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बाली का बेटा (15)

15

बाली का बेटा

बाल उपन्यास

राजनारायण बोहरे

लंका में हनुमान

हनुमान ने कहा…

मैंने एक बहुत लम्बी छलांग लगा कर समुद्र का बहुत बड़ा हिस्सा पार कर लिया था और इस लम्बी छलांग के बाद जब मेरा पैर नीचे आने ही वाला था कि मैंने देखा नीचे एक टापू दिख रहा है। मैंने टापू पर पाँव रखा तो लगा कि टापू कुछ हिला है। मैं अचरज में था। अचानक एक वनवासी जाने कहां से मेरे सामने प्रकट हुआ। मैं चौंक गया ।

वनवासी बहुत अच्छा आदमी था। उसने अपने हाथ में लिये हुए एक छोटे से टोकरे में कुछ फल रखे हुए थे। वह बोला ‘‘ लीजिये बानर वीर, कुछ फल ग्रहण कीजिये ताकि आपकी थकान मिट सके और मुझे बताइये कि मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूं?’’

मुझे पता था कि लंका से लेकर यहां तक रावण के अनेक गुप्तचर जाने क्या-क्या रूप् धारण करके घूमते रहते हैं। इसलिए मैंने उसके दिये हुए फल नहीं खाये । मैं बोला ‘‘ मैं अभी श्रीराम के काम से लंका जा रहा हूँ । वहाँ मुझे रावण की जांच- पड़ताल करना है। जब तक यह काम नही कर लेता मुझे कुछ भी खाना पीना नहीं सुहा सकता। इसलिये आपका धन्यवाद।’’

वनवासी बोला ‘‘मैं मैनाक नाम का वनवासी हूं। मेरे मालिक इन्द्र ने मुझे यहां इसलिए तैनात किया है कि मैं लंका के लिए जाते हुए रावण के दुश्मनों की मदद कर सकूं। आप जिस जगह खड़े हैं वह दिखने में तो टापू लगता है लेकिन यह एक बड़ी नाव है जिसके ऊपर लकड़ियों के पटिये डालकर मिट्टी जमाई गई है। आप चाहें तो मैं इस नाव से ऐसी जगह तक आपको ले चल सकता हूँ , जहां से लंका के पहरेदारों की नजर न पड़ सके।’’

मैंने अचरज से टापू को देखा। सचमुच उस टापू में बहुत धीमा सा कंपन हो रहा था। मुझे मैनाक की बात का विश्वास हो गया। मैंने उसे सहमति दे दी तो वह खजूर के एक पेड़ को पकड़ कर खड़ा हो गया। उसने खजूर पेड़ इस तरह से आगे से पीछे किया जैसे नाव को चलाने वाले मल्लाह चप्पू चलाते हैं। मुझे फिर अचरज हुआ िक वह टापू आगे खिसकने लगा था। फिर तो मैंने भी मैनाक की मदद की और हमारी टापू नुमा नाव की गति काफी तेज हो गयी । हम तेजी से लंका की दिशा में खिसकने लगे।

जब समुद्रतट दिखने लगा तो मैनाक ने अपनी नाव रोक दी।

मैंने मैनाक से विदा दी और समुद्र में छलांग लगा दी। मैं पूरी ताकत से लंका के टापू की ओर तैरने लगा।

मैं पूरा चौकन्ना था, तभी तो अचानक मुझे लगा कि मेरे शरीर को चारों ओर से कोई कंटीली सी लम्बी भुजायें जकड़ रही है। मैंने अपने बदन को सिकोड़ा और उन भुजाओं से मुक्त हो कर थोड़ा दूर जाकर देखा तो पाया कि छाते की तरह के शरीर वाला ऊपर से गोल एवं भीतर से पोला वह कोई जलचर जीव है जिसकी बहुत सी आँखेें मुझे घूर रही है। उसकी दस-दस हाथ लम्बी भुजायें मुझे पकड़ने को फिर लपकीं तो मैं उनसे दूर रहने का प्रयत्न करने लगा। फिर मुझे लगा कि जल में वह ज्यादा ताकतवर है और मेरा अमूल्य समय यों ही समाप्त हो रहा था सो मैं उछला और उस जन्तु के सिर पर जा खड़ा हुआ। फिर मैंने पूरी ताकत से उसके शरीर में अपनी गदा से हमला करना शुरू कर दिया। ईश्वर की कृपा रही कि मेरे प्रहारों से वह जीव पहले शिथिल हुआ और बाद में शायद मर भी गया। रात का अंधेरा था सो मैं उसे यों ही छोड़ कर लंका के किले के उस त्रिकूट द्वीप की ओर तैरने लगा जहां लंका का किला बना हुआ था।

पानी से बाहर निकल के मैं उस पार जमीन पर निकल कर खड़ा हुआ और रात के अंधेरे में चमकता सोने का बना वह सुनहरा किला देखने लगा जो अंगद के नाना मय दानव ने बनाया था। बहुत सुन्दर और मजबूत किला था वह।

मैंने बिना आवाज किये लंका के किले की ओर बढ़ना शुरू किया और ठीक बड़े द्वार के सामने जा पहुंचा । देखा कि बड़ा दरवाजा उस समय बन्द था और एक छोटी सी खिड़की खुली हुई थी। मैंने सिकुड़ कर उस खिड़की में से बहुत सतर्क हो कर भीतर प्रवेश किया और भीतर जाकर सामने जाते लम्बे गलियारे को देख ही रहा था कि अचानक मेरे सामने अट्टहास करती एक बहुत भयानक दिखती एक विशालकाय हृष्ट पुष्ट महिला आ खड़ी हुई।

उस महिला ने मुझे डाँटते हुए कहा ‘‘ अरे ओ चोर, तू चुपचाप लंका में कैसे घुसा चला जा रहा है? जानता नहीं, मैं लंकिनी हूं। यहां की रखवाली मेरे जिम्मे है। ’’

मैं कुछ जवाद देता उसके पहले ही उस महिला ने अपने हाथ में पकड़ा हुआ एक विशाल मुदगर नुमा हथियार मेरे सिर पर दे मारा।

मैं एक तरफ हट कर उससे बच गया और सोचने लगा कि एक महिला से लड़ना तो मेरे सिद्धान्तों के खिलाफ है सो मैंने भीतर जाते गलियारे में दौड़ लगा दी। लेकिन लंकिनी भी बहुत सतर्क थी। मुझसे भी तेज दौड़ कर मेरे सामने आ खड़ी हुई। इस बार उसने बिना कोई चेतावनी दिये अपना हथियार फिर से मेरे ऊपर पटक दिया।

मैं फिर बच गया और मुझे लगा कि इसका काम-तमाम किये बिना यहां से निकलना संभव नहीं होगा। सो मैंने बड़ी फुर्ती से एक ऊंची कूंद लगाई और लंकिनी की कनपटी पर अपनी वजनदार गदा दे मारी।

मेरा वार सही निशाने पर लगा था इस कारण लंकिनी एकदम शिथिल सी हो गई। उसके कान और नाक से खून बह उठा। फिर वह धड़ाम से जमीन पर गिर पड़ी।

उसे मूर्छित छोड़कर मैं तेजी से गलियारे में बढ़ता हुआ नगर में प्रवेश कर गया।

लंका एक देखने योग्य नगर है, वहां की सुंदर अट्टालिकायें और भवन देख कर मेरा मन हो रहा था कि हर मकान को भीतर से घुस कर देखा जाये लेकिन मुझे तो रावण का महल खोजना था, क्योंकि मुझे लग रहा था कि सीताजी का वहीं कैद करके रखा गया होगा । मैं इसलिए भी परेशान था कि रात के सन्नाटे में भला किससे पूछूंगा कि रावण का महल कौन सा है? और भला मुझे बतायेगा भी कौन ? मैं बाहरी आदमी वहां कैसे पहुंचा , हर आदमी पहला प्रश्न यही करेगा।

धीरे-धीरे मुझे महसूस होने लगा कि मैं सही दिशा में बढ़ रहा हूं क्योंकि जिस रास्ते पर मैं जारहा था उस तरफ से कुछ शोरगुल सा हो रहा है।

और फिर एक बड़े से मैदान में बना एक विशाल और शानदार महल मेरे सामने था। मैंने देखा कि महल के सामने बहुत से सैनिक तैनात हैं लेकिन इस वक्त वे सब के सब मदिरा पी रहे थे और अपने सामने रखे बड़े-बड़े थालों में जाने किस किस जानवर का मांस रखे गये कच्चा ही खाये जा रहे थे।

उन्हे अपने आपमें व्यस्त पा कर मैं रावण के महल में दाखिल हो गया।

भीतर एक विशाल पलंग पर बहुत विशालकाय और कालाकलूटा सा आदमी नशे में बेसुध होकर अपने पलंग पर अस्त-व्यस्त दशा में लेटा था। उसके खुर्राटों से पूरा पलंग हिल रहा था। उसके पास ही एक बहुत सुंदरी स्त्री सो रही थी। वे जरूर ही महारानी मन्दोदरी रही होंगी। उसी महल में हर कमरे में कोई न कोई महिला जरूर थी, लेकिन सब की सब बहुत सुन्दर और सजी-धजी। मुझे पता था कि सीताजी तो यहां सज धज कर नही रहती होंगी सो मेरी तलाश जारी रही।

पूरे महल में ऐसी एक भी स्त्री न थी जिसे मैं सीताजी के रूप में पहचानता।

फिर क्या था! मै तुरंत ही महल के सबसे ऊपरी हिस्से में जा पहुचा। वहाँ से मैंने चारों ओर का जायजा लिया तो पता लगा कि पास की गली में ही एक मकान ऐसा है जो बाकी मकानों से कुछ अलग है। उस मकान के आंगन में दीपक जलाये एक आदमी बैठा था जो पीले रंग के चादर को लपेटे किसी भजन-पूजन में तल्लीन था। मुझे अंदाजा लगा कि यह व्यक्ति जरूर ही विभीषण जी होंगे।

मैं महल की छत से दूसरे महल पर कूदा और कुछ ही देर में गली में मौजूद था।

क्रमशः

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