जो घर फूंके अपना - 35 - गणित के फंदे में लटकती सांस Arunendra Nath Verma द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • You Are My Choice - 41

    श्रेया अपने दोनो हाथों से आकाश का हाथ कसके पकड़कर सो रही थी।...

  • Podcast mein Comedy

    1.       Carryminati podcastकैरी     तो कैसे है आप लोग चलो श...

  • जिंदगी के रंग हजार - 16

    कोई न कोई ऐसा ही कारनामा करता रहता था।और अटक लड़ाई मोल लेना उ...

  • I Hate Love - 7

     जानवी की भी अब उठ कर वहां से जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी,...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 48

    पिछले भाग में हम ने देखा कि लूना के कातिल पिता का किसी ने बह...

श्रेणी
शेयर करे

जो घर फूंके अपना - 35 - गणित के फंदे में लटकती सांस

जो घर फूंके अपना

35

गणित के फंदे में लटकती सांस

धीरज बनाए रखिये. मुझे पता है आप ज्योति के साथ मेरे रोमांस का किस्सा सुनने के लिए उतावले हो रहे होंगे. गणित से मेरी खानदानी दुश्मनी रही हो तो आपको उससे क्या लेना देना. पर दास्ताने मोहब्बत को जितना उलझाया जाए उसमे बाहर से झांकने में उतना ही ज़्यादा मज़ा आता है. अलिफ़ लैला की हज़ार रातों तक कहानी खींचते जाने वाली शाहजादी हो या पंचतंत्र की एक पशु पक्षी से अनगिनत पशुपक्षियों तक फुदकती हुई चली जाने वाली कहानियां, पेंच पैदा करना किस्सागोई की अनिवार्य आवश्यकता होती है. वैसे ही जैसे गणित के अध्यापक हर बात में कोई पेंच पैदा किये बिना मानते नहीं. मैंने तो गणित की किताबों में ऐसे किसी हौज़ का ज़िक्र ही नहीं सुना जिसमे पानी सिर्फ भरता हो और तुरंत किसी सुराख या टोंटी के ज़रिये सरकारी योजनाओं में लगे पैसे या सुन्दर बालिकाओं को देखकर लाचार बुजुर्गों के मुंह से टपकती राल की तरह बाहर निकल कर बह ना रहा हो. अरे भाई, अपने अपने हौज़ और उनकी टोंटियाँ मरम्मत कराके रखो, हमारी जान क्यूँ खाते हो कि उनमे पानी कितनी देर में भरेगा. ऐसे ऐसे बन्दर पाल रखे हैं जो खम्भों पर एक मिनट में बीस फूट चढ़ते हैं और अगले ही मिनट में पांच फूट नीचे फिसल जाते हैं. बन्दर ना हुए मुंबई शेयर बाज़ार का सूचकांक हो गए जो एक दिन पांच सौ अंक चढ़ता है तो दूसरे ही दिन छः सौ अंक नीचे गिर पड़ता है. जब चिदाम्बरम और जेटली जैसे वित्त मंत्री नहीं बता सकते कि सूचकांक चढ़ेगा कि उतरेगा, मुद्रास्फीति बढ़ेगी या घटेगी तो मैं क्या बताऊँ कि दस फरक फरक लम्बाई के खम्भों में किसके ऊपर कोई बन्दर सबसे पहले चढ़ पायेगा. अरे भाई,तू कहीं से ऐसा खम्भा ले आ जो कम चिकना हो या फिर अपने बंदरों को किसी सर्कस में जाकर तेज़ी से खम्भा चढने की ट्रेनिंग दिलवा. वैसे कुछ लोग हैं जो ऐसे टेढ़े सवालों का जवाब भी दे पाते हैं. मेरे दोस्त पप्पू को क्लास में देर से आने के लिए मास्टर जी ने डांट लगाई तो वह बोला “मास्टर जी, इतनी तेज़ बारिश हो रही थी कि एक क़दम आगे रखता था तो दो क़दम पीछे फिसल जाता था. ” मास्टर जी बोले “ झूठा कहीं का,ऐसा होता तो स्कूल पहुँच ही न पाता. ” पप्पू बोला “ जी यही तो हुआ. मैं तो थक कर घर वापस जाने लगा तो पीछे फिसलता फिसलता यहाँ पहुंच गया “

कहाँ तक बताऊँ गणित के अध्यापकों की कारिस्तानी. इनके हिसाब से जो काम एक आदमी आठ घंटों में पूरा करेगा उसे एक औरत दस बारह घंटों में पूरा कर पायेगी. फिर पूछेंगे कि उसी काम को एक आदमी और एक औरत मिलकर कितनी देर में पूरा करेंगे. अरे हमेशा औरत ही क्यूँ धीरे काम करेगी. ज़रा पुरुष से सुई में धागा डलवा कर देखो. जितनी देर में वह चार बार सुई को गिराएगा फिर उठाएगा उतनी देर में स्त्री चार सुइयों में धागा पिरो चुकी होगी. ऊपर से स्त्रियों को पारिश्रमिक हमेशा पुरुषों से कम देते थे. कम से कम मेरे बचपन में तो ऐसा ही होता था अब शायद कानून और राष्ट्रीय महिला आयोग के डर से स्थिति बदल गयी हो वरना जहां दस आदमी, आठ औरतें और पांच बच्चे मिल कर काम करते थे सबके पारिश्रमिक की दरें और काम करने में लगा समय फर्क होते थे. काम पूरा करने में लगने वाला समय यदि किसी दैवी कृपा से पता चल भी गया तो अगला प्रश्न उठ खडा होता था कि किसको कितने रूपये दिए जाएँ. ऐसे वाहियात सवालों से निबटने के लिए ही मेरे ज़मींदार पूर्वजों ने बेगार की प्रथा चलाई थी जिसे आज तक कम से कम हिन्दी की किताबों के प्रकाशक निष्ठापूर्वक चलाये जा रहे हैं. पैसे किसी को देने ही नहीं. न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी. कनिमोज्ही, ए राजा,कलमाडी, बंसल आदि की ऐसी मिली जुली गपडचौथ के कारण ही मनमोहन जी की सरकार कभी कोई हिसाब ठीक से नहीं लगा पायी. लूट में हिस्सा हिसाब से तय करने के बजाय बस इतना तय कर लिया कि जिससे जितना बन पड़े उठाओ और माल अपनी जेब में भरो. ऐसे होता है प्रतिभा का सही सही मूल्यांकन और सम्मान, बजाय एक एक रूपये का हिसाब समझने के. सुना है मनरेगा वालों ने समस्या दूसरे ढंग से सुलझाई है. इस सरलीकृत प्रणाली में काम धाम को पूरी तरह दफना दिया जाता है और पैसे अफसरों, संचालकों और मजूरों के बीच तीन बराबर बराबर ढेरियों में बाँट लिए जाते हैं, चौथी थोड़ी ऊंची ढेरी बंटवाने वालों अर्थात नेताओं की होती है.

बड़ों और बच्चों के साथ-साथ काम करने से उपजी दिक्कत अब बालश्रमिकों को न रखने वाले क़ानून से समाप्त हो गयी है. स्त्रियों और पुरुषों के साथ मिलकर काम करने की दिशा में भी विचारों में प्रगति हुई है. अटल जी जीवन भर परहेज़ निभाते रहे पर अंत में ममता, समता, जय ललिता के चक्कर में फँस ही गए. मनमोहन सिंह ने भी जब ममता के साथ मिलकर काम करना चाहा तो रोये. अब गणित चाहे कुछ कहती रहे पर ये सिद्ध हो गया है कि स्त्री और पुरुष अपना अपना काम अलग-अलग कर लें तभी कोई काम पूरा हो पायेगा. हाँ इसके अपवाद में दो एक काम हैं ज़रूर जो पुरुष और स्त्री मिलकर बढ़िया कर लेते हैं पर मैं अपना लिखा अश्लील नहीं घोषित करवाना चाहता हूँ अतः उसकी चर्चा छोड़ें.

अंकगणित मे कम से कम अंकों का ज़िक्र होता था जो कुछ मायने रखते थे. पर अलजेब्रा से मुलाक़ात हुई तो वही भावना मन में आयी जो प्रायः बुजुर्गों के मन में स्वतंत्र भारत में आती है कि इससे तो अंग्रेजों की गुलामी ही अच्छी थी. परेशानी खडी कर रखी थी “एक्स’’ नामक एक मुसीबत ने. ये समझाया गया था कि जो मालूम न हो उसे “एक्स” मान लो. मेरा मन करता था सारे प्रश्नों के उत्तर में ही “एक्स” लिख दूं,परीक्षक महोदय जो उत्तर सही हो मेरे “एक्स” को वही मान लेना. अब दोस्तों की महफ़िल में अक्सर सोचता हूँ कि जब “ट्रिपल एक्स” इतनी मजेदार चीज़ होती है तो बिचारा सिंगल एक्स क्यूँ इतना नीरस होता था. जीवन में कभी कभी अंधों के हाथ बटेर लग जाती है. मुझे पता नहीं कैसे हाई स्कूल परीक्षा में गणित में अच्छे अंक मिल गए. पिताजी को गलतफहमी हो गयी कि हालात इतने बुरे नहीं हैं जितना वे समझते थे. इसी धोखे में बारहवीं (इंटर) में मुझे फिर से विज्ञान और गणित विषय दिलवा दिए गए. मेरे ऊपर तो मुसीबतों के पहाड़ टूट पड़े जब पता चला कि अब से गणित नामधारी राक्षस के कन्धों पर सात सर होंगे जिनके नाम थे अलजेब्रा, त्रिगोनोमेटरी, सौलिड जिओमेटरी, कूआरडीनेट जियोमेटरी, स्टेटिक्स, डायनामिक्स एवं कैलकुलस. इन सात सात भूतों से लड़ने वाले दिन शायद मेरे जीवन में सब से अधिक दुखदायी दिन थे.

फिर भी हर मुसीबत में कोई न कोई राह निकल आती है. गणित की कक्षा में पापड बेलते बेलते लगने लगा कि किसी न किसी तरह से पास होने भर नंबर ले लूँगा. तय ये किया कि इन सात में से दो विषय जिनके सर पैर ही समझ नहीं आते थे उनसे पूरी तरह कुट्टी कर लूं और पूरा ध्यान बाकी के पांच पर लगाऊँ. ये दोनों निष्ठुर विषय थे कैलकुलस और स्टेटिक्स. डायनामिक्स में तो कम से कम चीज़ों को फेंको तो वे कुछ दूर जाकर गिरती थी पर स्टेटिक्स समझने में दिक्कत ये थी कि इसमें जोर तो लगता था पर चीज़ें अपनी जगह से हिलती ही नहीं थी –गोया भ्रष्टाचार हो. अनशन करो, चाहे तोड़ो, अपनी जगह पर हजरते दाग की तरह कायम ही रहेगा. रही कैलकुलस. तो उसमे भी इनटीग्रल और डिफरेंशियल का अंतर मुझे कभी समझ में नहीं आया. जैसे आजकल लड़कों और लड़कियों को बहुत पास से देखे बिना अंतर नहीं समझ में आता है और बहुत पास से देखने की कोशिश करता हूँ तो ख्वाम्ख्व्वाह दूसरे किस्म की गलतफहमियां पैदा हो जाती हैं. पहले पास से देखने पर वे लड़के निकलते थे तो कोई कुछ अन्यथा नहीं समझता था. अब वो ज़माना भी गया. हर हालत में किसी न किसी तरह का भ्रम हो जाता है. अतः बिना अंतर समझे ही कैलकुलस की दोनों संतानों को मैंने दूर से ही देख कर प्रणाम कर लिया था.

अब बचे बाकी के पांच विषयों के पांच भूत. पुराने परीक्षा प्रश्न पत्रों को देखकर उनसे लड़ने के लिये कुछ तरीके समझ में आये. गणित के तीन प्रश्नपत्र होते थे. हरेक में तीन श्रेणियों के सवाल होते थे. पहली तरह के कुछ कम अंकों वाले सवाल होते थे जिनमे कोइ थियोरम सिद्ध करनी होती थी. इन पर रटंत विद्या से काबू पाया जा सकता था. दूसरी तरह के प्रश्नों मे रटे रटाये फार्मूलों में वैल्यू फिट करने से उत्तर निकल आता था. तीसरी तरह के सवाल अधिक अंकों वाले भारी भरकम होते थे –इनका मैंने पहले से ही बहिष्कार करने की ठान ली.

इंटर की बोर्ड परीक्षा में गणित के पहले प्रश्नपत्र में रटे फार्मूलों में वैल्यू फिट करके तैंतीस में से लगभग ग्यारह अंकों के सवाल ठीक कर लिए. पर दूसरा प्रश्नपत्र मौत का सन्देश लेकर आया हुआ दिखा. तैंतीस में से लगभग पांच अंकों के बचकाने सवाल अपनी हैसियत के हिसाब से कर लिए पर पर्चे के बाकी सारे सवाल अपनी अपनी ऐंठ में अकड़े हुए लगे. जिन हिस्सों के प्रश्न समझ में आने की क्षीण सी भी आशा थी उन्हें पढ़ पढ़ कर थक गया पर कुछ पल्ले नहीं पडा. परीक्षा के तीन घंटों में से अभी पौने तीन घंटे बाकी थे. अतः बोर होकर प्रश्नपत्र के उस तीसरे हिस्से की तरफ भी नज़र डाल ली जिसका बहिष्कार करने की मन में सोच कर आया था. अंतिम प्रश्न पढ़ा तो बांछें खिल गयीं. बेवकूफ परीक्षक ने सबसे आसान प्रश्न सबसे बाद में पूछा था. प्रश्न था कि एक त्रिशंकु आकार की (कोनिकल) बाल्टी में भरे पानी में एक फूटबाल गिर पड़ता है तो बाल्टी में कितना पानी बचेगा? कितना बह जाएगा? त्रिशंकु की ऊंचाई और व्यास ( डायामीटर ) दिया हुआ था और फूटबाल का भी. लो जी! फार्मूला फिट करने वाले जिस सवाल को मैं पेपर के प्रारम्भ में खोज रहा था वह पेपर के पिछवाड़े वाली गली में मिला. मैंने फ़टाफ़ट फार्मूलों में ऊंचाई और व्यास की वैल्यूज़ भरी. बाल्टी के आयतन में से फूटबाल का आयतन घटाया और जो बचा उसे उत्तर की जगह लिख कर मूंछों पर ताव देता हुआ हाल से बाहर निकल आया क्यूंकि बाकी के पेपर में मगज मारने से भी दिमाग की बत्ती जलने की कोई आशा नहीं थी. बाहर आकर इंतज़ार करता रहा कि कोई पढ़ाकू किस्म का लड़का बाहर निकले तो उससे उत्तर मिलाऊँ. लड़का तो निकला पर उसका उत्तर मेरे उत्तर से बिलकुल फरक निकला. मैंने पूछा “ यार,सिर्फ बाल्टी के आयतन में से फूटबाल का आयतन ही तो घटाना था. अब इसमें भी कौन सी मुसीबत आ गयी?”. उसने बड़ी सहृदयता से उत्तर दिया “ मुसीबत तो थी,क्यूंकि फूटबाल बाल्टी के अन्दर पूरा नहीं डूबता है बीच में ही फंस जाता है. तुम्हे पहले देखना होगा गोला कितने नीचे जाकर फंस जाता है. ” पता नहीं यदि सच में वह गोला बाल्टी में फंसा था या नहीं पर मेरी सांस ज़रूर मेरे गले में वैसे ही अटक गयी.

क्रमशः ---------