जो घर फूंके अपना - 36 - डूबना कमल सरोवर में रोमांस का Arunendra Nath Verma द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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जो घर फूंके अपना - 36 - डूबना कमल सरोवर में रोमांस का

जो घर फूंके अपना

36

डूबना कमल सरोवर में रोमांस का

बारहवीं की गणित की परीक्षा का वह दिन और आज का दिन ! मुझे अच्छी तरह समझ में आ गया है कि मेरे दिमाग की बनावट भी उस बाल्टी के जैसी त्रिशंकु के आकार की है जिसमे गणित का गोला कभी पूरी तरह नहीं समाएगा, बीच में फंसेगा ज़रूर. आज भी अपने शहर की दीवारों पर मरदाना ताक़त बढानेवाली गोलियों से अधिक कोई विज्ञापन दीखते हैं तो गणित के ट्यूशन देने वाले अध्यापकों और संस्थाओं के. ”गणित वही जो शर्मा जी पढ़ाएं “ और “गणित तो मैं भटनागर सर से ही पढूंगा” जैसे जुमलों वाले बैनर्स सड़क के आर-पार तने हुए मेरे सर के ऊपर से वैसे ही निकल जाते हैं जैसे सारा जीवन गणित मेरे सर के ऊपर से निकलती रही है. कभी कभी मन में आता है इन शर्मा सर और भटनागर सर से जाकर कहूं “बड़ा घमंड है अपनी अध्यापकी पर तो मुझे गणित पढ़ाकर दिखाओ. तुम्हारी सारी अकड ना निकाल दूं तो नाम बदल देना “ पर क्या करू,क़सम जो खा रखी है कि जिस गली के मोड़ पर कोई गणित का नाम भी लेगा उसमे गलती से भी ना घुसूंगा. अपनी चाल चलन पर अभिमान करने के लिए मेरे पास दो बहुत ठोस तर्क हैं. न कभी कोठा चढ़ा, न कभी कोटा गया. अर्थात कभी मुजरा सुनने किसी कोठे पर नहीं गया, कभी गणित पक्की करने के लिए कोटा शहर के किसी ट्यूशन सेंटर में गया.

अरे, गणित के चक्कर में ज्योति की बात ही अधूरी रह गयी. चलिए वापस चलते हैं उसके पास. ज्योति के एम एस-सी मैथ्स करने की सुनते ही मेरे चेहरे पर जो हवाइयां उड़ने लगीं उसे गुप्ता ने भांप तो लिया पर वह ये नहीं समझ पाया कि कल तक जो इस लडकी से मिलने के लिए इतना उत्सुक था उसे अचानक क्या हो गया. मुस्कराते हुए बोला “ये अरुण बड़ा शर्मीला है, लड़कियों से ह्मेशा कतराता रहा है, अब ज्योति तुम ही इसे लड़कियों से बात करना सिखाओ, मैं और मधु अभी आते हैं “अपनी समझ से बिचारा मुझे एकांत का तोहफा दे गया और मुझे लगा कि वह मुझे लिली-पोंड में धकिया कर गिरा कर चला गया. एकाध मिनट तक ज्योति चुप रही और मैं चुपचाप लिली पोंड की तरफ देखता रहा. फिर उसने ही पहल की. बोली “आप इतने ध्यान से इसमें खिले हुए अकेले कमल को देख रहे हैं तो मुझे एक मजेदार सवाल की याद आ गयी. आपसे पूछूं ?”

मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या बात करूं. डूबते को तिनके का सहारा मिल गया जो ज्योति ने बात करने में पहल कर ली. पर सहारा रस्सी फेंककर नहीं, सांप फेंककर दिया गया था. पकडूँ कि नहीं? मजबूरी में कहना ही पडा “‘पूछिए” ज्योति मुस्कुराकर बोली “आप जिस कमल को देख रहे हैं, मान लीजिये कि वह आकार में हर दस मिनट पर दोगुना हो जाता है. अभी बारह बजे हैं. वह बढ़ते बढ़ते एक बजे तक इस तालाब को पूरा ढँक लेगा. बताइये वह कितने बजे तालाब को आधा ढँक लेगा?” फिर वह चुप होकर मेरे उत्तर का इंतज़ार करने लग गयी. मुझे बहुत बुरा लगा. न मुझे तालाब और कमल का व्यास बताया न त्रिज्या (रेडीयस). न ही कोई पेन पेपर उपलब्ध था. बस पूछ लिया कि तालाब इससे कब आधा ढँक जाएगा. और सवाल भी कितनी बेशर्मी का है. अपने गाजीपुर की कोई संस्कारों वाली लडकी होती तो पूछती कि कितने बजे पूरा ढँक जाएगा पर दिल्ली की लड़कियों को तो हर चीज़ ही आधी ढकी हुई अच्छी लगती है. एकाध मिनट चुप्पी छाई रही तो ज्योति ने उलाहना दिया “ बताइये,चुप क्यूँ हैं ?”मैंने पलट कर वार किया “ आपने न तो तालाब का क्षेत्रफल बताया न कमल का. क्या बताऊँ कब आधा ढकेगा. चलिये नापने के लिए एक फीता लेकर आते हैं”. वह जोर से हंस पडी. बोली “सच. आप एयर फ़ोर्स वालों का सेन्स ऑफ ह्यूमर बहुत अच्छा होता है !”

मैंने विषय बदलने के लिए कहा “क्या आप,कैंटीन में चलकर कुछ खाना पीना चाहेंगी?” वह बोली “पिछली बार मैं, मधु और गुप्ता इसी कैंटीन में गए थे तो एक समस्या उठ खड़ी हुई थी. ” मैंने सोचा गुप्ता फिर अपनी पर्स ले जाना भूल गया होगा, हमारे साथ जाने पर तो जब भी कहीं बिल देना होता था उसके साथ ऐसा ही होता था. मैंने अपनी शंका प्रकट की तो बोली “नहीं, हमतो जब साथ जाते हैं डच हिसाब रखते हैं मैंने पूछा “फिर क्या हो गया?” तो ज्योति ने बताया “हमने सिर्फ कॉफ़ी पी थी,बिल आया पचीस रुपयों का. हम तीनो ने दस दस रूपये निकाल कर प्लेट में डाल दिए. वेटर बाकी के पांच रूपये एक एक के पांच सिक्कों में ले आया. हमने एक एक रुपया वापस उठा लिया और वेटर के लिए दो रूपये टिप में छोड़ दिए. ”मैंने परेशान होते हुए पूछा “फिर?”. ज्योति ने बात जारी रखी. ”इस तरह हम तीनों में से हरेक के नौ नौ रूपये खर्च हुए,यानी कुल सत्ताईस रूपये और वेटर ने दो रूपये उठाये तो टोटल हुआ उनतीस रूपये. पर निकाले तो थे हमने तीस रूपये,अब उस तीसवें रुपये का क्या हुआ?”मैंने कहा “हम एयर फ़ोर्स के अफसर ऐसे एक-एक रुपयों की चिंता नहीं करते हैं. छोडिये. जो हुआ सो हुआ. ” ज्योति की इस बार की हंसी में चांदी के सिक्कों जैसी खनकार सुनायी दी. बोली “अरे मैं क्या छोडूं ! आपके गुप्ता उस दिन पार्क में सारे समय परेशान रहे, बस यही सोचते रहे. बिचारी मधु बहुत बोर हुई थी. आप समझा सकें तो गुप्ता को समझा दीजिएगा. ” मैंने कहा “आप निश्चिन्त रहें,मैं उसे समझा लूँगा. अभी कुछ महीने पहले उसकी पालतू बिल्ली का स्वर्गवास हो गया था. इतना ही परेशान था,मैंने ही समझा बुझा कर उसे शांत किया. ” वह फिर हंस पडी. लग रहा था मेरी बातों को सुन सुन कर ज्योति मेरे ऊपर फ़िदा हुई जा रही थी उसके सवालों में यदि ज़हर था तो आवाज़ में अमृत घुला हुआ था. बोलती थी तो लगता था कि बुलबुल चहक रही है, हंसती थी तो पहाडी नदी की कलकल ! मैंने उसके प्रश्नों के जो उत्तर दिए थे उनसे वह प्रसन्न हो गयी थी पर मैं बेचैन था. एक साधारण एयर फ़ोर्स आफिसर में इतनी बहादुरी कहाँ कि बेफिक्र होकर गुनगुना सके “ वो बेदर्दी से सर काटें अमीर और मैं कहूं उनसे,हुज़ूर आहिस्ता –आहिस्ता, जनाब आहिस्ता – आहिस्ता “

ज्योति का ध्यान बंटाने के लिए मैंने कहा “आपकी आवाज़ इतनी मीठी है,कितना प्यारा गाती होंगी आप. ’’ उसने अगली बार मुंह खोला तो कोई गणित का सवाल नहीं पूछा. हलके से लजाते हुए बोली ‘मधु ने मेरे बारे में और क्या क्या बता रखा है?”तीर निशाने पर लगा था हालांकि मेरी मधु या गुप्ता से कोई बात हुई होती और सिर्फ इतना ही पता चल जाता कि ज्योति के सर पर गणित माता सवार हैं तो आज इतनी कठिन स्थिति में मैं अपने आपको नहीं पाता. पर गणित के सवालों का रुख मोड़ने का अवसर मिल गया. मैंने कहा ‘उसके बताने की ज़रुरत ही क्या है. आप बोलती भी हैं तो गाने की मीठास आपकी आवाज में छलकती है. “ यक्ष ने युधिष्ठिर से प्रश्न करते हुए यदि पूछा होता कि महिलाओं और मालिक ( बौस )के ऊपर कौन सा नशा सबसे तेज़ी से असर करता है तो युधिष्ठिर ने अवश्य ही उत्तर दिया होता “ चापलूसी का नशा. ” इस बार मौन रहकर उसने सहमति जताई तो मैंने कहा “इसी बात पर एक गीत तो गुनगुना दीजिये. ”ज्योति ने नज़रें झुका लीं,झिझकती हुई बोली “ यहाँ?” फिर एकाध बार थोड़ी और चापलूसी करने पर प्रसन्न होकर बोली “देखिये, इस गीत के बोल मुझे बहुत दिलचस्प लगते हैं, सुना देती हूँ. ” और तब उसके सदा मुस्कान बिखेरते होठों से जो गीत निकला उसे सुनकर मेरे होशोहवास फिर उड़ गए. जिस मुसीबत को अभी तक मैंने गद्य के रूप में झेला था उसने भेस बदलकर फ़िल्मी गीत के रूप में धावा कर दिया. बहुत भावविह्वल सी होकर उसने गाया “तीतर के दो आगे तीतर, तीतर के दो पीछे तीतर, आगे तीतर, पीछे तीतर बोलो कितने तीतर. ”मैंने अपना सर ठोंक लिया. अन्दर से आवाज आई –“फिर वही ढाक के तीन पात !क्या इसे साफ़ साफ़ बता दूं कि गणित से मेरा 36 के आंकड़े वाला सम्बन्ध है. अब और जियादा तीन पांच करने की ज़ुरूरत नहीं है. या तो इसे सच्चाई से दो दो हाथ कर लेने दूं या चुप चाप यहाँ से नौ दो ग्यारह हो जाऊं. ये पागल लडकी अगर गीत संगीत में भी गणित घुसाने की शौक़ीन है तो ये वो नहीं है जिसका सामीप्य पाकर मेरी ज़िंदगी में चार चाँद लग जायेंगे. ये मुझे अपने गणित प्रेम में सौ तरीके से सतायेगी. क्यूँ न इससे एक बार साफ़ साफ़ कह दूं कि गणित की चर्चा से मुझे चक्कर आने लगते हैं –सौ सुनार की एक लुहार की. पर गुप्ता को पता चलेगा तो वो सौ जूते लगाएगा और एक गिनेग. कहेगा-. बड़ी मुश्किल से एक तो लडकी मिली तुझमे दिलचस्पी लेने वाली और तूने उसका ये सम्मान किया?अरे बेवकूफ,हज़ारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा !”तभी लगा कहीं दूर से आवाज़ आई “ क्या हो गया आपको ?”. ये ज्योति की आवाज़ थी. वह मुझे अजीब विस्मय से देख रही थी. कुछ सहज हुआ तो मुझे ध्यान आया कि पिछले क्षण भर में ही मेरे मस्तिष्क में कौंधे पंद्रह बीस वाक्यों में से हरेक में संख्याएं और गणित अन्दर तक घुसी हुई थी. इस लडकी के साथ पांच मिनट क्या बिताये कि मैंने इसी की भाषा में सोचना तक शुरू कर दिया ! बुरी संगत का असर कितनी जल्दी होता है !

अब आगे की क्या बताऊँ. ज्योति की आवाज़ का जादू,उसकी मनमोहक मुस्कान,उसकी शर्मीली अदाएं सब कुछ उसके गणितप्रेम के धमाके में चकनाचूर हो गए. गुप्ता और मधु के थोड़ी देर के बाद वापस आ जाने से एक बार फिर से कुछ सहज सामान्य सा वातावरण बन सका पर विदा होते समय अगली बार कब मिलेंगे ये न ज्योति ने मुझसे पूछा न मैंने ज्योति से.

क्रमशः ----------