जो घर फूंके अपना - 9 - चल खुसरो घर आपने, रैन भई चहुँ देस Arunendra Nath Verma द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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जो घर फूंके अपना - 9 - चल खुसरो घर आपने, रैन भई चहुँ देस

जो घर फूंके अपना

9

चल खुसरो घर आपने, रैन भई चहुँ देस

बैडमिन्टन का नशा ठीक से चढ़ने से पहले ही उतर गया. जवानी दीवानी उदास हुई तो आसानी से मुस्करा न सकी. दो एक महीनों के बाद ही आया नया साल. मेस में पार्टी के साथ उसका स्वागत हुआ. पर वह पहले जैसी बात कहाँ? फिर दो तीन महीनों के बाद “बीहू“ का उत्सव आ गया. असम का फाल्गुनी उत्सव. धान की फसल पकने के उल्लास का उत्सव. केदार नाथ अग्रवाल की बेहद खूबसूरत कविता ‘ बसन्ती हवा’ के बोलों पर इठलाकर झूमने नाचने का उत्सव. बीहू नृत्य में गोल गोल घेरों में दोनों हाथ पीठ के पीछे बांधकर अत्यंत कमनीय और उत्तेजनात्मक ढंग से अपने कंधे उचकाते हुए, बांसुरी की धुन और ढोल की थाप पर थिरकने वाली नवयुवतियों के आह्लाद का उत्सव. किन्तु जिन थिरकते मदमाते नृत्यों को देखने की हम आस लगाए बैठे थे वे शायद केवल गणतंत्र दिवस पर आयोजित लोक नृत्य समारोहों में या उस पर बने वृत्त चित्रों में ही दीखते हैं. असम की राजधानी के किसी सभागार में किसी मंत्री का अभिनन्दन करने के लिए बीहू नृत्य होता हो तो हो, पर हम जो अपने हवाई बेस के इर्द गिर्द फैले गाँवों और बस्तियों में वह नृत्य देखने की आस लगाए बैठे थे, केवल कल्पना ही करते रह गए. बीहू के दिन उन गाँवों में नित्य की अपेक्षा केवल एक अंतर दिखा- वहाँ के निर्धन किसान उस दिन रोज़ से कुछ अधिक कच्ची सुपारी चबाकर थूकते हुए और देशी शराब का रोज़ से अधिक सेवन करके नारियल व सुपारी के हवा में लहराते हुए पेड़ों के नीचे पसरकर सोते हुए मिले. वसंत आया और आ कर चला गया. “अबके भी दिन बहार के यूँ ही गुज़र गए. ”

फिर गर्मी की ऋतु आ गयी. फ़ौज का सबसे बड़ा ‘पर्क’ या सुविधा वार्षिक अवकाश है. वैसे तो पूरे साठ दिन के वार्षिक अवकाश का प्रावधान है पर जो अफसर अपनी यूनिट के आधार-स्तम्भ होते हैं उन्हें पूरी छुट्टी कभी नहीं मिल पाती है. प्रायः सी. ओ. की निगाहों में किसी अफसर का कितना महत्व है इसका अंदाज़ इस बात से लगाया जा सकता है कि उसे कितनी कम छुट्टी मिलती है. इसीलिये मुझे पूरे दो महीने की छुट्टी पाकर थोड़ी सी शर्म और बहुत सी खुशी हुई. लेकिन घर पर किसे पता थी यह शर्म वाली बात. वार्षिक अवकाश लेकर मैं अपने घर गाजीपुर आ गया.

जेठ बैसाख की तपती दोपहरी में जिन सडकों पर कभी झाडू नहीं लगती उनकी धूल के बवंडरों से आच्छादित आकाश वाले उस छोटे से शहर में दिन-दिन भर और कभी-कभी रात-रात भर गायब रहने वाली विद्युत् आपूर्ति के मौसम में वार्षिक अवकाश पर जाने की मेरी कुछ मजबूरियां थीं. पहली तो ये कि मेरे बड़े भाई जो उन दिनों हैदराबाद में थे और दोनों बड़ी बहनें जो क्रमशः बंबई और पटना में थीं अपने बच्चों के विद्यालयों में होने वाले ग्रीष्मावकाश में ही गाजीपुर आने का समय निकाल पाते थे. पहले तो भाई साहेब और जीजाजी कुछ दिन बिताकर वापस चले जाते थे और मेरे भांजे-भतीजियाँ बाकी का पूरा ग्रीष्मावकाश अपनी माताओं के साथ गाजीपुर में ही बिताते थे. पर अब जबकि वे चौथी पांचवीं जैसी ‘ऊंची’ कक्षाओं में पहुँच गए थे तो भविष्य में इंजीनियर या डॉक्टर बनाने के उद्देश्य से उन्हें अभी से आई आई टी व संयुक्त मेडिकल कोलेजों की प्रवेश परीक्षाओं के लिए कोचिंग क्लासेज़ में भरती करा दिया गया था. मैं कोई अतिशयोक्ति नहीं कर रहा हूँ, मेरी भाभी तो पहले बच्चे के गर्भ में आने के साथ ही अभिमन्यु की कथा से प्रेरित होकर ब्रिलिएंट ट्युटोरियल या अग्रवाल क्लासेज़ (उन दिनों आज के आकाश इन्स्टीच्यूट की तरह ये दो ही शीर्ष पर थे) में कोचिंग के लिए स्वयं जाने की योजना बना रही थीं कि गर्भ में सोते भ्रूण को अभी से उनके रक्त में घुल मिलकर उनकी नाभिनाल के द्वारा विज्ञान और गणित के जूस का पथ्य मिल सके. आकाश पर अभी आकाश इंस्टीच्यूट का धूमकेतु नहीं चमका था, कोटा शहर के लिए हर अखिल भारतीय प्रतियोगिता में सुनिश्चित कोटा नहीं अलोट हुआ था कि वह ऐसी प्रतियोगिताओं की राजधानी के रूप में जाना जाए. इसके अतिरिक्त गली गली में खद्योत की तरह ‘जंह-तंह करत प्रकास’ वाले कोचिंग इंस्टीच्यूट अभी तक नहीं उग पाए थे. हाँ तो भाभी की बात हो रही थी जो गर्भ धारण करने के बाद स्वयं कोचिंग क्लासेज़ में भरती होना चाह रही थीं. पर उन्हें धीरज रखने के लिए कहा गया. समझाया गया कि जन्म होने से पहले ही बच्चे का प्रवेश केवल देश के सबसे ख्यातिप्राप्त पब्लिक स्कूलों में ही हो सकता है. पर चूँकि हमारे परिवार के अधिकाँश लोग ईमानदारी की बीमारी के सताए हुए बेहद ग़रीब क्लास वन अर्थात प्रथम श्रेणी के सरकारी अधिकारी थे इसलिए उन स्कूलों में होने वाले बच्चे का दाखिला नहीं करा सके जहां एक बार घुस लिए तो देश के प्रधानमंत्री पद तक पहुँचने या कम से कम प्रधान मंत्री के सहपाठी मित्र होने की संभावनाएं बहुत बढ़ जाती थीं. मेरे भाई साहेब तो कुछ दे-दिलाकर भी किसी नामी कोचिंग इंस्टीच्यूट में मेरी तीसरे दर्जे में पढने वाली भतीजी को आई आई टी की कोचिंग में दाखिला नहीं दिला सके. उनको सलाह दी गयी कि अभी एक साल और प्रतीक्षा कर लें. अंतरिम व्यवस्था के रूप में उस बच्ची को ग्रीष्मावकाश में संगीत, नृत्य, पेंटिंग, स्केटिंग, तैराकी,टेनिस और अंग्रेज़ी संभाषण की कोचिंग क्लासेज़ में भरती करा दिया गया था. अंग्रेज़ी संभाषण की कोचिंग कक्षाओं में उसका दाखिला कराने के ठोस कारण थे. वैसे तो वह पहले से ही अंग्रेज़ी माध्यम स्कूल में पढ़ रही थी और स्वयं अंग्रेज़ी बोलने में सक्षम भाभी और भाई साहेब उसे डांट-मार कर केवल अंग्रेज़ी में बात करने के लिए बाध्य करते ही थे. पर इसके बावजूद अंग्रेज़ी बोलने की कोचिंग में दाखिला इसलिए कराया गया क्यूंकि भाभी के अनुसार परिवार में सब लोगों का अंग्रेज़ी का उच्चारण बहुत विकृत था. उन्हें शिकायत थी कि सबकी समझ में आ जाता था कि बिटिया क्या कह रही है. भाभी को अंग्रेज़ी अर्थात हॉलीवडीया फिल्मों में आधा संभाषण अब तक समझ में नहीं आ पाता था. उनकी हार्दिक इच्छा थी कि उनके बच्चे भी होंठ भींचकर नाक से स्वर निकालते हुए ऐसे ही बात करें और जहां तक संभव हो एक दूसरे को “अरे चुन्नू या मुन्नू” न कह कर “हे ड्यूड”‘ या “लिसेन गाइज एन गैल्स” कह कर संबोधित किया करें. इसके अतिरिक्त भाभी उसे पत्रकारिता यानी जर्नलिज्म का डिप्लोमा भी दिलवाना चाहती थीं पर बताया गया कि उसके लिए भी वह अभी छोटी थी. पुलिसवालों और नेताओं के किराए पर लिए हुए गुंडों से पिटने के लिए शारीरिक बल की कसौटी पर वह अभी खरी नहीं उतर सकती थी. कुछ दिन दंड बैठक लगाकर, व्यायाम करके सेहत बनाए फिर अगले वर्ष देखेंगे. हाँ तब तक चाहे तो तरला दलाल के कुकरी क्लासेज़ में दाखिला ले ले. पर भाभी ने कहा कि लड़का होता तो उसे दाखिला दिलवा देतीं पर लडकी को खाना बनाने की कला सिखाने से सब लोग उसे पिछड़े वर्ग की समझेंगे. फिर आगे चलकर शादी ब्याह के बाद यह सब करने के लिए पति तो होगा ही. खैर,मैं थोड़ा बहक गया. अभी तो केवल ये बताना था कि ये सभी लोग ग्रीष्मावकाश में ही गाजीपुर आ पाते थे और वह भी केवल आठ दस दिनों के लिए.

गर्मी के दिनों में वार्षिक छुट्टी लेने का दूसरा कारण मेरा खरबूजे, तरबूजे और आम के प्रति प्रेम था. गाजीपुर के गंगातट पर बिछे रेतीले खेतों में खरबूजे, तरबूजे बहुत मीठे और बहुतायत से होते थे. मशहूर बनारसी लंगडा आम गाजीपुर में उतना ही मीठा, स्वादिष्ट और पतली गुठली और पतले छिलके का होता है जितना बनारस में. पर गाजीपुर में विदेशों में भेजने की सुविधा लगभग नहीं के बराबर होने के कारण बढ़िया लंगडा बहुतायत से मिलता है. बनारस में तो बाहर भेजने की सब सुविधाएं हैं अतः वहाँ का लंगडा आम सुदूर विदेशों तक भेजा जाता है. फिर दिए तले अन्धेरा के प्रमाण के रूप में बहुत कम और घटिया श्रेणी का छटा हुआ माल ही वहाँ मिलता है. इसके बावजूद बढ़िया लंगडा बनारसी मशहूर है, गाजीपुरी नहीं. बनारस वालों का बस चलता तो गाजीपुरी आम को ‘दो टांगो वाला’ कह कर उसका मज़ाक उड़ाते, लंगडा नहीं कहते.

पर केवल आम के सहारे पूरा दो महीने का अवकाश शायद आम के प्रख्यात शौक़ीन चचा ग़ालिब भी नहीं बिता पाते. उन्हें भी मुंह में आम की मीठास का स्वाद बदलने के लिए शराब के घूँट बीच बीच में लेने की ज़ुरूरत पड़ती थी फिर मैं किस खेत की मूली था. गाजीपुर में मेरे बचपन के साथी, सहपाठी नहीं रह गए थे. सभी नौकरी धंधे के चक्कर में दूर दूर बिखर गए थे. इस लिए इस बार छुट्टियों में भाई बहन और उनके बच्चे आठ दस दिन ददिहाल, ननिहाल में धूम मचाकर वापस चले गए तो मुझे अकेलापन बहुत सालने लगा. माँ अपने हाथों से स्वादिष्ट बना कर खिलाने के चक्कर में रसोई में घुसी रहती थीं. पिताजी जो डॉक्टर थे मेरे साथ सुबह नाश्ते पर समय बिताकर अपनी क्लिनिक चले जाते. मैं बैठकर उपन्यास, कहानी,पत्र, पत्रिकाएं पढ़ते पढ़ते थक जाता. आम खरबूजे समय काटने में सहायक तो थे नहीं. मैं मिर्ज़ा ग़ालिब हूँ नहीं कि आम के सहारे सारी दोपहरी और शराब और शायरी के सहारे सारी शामें काट लेता.

क्रमशः ----------