जो घर फूंके अपना
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ह्मसफर की तलाश--लखनऊ से गुवाहाटी तक
सन 65 के युद्ध के बाद जब शादी की बाज़ार में फौजियों के लिए घोर मंदी के दिन थे तब हमारे बैच के अफसर मुश्किल से 21, 22 वर्ष के थे. विवाह का प्रश्न ही नहीं था. कहने को तो ये हमारे खेलने खाने के दिन थे पर स्थिति ये थी कि जो खेल हम खेलना चाहते थे उसके लिए साथी मिलना दुष्कर कार्य था. शायद इसी वास्तविकता को छिपाने के लिये देर से शादी देर से करने का फैशन था. 1960-70 के दशक में फ़ौजी अफसर 30-32 वर्ष से अधिक की आयु में ही विवाह करते थे. बाहर से देखने पर लगता था कि यह देरी अविवाहित नौजवानी का मज़ा देर तक उठा पाने के इरादे का नतीजा है. पर अन्दर से कहानी कुछ और ही थी. भारतीय सेनायें ब्रिटिश सेना के ढाँचे में ढाली गयी थी. अनुशासन, कर्तव्य निष्ठा आदि की ट्रेनिंग से लेकर फ़ौजी अफसरों के खानपान, राग-रंग, सांस्कृतिक और सामाजिक परम्पराओं आदि सभी पर पाश्चात्य जीवनशैली की पक्की मुहर लगी हुई थी. उनका जीवन पश्चिमी रंग में सराबोर था. ऑफिसर्स मेस की पार्टियों में बॉलडांस और स्कॉच व्हिस्की उतनी ही सहज लगती थी जितनी सहजता से बनारस (वाराणसी) में होली पर भांग पीकर गुझिया खाने का रिवाज़ लगता है.
धीरे धीरे स्कॉच का स्थान भारत में निर्मित विदेशी मदिरा (सीधे शब्दों में देशी व्हिस्की) ने ले लिया था. पर इसके पीछे स्वदेशी का प्यार नहीं अपितु फ़ौजी अफसरों की लगातार हल्की हो रही जेबें थीं. पार्टियों में बॉलडांस की परम्परा को विवाहित अफसर अपनी पत्नियों के साथ फॉक्सट्रोट, वाल्ट्ज,और साम्बा करके निभा लेते थे पर अविवाहित अफसर डांसफ्लोर से दूर किसी कोने में हाथ में व्हिस्की का ग्लास थामे भीड़ में भी अकेलेपन के एहसास का गम ग़लत करते हुए नज़र आते थे. जोड़ों के डांस करने की विदेशी परम्परा का निर्वाह तो तभी ठीक से हो सकता था जब किसी अन्य व्यक्ति की पत्नी के साथ डांस करना सहज स्वाभाविक लगे. पर जड़ें तो सबकी भारत की मिट्टी में ही थीं अतः सहज रूप से केवल इतना हो पाता था कि दूसरे की पत्नी (जो प्रायः अपने से सीनियर अफसरों में से ही किसी की विवाहिता होती थी) की पैर की उँगलियों को अपने शूज़ के तले रौंद कर जूनियर अफसर माथे का पसीना पोंछते हुए “ सॉरी मैडम“ कहते हुए भाग निकलते थे. फिर अपनी झेंप मिटाने का प्रयत्न करते हुए अपने समकक्ष अफसरों के पास जाकर रोमांस के आकाश में अपनी पताकाएं फहराने के झूठे अलिफ़ लैलाई किस्से गढ़ते थे. अमेरिकन अफसरों ने अपने ऑफिसर्स मेस में नर्सिंग ऑफिसर्स को निमंत्रित करने की जो परम्परा बनायी थी उसको ब्रिटिश परम्पराओं में ढले स्टेटस के प्रति अतिसचेत हम भारतीय अफसर हजम नहीं कर पाए थे. कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ी सुंदरियां फौज के ग्लेमर से प्रभावित होकर सोच तो लेती थीं कि शादी भले किसी ‘बोक्स वाले’ या आई ए एस से करें पर रोमांस या पार्टियों में डांस करने के लिए आई ए ऍफ़ (वायुसेना) क्या बुरा है. पर उनके खडूस बाप अडंगा डालने के नित नए बहाने खोज लेते. उनसे भी अधिक उनकी खडूस बीबियाँ अपनी बेटी को डांस करने देने के लिए जाने देने की बजाय खुद ही उनकी जगह डांस करने के लिए राजी होकर इन नवजवानों को छक कर बोर कर लेती थीं. दुनिया समझती ये कि वे खूब मज़ा कर रहे हैं पर असलियत में फ़ौजी अफसर शादी तो दूर, लड़कियों को पास से देखने के लिए भी तरस जाते थे.
थलसेना की छावनियां शहर के अन्दर नहीं पर उनसे लगी हुई तो होती थीं. पर एयरफोर्स, जिसके हवाई अड्डे शहर से बहुत दूर होते थे, के अफसरों और जवानों को नयनसुख भी नहीं नसीब हो पाता था. उस ज़माने में लड़कियों को पटाने का फ़िल्मी नुस्खा नंबर एक वह होता था जिसमे लड़के-लड़की की मुलाक़ात साइकिलों की टक्कर से प्रारम्भ होने के बाद प्यार से लड़की की नाज़ुक कलाई सहलाते हुए ‘चोट तो नहीं लगी’ पूछने के क्रम में चलती थी. नकली गुंडे की लडकी के सामने पिटाई करने का नुस्खा दूसरे नंबर पर था. लडकी के छोटे भाई को पटाकर उसके हाथ प्रेमपाती भेजने का नुस्खा लचर होकर पिट गया होता पर जब छोटे भाई की जगह ताज़ा-ताज़ा जवान हुई छोटी बहन फिट होने लगी तो ये नुस्खा देखते ही देखते नंबर तीन के पायदान तक पहुँच गया. पर नुस्खे तीन हों या तेरह, आजमाने का मौक़ा तो तब मिलता जब हमारे हवाई बेस शहर के आसपास कहीं होते. असलियत ये थी कि जहां हमारे एयरबेस और हमारे मेस होते थे वहाँ लडकी नाम के जंतु के दर्शन ही नही होते थे. मेघदूत के यक्ष की समस्या थी कि उसके और यक्षिणी के बीच एक लम्बी दूरी थी जिसे वह मेघ के हाथों सन्देश भेजकर कम करने के प्रयत्न में जुटा रहता था. हम मेघों के ऊपर उड़ान लगाने वालों के लिए सन्देश किसी और के हाथों भेजने की समस्या नहीं थी, पर कोई हो तो जिसे सन्देश भेजें.
उन्ही दिनों मेरी लखनऊ पोस्टिंग हुई. यूनिट में रिपोर्ट करने से पहले फिल्म ‘चौदहवीं का चाँद’ के चुनिन्दा सीन आँखों के सामने तैर गए थे. पर वहाँ पहुंचकर पता चला कि हमारा हवाई बेस था ‘बक्शी का तालाब’ में जो शहर से पच्चीस किलोमीटर दूर था. आज तो सारे शहरों की सड़कें शहर की सीमा से पच्चीस तीस किलोमीटर पहले से ही ट्रैफिक जैम से कराहती हुई लगती हैं. पर तब की सुनसान सड़कों के कारण लखनऊ शहर वहाँ से काले कोसों दूर लगता था. उन दिनों जब बसंती बयार दशहरी आम के बगीचों में आम के बौरों से छीनी हुई खुशबू अपने आँचल में भरकर, कामदेव के चलाये हुए पुष्पों के तीर पर सवार होकर हमारे हवाई बेस तक पहुँचती थी तो हम उसकी मस्ती में नहाकर सुदूर लखनऊ शहर की ओर रुख करते. लेकिन हमें दर्शन हो पाते थे केवल डामर से तपी हुई सड़क के दोनों तरफ फैले हुए सफेदा और दशहरी आम के बगीचों में रखवाली-चौकीदारी के लिए कंधे पर लाठी रखे हुए, बीडी का कश लगाते, खटिक बाग़बानों और चौकीदारों के. कन्या नाम से जाने वाली किसी वस्तु के दर्शन वहाँ दुर्लभ थे. शाम को शहर पहुँचते पहुँचते हमें इतनी देर हो जाती थी कि आई टी कोलेज और लखनऊ विश्वविद्यालय के कैलाश छात्रावास में रहने वाली सुंदरियां रात के लिए अपनी वार्डेन द्वारा अपने अपने दड़बों में क़ैद कर दी जाती थीं. डे-स्कोलर कन्याओं को वैसे ही लखनऊ में सूरज डूबने के पहले घर पहुँच जाने की सख्त हिदायत होती थी, वह भी तब, जब वे अपने घर-मोहल्ले के बाहर अपनी मम्मियों–चाचियों के बिना देखी ही नहीं जाती थीं. अगर उनके बिना दिखीं तो इस बात की गारंटी थी कि एस्कोर्ट ड्यूटी पर लगा हुआ उनका भाई इस शर्मनाक ड्यूटी से सकुचाया हुआ उनसे लगभग पंद्रह कदम की दूरी पर उनसे एकदम असम्पृक्त, असम्बद्ध भाव अपने चेहरे पर लेकर चल रहा होगा. उनकी इस चालाकी के जाल में फंसकर मेरे एक दो दोस्त अपनी पिटाई करवाने से मुश्किल से बचे थे. दो-एक और गिने चुने दोस्त हाथ पाँव तुडवाने का ख़तरा मोल लेकर किसी कन्या के साथ अपनी गोटी बैठा भी पाए तो उन्हें शिकायत बनी रहती थी कि लखनऊ की लड़कियां तो ज़ालिम इतने धीरे धीरे पेंग बढाती हैं कि रविवार को उनके साथ मैटिनी शो देख पाने तक की मंजिल हासिल करने से पहले ही अगली पोस्टिंग हो जायेगी. आखीर एक बेस पर हमारी नियुक्ति अधिक से अधिक ढाई तीन साल तक की ही तो होती थी. इस तरह से जिस लखनऊ से हम ‘लक-नाऊ’ की आशा कर रहे थे वह ‘लक-नेवर’ निकला. मेरी लखनऊ नियुक्ति के भी ढाई साल ख़ाक छानते ही गुज़र गए. हममें से किसी की किस्मत ऐसी नहीं निकली कि कह सके उसके लिए आई टी कोलेज में कोई ‘आई’ थी या अपने संग लोरेटो की किसी छात्रा को शान से दिखा कर कह सकता ‘लो-देखो’. बाकी लखनऊ की कन्या पाठशालाओं से हमको वैसे ही कोई लगाव नहीं था क्यूंकि उनकी भारतीय नारी की छवि वाली कन्याओं से हम छड़े फौजियों को भाव मिलने की कोई आशा नहीं थी.
लखनऊ के बाद मेरी अगली नियुक्ति हुई गौहाटी में. वहाँ वायुसेना का बेस था बोर्झार हवाई अड्डे पर. यहाँ शहर से दूरी ‘बक्शी का तालाब’ के मुकाबिले पच्चीस किलोमीटर से बढ़कर तीस हो गयी. एयर फ़ोर्स अफसरों के पास उन दिनों कारें तो होती नहीं थीं सिवाय स्क्वाड्रन कमांडर और फ्लाईट कमांडर को मिलनेवाली सरकारी गाड़ियों के. रॉयल एनफील्ड बुलेट और जावा मोटरसाइकिलें लगभग सारे अफसरों की पसंद की सवारी थीं. पर गौहाटी में, जो तब गुआहाटी नहीं हुआ था और आज भी मेरी याद में गौहाटी के रूप में ही बसा हुआ है,साल में छः महीने होने वाली बारिश में रेनकोट पहनकर तीस किलोमीटर दूर शहर जाना इतना कष्टदायक होता था कि सारा रोमांस ज़ुकाम में बह जाता, जो बचता वह छींकों के रास्ते उड़ जाता. बरसात के छः सात महीनों में हर साल सड़क बह जाती थी. उसके बाद अगली बरसात आने तक फिर से सड़क की मरम्मत होने की प्रक्रिया जारी रहती थी. रात का अन्धेरा वहाँ शाम के चार बजे से ही घिरने लगता था. ऐसी जगह में हम लोग दोपहर के खाने के थोड़ी देर बाद ही फुटबाल या क्रिकेट खेलकर जल्द घिर आने वाली रात की प्रतीक्षा करते थे. रात होते ही ब्रिज या रमी की टेबुलों पर हम जम जाते. वहाँ पैसों का दाँव लगाने की सख्त पाबंदी होने के बावजूद (या शायद इसके कारण ही, क्यूंकि उस उम्र में वही सब करने का सबसे अधिक मन करता है जिसे करने की मनाही हो) इतनी ऊंची स्टेक्स पर खेल होता कि कुछ अफसरों की मोटरसाइकिलें बिक गयीं. उनके लिए शहर जाना अब वैसे भी संभव नहीं हो पाता था. इस सीधी सादी मजबूरी से वे और भी ऊंची स्टेक्स पर रमी खेलने में जुट जाते थे. लड़कियों से रोमांस लड़ाने के चक्कर में उस थकाऊ पानी-बूंदी में पहले तो गौहाटी तक की दौड़ लगाओ और फिर उनकी खातिरदारी करने, घुमाने खिलाने के चक्रव्यूह में फंस कर मोटरसाइकिल बेचने की नौबत तक पहुँचो. इस घुमावदार तरीके की अपेक्षा मोटर साइकिलें बिकवाने के लिए सीधे सीधे ऊंची स्टेक्स पर रमी, पपलू खेलने का तरीका अधिक आसान और लोकप्रिय था.
क्रमशः ------