ हैं, कोई मिट्टी थोड़े न खोदता रहता है न घर की सफाई करता है। मां जानती थी कि प्रतियोगी परीक्षाओ की तैयारी में जुटा हुआ बेटा वहमी है, वो हैंडसैनेटाइजर का इस्तेमाल बिल्कुल नही करेगा। वही हुआ। पापा के जाते ही उसने शीशी कूड़े में फेंक दी और वाश बेसिन के पास हाथ धोने पहुंच गया। जवान लड़के को कौन रोके...कैसे रोके...डॉक्टर के पास तब जाए न जब उसे लगे कि कोई बीमारी हुई है उसे। वो तो सामान्य मानता था इस आदत को। हर बात सामान्य थी, सिवाए हाथ धोने के। जो लोग उस पर हंसते या आपत्ति जताते , उन्हें वह आश्चर्य से घूरता और उन्हें गंदा साबित करता। कुछ समय बाद लोगो ने कहना छोड़ दिया, उसने इस पर सुनना बंद कर दिया। विचित्र आदतो के बारे में नेहा ने बहुत कुछ देख सुन रखा था। लेकिन उसकी दोस्त की हालत तो जरा अलग थी। इसी मदद करने में असहाय महसूस करने लगी थी।

नेहा अपने परिचित डॉक्टर विमल कुमार के पास सपना को लेकर आ ही गई। हर समय गंध को खोजना, कुछ अजीब-सा लगता था। जब भी मिलती थी, वो नाक से कुछ सूंघने का प्रयास कर रही होती थी। नेहा को बड़ी उलझन होती थी। उसे समझ में ने लगा था कि ये कोई मनोवैज्ञानिक रोग है जो इसे लग गया है। इन दिनों ज्यादा बढ़ गया है। पता नहीं इसके घरवालो ने ध्यान दिया क्यों नहीं। पीजी होस्टल में रहने वाली लड़कियां सबकी सब अजीब बरकतों वाली निकलती हैं। सपना सबसे अलग थी।

बिहार के छोटे से कस्बे से निकल कर दिल्ली तक आई थी। अपने साथ गंध की खोज लेकर। अपने परिवार के बारे में ज्यादा बताया नहीं सिवाए इसके कि उसकी मां नहीं हैं। मां बचपन में ही गुजर गई। हल्की, धुंधली-सी याद है, अंधेरे उजाले में एक परछाईं डोलती रहती है। लबादा ओढ़े, भागती हुई हरदम। उसे अक्सर लगता, वो परछाईं उसके पीछे भाग रही है। शायद मां की परछाईं थीं वो। मृत्यु के बाद भी जैसे पीछे डोल रही हैं। बड़ी होने तक ऐसा ही महसूस होता है। यह बात पिता को नहीं बता पाई। पिता को उतनी फुरसत कहां, अपनी दूसरी पत्नी से। इतने मगन हैं कि अधेड़ावस्था में जवान बीवी मिली है, निहाल हुए जा रहे हैं। नई मां थोड़ी ही तो बड़ी होगी उससे। जाने पटी नहीं या उसने पटाना नहीं चाहा।

माहौल ज्यादा तनावपूर्ण रहने लगा तो पापा ने छोटे भाई के परिवार के पास रहने, पढ़ने भेज कर मुक्ति पा ली। नये माहौल में बड़ी होती हुई वह इस बात से निश्चिंत थी कि यहां उसे प्यार की दरकार नहीं थी। न उसकी तलब महसूस होती। सबकुछ सामान्य था। सिवाए उस एक गंध की तलाश के। वैसे हर तरह की गंध पर बेचैन होती, उसका पीछा करती फिर लौट आती। वो गंध जो उसके नथुनों में बसी हुई थी, मिल नही रही थी। न ही उसका पता चल पा रहा था। बस इतना अहसास होता था कि इस गंध का पता डार्कनेस में मिलेगा। वह खास गंध जब भी उठती है, अंधेरा-सा छा जाता है। कुछ परछाईयां हलचल में आ जाती हैं। धुएं की लकीर-सी दिखाई देने लगती है। एक चिंगारी चमकती है फिर लोप। वह आंख मूंद लेती है और फिर सब ओझल। बच जाती है सिर्फ गंध। बेहद तीखी गंध। जवानी में कदम रखती हुई उसने परफ्यूम तक न छुआ। डर लगता था, अनजाना डर। तीखी गंध से उसे दौरा-सा पड़ता था। नेहा इस बात को समझ गई थी। वह जब भी सपना से मिलती, भीनी खुशबू वाला परफ्यूम लगा कर आती। वह जान गई थी कि तेज गंध से विचलित हो उठती है सपना। फिर संभालना मुश्किल होता है। ऐसे में सपना को देखकर डर जाती है नेहा। पूरा चेहरा लाल हो उठता है, आंखें जल्दी जल्दी खोलती और बंद करने लगती है। उठ कर भागना चाहती है। चारो दिशाओं में सूंघना चाहती है। दोनों हाथों से किसी को भगाती है। गांव में होती तो लोग भूत-प्रेत बाधा समझ कर झाड़-फूंक करने लगते। शुक्र है, दिल्ली में है तो लोग समझते हैं कि किसी मनोवैज्ञानिक समस्या से जूझ रही है। कारण भले न समझ पाए, मगर प्रेत-बाधा तो नहीं ही समझते हैं। सपना के चाचा का परिवार हल्के में लेता था इस बात को या सपना उनके सामने खुलती नहीं थी। दोनों तरफ से रिश्तों का निर्वाह भर हो रहा था। पापा के पैसे समय पर आ जाते थे, कॉलेज की पढ़ाई जारी थी। अब तो सोशल साइंस में शोध भी करने लगी थी। जल्दी ही अलग घर लेकर रहने की योजना बना रही थी। छोटा-मोटा काम ढूंढ रही थी जिसे करते हुए पढ़ाई भी जारी रख सके। लेकिन नेहा चाहती थी कि अलग रहने से पहले सपना पूरी तरह ठीक हो जाए। चाहे यह बीमारी हो न हो, किसी तरह की मनोवैज्ञानिक समस्या ही क्यों न हो, उससे मुक्ति पा ले फिर अकेले रहना उचित होगा। किसी दिन अकेली किसी गंध के पीछे भाग गई तो जाने क्या कांड हो जाएगा। दिन में नहीं, रात का डर लगता है नेहा को। जवान और स्मार्ट लड़की है, जाने किधर निकल जाए और कौन-सा हादसा हो जाए। पिछले दिनों लड़कियों के साथ हुए कुछ हादसों ने सभी जवान लड़कियों और उनके मां बाप को डरा दिया था। सपना के चाचा-चाची भले न डरें, दोस्त होने के नाते नेहा बहुत डरी रहती थी। उसे खोई-खोई सी रहने वाली लड़की सपना से अगाध मोहब्बत जो थी। सपना की चाची कहती थी- “लो, चल पड़ी चंपा-चमेली। चैन नहीं, एक दूसरे के बिना...”

इतना कह कर वे सामान्य ढंग से मुस्काती, अर्थहीन, गंधहीन, लास्यहीन मुस्कान। जो अक्सर सड़को पर कुछ लोगो के चेहरे पर दिखाई देती है।

नेहा ने सपना को ले जाने से पहले डॉ विमल कुमार से लंबी बात की थी। उन्होंने ही कहा था कि “पेशेंट को लेकर आओ...मिल कर ही केस समझा जा सकता है...”

फोन पर ही उन्होने लक्षण सुन कर बताया था कि उसे “ऑब्शेसिव कंपलसिव डिसऑर्डर” हो सकता है। इसक सिंपल थ्योरी है कि कोई भी चीज या तो सेंसेशनल चीज चाहे वो घटना हो, भाव हो, डर हो, चेहरा हो जिसके बारे में हमको पता होता है कि ये “इ-रेशनल” है, वो हमारे “लॉजिक सिस्टम” में घुसता है और उसको नष्ट कर देता है। मन उसे “अनडयू” करना चाहता है। लेकिन वो हमें परेशान करता है...कोई खयाल आए तो उस एक काम को ही बार बार करने का मन करेगा...

नेहा ने बीच में ही बात काट कर मिलने का समय ले लिया था। दोनों समय पर पहुंच गई थीं अस्पताल। सपना को यहां तक लाना आसान न था। नेहा ने बहुत जिद की। सपना ने एकाध बार हल्के से लिया और उसे गाना सुना दिया- हम पागल नहीं हैं भइया, हमारा दिमाग खराब है...

दोनों ठठा कर हंस पड़ी थीं। नेहा जानती थी कि सपना के गंध का इलाज हो न हो, वजहें तो पता चल ही जाएंगी। जब वजह पता हो तो इलाज भी आसान होता है। कई बार वजहों में ही ट्रीटमेंट के सूत्र भी छुपे होते हैं।

डाक्टर के पास जाने की अपनी पारी का इंतजार करते हुए सपना दो बार किसी न किसी गंध के पीछे भागी थी। वो अक्सर किसी स्त्री या किसी व्यक्ति के पीछे भागती। उसे अस्पताल की गंध नहीं खींचती थी। दवाईयों, सूईयों और एनस्थेसिया की मिली जुली गंध भी फैली हुई थी कारीडोर में। कुछ लोग उस गंध से नाक मुंह ढंक रहे थे। नेहा ने भी मन को भटकाना चाहा। सपना बेअसर थी, उस गंध से। उसे वो गंध नहीं खींच रही थी। नेहा को इससे थोड़ी हैरानी हुई। गंध गंध में अंतर समझती है सपना। किसी गंध तक वो पहुंच नहीं पा रही थी। न ही उसे व्याख्यायित कर पा रही थी। नेहा उसे पकड़ कर लाई तो इस बार उसका हाथ छोड़ा नहीं। उसे बातों में उलझाए रही। बस छठें नंबर पर उनकी पर्ची लगी हुई थी। चार नंबर का चल रहा था अंदर सेशन, एक के बाद नंबर आने वाला ही था।

सपना सुबह से कुछ उखड़ी-सी, अनमनी लग रही थी।

“क्या हुआ, कुछ अपसेट हो, सब ठीक हो जाएगा, डॉ विमल बहुत सुलझे हुए, फ्रेंडली हैं बहुत, तुम्हें मुक्ति मिल जाएगी..ये कोई बीमारी नहीं, वहम है तेरा...वहम जितनी जल्दी दूर बो, उतना अच्छा...”

सपना ने निर्विकार भाव से उसे देखा। फिर मोबाइल पर मैसेंजर खोलने लगी।

“आज सुबह से कुछ अच्छा नहीं लग रहा है यार, जाने क्यों लग रहा है, कहीं कुछ हुआ है, पता नहीं क्या...मगर किसी अशुभ की आशंका हो रही है मुझे...”

“घर फोन कर ले...वहां सब ठीक है न...?”

“मैं नहीं करती, पापा ही करते हैं कभी कभी, उन्हें तो मुझसे कोई मतलब ही नहीं, बस हाल पूछा, पैसो के बारे में पूछा और फिर कहेंगे..अच्छे से रहना वहां...यहां सब ठीक है, आने की जरुरत नहीं, क्या करोगी यहां आकर, तुम्हारा भविष्य वही पर है, वहीं नौकरी तलाशो, जल्दी लड़का ढूंढेंगे..शादी डॉट कॉम पर प्रोफाइल बनाओ...”

“बस यही कुल उनकी बातें होती हैं। मैं बोर हो चुकी हूं। कोई कब तक सुने एक ही बात बार बार...”

“तो तुम साफ साफ बोलती क्यों नहीं उन्हें कि अभी तुम्हें शोदी नही करनी, पहले करियर बनाना है, मुझे मेरे हाल पर छोड़ दीजिए...”

नेहा ने उसे भड़काया।

सपना मैसेंजर पर तेजी से किसी से चैट करने लगी।

“तुम्हारे मोबाइल में नेटवर्क आ रहा है यहां...?”

नेहा ने हैरानी से पूछा.

“हां, क्यों...”

सपना ने सिर उठाया। ऊंगलियां रोक ली।

“मेरे मोबाइल में सिगनल गायब।“

“किससे बात हो रही थी मैडम...दिखा तो सही...”

नेहा ने झपटा मरना चाहा कि सपना का फोन घनघना उठा।

फोन कान में लगाती हुई वह बाहर की तरफ भागी। स्क्रीन पर नाम देख कर विचलित हो गई थी। नेहा उसके पीछे पीछे। डॉक्टर के असिस्टेंट ने आवाज लगाई-

“पेशेंट नंबर छह...”

उसे हैरानी से दोनो लड़कियों को बाहर जाते देखा। कुछ दूर तक उनके पीछे गया, वे ओझल हो गईं तो लौट आया।

“पेशेंट नंबर -7”

कारीडोर में उसकी आवाज गूंजी, वहां बैठा अधेड़ स्त्री-पुरुष का एक जोड़ा उठ कर अंदर चला गया। जल्दी नंबर आ जाने से उस स्त्री के चेहरे पर राहत दिख रही थी।

बाहर सपना, गाड़ी पार्किंग में जाकर कुछ जोर जोर से बात कर रही थी। बात करते करते वह फूट फूट कर रोने लगी। नेहा को लगा, अब हस्तक्षेप करना पड़ेगा। उसने उसके हाथ से मोबाइल छीन लिया।

फोन पर एक स्त्री की रोती हुई आवाज आ रही थी –

पापा नहीं रहे...

सपना को वहां से किसी तरह संभालती हुई नेहा घर लेकर आई। जल्दी से मोबाइल से पटना का टिकट कराया और पटना से आगे जाने के लिए टैक्सी तक बुक कराया। सबकुछ आनन फानन में। शाम की इंडिगो फ्लाइट थी, बहुत महंगी थी , रात वाली थोड़ी सस्ती थी। सपना कोई रिस्क नहीं लेना चाहती थी। सपना का विलाप जारी था। दोपहर की फ्लाइट से ही निकलना चाहती थी ताकि पापा के अंतिम दर्शन कर सके।

सालों बाद घर वापस जा रही थी। जब से आई थी, सिर्फ एक बार जाना हुआ था, वह भी भूल गई। फिर किसी ने कभी बुलाया ही नहीं। दादा जी की मृत्यु की खबर भर मिली थी उसे जब चाचा जी गांव गए थे, सपरिवार। वह अकेली रही थी घर में। यहां पापा ही आ जाते थे कभी कभार। एक दिन रुक कर चले जाते थे। सपना वैसे भी कम बोलती थी। पापा के सामने तो जैसे होठों पर ताला जड़ जाता था। उसे लगता कि अजनबियों से क्या बात करे। अजनबियों के बीच में जीते जीते चुप-सी लग गई थी।

रिश्तेदारो से ज्यादा अजनबी उसे कोई न लगा। न कोरियर वाले लड़के, न सफाई वाला चिंटू न रोज काम पर आती मेड, न राशन वाला, कोई अजनबी नहीं लगा। पहली बार मिलते ही सबने अपनी मुस्कान से अजनबीयत दूर कर दी थी। उसने इस घर में अपने सामने कभी किसी को मुस्कुराते नहीं देखा था। शायद सब बचते होंगे इसके सामने, कहीं मुस्काए तो सपना करीब न आने लगे। रिश्तेदारो को करीब आने से डर लगता है शायद। एक तन्हा और साधनहीन लड़की के करीब कौन आना चाहेगा। जिसे नौकरी करते ही यहां से चला जाना है। जो हर महीने मिलने वाले सीमित पैसो के दम पर जीती है। जिसकी सुबहें और शामें बेहद ऊबाऊ हैं, उजाड़ हैं जैसे उत्सव के बाद कोई पंडाल नजर आता है, वैसा ही भाव हमेशा ओढ़े उस घर में वक्त काट देती है।

कामवाली बाला ने एक दिन टोका था- “दीदी, बाहर तो आपके हंसते-बोलते देखा है, घर में काहे चुपचाप रहती हो...?”

नेहा ने भी कहा था- “बाहर तो तू बिल्कुल बदल जाती है...बाहर ही रहा कर...कैसे रहती हैं, इस गैस चेंबर में...”

मुंह बनाती नेहा। सपना खिड़की खोल कर सामने का पार्क देखने लगती जिसमें सुबह शाम रौनक रहती। इससे वह अपनी भीतर कुछ चहल पहल भर लेती थी। हवा में सूंघती हुई गंध खोजने की कोशिश करती। वह गंध ही मिसिंग थी। सबसे बड़ी मिसिंग...

मां से ज्यादा...पिता से ज्यादा...उस घर से ज्यादा, जिसे बचपन में ही छोड़ देना पड़ा था। ये गंध उसी घर से तो लेकर आई है। मगर कैसे, क्यों...क्या...ये तीन सवाल परेशान करते थे। कोई भी तीखी गंध उसे बेचैन करती थी और वह उसका पीछा करने लगती थी। जैसे आधी रात में प्यासी आत्मा पुकारती हो किसी बिछड़ी देह को...अपने लिए एक देह ढूंढती हुई आत्मा की तरह वह छटपटाने लगती।

गंध की परेशानी वाली बात धीरे-धीरे फैल गई थी सभी रिश्तेदारो में। तरह तरह की बातें होने लगी थीं। लोग अजीब-अजीब बातें करते। बाला ने ही बताया था-

“दीदी, आपकी चाची बात कर रही थी, अपनी किटी पार्टी में कि कोई जिन्न वीन का चक्कर हो तो ऐसा होता है। जिन्न होता है न, मुसलमान भूत...खराब नहीं होता है, खाली खुशबू से खींचा चला आता है। शाम को या रात को खुशबू लगा कर आप मत सोया करिए...वह जवान लड़कियों पर काबू पा लेता है...”

“मतलब...?”

सपना की आंखे फैलीं..

“मल्लब कि दीदी...जो लड़की खुशबू ज्यादा लगाती है न, उसके ऊपर चढ़ जाता है जिन्न...सोता है..आपको पता थोड़े न चलेगा..नींद में दबोच लेता है..सुबह आप गौर करिएगा, आपकी देह पर कोई निशानी छोड़ जाएगा..”

बाला जब बोलती हैं तो उसके अधखुले बाल और फैल जाते हैं। गहरे कट का ब्लाउज झुकने पर उसकी छातियों का उभार और दिखने लगता है। घुटनो तक चढ़ी हुई सूती साड़ी, और बिछुओ से भरी हुई पैरो की ऊंगलियां। कानों में भी कमसेकम पांच छोटी-छोटी बालियां। यानी पूरी तरह सजावट की दूकान। वो बेखबर है या लापरवाह है। रोज की ही बात है, जाने कितने घरों में इसी तरह झाड़ू पोंछा करती है। मन हुआ कह दूं- जिन्न को तेरे ये छलकते हुए अंग नहीं दिखते, इस पर क्यों नहीं मोहित होता वो, खुशबू के पीछे क्यों पड़ेगा भला...

मन ही मन सोच कर रह जाती। कहती कुछ नहीं।

बाला बोलती रही, मानो वह जिन्न एक्सपर्ट हो। सपना को हंसी आ गई। अपनी देह की तरफ देखा। हाथ में खरोंच के निशान थे। तुरत पीछे कर लिया हाथ, बाला कहीं देख न ले। ये खरोंच तो खुद उसी ने बेचैनी की हालत में लगाए थे। इसका जिन्न विन्न से क्या लेना देना। वह खुशबू लगाती ही नहीं तो कहां से आएगा जिन्न। कौन समझाए बाला को। चाची भी कितनी अंधविश्वासी हैं। अगर उन्हें ऐसा लगता है तो सीधे मुझसे पूछ लेती। अजनबीयत इतनी कि हाल पूछने पर भावुक होने का खतरा क्यों उठाए वे। बाला की बात को अनसुना करके सपना अपने काम में लग गई। जाने कितनी कहानी बना लेते हैं लोग। इतना समझ गई कि लोग बात करने लगे हैं तो कुछ करना पड़ेगा। ऐसे वक्त में नेहा संकटमोचक की तरह प्रकट हुई। उसे लगा था कि साइकेटेरिस्ट से बात करके कुछ तो रास्ता निकलेगा ही। लेकिन इसका मौका ही नहीं मिला। एक फोन ने जिंदगी उलट कर रख दिया था। एक खबर ने जिंदगी को सवाल बना दिया था। अब क्या...पापा के जाने के बाद...क्या होगा..?

उसकी दूसरी मां, जिसे उसने एक बार देखा था, सौतेला भाई, जिससे कभी नहीं मिली, क्या उसे स्वीकारेंगे, उसके लिए कुछ करेंगे...या ...

इसी तरह के अनेक सवालो से घिरी हुई सपना पटना जा रही थी। आंसू सूख चुके थे। उसे यही समझ में नहीं आ रहा था कि वह रोई किस लिए...पापा के लिए या हर महीने मिलने वाले उस पैसे के लिए, जिससे उसका जीवन चल रहा था। रोई तो खूब थी। नेहा संभालते संभालते हलकान हुई जा रही थी।

एयरपोर्ट पर सपना को ड्रॉप करते हुए नेहा ने चेताया था- “किसी गंध के पीछे भागना मत। पकड़ लेंगे लोग और कुटाई हो जाएगी। बी केयरफुल। लौट कर आओ तो इस बार विमल को घर पर ही बुला लेंगे। ज्यादा फीस दे देंगे। हम विमहैंस नही जाएंगे। वेटिंग बहुत लंबी होती है, अप्वाइंटमेंट का कई मतलब नहीं... इंतजार फिर भी करना पड़ता है...।“

सपना द्वंद्व में थी। जा तो रही थी मगर भीतर में दुख के वाबजूद जाने का मन नहीं हो रहा था। जाने क्यों, उसे लग रहा था, सब लोग कैसा व्यवहार करेंगे। कैसे झेलेगी, उन्हें, जिनसे कोई मतलब नही रहा कभी। देशनिकाला देने वालो के साथ गले लग कर कैसे रोएगी...किसके लिए...

आखिर रोना किस बात पर आ रहा है ? फ्लाइट की खिड़की से बादलों को देखते हुए भीतर में अकेलापन और गहराता जा रहा था। मन के प्रदेश में इतना ही तो वीराना है। बादलों की गंध नहीं होती। जब तक धरती पर न गिरे। आंखें मूंदी तो भीतर में सफेद रंग फैलने लगे। हल्की, हल्की होकर वह बादलो पर पैर रख कर कूद रही है। कोई छाया गुत्थमगुत्था दिखने लगी। सफेदी गायब होने लगी, बादलो पर लाल रंग के धब्बे दिखने लगे। अचानक बादल धुएं में बदलने लगे, और तेज गंध उठी। वह चीख पड़ी।

आंख भक्क से खुली। मुंह पर हाथ रख लिया। फ्लाइट में ज्यादातर लोग ऊंघ रहे थे। रात की फ्लाइट में ऐसा नजारा आम होता है। चीख सुन कर मीडिल सीट पर बैठा युवक डर गया। हैरानी से देखते हुए पूछा- “आर यू ओके ?”

“या..आय एम ओके, थैंक्स...”

खिड़की की तरफ मुंह घुमा कर सिर टिका लिया। चीख तेज होती तो क्या होता। उसने आंख खुली रखी.

कौन-थी वे दो छायाएं...क्यों थी गुत्थम गुत्था, लाल रंग के धब्बे क्या थे...वो धुंआ, वो तीखी गंध...?

ये सारी चीजें आपस में जुड़ी हुई थीं। इन्हें खोल पाना मुश्किल हो रहा था। मन के भीतरी संसार में बेचैनी और तेज होती जा रही थी। आत्मा पर कोई बोझ ढोए चल रही हो मानो।

पटना से अपने कस्बे तक पहुंचने में दो घंटे लग गए। मनिकपुर तक पहुंचने के लिए दीघा पुल बेहतर रास्ता है। टैक्सी पुल पार करके वैशाली के आसपास ट्रैफिक में फंस गई थी। रास्ते में सिर्फ एक बार फोन आया था, कोई रिश्तेदार था। उसी ने बताया कि होस्टपीटल से बॉडी लेते हुए देर हुई। दाह-संस्कार अगले दिन सुबह होगा। देर शाम को नहीं होता है, इसलिए पापा की बॉडी को घर पर ही रखेंगे रात भर। आखिरी दर्शन हो जाएंगे।

सूचना देने वाले को उसने थैंक्यू कहा और अंधेरे में डूबे खेतों की तरफ देखने लगी। ये सारे मंजर अनजाने थे, उनसे जुड़ी कोई स्मृति नहीं थी उसके पास। मार्च के महीने में यहां के खेत भी हरे-सुनहरे दीखते हैं, शायद...ये फिल्मी स्मृतियां थीं। एकबार दोस्तो के ग्रुप के साथ विलेज टूरिज्म किया था, समर गोपालपुर, रोहतक के पास। शहरी सुविधाओं वाला गांव था, वही एकमात्र स्मृति है। जो इस रास्ते से बिल्कुल मेल नहीं खाती है।

अभी तो बहुत कुछ दिखने वाला था, जो उसकी स्मृतियों से बाहर का होगा...जाने घर कैसा होगा, सब कैसे रहते होंगे, वो कमरा, जिसकी धुंधली –सी स्मतियां है...जिसमें कुछ परछाईयां रहा करती थीं...रंग उतरी दीवारें, दीवार से लगी चौकियों पर बिस्तर। फट्टियों में बंधी मच्छरदानी। होगी या नहीं...

टैक्सी घर क बाहर पहुंच चुकी थी। बिल्कुल स्टेट हाइवे से सटे एक बड़े से, दुतल्ला मकान के आगे रुकी थी गाड़ी। बाहर अंधेरा और उजाला दोनों थे। बाहर कुर्सियों पर लोग बैठे थे। सबके चहेरे गमगीन थे। गमछे से सबने चेहरा छुपा रखा था। सबसे पहले नेहा को टेक्स्ट कर दिया कि ठीक ठाक पहुंच गई और समय मिलते ही फोन करेगी चिंता की कोई बात नहीं है।

उसे रिसीव करने कोई घर से निकला नहीं। उसकी निगाहें उस कमरे को ढूंढ रही थी जो उसकी स्मृति में कौंधता है बार बार। कदम बढ़े उसी तरफ। दरवाजे पर ठिठक गई। कमरे के अंदर कुछ औरतें जमीन पर चादर बिछा कर बैठी थी।

सामने पापा की बॉडी मशीन में रखी थी। फूल मालाओं से लदी हुई। कमरे में चारों तरफ कोई तीखी गंध फैली थी। धुएं की लकीर-सी उठती दिखाई दी। दीवारों की तरफ देखा...दो परछाईयां वहां लड़ रही थीं...एक दूसरे से गुत्थमगुत्था ....एक परछाईं बहुत ताकतवर थी, उसने दूसरी दुबली पतली परछाईं के ऊपर कुछ उड़ेल दिया, बड़ा-सा डब्बा जैसा कुछ दिखा...वो परछाई भाग रही है, चीख रही है, कमरा बंद है, दीवारों से टकरा कर वह गिर पड़ी।

एक छोटी-बच्ची कमरे में दीवार से चिपकी चीख रही है....उसे ताकवर परछाई ठोकर मार कर दूर फेंक देती है...दीवार से टकरा कर वह बच्ची चुप हो जाती है, कुछ पल के लिए बेहोशी में डूब जाती है। जब होश आता है तो घर में बहुत लोग दिखाई देते हैं, वह चीख मार कर रोती हुई उसी कमरे में भागती है, कमरे की सफाई की जा रही है...वहां अजीब-सी , तीखी दुर्गंध भरी हुई थी। वहां एक औरत सफाई में जुटी हुई है, वह ढेर सारी तीखी गंध वाली अगरबत्तियां जलाए जा रही है...उसके धुंए से कमरा भरा हुआ है...दीवारें काली हो चुकी हैं, चिरायंध गंध सा कुछ हवा में फैला हुआ है।

यादों के कपाट खुलते जा रहे थे-

आंगन में एक परछाईं बैठी हुई कुछ गुनगुना रही हैं...

“फुलवा में फुलवा एगो चम्पा फुलवा

गोरिया करैये सिंगार चमेली फुलवा

फुलवा लोढते भेलै रतिया

दफेदरवा बलमजी छेकले बटिया...”

धीरे-धीरे उसकी आवाज ऊंची होती जाती है। तभी दूसरी हट्टी कट्ठी परछाई आती है, दुबली पतली छरहरी परछाई को पीछे से दबोच लेती है। दोनों परछाईंयां एक हो जाती हैं। अर्द्धनींद में सोई हुई बच्ची ने उसके बाद कुछ नहीं देखा। उसे कोई गोद में उठा कर कहीं ले गया। दूर...बहुत दूर...वो अब लौटी है...

अंधेरे में बच्ची हिलती डोलती चली जा रही थी कहीं। जब जगी तो उजाला था और दुनिया का भूगोल बदल चुका था और उसके नागरिक भी बदल गए थे। बच्ची की आंख में गहरा अंधेरा उतर आया था और नाक में तेज गंध बस गई थी। तेज गंध से वह छींकती थी , हलकान थी, चारो तरफ देखती, खोजती, पीछा करती। बच्ची बड़ी हो गई थी। बच्ची फिर से उसी कमरे में लौट आई थी, बीस साल बाद। कमरे में अंधेरा नहीं, टयूब की दूधिया रोशनी फैली हुई थी। लेकिन एक बार फिर से वही गंध, वही धुएं की लकीर...

ओह, ये तो वही गंध है, अगरु की गंध। मिट्टी तेल की गंध। बचपन की गंध। इन सबने मिल कर बनाया मृत्यु-गंध।

एक परछाई चमकी...सिर्फ बच्ची ने देखा-

तिलिस्म टूटने लगा तड़-तड़। धुंध फटा हो जैसे। अंधेरा चटकने लगा था। पापा के साथ मां के बढ़ते झगड़े की आवाजें गूंजने लगी, एक अनजानी औरत पापा का हाथ पकड़े घर में घूम रही है, कुछ बोल रही है, मां की तरफ इशारे करके-

“छोड़ कर चली क्यों नहीं जाती तुम...जाओ...निकलो..यहां से...निकालो इसको, तभी हम इस घर में कदम रखेंगे, सुन रहे हो जी...”

“मां...”

गुस्से में लाल भभूका हुए पापा के हाथ में जलती हुई कोई चीज, उछाल दिया, दूसरी स्त्री परछाई उकसाए जा रही है...”फूंक दो, अपने आप जल मर, तो हम क्या करे...हमने तो बचाने की पूरी कोशिश की, इस औरत को छोटी-बच्ची का भी खयाल नहीं आया, बेचारी टुअर बच्चा...हे भगवान, बड़ी कठकरेज औरत थी... “

“नहीं....”

सपना तेज चीख मार कर बाहर की तरफ भागी और दरवाजे से टकरा कर वहीं गिर पड़ी। सारी औरतें डर के मारे उठ गईं। सबने एक ही अनुमान लगाया कि पिता के दुख में ये हालत हुई। इस गंध से बहुत दूर भाग जाना चाहती थी। इस गंध से जीवन भर परेशान रही। तलाशती रही कि क्यों यह तीखी गंध उसे इतना आतंकित करती है। वह घर आकर मिली। एक औरत ने जमीन से उसे उठा कर बिठाया। दूसरी औरत पानी लेकर आई। जबरन मुंह में पानी उड़ेलने लगी।

वह रो नहीं रही थी। उस गंध को पहचान गई थी। उस गोपन-रहस्य कथा को अब वह डि-कोड कर सकती थी। अपनी मां के गायब होने और मृत्यु की झूठी कथा के रहस्य को खोल रही थी। वह केस सुलझा रही थी, लेकिन जानती थी कि जिरह नहीं कर पाएगी। किससे करे जिरह। कौन यकीन करेगा उसकी बहस पर, दलीलो पर, सबूतहीन दलीलें दम तोड़ देती हैं। इस केस की फाइल हमेशा के लिए कल सुबह जला दी जाएगी।

उसकी आत्मा में अब गंध नहीं, एक जला हुआ संसार बसेगा।

......

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