जो घर फूंके अपना - 7 - गौहाटी की अंधेरी रातों में बिजली की चमकार Arunendra Nath Verma द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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जो घर फूंके अपना - 7 - गौहाटी की अंधेरी रातों में बिजली की चमकार

जो घर फूंके अपना

7

गौहाटी की अंधेरी रातों में बिजली की चमकार

बरुआ दम्पति ने गौहाटी के संभ्रांत समाज में वायुसेना के अफसरों की किन शब्दों में तारीफ़ की ये तो नहीं मालूम किन्तु नटराजन के उस अभागे निमंत्रण के बाद गौहाटी के ऑफिसर्स मेस में मुर्दनी छा गयी. वे नौजवान अफसर जिन्होंने बरुआ कन्याओं और उनकी सहेलियों के साथ थोड़ी बहुत पेंगें बढ़ाई थीं लुटे लुटे से दीखते थे. कइयों ने उनसे फोन पर संपर्क साधने का प्रयास भी किया पर हर बार उत्तर मिलता था कि वे घर पर नहीं हैं. भारतीय दूरसंचार के आकाश से मोबाइलों की जो धुआंधार बारिश अब हो रही है वह तब तक प्रारम्भ नहीं हुई थी. कन्याएं हर समय मोबाइल कान पर लगाए, ग्रीवा टेढ़ी किये, भरत-नाट्यम मुद्रा में अपने चाहनेवालों से बातें करने में व्यस्त नहीं रहती थीं. अंग्रेज़ी भाषा की टांग तोड़कर, उसकी भस्म बनाकर उसे एस एम एस की भाषा में परिवर्तित करने वाला अद्भुत आविष्कार अभी तक नहीं हुआ था. अलौकिक आनंद देनेवाली एम् एम् एस और व्हाट्स ऐप की रंगीन क्लिपों के दैविक वरदान से भी वे पूर्णतः अपरिचित थीं. मध्यवर्गीय घरों में फोन प्रायः उपलब्ध नहीं होते थे. होते भी थे तो उनपर युवा संतानों का, विशेषकर लड़कियों का, ज़्यादा देर तक हंस हंस कर बात करना उनके खडूस पिताओं को फिजूलखर्ची और उनकी शंकालु माताओं को बेहयाई लगती थी. उच्च-मध्यम वर्ग और उच्चवर्ग के घरों में एक और परेशानी थी, उनमे टेलीफोन समृद्धि का शिकार था. ऐसे घरों में अधिकांशतः घरेलू नौकरों के जिम्मे घंटी बजने पर फोन उठाने का काम होता था. उन्हें हिदायत होती थी कि ‘बेबी’ को फोन पर कोई ‘बाबा’ बुलाये तो पहले मेम साहेब को सूचित करें और लाल झंडी दिखाने पर ‘बेबी’ को हवा भी न लगने दी जाए कि किसी का फोन आया था. दूरसंचार जब इतना कमज़ोर था तो युवाओं के जीवन में रोमांस का संचार कैसे हो पाता?

गौहाटी में मेरी नियुक्ति के कुछ ही महीने बाद, वहाँ जो दो मौसम होते थे उनमे से पहला, अर्थात छह सात महीने तक लगातार बरसात से सड़कों को बहा ले जाने वाला मौसम समाप्त हो गया. उसकी जगह दूसरा वाला अर्थात बही हुई सड़कों को ढूंढकर लाने और उन्हें बड़े बड़े गड्ढों में फिट करने वाला मौसम आ गया. उसके साथ ही आया दुर्गा पूजा का मौसम. गौहाटी में दुर्गा पूजा अत्यंत उमंग, उल्लास और श्रद्धा के साथ मनाई जाती है, यह हमारे लिए बड़ा सुखद समाचार निकला. गौहाटी शहर में जगह जगह पर पूजा के सुन्दर पंडाल स्थापित होने लगे. पंडालों में माँ दुर्गा की मूर्तियाँ स्थापित होने लगीं और रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रमों से गौहाटी की संध्याएँ नृत्य-संगीतमय होने लगीं. पहले तो मात्र कौतूहल से मेरे कुछ दोस्त पूजा के अनुष्ठान देखने गए. पर जब उन्होंने लौटकर पूजा पंडालों में आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रमों में आनेवाली और भाग लेनेवाली असमिया सुंदरियों का नखशिख वर्णन चटखारे ले लेकर किया तो अचानक हमारे साथियों में माँ दुर्गा की भक्ति का ज़बरदस्त ज्वार उठा. इस भक्ति ज्वार में डूबते उतराते लोगों में से जिन जिन की मोटरसाइकिलें रमी और पपलू की बाढ़ में बहकर बिकने से बची हुई थीं उन्होंने फिर से अपनी बुलेट और जावा मोटर साइकिलों पर गौहाटी जाकर पूजा पंडालों में श्रद्धा सुमन चढाने का अभियान प्रारम्भ कर दिया. पर इन गरीबों को जल्दी समझ में आ गया कि भारतीय वायु सेना का मोटो ‘नभः स्पृशम दीप्तम’ अर्थात ‘नभ को छूकर प्रदीप्त कर दो’ गौहाटी को मद्देनज़र रखकर चुना गया था. आशय स्पष्ट था कि नभ में उड़ना हो शौक से उड़ लो लेकिन सड़कों से दूर रहो. वे धराशायी करने के लिए बनाई गई हैं. यदि तुम इनपर सावधानी से लंगडी चाल से कूदते हुए पैदल चलने के बजाय मोटर साइकिल चलाओगे तो तुम और तुम्हारी मोटरसाइकिल दोनों को सरे शाम बिखरे अँधेरे को भगाकर धरा को प्रदीप्त करने के पावन कार्य में जुटना होगा. नभ का स्पर्श करने का अवसर ही नहीं मिलेगा. असम की खूंख्वार सड़कों पर मोटर बाइक चलाने पर पहियों की रिम से लेकर अपने घुटनों, पिंडलियों और कुहनियों तक किसी की या सब की आहुति तो देनी ही पड़ेगी. यही हुआ. खासी नौजवानों की तरह असमिया नवयुवकों को वायुसेना के नौजवान अफसरों से दो- दो हाथ करने की नौबत ही नहीं आयी. बेचारे वायुसेना के अफसरों ने सड़कों के हवनकुंड में उपरोक्त सामग्री की आहुति दी और प्रसाद के रूप में अपनी घुटनों पर फटी हुई पैंटें और कुहनियों पर चिथड़ा हुई कमीजें पाकर अपनी साधना की इतिश्री समझी. पूजा का मौसम आकर चला गया पर मनोवांछित वरदान किसी को नहीं मिल पाया.

इधर बेचारा नटराजन शायद अपना ग़म ग़लत करने के लिए मेस–सेक्रेटरी की हैसियत से ऑफिसर्स मेस का सुधार करने में दिलोजान से जुट गया. कभी मेस के रसोइयों को डांटते हुए बताता कि उत्तर भारतीय दाल और दक्षिण भारतीय साम्भर में सिर्फ नाम का ही नहीं स्वाद का भी अंतर होना चाहिए, चिकेन-मसाला और कढ़ाई चिकेन के स्वाद में कम से कम इतना अंतर तो होना चाहिए जितना हेलीकोप्टर और डकोटा विमान में होता है. मेस के रसोइये जिस वायुसेना की दुनिया में रहते थे उसमे इससे अच्छा उदाहरण दे कर उन्हें समझाया नहीं जा सकता था. पर वे नटराजन को अपनी बात समझा सकने में असमर्थ रहते थे. वायुसेना के भारत भर में फैले हुए मेसों में यही तो एक विशेषता थी कि हर मेस के खाने में एक जैसा स्वाद होता था. इस उपलब्धि को ऐसी ऊंचाइयों पर पहुंचाया जा चुका था कि सामिष हो या आमिष, हर व्यंजन का स्वाद भी एक जैसा ही लगता था. हाँ कुछ व्यंजन ऐसे भी थे जो भारत के किस हिस्से की पाककला का परिचायक है “कोई पूछे तो बताये न बने. ” दिन मे तो नहीं पर रात में डाइनिंग हाल में जाने से पहले हम लोग ‘बार’ में मत्था टेकने के बाद ही खाने के लिए आगे बढ़ते थे ताकि उसके प्रभाव से सुखे -दुखे समे कृत्वा करते हुए, हर प्रकार के भोजन को समभाव से एक योगी की तरह से ग्रहण किया जा सके. पर वही रसोइये विशेष अवसरों पर अर्थात पार्टियों में अपना समाजवादी तरीका त्याग करके बहुत अच्छा खाना दे पाते थे. वैसे इसके एक नहीं दो कारण थे. पहला ये कि ऐसे अवसरों पर स्टेशन कमांडर और स्क्वाड्रन कमांडर आदि वरिष्ठ अधिकारी जो अपने परिवारों के साथ बाहर रहते थे मेस में आते थे. अच्छा बुरा अपने आप में कुछ नहीं होता है, सब कुछ केवल तुलनात्मक होता है अतः उन्हें भी अपनी पत्नियों की पाककला से छुटकारा दिलाने वाले उस एक दिन मेस का खाना स्वादिष्ट लगता होगा. अविवाहित नौजवान अफसर पार्टी आदि अवसरों पर ‘बार’ का लाभ बार-बार उठाने के बाद खाने के स्वाद का मूल्यांकन करने वाली अपनी ‘बार’ नीची कर लेते थे. दूसरा और असली कारण ये भी हो सकता था कि फौज की पुरानी परिपाटी के अनुसार ऐसी पार्टियों के बाद सी ओ साहेब मुख्य रसोइये को शाबाशी देते थे, उससे हाथ मिलाते थे और उसकी टीम के लिए ट्रिपल-एक्स रम की कुछ बोतलों का उपहार देते थे. इस रस्म में खाने के स्वाद की कोई अहमियत नहीं थी. ये मान कर चलने की परम्परा थी कि भोजन बहुत स्वादिष्ट बना था. उसी तरह जैसे शोक सभाओं में दिवंगत को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए मान कर चलना होता है कि उसके जैसी महान आत्माए कई युगों में एक बार जन्म लेती हैं भले ही लोगों के मन में ये सवाल हो कि ऐसे लोगों को भगवान् जन्म देता ही क्यूँ है. नटराजन इतना मूर्ख नहीं था कि उसे मेस के रसोइयों के हाथ का स्वाद सचमुच बदल देने की आशा हो. यह तो वह केवल इस उम्मीद से करता था कि उससे नाराज़ साथी अफसर उसकी मेहनत और लगन को देखते हुए उसे पुरानी दुर्घटनाओं के लिए माफ़ कर देंगे. मेस के रसोइये ही उसके कठिन परिश्रम के शिकार नहीं थे. उनसे निपटने के बाद वेटरों को फटकारने का नंबर आता था. फिर अंत में नटराजन के मन के अन्दर कई परतों में छिपा रहस्य फ्रायड की याद दिलाता हुआ उजागर हो जाता था जब वह बार में आबदार को ललकारते हुए कहता था कि वे व्हिस्की ग्लासों को इतना चमकाएं कि उनमे असमिया सुंदरियों की आँखों जैसी चमक पैदा हो जाए.

पर एक दिन जब लोगों ने उसे मेस लॉन के किनारे हाथ में गोल घुमाने वाला फीता लिए कुछ नाप जोख करते देखा तो सबका माथा ठनका. अटकलें लगनी शुरू हुईं. किसी ने कहा शायद वहाँ स्विमिंग पूल बने, किसी ने टेनिस कोर्ट का अंदाज लगाया. नटराजन से पूछा गया तो उसने बड़े रहस्यात्मक ढंग से मुस्कराते हुए कहा “तुम लोग अपना अपना निष्कर्ष निकालने के लिए ‘मुफ्त‘ हो. ” यार लोगों ने उसे दो चार गालियाँ देते हुए समझाया कि हम लोग अपने निष्कर्ष निकालने के लिए स्वतंत्र तो थे पर ‘मुफ्त‘ नहीं. मुफ्त में तो हम लोग उसकी हिन्दी के चक्कर में शहीद हुए थे. पर कुछ लोगों ने हिन्दी सीखने की उसकी प्रतिबद्धता की तारीफ की तो खुश हो गया. बोला “स्टेशन कमांडर साहेब ने कहा है कि मेस में कवर्ड बैडमिन्टन कोर्ट बनाने के लिए सैंक्शन मिल गया है पर बनने में कई महीने लग जायेंगे. अतः तब तक तात्कालिक व्यवस्था के रूप में एक खुला अर्थात ओपन-एयर बैडमिन्टन कोर्ट जल्दी से जल्दी बन जाए. हम सबको थोड़ा आश्चर्य हुआ. स्टेशन कमांडर साहेब टेनिस का तो शौक रखते थे पर बैडमिन्टन में उन्होंने कभी दिलचस्पी नहीं दिखाई थी. वे रिटायरमेंट के पास पहुँच रहे थे. गौहाटी में वे और उनकी पत्नी रहते थे. उनके बच्चे जो किशोर वय के होंगे दिल्ली में पढ़ रहे थे यह हमने सुना था पर उन्हें स्वयं आये हुए कुछ ही महीने हुए थे. उनके बच्चे कितने हैं, क्या कर रहे हैं यह हमलोग नहीं जानते थे. पर कोर्ट के जल्दी से जल्दी बनाने वाली बात पर ध्यान दिया गया तो समझ में आया कि दिल्ली के कालेजों में जो शीतकालीन छुट्टियाँ होती हैं उसी के प्रारम्भ होने से पहले कोर्ट तैयार कराने में इतनी मुस्तैदी दिखाई जा रही थी. और उन कोलेजों में कौन पढता होगा? इस सवाल के जवाब में एकस्वर से सबका ख्याल था –“स्टेशन कमांडर साहेब की बेटी या बेटियां,”क्या सचमुच गौहाटी की अंधेरी रातों में चकाचौंध भर देने के लिए कोई बिजली आकाश में चमकेगी?

क्रमशः -------