जो घर फूंके अपना
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दिन तो घूरे के भी पलटते हैं.
बात हो रही थी राष्ट्रीय प्रतिरक्षा अकादमी में प्रशिक्षण के उन दिनों की जबतक चीनी थलसेना ने हम फौजियों के जीवन में रोमांस की मिटटी पलीद नहीं की थी. मज़े की बात ये थी कि सिर्फ कैडेटों या नौजवान अफसरों की अक्ल पर रूमानियत का यह पर्दा नहीं पड़ा हुआ था. बाहर से झाँकने वालों की नज़रें भी उसी रूमानियत के परदे में फंसकर रह जाती थीं. इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह था कि उन दिनों एन डी ए या आई एम ए ( इन्डियन मिलिटरी अकादेमी ) में आनेवाले नौजवानों का एक बड़ा हिस्सा देश के चुनिन्दा पब्लिक स्कूलों से आता था. दून स्कूल, सिंधिया स्कूल, मेयो कालेज अजमेर, राजकुमार कोलेज राजकोट, सेंट पॉल दार्जिलिंग, सेंट कोलंबस, माडर्न स्कूल दिल्ली से लेकर छैल और कपूरथला से लेकर बैंगलोर व झूमरी तलैया तक फैले हुए सैनिक स्कूलों से सीनियर कैम्ब्रिज या हायर सेकेंडरी पास करके उनकी एक बड़ी संख्या फ़ौज की तरफ रुख करती थी. शायद इसके पीछे ये कारण भी था कि देशी स्कूलों के तेज़ छात्रों की तुलना में गणित, विज्ञान आदि बोर विषयों में अपनी कमजोरी को वे बॉक्सिंग, क्रिकेट, टेनिस, या स्क्वाश जैसे खेलों में प्रवीणता से और फर्राटेदार अंग्रेज़ी में स्लैंग्स और गालियाँ बकने में अपनी महारत से आसानी से ढँक लेते थे. इन क्षेत्रों में मुकाबला होता भी कैसे? स्क्वाश, बॉक्सिंग, गोल्फ जैसे अभिजात खेलों के तो दर्शन भी साधारण स्कूलों से आनेवाले लड़कों को नहीं हुए होते थे. अंग्रेज़ी गालियाँ और स्लैंग्स उन्हें पता ही नहीं होते थे. ये तो बाद में पता चलता था कि जिन संबोधनों से उन्हें बुलाया जाता था उनके शाब्दिक अर्थ क्या क्या थे. एन डी ए के मेरे साथियों में पटियाला के युवराज अमरिंदर सिंह से लेकर अनेक जेनरलों, एयर मार्शलों, राजदूतों व हाई कमिश्नरों के बेटे थे. हाँ राजनेताओं के पुत्रों का प्रतिनिधित्व पंजाब के तत्कालीन राज्यपाल भीमसेन सच्चर के पुत्र विजय सच्चर अकेले कर रहे थे.
अब तो हज़ारों में एक भी नेता का पुत्र फ़ौज की तरफ रुख नहीं करता है. हाँ,सुदूर भविष्य में देश के होनहार (?) नेता बनने वाले सुरेश कलमाडी अवश्य मेरे बैच के थे. वैसे बता तो दिया लेकिन ये राज़ खोलने के लिए अपने बैच के साथियों की नाराज़गी झेलनी पड़ेगी. बहरहाल इरादा ‘नेमड्रापिंग का नहीं, केवल नौजवानों की सोच में बदलाव दर्शाने का है कि जिस वर्ग का प्रतिनिधित्व तब अनेकों फ़ौजी करते थे उस वर्ग के नौजवान अब यदि फ़ौज में आना चाहें तो उन्हें सिरफिरा समझा जाता है. जिसका पिता खानदानी चुनाव क्षेत्र को गुडाई सिंचाई करके उपजाऊ बनाकर रखे या फिर आगे पढ़ाई करने के लिए विदेश भेजने का मार्ग प्रशस्त रखे ऐसा नौजवान यदि फ़ौजी नौकरी करके जीवन बर्बाद करना चाहे तो उसे स्वप्नदृष्टा मूर्ख ही तो कहा जायगा. मेरी बात में शक हो तो सैनिक स्कूल में पढाई करके भी बरास्ता विदेशी विश्वविद्यालय मुख्यमंत्री की गद्दी तक पहुँचने वाले अखिलेश यादव जी से पूछ कर देख लीजिये.
1948 से 1962 तक के चौदह स्वर्णिम वर्षों का शीशा चीन के आक्रमण से 1962 में चटक तो गया ही था. उसके तीन वर्ष बाद 1965 के भारत पाक युद्ध में फौजियों ने युद्ध में अच्छा प्रदर्शन करके चीनी अपमान की कड़वाहट तो मिटा डाली लेकिन फ़ौजी नौकरी और मौत की करीबी रिश्तेदारी का राज़ जगजाहिर हो गया. इस युद्ध और 1971 के भारत-पाक युद्ध के बीच की केवल छः वर्षों की अवधि बहुत छोटी सी थी. अतः 1965 तक कन्याओं और उनके अभिभावकों के मन में फौजियों से रिश्ते बनाने के बारे में कोई संदेह रह भी गया हो तो 1971 के भारत पाक युद्ध ने उनके मन के हर कोने को झाडू लगाकर पूरी तरह से साफ़ कर दिया. इस युद्ध में शहीद होने वाले अफसरों का जवानों की अपेक्षा अनुपात बहुत अधिक था. अब सोचिये कि यदि एक भारतीय शहीद के पीछे सिर्फ पांच विवाह योग्य कन्याओं ने या उनके अभिभावकों ने कसम खाई कि उनकी शादी के लिए किसी फ़ौजी के चक्कर में नहीं पड़ेंगे तो पाकिस्तान में क्या होना चाहिए था जहां एक साथ अट्ठानबे हज़ार सैनिकों ने भारतीय सेना के आगे जीवित छोड़ देने की भिक्षा मांगते हुए ढाका में आत्म समर्पण किया था. पर आपका कयास बिलकुल ग़लत निकलेगा. पाकिस्तानी फ़ौजी ज़्यादा समझदार हैं. अपने देश के राजनीतिक नेताओं को ऐसा फिट करके रखते हैं कि उनके जी क्यू ( ग्लेमर कोटियेंट ) पर युद्ध में हारने पिटने से कोई खरोंच नहीं पड़ती है. तभी तो उनकी आंखों में सुरमे की तरह छिपाकर रखे गए ओसामा बिन लादेन को अमेरिकी चोर चुरा ले गए पर भाइयों की मूंछ की, सॉरी, दाढी की ऐंठ में कोई फर्क नहीं पडा. सच्चे अर्थों में सेना ‘स्वर्गवास’ कहीं करती है तो पाकिस्तान में.
बहरहाल, त्सुनामी से तबाह हुए क्षेत्रों में भी जीवन धीरे-धीरे फिर अंकुरित होकर हरियाने लगता है. अतः फ़ौजी कुंवारों के दिन भी धीरे धीरे करके फिरने लगे. एक काफी लंबा अंतराल रहा 1971 के बाद 1998 तक जब कारगिल में युद्ध की त्सुनामी फिर से आई. तब तक एक पूरी पीढी 1971 के युद्ध के बाद पैदा होकर जवान हो गयी थी जिसकी कुंवारी कन्याओं ने युद्ध में शहीद होते फौजियों को और सुहाग की चूड़ियाँ फोड़ती हुई उनकी विधवाओं को नहीं देखा था. पर इस पीढी के साथ एक नए प्रकार का कष्ट पैदा हो गया. हुआ ये कि इसी दौरान “ इंडिया शाइनिंग“ हो गया. कार्पोरेट सेक्टर के वेतनमान कारगिल के पर्वतों के पार मार करने वाली तोपों की ऊंची ट्रेजेक्टरी वाले गोलों से भी ऊंची उड़ान भरने लगे. बस एक राहत मिल सकी कार्पोरेट सेक्टर की इस बदनामी से कि उसकी बहुदेशीय कम्पनियां एक आदमी को दो के बराबर वेतन देती हैं पर उससे काम लेती हैं तीन चार आदमियों का. सबसे उपजाऊ आई टी सेक्टर के चाँद जैसे चेहरे पर इस बदनामी का दाग़ लगा हुआ था कि उसमे नववधू सूनी सेजिया पर करवटें बदल बदल कर लता मंगेशकर के विरह-वेदना रस टपकाते गीतों को अकेले गा गा कर अपना सुरीला गला बैठा लेती है और अनाडी पिया कम्प्यूटर के सामने बैठकर अपने विदेशी आकाओं से स्पाईक का कान्फरेन्स कॉल लगाकर नैन मटक्का खेलने में व्यस्त रहते हैं. इसी के साथ फौजियों को एक राहत सरकार की तरफ से मिली. अधिकाँश फ़ौजी ठिकानों पर उन्हें परिवार के बिना बैरकों में जो रातें काटनी पड़ती थीं उन रातों के अकेलेपन में परिवारीय आवासों के बनने से चोट पडी. नॉन फमिली स्टेशंस अर्थात ‘’जबरन ब्रह्मचारी’’ क्षेत्रों की संख्या में काफी कमी आई. इसी के साथ लगातार ‘परदेसी पिया‘ राग अलापने वाली फ़ौजी विरहिणी पत्नियों को ‘गले में खिचखिच’ से थोड़ी राहत मिली.
इस प्रकार फ़ौज को सत्ताईस सालों (1971 से 1998) तक का एक बड़ा लंबा अंतराल मिल गया शान्ति के दौर का. एक बार फिर से विवाह योग्य कन्याओं को फौजियों के कन्धों पर जड़े सितारों में थोड़ी चमक दिखने लगी. पर प्रायः देखा जाता है कि अमेरिकन आर्थिक सहायता की तरह से भगवान् भी एक हाथ से कुछ देता है तो दूसरा हाथ फ़टाफ़ट कुछ वापस लेने के लिए बढ़ा देता है. तो इसके पहले कि यह शांतिपर्व फौजियों के कन्धों के सितारों को पूरी तरह से कन्याओं की आँखों की चमक में बदल पाता फ़ौज ने स्वयम लड़कियों को कमीशन देने का आत्मघाती कदम उठा लिया.
जब लडकियां स्वयं कमीशंड अफसर बनने लगीं तो बहुतेरी अच्छी–भली, स्मार्ट लड़कियों ने ऐसे रंगीन सपने देखने बंद कर दिए जिनमे सजीले- गठीले फ़ौजी जवान सीने पर बहादुरी के लिए मिले मेडल्स चमकाते हुए, उनके सामने ‘नाईट – इन – आर्मर’ वाली मुद्रा में ज़मीन पर घुटने टेक कर हथेली में अपना दिल पेश करते दिखाई पड़ते थे. वे अब सपनों में स्वयं को फ़ौजी वर्दी पहन कर गणतंत्र दिवस की परेड में उन्ही सजीले जवानों की टुकड़ी के मुखिया के रूप में मार्च करते हुए देखने लगीं. फिर वह दिन भी आया जब उन्होंने अपने सर्वोच्च कमांडर अर्थात राष्ट्रपति की जगह सारी के पल्लू से सर ढंककर खड़ी हुई एक दादी-नानी जैसी दीखने वाली महिला को देखा. नंगी तलवार झुका कर किये हुए उनके सल्यूट का जवाब देने की प्रतिभा जब श्रीमती पाटिल में आ गयी तब ये फ़ौजी बालाएं भी अपने कुंवारे बदन को किसी फ़ौजी अफसर की बलिष्ठ बांहों में कसमसाते हुए दिखाने वाले सपने की जगह बायोनेट लगी राइफल हाथों में पकड़ कर पुरुष शत्रुओं की तरफ चार्ज करने के सपने देखने लगीं. भला ये आधुनिक झांसी की रानियाँ अपने प्रतिद्वंदी फ़ौजी अफसर की बांहों में आत्मसमर्पण की क्यों सोचेंगी.
शांति के दिनों में फ़ौजी अफसर की एक बहुत भारी और कठिन जम्मेदारी होती है अपने अधीनस्थों को व्यस्त रखने की. तमाम अनाप शनाप कार्यों को बेहद आवश्यक बताते हुए अपने मातहतों को हर समय जोते रखना भी एक बड़ी आवश्यकता होती है ताकि उनके खाली दिमाग शैतान का डेरा न बनने पायें. वैसे इसके पीछे एक गंभीर और वास्तविक मजबूरी भी होती है जिसके चलते फौजियों को शान्ति के दिनों में भी काफी व्यस्त रखा जाता है. युद्ध संचालन के कौशल में लगातार होते हुए परिवर्तनों को समझना ज़ुरूरी होता है. नए नए हवाई जहाज़ों, तोपों, टैंकों, पनडुब्बियों और विमानवाहक जहाज़ों के सशस्त्र सेनाओं में लिए जाने की निरंतर चलती प्रक्रिया के कारण उनके रख रखाव और संचालन का प्रशिक्षण लेने की अनिवार्य आवश्यकता शांतिपर्व में उत्पात मचाये रखती है. परिणामतः आधे फ़ौजी अफसर शान्ति के दिनों में कोई न कोई कोर्स करते रहते हैं. अब कुछ बालाएं स्वयं फ़ौजी वर्दी पहनने के बावजूद ग़लती से भूले भटके किसी फ़ौजी की बांहों में आत्मसमर्पण का मीठा सपना देख भी लेतीं तो नींद खुलने पर उनके सामने ये प्रश्न मुंह बाए खडा होता कि जब वे स्वयं कोई कोर्स करती रहेंगी और उनका फ़ौजी पति कहीं और कोई दूसरा कोर्स करता रहेगा तो फिर वो वाला कोर्स करने का अवसर कब मिलेगा जिसके खटमिट्ठे सपने उन्हें मैट्रिक तक पहुँचते पहुँचते ही आने लगे थे.
क्रमशः --------