जो घर फूंके अपना - 34 - लौट के बुद्धू घर को आये -दिल्ली में दिलवाली की तलाश Arunendra Nath Verma द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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जो घर फूंके अपना - 34 - लौट के बुद्धू घर को आये -दिल्ली में दिलवाली की तलाश

जो घर फूंके अपना

34

लौट के बुद्धू घर को आये -दिल्ली में दिलवाली की तलाश

मैं उस शायर से पूरी तरह सहमत हूँ जिसका ख्याल है कि “हरेक रंज में राहत है आदमी के लिए. ” रूस में बाकी के बिताये हुए दिनों में कपूर ने मुकर्जी की जूती उसी के सर लगाई अर्थात उससे पैसे उधार लेकर स्वान लेक बैले उसी के साथ देखा. गुप्ता ने अपनी मंगेतर के लिये लोंजरी और ‘निज्न्येये वेलेये’ के साथ अन्य बहुत कुछ खरीदा. बिस्वास साहेब ने ‘देत्स्कीय मीर’ से बच्चों के लिए बहुत से कपडे और खिलौने लिए और मैंने माँ-पिताजी के लिए कुछ गरम कपडे और भतीजे भांजों के लिए अन्य उपहार लिए. केवियार पर पैसे सिर्फ मुकर्जी ने खर्चे. शेष सभी ने घोषित कर दिया कि पपीते के बीज वाली शकल का ये व्यंजन ओवरप्राइसड था. और वह दिन भी आखीर आ ही गया जब सोवियत रूस को ‘दोस्वीदान्या’ बोलकर हम सब भारत माता के ‘धूलभरे मैले से आँचल’ में वापस आ गए.

गुप्ता से मेरी दोस्ती रूस जाने से पहले ‘ओवरकोट सहोदर’ बनने से और बढ़ गयी थी और हम काफी समय साथ बिताने लगे. उसने भांप लिया कि जब वो अपनी मंगेतर की बात करता था मेरे चेहरे पर एक अजीब सी बेचारगी छा जाती थी. एक दिन बोला “मेरी मंगेतर मधु की एक बहुत अच्छी सहेली है. उससे हर समय एयर फ़ोर्स अफसरों के बारे में पूछती रहती है, बहुत दिलचस्पी है उसे वायुसेना में. तू बोल तो उससे मिलवा दूं. बहुत सुन्दर तो नहीं है पर सलोनापन है उसमे. और वो बहुत इंटेलीजेंट भी है. मेरे सारे जोक्स पर सबसे पहले वही हंसती है. ” मैंने कहा ‘‘तेरी तुलना में तो कोई भी बुद्धिमान निकलेगा. तेरे जोक्स पर नहीं, तेरे ऊपर हंसती होगी. ” बस इसी तरह की नोकझोक में उस लडकी के बारे में और कुछ पूछ नहीं पाया. मेरे लिए यही जानना क्या कम था कि वह दिल्ली विश्वविद्यालय के जिस कॉलेज से मास्टर्स कर रही थी वह पालम में हमारे आफिसर्स मेस से सात आठ किलोमीटर दूर था जो दिल्ली के हिसाब से बहुत नज़दीक था.

रूस से लौटने के पंद्रह दिनों के बाद अंग्रेज़ी बसंतोत्सव अर्थात वैलेंटाइंन्स डे का पर्व आ जाता बशर्ते उन दिनों भी हम भारतीयों की बुद्धि के ऊपर बाजारवाद के महंत आज की तरह से कब्ज़ा जमा कर बैठे होते. पर रूस की भयंकर ठंढ के बाद फरवरी महीने में दिल्ली इतनी सुहानी लग रही थी कि रंग बिरंगे वैलेंटाइन्स डे के कार्डों की नकली धूमके बिना ही फिजां में रोमांस स्वाभाविक रूप से बिखरा हुआ था. खिलते मुस्कराते गुलाब, नर्गिस और डहलिया के फूलों के सौन्दर्य से रंगीन हो उठी फगुनाई हवाओं में सर्दी की तीक्ष्ण धार नहीं थी. वेलेन्टाइन्स डे के कार्डों में जैसी अंग्रेज़ी तुकबन्दियाँ प्यार का मनुहार करने के लिए छपी रहती हैं उन्हें रटने की ज़रूरत ही नहीं थी. मौसम अकेले अपने दम पर सख्त फौजियों को भी कविहृदय बना सकने में समर्थ हो चुका था. नई दिल्ली की छतनार वृक्षों से सजी हुई सड़कों के ऊपर अमलतास और कचनार की डालियां वसंत ऋतु के आने की घोषणा करने के लिए तन कर खडा होना चाहतीं भी तो कैसे होतीं, फूलों के बोझ से जो झुकी हुई थीं. पलाश के जंगल में आग लगा देने वाले रक्ताभ वृक्ष तो यहाँ कम थे पर जामुनी जेकेरेंडा के फूल ऊंची ऊंची डालियों पर खिलखिला कर हंसते हुए सगोत्री गुलमोहर से पहले खिल जाने की रेस जीतकर खुशी से बावले हुए जा रहे थे. ऐसे ही एक हँसते मुस्कराते झरने की तरह बहते हुए प्यारे से दिन जो रविवार होने के कारण पहले ही बेहद खुशनुमा लग रहा था गुप्ता ने पेशकश की कि मैं उसके साथ बुद्ध जयन्ती पार्क चलूँ जहाँ उसकी मंगेतर ने दिन में आने का वादा किया था. मैं चाहूँ तो वह अपने साथ ज्योति नाम की उस सहेली को भी ला सकती थी जिसे एयर फ़ोर्स अफसर अच्छे लगते थे. अँधा क्या मांगे दो आँखें ! और यहाँ तो उसका नाम ही ज्योति था.

विवाह योग्य कन्याओं की दृष्टि से ज़रूर मुझमे कुछ ऐसा है जो मच्छरों की नज़र से ओडोमास में और मख्खियों की दृष्टि से फिनायल में होता है. तभी आज तक किसी लडकी से अनौपचारिक पहचान या दोस्ती का प्रश्न भी नहीं उठा. इस बार शायद कुछ फरक अनुभव हो क्यूंकि इस बार बात शादी की नहीं थी सिर्फ दोस्ती की थी. मुझे विश्वास हो चला था कि फौजियों से सिर्फ दोस्ती की बात हो, शादी की नहीं, तो कम से कम दिल्ली की लडकियां ज़रूर दरियादिल निकलेंगी. तय हुआ कि गुप्ता अपनी मंगेतर और ज्योति के साथ बुद्धजयंती पार्क के अन्दर कमल सरोवर (लिली पोंड) के किनारे मिलेगा. मैं सीधे वही आ जाऊं. यदि बाद में बात कुछ बनी तो ज्योति को मैं अपनी मोटरबाइक पर किसी मैटिनी शो में ले जा सकता था. गुप्ता ने स्वयं और मधु के अपने बाकी के प्रोग्राम को रहस्य की परतों में ही लिपटा रहने दिया जिसका “ क्या?” तो मुझे मालूम था, सिर्फ “कहाँ?” जानने का कौतूहल था. उन दिनों ये “कहाँ?” भी एक बड़ा भारी बवाल था. आज तो हर उस छोटी से छोटी खुली जगह में जहां थोड़ी घास, दो पेड़, चार फूलों के पौधे और एक अदद, लंगडी ही सही, बेंच हो, बहुत उच्च कोटि के सांस्कृतिक, काव्यात्मक और आध्यात्मिक ढंग से आत्माओं के (और उसके चलते,शरीर के भी) मिलन के कार्यक्रम आयोजित हो जाते हैं. पर उन दिनों एक ही बेंच पर चार फीट के फासले पर भी एक लड़का और एक लडकी बैठें हों तो तुरंत कोई चौकीदार या पुलिसवाला आकर बीच में बैठ जाता था और महंगाई का ज़िक्र करने लगता था जिसके चलते वो ईमानदार आदमी एकाध कप चाय का भी मुहताज था. पर हद तो तब हुई जब एक बार मैं एक पार्क में अकेले ही बेंच पर बैठकर प्रकृति की सुन्दरता निहारने में लगा हुआ था तो एक पुलिसवाले ने आकर तंग करना शुरू कर दिया था. मैंने उसे परिचय दिया और फ्लाईट लेफ्टिनेंट की वर्दी मे अपनी आई डी कार्ड में लगी फोटो दिखाई तो खिसिया कर बोला “ सर. आपलोग यहाँ पारक में क्यों अपना और हमारा टेम खराब करते हो. हमारे साहेब लोगों की तरह जहां दफ्तर हो हुवई क्यों नहीं उन्हें बुलवा लेते ?”

जैसा कि तय हुआ था, मैं समय से बुद्धजयंती पार्क पहुँच गया. दो एक मिनट के अंतराल से गुप्ता और उसकी मंगेतर मधु लिली पोंड के किनारे आ पहुंचे. उनके साथ की सांवली सलोनी, छरहरी लम्बी लडकी ज्योति ही हो सकती थी. मधु ने परिचय दिया “ये है ज्योति,तुमसे मिलने को बहुत उत्सुक थी. तभी अगले ही महीने होने वाली अपनी एम एस सी मैथ्स की फ़ाइनल परीक्षा की चिंता छोड़कर आ गई है और ज्योति अरुण यही हैं इनके बारे में तो तुम्हे पता ही है”. ज्योति ने बड़ी प्यारी सी मुस्कान के साथ हेल्लो कहा. उस समय हेल्लो ही चलता था,किसी से मिलते ही “ हाय हाय ”करने का चलन नहीं था. पर मिलने के बाद में हाय हाय करने की मनाही नहीं थी अतः मेरी अंतर्रात्मा से जो मायूस, ठंढी “हाय” निकली वह हल्लो के आज के पर्यायवाची के रूप में नहीं बल्कि एक गहरी चोट लगने से उत्पन्न हाय हाय थी. नहीं! ज्योति कोई ऐसी कानी, लूली,लंगडी नहीं थी,बस उसके मेथमेटिक्स में एम एस सी करने की खबर ने मेरे दिल पे वो तीर चलाया कि मेरी आँखों के आगे अन्धेरा सा छाने लगा. बड़ी कठिनाई से मैंने अपने चेहरे पर आते भावों को रोका लेकिन गणित का नाम लेते ही चेहरे पर छा जानेवाली मुर्दनी मेरे पुरखों की कई पीढ़ियों मे कमाई हुई संपदा थी जो मुझे घुट्टी में मिली थी. पारंपरिक लडाइयां पीढी –दर –पीढी चलाये रखना सबके बूते का काम नहीं होता. राजपूतों ने मुगलों से कई पीढ़ियों तक लडाइयां लड़ी पर राणा प्रताप जैसे एकाध महापुरुषों को छोड़कर, जिन्होंने सारा जीवन इसी पुण्य कार्य में झोंक दिया, बाकी के बड़े बड़े योद्धाओं ने रोटी-बेटी के सम्बन्ध बनाए और अनवरत लड़ाई जारी रखने की झंझट से मुक्ति पा ली. पर हमारा परिवार है कि एक खानदानी दुश्मनी को बनाए रखने में पूरी तरह से समर्पित है. ये और बात है कि हमारी खानदानी दुश्मनी किसी व्यक्तिविशेष या उसके परिवार से नहीं है. ये दुश्मनी है गणित के विषय से. इस दुश्मनी के चक्कर में मेरे प्रपितामह, पितामह, पिताजी और मैं स्वयं उन पेशों से दूर रहे जिनमे गणित की ज़रा सी भी दखलंदाजी हो. पीढ़ियों से हमारे यहाँ न कोई इंजीनियर बना न वैज्ञानिक. हाँ वकीलों, इतिहासकारों, पुरातत्ववेत्ताओं की कोई कमी ना रही. बड़े भाई साहेब के साथ तो और धोखा हुआ. हाई स्कूल और इंटरमीडिएट में प्रथम श्रेणी पाकर उन्हें ग़लतफहमी हो गयी कि खानदान में वे अनोखे पैदा हुए थे अतः शराफत से बी ए करने के बजाय उन्होंने बी एस सी की राह चुनी. पर दो बार उसमे गणित में फेल होकर उन्होंने पूर्वजों की तरह दर्शन शास्त्र व साहित्य की देहरी पर आकर सर नवाया और तीसरे साल में बी ए में दाखिला लेकर इस खानदानी मुसीबत से पिंड छुडाया. मेरी अपनी मुसीबत तब शुरू हुई जब तीसरी कक्षा में मुझे डबल प्रोमोशन मिल गया और सीधे पांचवीं कक्षा में दाखिला मिल गया. गणित समझने के किये क्रमशः एक सीढी से दूसरी सीढ़ी पर चढ़ना आवश्यक था. यहाँ सीढ़ी में बीच का अर्थात चौथी कक्षा वाला डंडा ही गायब था. वहीं फिसलकर मैं ऐसा गिरा कि सारी उम्र अपनी पीठ सहलाता रहा. पांचवीं कक्षा में पहले तो भिन्न (फ्रैक्शन) से सामना हुआ जो अपनी लंगडी टांग के बावजूद दो टांगो वाले साबित अंकों से अधिक खूंख्वार थी. फिर लघुत्तम और महत्तम समापवर्त्य (एल सी एम् और जी सी ऍफ़) नामक महानुभावों से परिचय कराया गया जो काफी बदतमीज़ निकले. कोई साफ़ साफ़ पूछता कि फलानी फलानी संख्याओं का लघुत्तम या महत्तम बताओ तो मैं रटंत विद्या के प्रताप से उत्तर निकाल लेता था पर दुर्भाग्य से गणित में सीधी बात करने का चलन ही नहीं है. यहाँ तो रिवाज़ था पूछने का कि दस दस मिनट के अंतराल से पांच घंटियाँ बज रही हैं और आठ आठ मिनट के अंतराल से सात घंटियाँ बज रही है तो बताओ सब की सब एक साथ कब बजेंगी. अपनी बला से बजें. मेरे दिमाग में तो ऐसे वाहियात सवालों से घंटियाँ नहीं हथौड़े बजने लगते थे. वही घंटी सबसे प्यारी लगती थी जो बज ही नहीं पाए. कभी पूछा जाता कि कुछ लोग दस दस पूरियां खाते है, कुछ पांच पांच और कुछ चार चार, तो फिर कितनी पूरियों के पैकेट बनाएं जाएँ कि खाना फिंके नहीं. अरे भाई,फिकेगा क्यूँ. दस दस के ही पैकेट बनवा लो, जो बचे वह घरवालों को दे देना, न राजी हों तो मुझे दे देना. मैं सब निपटा दूंगा. पेट भले खराब हो जाए पर दिमाग तो नहीं खराब होगा. और अगर पूछना ही है तो साफ़ साफ़ बता दो इनका लघुत्तम निकालूँ कि महत्तम. फट से बता दूंगा. पर ऐसे वाहियात प्रश्न पूछने वालों में इतनी शराफत होती तो गणित से अपनी लड़ाई ही क्यूँ होती. इन्हें तो सिर्फ आग लगाकर हाथ सेंकने में मज़ा आता था.

क्रमशः ----------