जो घर फूंके अपना - 37 - घरवाली बनाम अर्दली Arunendra Nath Verma द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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जो घर फूंके अपना - 37 - घरवाली बनाम अर्दली

जो घर फूंके अपना

37

घरवाली बनाम अर्दली

बुद्ध जयन्ती पार्क में ज्योति के साथ बिताया हुआ वह थोडा सा समय मुझे बहुत दिनों तक मीठा मीठा दर्द देकर सालता रहा. तबतक किसी लडकी के सान्निध्य का अवसर मुझे केवल सोवियत रूस में मिला था. उसे भी लीना के साथ अपनी गलत सलत रूसी भाषा बोलकर मैंने बर्बाद कर दिया था. अपने देश में तो ज्योति ही वो पहली लडकी थी जिसके साथ मैंने एकांत के कुछ पल बिताये थे. नूरजहाँ ने भोलेपन से अपने नाज़ुक हाथों में पकडे कबूतर को उड़ाया था तो जहांगीर उस पर मर मिटा था. पर गणित और रोमांस की अप्रत्याशित टक्कर से घबराकर मेरे हाथों से जो तोते उड़े वे लौटे नहीं.

स्थिति ये हो गयी थी कि यदि सपने में भी ज्योति का मुस्कराता हुआ सांवला सलोना चेहरा क्षण भर के लिए दीखता तो दूसरे ही क्षण वह काली के भयानक रौद्र रूप से मिलता जुलता रूप धारण कर लेता जिसके आठों हाथ गणित के कैलकुलस,स्टेटिक्स,डायनामिक्स आदि सारे उपविषयों से खड्ग,भाले,त्रिशूल आदि तरह तरह के हथियारों की तरह सुसज्जित होते. अपनी समझ से अपनी मनःस्थिति को मैंने कभी किसी पर ज़ाहिर नहीं होने दिया. पर ऑफिसर्स मेस में रहनेवाले अविवाहित युवा अफसरों के पेट के अन्दर की भी बात जिसको सबसे पहले पता चल जाती थी वह होता था उनका व्यक्तिगत अर्दली. मेरे अर्दली हरिराम से भी मेरी खिन्न मनःस्थिति और अनमनापन छिपा नहीं रह सका. फ़ौजी अफसरों के साथ उसके लम्बे अनुभवों के आधार पर मेरे व्यक्तिगत जीवन में दखल देने का उसका पूरा हक़ बनता था अतः मुझे उसके सुझाव सुनने पड़े. हो सकता है आपको एक अफसर के व्यक्तिगत जीवन में एक अर्दली का सुझाव देना अनाधिकार प्रवेश के जैसा कुछ लगे. आपको पहले एक सैनिक अधिकारी के जीवन में उसके अर्दली के महत्व के बारे में बताता हूँ. फिर बताऊंगा कि मुझे अपने इस स्थानीय अभिभावक से क्या सलाह मिली.

स्थलसेना के अधिकारियों को तो बाकायदा सैनिक ही व्यक्तिगत सहायक के रूप में मिलते हैं. न मिलें तो इसके पहले कि बेचारे अफसर सही वर्दी, सही बूटों का चुनाव करके, उन्हें धारण करें और लड़ाई के लिए तैयार हो पायें, अचानक छिड़ा हुआ छोटा मोटा सीमा संघर्ष समाप्त भी हो जाएगा. हर लड़ाई मायावती- मुलायम संघर्ष के समान लम्बे समय तक तो खिंचती नहीं. फ़ौजी जीवन में आगे आनेवाली इस वर्दियों और बूटों की मुसीबत का अंदाज़ हमें एन डी ए में ही लग गया था. सुबह सुबह बिगुल की ध्वनि सुनकर हम बिस्तर से झटके के साथ उठते थे और सबसे पहले पी टी शूज़ पहन कर भागने के लिए तय्यार हो जाते थे. उसके बाद परेड के लिए ड्रिल बूट्स पहनने पड़ते थे जिसके तल्ले में इतनी सारी रिपिट नुमा कीलें ठुकी रहती थी कि किसी भी चिकने फर्श पर पैर रखने के साथ ही स्कीइंग का आनंद आ जाता था. स्क्वाड्रन भवन के बेहद चिकने फर्श पर फिसल कर परेडग्राउंड पहुँचने से पहले ही हममे से कई लंगडाने लगते थे. अतः पहले ही फिसल कर गिर जाने और लंगडाने पर परेड से मुक्ति पाने का विकल्प बुरा नहीं था. इन टांगतोड़ ड्रिल बूट्स के ऊपर एंकलेट पहनने पड़ते थे जो शौक़ीन तबीयत लोगों को कत्थक नर्तकी के पैरों में बंधे घुंघरुओं की याद दिला देते थे. फिर नंबर आता था राइडिंग बूट्स का. इनके साथ सम्बद्ध मुसीबत का नाम था राइडिंग ब्रीचेज़ और राइडिंग पट्टी जो ब्रीचेज़ के ऊपर लपेटी जाती थी. इनको पहनने के लिए बिलकुल पतली मोहरी के चूडीदार पजामे को पहनने जैसी ज़हमत उठानी पड़ती थी. फिर प्रातःकालीन दौड़भाग, परेड और घुड़सवारी की वर्दियों के बाद वेपन ट्रेनिंग अर्थात अस्त्र शस्त्र चलाने और सामरिक प्रशिक्षण के लिए ‘फील्ड सर्विस मार्चिंग आर्डर’ नामक वर्दी धारण करनी होती थी. इसमें डांगरी और बूट में सुसज्जित होकर पीठ पर पैक और पानी की बोतल लटकानी पड़ती थी अतः वर्दी अपने भारी भरकम नाम से भी जियादा भारी होती थी. इसके नाम का ही संक्षिप्तीकरण करके हम वर्दी का नहीं तो कम से कम अपने दिल का बोझ हल्का कर लेते थे. तो इस वर्दी का संक्षिप्त नाम था “पिठ्ठू”. इस वर्दी में पीठ पर इतना सारा बोझ जो बांधकर लादना पड़ता था शायद पिठ्ठू नाम उसी पर आधारित था. फौज में इतना अप्रिय और बदनाम होने के कारण ही “पिठ्ठू” शब्द “चमचों” का पर्यायवाची बन गया था.

सुबह भोर में उठकर इतनी सारी हाड़तोड़ मुसीबतें उठाने के बाद एक बार फिर नाश्ते के बाद वर्दी बदल कर, पढाई लिखाई के घोषित उद्देश्य से, क्लासरूम में जाना होता था. ‘घोषित उद्देश्य’ इसलिए कि तबतक हमारे शरीर की सारी चूलें हिल जाती थीं और हमारा क्लासरूम में बिताया समय मुख्यतः गहरी नींद के झोकों से लड़ने और उस लड़ाई में हारने पर अपने प्रशिक्षकों की डांट खाते हुए बीतता था. ये क्लासरूम वाली वर्दी भी लगातार नहीं पहन पाते थे हम. पढाई के घंटों के बीच, वर्कशॉप प्रैक्टिस में लबादानुमा डांगरी पहननी होती थी. दोपहर में खाने के बाद एक घंटे का विश्राम का जो समय मिलता था उस तक पहुंचते पहुंचते हम इतनी सारी वर्दियां इतनी बार बदल कर इतना तंग आ चुके होते थे कि उस विश्राम के समय में पूर्णतः दिगंबर होकर ही चैन मिलता था.

ये दिगंबर दशा भी थोड़ी देर की ही होती थी. शाम को हाकी,फूटबाल,क्रिकेट आदि खेलों के लिए फिर दूसरे वस्त्र और बूट्स धारण करने पड़ते थे. क्रिकेट के लिए फरक बूट तो फूटबाल के लिए फरक. बास्केटबाल के लिए फरक जूते तो तेज़ भागने के लिए नीचे खड़ी कीलें जड़ी हुई स्पाइक्स. मानो खेलने नहीं,काँटों के खेत में खड़ा होने जा रहे हों. गीता के अनुसार जीवन के अंत में मृत्यु का वरण करते हुए मनुष्य को समझना चाहिए कि वह पुराने वस्त्र उतार कर नए वस्त्र धारण कर रहा है पर यहाँ क्रम उल्टा था. अनेकों वस्त्र धारण करते करते मृत्यु के वरण का एहसास होता था. इतने सारे किस्म की वर्दियां और इतने सारे बूट्स और शूज़ बदलते बदलते हमें जीते जी चौरासी लाख योनियों में शरीर का कलेवर बदलने का सुख प्राप्त हो जाता था. खलीफा हारून रशीद की तरह जिन बादशाहों को भेष बदल कर प्रजा का हाल लेने का खब्त होता था वे एक बार एन डी ए में भरती होते तो हमेशा के लिए उनका शौक दूर हो जाता.

शाम को खेल कूद समाप्त करके एक बार फिर जब हम मुफ्ती अर्थात संध्या कालीन ड्रेस पहनते थे तो उसमे जूते फिर फरक होते थे. इनका नाम होता था ‘ओ पी शूज़’ अर्थात ‘ऑफिसर पैटर्न शूज़’ जो स्पष्ट करता है कि आधी अफसरी तो सही ढंग के जूते पहने में ही निहित होती है. सर्विस में आगे चलकर पता चला कि बाकी की आधी अफसरी अपने बॉस के जूते चमकाने में निहित होती है. सीरिमोनियल अर्थात विशेष अवसरों पर पहने जाने वाले विशेष परिधानों का मैंने अभी तक कोइ ब्योरा नहीं दिया है. सिर्फ प्रतिदिन सुबह से रात तक हम कैडेटों द्वारा पहने जाने वाले सारे परिधानों और सारे जूतों का नाम और विवरण जो मैंने अभी तक दिया है वही आप सही सही बता दें तो मैं कहूंगा कि आपके शरीर को धारण करके शकुन्तला देवी ने पुनर्जन्म लिया है. वही शकुन्तला देवी जो बिना किसी संगणक उपकरण (कैल्क्यूलेटर या कम्प्यूटर ) के प्रयोग के ज़बानी बीस अंकों की संख्या का वर्गमूल या ऐसे ही किसी सिरफिरे द्वारा पूछे जाने योग्य सवाल का उत्तर पलक झपकते बता देती थीं.

खैरियत थी कि प्रशिक्षण के दौरान हमारे पास कोई मेंडल और नित्य की वर्दी में उन अलंकरणों के सूचक रिबन नहीं होते थे. सर्विस के आनेवाले वर्षों में उनकी वजह से वर्दी के रखरखाव का काम और भी बढ़ जाता है. सैन्य सेवा के अंतिम वर्षों में तो अफसर गायब हो जाता है और सिर्फ उसकी वर्दी दिखाई पड़ती है. उत्तर प्रदेश में भारतीय प्रशासनिक सेवाओं के अफसरों के असोसियेशन ने एक बार सबसे भ्रष्ट अफसर का बाकायदा चुनाव किया था. तब पता चला था कि उनके यहाँ पदोन्नति की सीढियां चढ़ते चढ़ते अफसर के सारे कपडे गायब हो जाते हैं और वह पूरी तरह से नंगा दिखाई पड़ने लगता है. अश्लीलता का आरोप लगने के भय से ये नहीं बताऊंगा कि उस मुकाबले में सबसे भ्रष्ट अफसर नंगा दिखा था या दिखी थी. चमकती दमकती कड़क वर्दियों के चलते, फौज में इसका उल्टा होता है. शायद इतने सारे अलंकरणों से सुसज्जित, चमचमाती हुई वर्दी पहने,पीक कैप लगाए सेनाध्यक्षों के सामने आकर सादी सफ़ेद लुंगी बुशशर्ट पहनने वाले श्री ए के अंटोनी जैसे रक्षा मंत्री हीन भावना के शिकार हो जाते होंगे. सीरिमोनियल वर्दी में स्थल और जलसेना के सेनाध्यक्ष इस तामझाम के ऊपर टीपू सुलतान या छत्रपति शिवाजी की स्टाइल में बगल में एक तलवार भी लटकाते हैं. वर्दी की तामझाम चाहे जो हो हमारी सेनायें लोकतंत्र एवं संविधान के प्रति पूर्णतः समर्पित हैं. पाकिस्तान का उदाहरण उलटा रहा है. वहाँ जो फौजी जेनरल जितना सजीला रणबांकुरा दिखाई पड़ता है वह उतनी ही जल्दी सरकार का तख्ता पलट कर फौजी शासन लागू कर देता है और उतना ही वह अपने राजनीतिक आकाओं के कपडे उतरवाने में मुस्तैदी दिखाता है. पर भारत सरकार निश्चिन्त है. फौजियों के कपडे उतारने का काम भारत सरकार ने सिविल सर्विस को सौंप दिया है.

क्रमशः ------------