जो घर फूंके अपना - 38 - अर्दली गाथा चालू आहे ! Arunendra Nath Verma द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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जो घर फूंके अपना - 38 - अर्दली गाथा चालू आहे !

जो घर फूंके अपना

38

अर्दली गाथा चालू आहे !

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद से भारत में सैन्य सेवाओं के अधिकारियों की वर्दी की शान में सरकारी प्रोटोकोल में लगातार गिरती हुई उनकी साख के साथ खूब बट्टा लगा है. सिविल सेवाओंवाले बाबुओं के मुकाबिले में उनकी प्रतिष्ठा ऐसे ही लगातार घटाई जाती रही तो जल्दी ही वे पूरे के पूरे दिगंबर दिखाई देने लगेंगे. खैरियत है कि यह उपक्रम अभी पूरा रंग नहीं लाया है वर्ना सेना की मर्यादा बचाने के लिए अपने पद से इस्तीफा दे देने वाले उप थलसेनाध्यक्ष लेफ्टिनेंट जेनरल एस के सिन्हा कौपीन धारण किये हुए और जन्मतिथि को लेकर रूठे हुए थलसेनाध्यक्ष वी के सिंह नागा साधुओं की सज्जा में दीखते. बस केदारनाथ की बाढ़ और त्सूनामी जैसी भयंकर प्राकृतिक आपदाएं आतीं या कारगिल विजय और बालाकोट के जवाबी हवाई हमले जैसे गौरवमय क्षण तो सारे देश को याद आती कि उसके पास गर्व करने योग्य सशस्त्र सेनायें भी हैं. फिर तो सेनापतियों को फ़िल्मी ड्रेस-सप्लायर्स से कुछ दिनों के लिए शानदार वर्दियां किराए पर लेकर दे दी जातीं. आपदा समाप्त होते ही उनसे वे वर्दियां वापस लेकर फिर उनको चड्ढी बनियान पकड़ा दी जाती. क्रूर और निर्दय आतंकवादियों से निपटने के लिए ‘आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पॉवर ऐक्ट’ तहत दिए गए कुछ विशेष अधिकारों को छीनने की मांग कुछ हलकों से आ रही है. उनका बस चले तो शायद हमारे सैनिकों को पहले आतंकवादियों से निहत्थे लड़ने की आदत डलवाई जाएगी, और आगे चलकर पूरी वर्दी उतारकर उन्हें आतंकवादियों के बीच “आर्ट ऑफ़ लिविंग” सीखने - सिखाने के लिए भेजा जा सकेगा.

बात वर्दियों को दिन भर बदलते रहने वाली मुसीबत की हो रही थी. अब पग पग पर एक वर्दी उतारने और दूसरी वर्दी पहनने के अखंड कार्यक्रम को बिना किसी निहायत वैयक्तिक सहायक अर्थात अर्दली के चला पाना भला किसी साधारण आदमी के बस की बात है? अपने परिवारों से दूर अविवाहित अफसरों के पितु- मातु-सहायक, स्वामी-सखा के सभी किरदार ये अर्दली बहुत अच्छी तरह से निभाते थे. उनके ऊपर पूरी तरह से निर्भर हो जाने की आदत एन डी ए में प्रशिक्षण के दिनों से ही पड जाती थी. यहाँ तक कि मेरे एक दोस्त का कहना था कि बायोनेट चार्ज की सही टेक्नीक उसने बजाय अपने शस्त्रास्त्र प्रशिक्षक सूबेदार साहेब से सीखने के अपने अर्दली से सीखी थी. सीखने के बाद उसने जब बड़े विस्मय से अपने अर्दली से उसके ज्ञान का राज़ पूछा था तो उसने विनम्रता से जवाब दिया था “अरे सर,शादी नहीं की पर बारात तो आप लोगों के साथ साल दर साल कर रहा हूँ. मैं तो आप साहेब लोगों की ट्रेनिंग देख देख कर ही क्रालिंग (ज़मीन पर रेंगना )इतनी अच्छी सीख गया हूँ कि बीबी रसोई से चिल्लाती रहती है और मैं चुपके से बाहर सरक जाता हूँ. ” उसे इसका बहुत अफ़सोस था कि एयर फ़ोर्स कैडेट्स को सिखाई जाने वाली ग्लाइडिंग सीखने का मौका उसे कभी नहीं मिला. उसके विचार से ग्लाइडर में इस्तेमाल होने वाला ईंधन इस कदर महँगा था कि पाइलट ईंधन बचाने के लिए इंजन बंद करके उसे उडाता था. कभी पेट्रोल सस्ता हुआ तो ग्लाइडर भी इंजिन चलाकर शोर मचाते हुए उड़ेंगे..

मेरे एक दोस्त सुभाष झांझी को अपने अर्दली से ही एक बहुत काम की सलाह मिली थी. उसकी बाईं आँख की रोशनी कुछ मद्धम हो रही थी जिसे लेकर वह बहुत परेशान था. एन डी ए के अंतिम सत्र में उसके अर्दली भंडारी ने जो सलाह दी उसपर अमल करके मेडिकल परीक्षा में जब उससे दाहिनी आँख से पढने को कहा गया तो उसने बाईं आँख को अपनी बाईं हथेली से ढँक कर सबसे छोटे अक्षर तक पढ़ दिए थे. फिर जब बाईं आँख से पढने को कहा गया तो बजाय आंख बदलने के उसने हथेली बदली यानी इस बार बाईं आँख को ही दाहिने हाथ से बंद करके फिर सब कुछ पढ़ दिया था. अर्दली भंडारी और कैडेट सुभाष की जोड़ी हम कैडेटों के बीच एक और घटना के बाद विजेता जोड़ी मानी जाने लगी थी. हमारे समय में एन डी ए में धूम्रपान की सख्त मनाही थी. पहली बार धूम्रपान करते पकडे जाने पर रायफल सर पर उठाकर पांच किलोमीटर भागने की सज़ा मिलती थी,दूसरी बार रेलीगेशन अर्थात एक सत्र पीछे धकिया दिया जाता था और तीसरी बार अकादमी से ही पत्ता साफ़ हो जाता था. पर अपनी मर्दानगी और बहादुरी साबित करने के लिए छठे यानी अंतिम सत्र के कैडेटों द्वारा कम से कम एक बार जूनियर्स के सामने सिगरेट ज़रूर पीने की परम्परा थी ;भले दो तीन सुट्टे के बाद फिर कभी न पियें. बिचारे सुभाष ने एक दिन शाम को कैडेट आवास में ऐसे ही शान मारने के लिए कोरिडोर में खड़े होकर सुट्टा लगाया ही था कि अचानक स्क्वाड्रन कमांडर साहेब आकस्मिक निरीक्षण के लिए प्रकट हो गए. सुभाष का अर्दली भंडारी वहीं कोरिडोर में ज़मीन पर पालथी मारकर अपने सामने चार पांच जोड़ी बूट सजाये उनपर पालिश कर रहा था. कमांडर साहेब को दूर से देखते ही उसने सुभाष को मराठी में बढ़िया सी गाली दी,उसके हाथ से सिगरेट छीनते हुए उसे एक चपत लगाई और धकिया कर कोरिडोर से बाहर ले गया. वहाँ सुभाष को छोड़कर वापस आकर कमांडर साहेब को तगड़ा सलाम मारकर बोला “ माफ़ करना सर,मेरा मुलगा( बेटा) घर से बोलने आ गया कि उसकी आई ची दवा अब्बी लाने का. मैंने बोल दिया है इकडे बीडी पीने का नहीं,दुबारा आने का नहीं. ” कमांडर साहेब सर खुजलाते हुए बोले थे “अच्छा ठीक है,आगे से बिलकुल इधर नहीं आने का. पर हम उसको कहीं पहले भी देखा है” भंडारी बेहद शर्मसार होकर बोला “ हाँ सर,हाँ, एक बार और इधरीच आया था,पण अब कब्बी नहीं आयेंगा “

प्रशिक्षण काल से ही प्रारम्भ हो गयी अर्दली पर निर्भरता कमीशन मिलने के बाद और गाढ़ी हो जाती थी. अर्दली को इनाम देने की हमारी क्षमता बढ़ने से प्यार भी बढ़ता ही था. पुराने हो गए अर्दलियों के मुंह से अपने ऊंची रैंक वाले अफसरों की जवानी के दिनों की गाथाएँ और एडवेंचर सुनने को मिलते थे जब वे भी युवा अफसर थे, मेस में रहते थे और वे सारे कायदे क़ानून तोड़ते थे जिनका पालन करने के लेक्चर हमें देना अब उनका परम कर्तव्य बन चुका था. ऐसी कहानियां सुनाने में बैरकपुर के ऑफिसर्स मेस के सबसे पुराने वेटर श्यामलाल का जवाब नहीं था. बैरकपुर कलकत्ते से लगभग तीस किलोमीटर दूर था जहां हमारा एयर फ़ोर्स स्टेशन था. हम दो तीन दोस्त मिलकर बैरकपुर से टैक्सी लेकर कलकत्ते घूमने और पिक्चर देखने जाते थे. महीने के आरम्भ में जब जेब भरी होती थी तो चौरंगी या पार्क स्ट्रीट के बढ़िया रेस्तौरेंट्स में खा पीकर वापस आते थे पर महीने के उत्तरार्ध में मेस में ही वापस लौटकर खाने का दम बचता था. हमें वापस पहुँचते पहुँचते रात के बारह बज जाते थे और मेस की किचेन बंद हो चुकी होती थी. ऐसे में श्यामलाल, जो था तो वेटर पर पराठे और अण्डों की भुजिया या ओम्लेट बनाने में बड़े बड़े कुक्स और चेफ्स के कान काटता, हमारी सेवा के लिए हमेशा तत्पर मिलता. बहुत प्यार से हमें डाइनिंग हाल में बैठाकर जब वह दस पंद्रह मिनट के बाद प्रकट होता तो उसके हाथों में गरमागरम घी से तर पराठे और अण्डों की भुजिया की प्लेटें होतीं. हम खाना शुरू करते और उसकी लच्छेदार कहानियां शुरू हो जातीं कि कैसे 1944 में बर्मा की फ्रंट पर कई जापानी जीरो युद्धक विमानों को मार गिराने वाले,डी ऍफ़ सी (विशिष्ट फ़्लाइंग पदक )से सम्मानित फ्लाईट लेफ्टिनेंट अर्जन सिंह साहेब (जो अब एयर मार्शल थे और हमारे वायुसेनाध्यक्ष थे) ऐसी ही एक बरसात की रात में भीगते हुए नाईट शो पिक्चर देखकर आये तो किचेन बंद हो चुकी थी,कैसे तब जवान और ऊर्जा से भरे हुए श्यामलाल ने अर्जन सिंह साहेब को गर्मागर्म खाना अपने हाथों से बनाकर खिलाया था. उनकी इन कहानियों के नायक बदलते रहते थे पर दो बातें हर कहानी में यकसां बनी रहती थीं,एक तो उनका हीरो आज की तारीख में कम से कम एयर वाईस मार्शल रैंक का होता था,दूसरे हर कहानी के नायक ने इस सेवा से खुश होकर श्याम लाल को व्हिस्की की एक बोतल इनाम में दी थी. फिर श्यामलाल हमारे साथ हमारे ग़म में शरीक होकर बढ़ती हुई महंगाई की बुराई करते थे और कहते थे “ सर,मैं तो साहेब लोगों की सेवा कर के ही खुश रहता हूँ. इतनी महंगाई हो गई है कि आजकल साहेब लोग व्हिस्की की जगह रम की बोतल ही दे पाते हैं पर मैं उसे भी सर आँखों पर रखता हूँ “ श्याम लाल के पराठे अंडे खाते हुए हम मन ही मन में सोचते थे कि रम की बोतल से तो पार्क स्ट्रीट में सैंडविच और काफी ही सस्ती पड़ती पर चुप चाप मेस की बार से रम की बोतल लेने की पर्ची पर हस्ताक्षर करके श्याम लाल को पकडा कर आ जाते.

पर इस निष्ठा के बदले में हम अफसरों के भी कुछ कर्तव्य होते थे जैसे अर्दली से ये कभी भी नहीं पूछना कि हमारी शेविंग क्रीम और टूथपेस्ट के ट्यूब इतनी जल्दी कैसे ख़तम हो गए,कि हमारे आफ्टर शेव लोशन और उसके शरीर की स्वाभाविक सुगंध इतनी मिलती जुलती क्यूँ है, कि हमने जो प्रीमियम स्कॉच व्हिस्की की तीन चौथाई से अधिक भरी बोतल अपनी अलमारी में सहेज कर रखी हुई थी दिनोदिन उसका सुनहला रंग बिना दूध की चाय के जैसा क्यूँ होता जा रहा है. एक बार दफ्तर से मुझे कुछ लेने के लिए मेस में अपने कमरे में आना पडा तो देखा कि मेरा अर्दली जीवन मेरा टूथब्रश अपने मुंह में दबाये मंजन कर रहा है. टूथपेस्ट तक तो हम चुप रहते थे पर टूथब्रश वाली बात झेलनी मुश्किल थी. मैंने जोर से उसे डांट लगाई तो आश्चर्य का भाव मुंह पर लाकर बोला “ कमाल है साहेब,टूथपेस्ट जो ख़तम हो जाता है, उसके लिए आपको कोई चिंता नहीं है और टूथब्रश जिसका कुछ नहीं बिगड़ेगा उसके लिए इतना दिल छोटा करते हो आप !”

मुझे तो उसने सस्ते में छोड़ दिया. मेरे दोस्त सचदेव से तो वो बहुत नाराज़ हुआ था और बजाय शर्मिन्दा होने के उलटे सचदेव को ही डांट लगा दी थी. हुआ ये था कि सरदार सचदेव को रोज़ अपने हेयरआयल की मात्रा तेज़ी से घटती हुई दिखी तो उसने हेयरआयल खाली करके उसी शीशी में अपना दाढी चिपकाने वाला “फिक्सो “ भर कर रख दिया और ड्यूटी पर चला गया. वापस लौटने पर देखा कि जीवन बहुत नाराज़गी के साथ उसकी प्रतीक्षा कर रहा था. सचदेव के आते ही उस पर बरस पडा “साहेब. हम अपने बेटों से जियादा आपलोगों को मानते हैं और आप हमारे साथ मखौल करते हो. इतने बड़े अफसर होकर ज़रा से तेल के लिए मेरी इज्ज़त को तेल लेने भेज दिया?और शैम्पू भी आप इतना घटिया सा रखते हो,मेरे बालों में आपका आधा बोतल शैम्पू लगाने के बाद भी चिपचिपाहट बनी हुई है!” हमारे अर्दली हमारे प्रसाधन के सामान इस्तेमाल करते थे तो चोरी नहीं बल्कि अपना हक समझ कर करते थे. हाँ,रूपये पैसे,बटुवे या अन्य कीमती चीज़ें मेस के कमरों में पूरी सुरक्षित रहती थी जबकि सबको पता होता था कि सारे अर्दली अपने अपने साहेबों के कमरों की चाभी काम ख़तम करके जाते समय पायदान (डोरमैट) के नीचे या कमरे के बाहर बिजली की मेनस्विच और फ्यूज़ वाले डिब्बे में रख जाते हैं.

क्रमशः ---------